तपस्या -1
तपस्या -1
"मम्मा, आप पर यह साड़ी बहुत अच्छी लग रही है। आपके पास गोटा-पट्टी के काम की कोई साड़ी भी नहीं है।" निर्मला की बेटी स्नेहा ने अपनी मम्मी को कहा।
"नहीं बेटा, मुझे नहीं चाहिए। मेरे पास तो वैसे भी बहुत साड़ियां हैं। अभी तो बस तेरे लिए ही साड़ियां लेंगे। वैसे भी बेटी की कमाई खाकर मुझे नरक में नहीं जाना। अपनी सारी तनख्वाह यहीं पर खर्च का देगी क्या ?तेरे पैसे बैंक में ही रहने दे। तेरी शादी के समय तेरे लिए गहने खरीद देंगे। तेरा स्त्री धन होगा। ", निर्मला जी ने हमेशा की तरह बच्चों की ख़ुशी को अपनी ख़्वाहिश से अधिक महत्व देते हुए कहा।
भारतीय नारियाँ पता नहीं किस मिट्टी से गढ़ी जाती हैं कि ,वह अपने अस्तित्व को अपने परिवार और बच्चों क लिए पूरी तरह भुला देती हैं। वह ताउम्र एक बेटी ,पत्नी ,माँ ,बहिन बनते -बनते स्त्री बनना तो भूल ही जाती हैं। स्त्री होना ,मतलब मानवी होना ,मतलब अपने लिए भी जीना ,अपने अस्तित्व का भान होना।
"अरे मम्मी ,तुम्हारी बेटी नौकरी करती है ;वह भी सरकारी। मेरी सैलरी पर मेरा ही अधिकार होगा। स्त्रीधन की क्या जरूरत है ?गहने तो मैं वैसे भी नहीं पहनती। ",निर्मला की बेटी स्नेहा ने समझाते हुए कहा।
निर्मला ने शादी के बाद से ही अपनी पसंद का कभी कुछ नहीं खरीदा था। वाकई में निर्मला तो अब यह भी भूल गयी थी कि उसकी पसंद क्या है और नापसंद क्या है ?वह हमेशा अपने पीहर से मिली हुई साड़ियां ही पहनती थी। वहाँ भी कौनसा उसे उसकी पसंद की साड़ी दिलवाई जाती थी। शादी -ब्याह आदि के अवसरों पर उसकी अम्मा को जो साड़ियां मिलती थी, अम्मा उन्हीं में से निर्मला को दे देती थी।
वो कहते हैं न कि औरतों से उनकी उम्र नहीं पूछनी चाहिए क्यूँकि औरतें अपने लिए नहीं जीती। यह बात शायद निर्मला जैसी नारियों के लिए ही कही गयी है।
निर्मला के पति रमेश तीन बहिनों के भाई थे। कहने को २ छोटे भाई और थे ;लेकिन उनके होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता था। रमेश के ऊपर ही सारे परिवार की जिम्मेदारियां थी। पहले बहिनों की शादियां, फिर उनके बारहों महीनों के त्यौहार, फिर उनके आठवां और जामना।निर्मला जब से शादी होकर आयी थी, तब से ही रमेश को जिम्मेदारियां निभाते हुए देख रही थी। इसलिए निर्मला ने अपनी ख्वाहिशों को दबाना शुरू कर दिया था।निर्मला ने तो सीखा भी यही था कि संस्कारी औरत हमेशा अपने पति का साथ देती है। समझदार औरतें अपनी ख्वाहिशों से ज्यादा परिवार की जिम्मेदारियों को महत्व देती हैं।निर्मला के पति की आमदनी की तंग गलियों से केवल ज़रूरतें ही गुजर पाती थी ,इसीलिए निर्मला गली के नुक्कड़ पर खड़ी ख़्वाहिशों को बस अपनी खिड़की से देखा करती थी।
दो ननदें उसके पति रमेश से बड़ी थी। उनकी शादी भी रमेश से पहले ही हो गयी थी।रमेश की शादी के बाद भी ननदों के यहाँ कुछ न कुछ चलता ही रहता था।जिन बेटों को पारिवारिक संपत्ति प्राप्त होती है ;वो एक बार फिर भी बहिनों के विवाह के बाद उनके यहाँ होने वाल वाले इन सामाजिक व्यवहारों में खर्च करने से इंकार कर देते हैं। लेकिन जिन बेटों को परिवार से कुछ नहीं मिलता ,वह समाज में अपने परिवार की इज़्ज़त बनाये रखने के लिए सामजिक व्यवहारों पर अपने बूते से बाहर जाकर भी खर्च करते हैं। ऐसे ही गृहस्थी की जिम्मेदारियां निभाते -निभाते निर्मला ने अपनी ख्वाहिशों ही नहीं जरूरतों को भी दबाना शुरू कर दिया था।
अब ननदों के बच्चों की शादियां हो गयी थी और निर्मला और रमेश ने ननदों के भात भी बहुत अच्छे से भरे थे। समय के साथ रमेश की जिम्मेदारियां कम हो चली थी। स्नेहा और नेहा दोनों बेटियाँ सेटल हो गयी थी। स्नेहा स्टेट सर्विसेज में चयनित हो गयी थी और नेहा का MBBS हो गया था। नेहा अब PG के लिए तैयारी कर रही थी। सबसे छोटे बेटे ऋषभ को IIT में प्रवेश मिल गया था। देखा जाए तो निर्मला और रमेश का जीवन सफल था।अगर बच्चे लायक हों तो माता -पिता के लिए इससे ज़्यादा ख़ुशी की बात क्या हो सकती है।
निर्मला की बेटी स्नेहा आज घर से यही सोचकर आयी थी कि, "आज चाहे कुछ भी हो जाए। वह मम्मी को उनकी पसंद की अच्छी सी साड़ी दिलाएगी। "
आज साड़ियां देखते हुए निर्मला को हरी गोटे-पत्ती की साड़ी बहुत पसंद आ रही थी। उनकी नज़रें बार -बार उसी साड़ी पर जा रही थी।उनकी बेटी स्नेहा से यह बात छिपी हुई नहीं थी। इसलिए उसने निर्मला को वह साड़ी लेने के लिए कहा।
"मम्मी ले लो। आप क्यों अपनी हर ख़्वाहिश को दबाती हो। सारी उम्र परिवार और बच्चों के लिए जीती रही हो। आज अपने लिए एक थोड़ी सी महँगी साड़ी ले लोगी तो कोई पाप नहीं कर दोगी। अगर ऋषभ दिलाने आता तो ले लेती न। सारी ज़िन्दगी कहती आयी हो कि बेटे और बेटी में कोई फर्क नहीं। फिर आज बेटी की कमाई से साड़ी क्यों नहीं ले रही हो ?", स्नेहा ने झूठी नाराज़गी जताते हुए कहा।
"हाँ मम्मा ,दीदी सही तो कह रही है। ",नेहा ने भी स्नेहा की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा।
"बहुत ही ज़िद्दी हो गयी है" यह कहते हुए निर्मला जी ने वह हरी गोटे-पट्टी की साड़ी ले ली थी। अब निर्मला को अपनी वर्षों की तपस्या का फल मिलने लगा था।
घर पर आने के बाद निर्मला ने डिनर बनाया। आज डिनर बनाते हुए भी निर्मला के जेहन बार -बार अपनी नयी खरीदी साड़ी का ही ख़्याल आ रहा था। साड़ी के साथ कैसा ब्लाउज चलेगा ? कौनसी ज्वेलरी पहनेगी ?कहीं ज्यादा पैसा तो खर्च नहीं हो गया ?साड़ी उस पर अच्छी तो लगेगी ? ऐसे ही हज़ारों विचार उसकी मन क किनारों से टकराकर आ-जा रह थे। बच्चों को डिनर कराने के बाद निर्मला अपने कमरे में चली गयी थी। उसने अलमारी से हरी गोटे -पत्ती की साड़ी निकाली। "यह साड़ी सोनू निगम के म्यूजिक शो में पहनूँगी। स्नेहा ने पासेज तो अरेंज करवा ही दिए हैं। ",निर्मला ने अपने आप से कहा।