अपेक्षाएँ

अपेक्षाएँ

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श्रुति की सारी रात रोते-रोते कटी थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि को ये समाचार अपने माता-पिता को कैसे दे। उनका तो सारा विश्वास ही हिल जाएगा। कितना कष्ट होगा उन्हें।

कभी वो अपनी ग़लती निकालती। कभी अपने को समझाती कि उसकी इसमें क्या ग़लती है। किंतु किसी भी तरह वो संतुष्ट नहीं हो पा रही थी। न तो उसमें अपने माता-पिता का सामना करने की हिम्मत हो रही थी न वो उनसे ये बात छुपाना चाहती थी।

उसे बार-बार यही ख़्याल आ रहा था कि अगर उसने इस बारे में उनसे पहले बात कर ली होती तो बात इतनी न बिगड़ती।

फिर सुबह उठने से पहले वो एक निर्णय ले चुकी थी। सुबह चाय पर जब वो अपने माता-पिता के साथ बैठी थी तो दोनों को कहा, "मम्मी-पापा मुझे आप दोनों से कुछ बात करनी है"।

दोनों उसके हाव-भाव और आवाज़ की टोन से कुछ भौचक से हुए। फिर उससे अपनी बात कहने को कहा।

श्रुति ने बात बढ़ाई, "मैं क्लास में फेल हो गई हूँ। मैंने आप लोगों को झूठ बोले थे कि मेरे पेपर अच्छे हो रहे हैं। जबकि मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैंने पूरा साल ऐसे ही निकाला।

पापा, मैंने बहुत कोशिश की कि मैं साइंस को पढ़ सकूं पर मुझे कुछ समझ नहीं आता। ट्यूशन पर भी मेरा ध्यान इधर उधर ही रहता था।

मम्मी, बहुत हिम्मत करके मैं ये बात कह रही हूं। मुझे इंजीनियर नहीं बनना। आई-आई-टी जाने में मेरी रुचि नहीं है। मुझे आर्ट्स पढ़ना है। मैं लेखिका बनना चाहती हूँ"।

मम्मी-पापा ने हैरानी से एक-दूसरे की तरफ़ देखा। शायद देखना चाह रहें हों कि हमारी बेटी एक साल तक इस बात को कैसे जज़्ब किये रही जबकि उन्होंने तो उससे हमेशा एक अच्छा और खुला रिश्ता रखा है।

इधर श्रुति बोलती रही। "मम्मी-पापा आप दोनों ने ही मुझे बताया था कि आप पर पहले गर्भ में लड़के-लड़की के होने का और फिर लड़की यानि मेरा पता लगने पर अबॉर्शन का बहुत दबाव था। पर आपने मुझे जन्म दिया और बहुत अच्छे से पाला।

मैं आपसे उसी उम्मीद से कह रही हूँ, एक इंजीनियर के लिए एक लेखिका की हत्या मत कीजिये। हो सकता है मैं लेखिका बनकर ऐसा लिख सकूँ जिससे हज़ारों-हज़ार बच्चे प्रेरणा पाकर अपने सपनों को साकार कर सकें। प्लीज़"।

मम्मी-पापा ने एक दूसरे की तरफ़ देखा। मम्मी के होठों पर हल्की सी मुस्कान आई और पापा ने श्रुति के सिर पर प्यार से हाथ रख दिया। उन्होंने उसे एक बार फिर अपनों की अपेक्षाओं पर बलि होने से बचा लिया था।


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