तीन श्रेणियां अध्यात्म की
तीन श्रेणियां अध्यात्म की
अध्यात्म में मुख्यत: तीन गुणात्मक श्रेणियां हैं कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग। कर्म, ज्ञान और भक्ति। ये तीनों ही श्रेणियां किसी परसेंटेज में सब में एकसाथ होती हैं। ये तीनों गुण परस्पर सहयोगी भी होती हैं। लेकिन हर आत्मा के जीवन में इन तीनों में से कोई एक श्रेणी प्रमुख होती है। इन तीन श्रेणियों में भी अनेक भिन्न भिन्न श्रेणियां होती हैं। उन श्रेणियों में भी नंबरवार होती हैं। इन श्रेणियों में नमबर्वार होने के आधार पर ही सबका पार्ट अलग अलग हो जाता है। योग तो एक ऐसा विषय है जो इन तीनों में समाविष्ट रहता है। हर आत्मा की स्वयं की प्रमुख श्रेणी कौन सी है? स्वयं की ऐसी समझ/परख के अनुसार ही अपने पुरुषार्थ में तत्पर रहना चाहिए। कर्मक्षेत्र में कर्म के श्रेष्ठ होने का यही सार सूत्र है।
जिन आत्माओं के स्वभाव में कर्मयोग की प्रमुखता होगी वे आत्माएं स्थूल कर्म करने के रास्ते से आगे बढ़ेंगी। उनका वैसा पार्ट (अभिनय) होगा। जिन आत्माओं के स्वभाव में ज्ञानयोग की प्रमुखता होगी वे आत्माएं ज्ञान के कर्म के रास्ते से आगे बढ़ेंगी। उनका वैसा पार्ट (अभिनय) होगा। जिन आत्माओं में भक्तियोग की प्रमुखता होगी वे आत्माएं भावप्रधान होकर आगे बढ़ेंगी। उनका वैसा पार्ट (अभिनय) होगा। भक्तियोग की श्रेणी कहने का भावार्थ है कि जिन आत्माओं में ज्ञान की पराकाष्ठा की समझ नहीं होती और उनकी स्थूल कर्म करने की भी कोई योग्यता या रुचि नहीं होती है। वे केवल अपने भाव में प्रमुख होती है। इसलिए वे जो भी जैसा भी कुछ करती हैं उसमें अपनी भाव की योग्यता का ज्यादा उपयोग करती हैं। यह स्पष्ट है कि इन तीनों श्रेणियों के मूल में सबके स्वभाव में कर्म तो जरूर होगा। लेकिन सबकी कर्म करने की पृष्ठभूमि अलग अलग होगी। कर्म एक प्रकार के होते हुए भी अलग अलग प्रकार के होंगे। यूं कहें कि कर्म अलग अलग होते हुए भी उनकी आखिरी स्थिति एक ही होगी। एक चौथे प्रकार की स्थिति भी होती है। जिन आत्माओं में तीनों श्रेणियों ( स्थितियों) में से किसी एक की भी प्रमुखता नहीं होती है। उन आत्माओं में उनके कर्म क्षेत्र में उनका इन तीनों श्रेणियों का घुलामिला रूप होगा।
इन तीनों प्रकार की प्रमुख श्रेणियों (स्थितियों) की आत्माएं अलग अलग प्रकार के मानसिक ढांचे में ढलते हुए अलग अलग रास्ते से अपने कर्म में आगे बढ़ती जाती हैं। इसलिए कभी कभी ऊपर ऊपर से देखने पर इन आत्माओं में विरोधाभास भी अनुभव होगा। लेकिन वास्तव में वह विरोधाभास होता नहीं है। क्योंकि इनका एक ही लक्ष्य होता है। ये एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं। ये सभी श्रेणियां आत्मा के विकास की प्रक्रिया में वर्तुलाकार चलती हुई एक ही जगह पहुंच जाती हैं। तीनों की समझ और काम करने के तरीके में कहीं कोई असमानता भी हो सकती है। इन तीनों के ज्ञान को समझने में कहीं कोई असमानता भी हो सकती है। इन तीनों श्रेणियों की आत्माओं के भाव और भावनाओं में कहीं कोई असमानता भी हो सकती है।
लेकिन इन सभी प्रकार की असमानता के परोक्ष में एक बहुत गहरी समानता छुपी हुई होती है। वह समानता आत्मा के बहुत गहरे में आध्यात्मिक होती है। अध्यात्म विज्ञान और मनोविज्ञान की गहरी प्रज्ञा की बात यह है कि ये तीनों ही श्रेणियों की आत्माएं मूलतः एक ही केन्द्र की ओर अग्रसर होती हैं। क्योंकि इन तीनों के आधार में योग की भूमिका होती है। इन तीनों के साथ योग का समावेश होता है। जिन आत्माओं को यह समझ होगी वे आत्माएं तीनों श्रेणियों में असमानताएं होते हुए भी, बिना किसी शिकायत, बिना किसी निंदा स्तुति के अपने निज रास्ते पर आगे बढ़ती रहेगी। जिन आत्माओं में ऐसी व्यावहारिक और मनोवैज्ञानिक समझ की कमी होती है उनकी स्थिति के बारे में कुछ भी कहना कठिन है। तात्पर्य यह है कि ऐसी आध्यात्मिक प्रज्ञा को समझ कर अपने अपने पार्ट को समझते हुए आगे बढ़ते और बढ़ाते चलिए। ज्ञान का यही व्यावहारिक स्वरूप है।
