MANISHA JHA

Tragedy

3.6  

MANISHA JHA

Tragedy

स्वार्थ

स्वार्थ

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"माँ, मेरा ट्रांसफर देहरादून हो गया है, मैं दोनों बच्चों को अकेले कैसे संभालूगी, आप आ जाओ " सृष्टि ने माँ से फ़ोन पर कहा माँ ने कहा - बाबूजी से पूछ कर कल तक कुछ बताउंगी अपनी माँ से बहुत उम्मीद होती है बेटियों के और थोड़ा आराम भी रहता है सासु माँ चाहे कितनी भी अच्छी हो, बहु खुल कर अपनी पीड़ा नही बता पाती हैं, ये हमेशा से होता आया है अगली सुबह बाबूजी का फ़ोन आया, माँ का टिकट करा दो, माँ आ जाएँगी, तुम अकेले नौकरी और बच्चों को कैसे देख पाओगी सृष्टि की आँखों में खुशी के आँसू आ गए सोचा "मायके वाले कभी निराश नही करते " प्रभु ऐसा मायका सभी को नसीब करे।

पर अचानक........दस दिन बाद माँ का फ़ोन आया,

" सृष्टि मेरा टिकट कैंसिल करवा दो, मैं नही आ पाउँगी, तुम्हारी भाभी, माँ बनने वाली है, तुम्हारा भैया अपने पास बुला रहा है, कल रात की भोपाल की टिकट है, तुम अपनी सास को क्यों नही बुला लेती। "

अब फिर सृष्टि के आँसू बहने लगे, इस बार अनंत कष्ट से भीगे हुए, लहूलुहान ह्रदय से निकल रहे थे रात भर तकिया भिगोती रही ये वेदना किससे जाहिर करे, पति और बच्चों को क्या बताए -"मुझे तो अपनों ने लूटा गैरों में कहाँ दम था "सर दर्द की गोली खाकर सो गई। एक औरत असह्या पीड़ा की सलोनी मूर्ति होती है, जो बाहर से खुशी पड़ोसती है और अंदर उसी खुशी की नितांत भूखी होती है।


दिन बीतते गए, एक साल गुजर गए, भाभी का बेटा बड़ा हो गया इधर ना माँ को फुर्सत मिली ना ही सृष्टि को, हाँ.. फोन पर रोज बात होती थी।

एक दिन भैया का फ़ोन आया, " माँ का पैर टूट गया है, प्लास्टर चढ़ा है आज, दोनों बहन में से किसी को यहाँ आना पड़ेगा शाम तक टिकट करा कर भोपाल पहुंचो यहाँ हमारा बच्चा छोटा है, तुम्हारी भाभी तो नही कर पाएगी, मेरी भी नौकरी है " सृष्टि ने बड़ी बहन सिद्धि को फ़ोन पर सब बताया - " दीदी मुझे तो इतनी जल्दी छुट्टी नही मिलेगी, तुम जा पाओगी क्या। "

दीदी के भी घर पर कोई नही था, जिस पर छोड़ कर जाए लेकिन बच्चे कॉलेज वाले थे इसीलिए बच्चों को समझा कर, जीजाजी से इजाजत लेकर,कल की फ्लाइट से भोपाल पहुँच गई। पूरे एक महीने दिल से और श्रद्धा से माँ की सेवा की तीर्थ दर्शन के इतना पुण्य और आशीर्वाद कमाया, परिणामतः माँ एकदम ठीक हो गई सृष्टि भी दो दिन की छुट्टी में माँ को मिलने गई।

बस एक बात सृष्टि को खटक रही थी, एक बेटा और बहु इतना स्वार्थी कैसे हो सकता है, जब माँ की जरूरत है, माँ सिर्फ मेरी है और जब माँ को जरूरत है, माँ तुम्हारी भी तो है इस स्वार्थी दुनिया के इतने रंग सृष्टि को अपने घर में ही मिल जाएंगे, कभी सोचा ना था। और अभी भी समाज में लोगों की आँखों पर पुत्र मोह की रंगीन पट्टी बंधी है, जिसके आगे कोई भी दलील वो सुनने को तैयार नही भला हो नई पीढ़ी के सुनहरे सोच और संस्कार का जो निज स्वार्थ से ऊपर उठकर सोचना नही चाहती है।


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