सुकून और ज़िन्दगी

सुकून और ज़िन्दगी

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"कहाँ गए तुम ?" अरे निकलो भी बाहर !

थक गयी हूँ तुम्हे पुकार पुकार कर।

अब नहीं खेल रहे हम, शाम हो गयी, चाचा के दफ़्तर की गाड़ी आती होगी। आओ बाहर फ़टाफ़ट।"

और मुझे ये भी पता है कि तुम पियोगे बॉर्न वीटा मिल्क, खाओगे बर्बन बिस्किट्स और फिर अच्छे बच्चे की तरह चाची से साइंस पढ़ोगे।

और पीछे से ज़ोर से कान में आयी 'थप्पा' की आवाज़ मुझे चौंका देती है।

ये प्यारा सा बच्चा है कार्तिक, मेरे पड़ौस में रहता है, मेरे पति कृषि विभाग में बड़े पद पर हैं, उन्ही के ऑफिस के एक क्लर्क का बेटा है, मुझसे काफ़ी घुलमिल गया है।

स्कुल से आने के बाद, खाना खा कर सीधा मेरे घर आ जाता है। मैं इसे और कॉलोनी के १० और बच्चों का ट्यूशन लेती हूँ। ट्यूशन के बाद कार्तिक को छोड़कर बाकी सब अपने-अपने घर चले जाते हैं । कार्तिक दूसरी कक्षा में पढ़ता है औऱ उससे मेरा विशेष स्नेह है। बहोत मेधावी है वो, अपनी उम्र के विद्यार्थीओं से काफी तेज़। पहली बार जब वो मेरे घर पढ़ने आया था, उसके प्रश्न, चीज़ों को जानने की उत्सुकता और उत्तर याद करने की गति से मैं बहोत प्रभावित हुई। कुछ ही दिनों में मैं उसकी सबसे प्यारी टीचर बन गयी थी और अब कुछ दिनों से वो मुझे चाची पुकारने लगा है।

मैं खुश हूँ, और उसकी माँ भी।

हमारे एक-दूसरे के घरों में आना-जाना बढने से कार्तिक की माँ, श्रीमति विभा चंद्रा की अपनी सहेलियों और जान-पहचान वालों में काफ़ी साख़ बन गयी है।

मैं विभा की यह ख़ुशी उसके मंद-मंद मुस्काने से भांप रही थी जब कॉलोनी की ही एक महिला किट्टू (कार्तिक) की माँ को मेरे क्वार्टर के गेट पर आते वक्त कहने लगी "अरे विभा, कहाँ हैं आप ? नज़र ही नहीं आती आजकल? हाँ, अब तो बड़े अफ़सर की मैडम से गहरी दोस्ती है, बहुत आना जाना है, कभी-कभी तो देखती हूँ किट्टू को स्कुल से कर भी ले आया करती है उनकी कार !"

विभा ने इतराकर जवाब दिया "हाँ, मैडम का बड़ा लगाव है इससे, इतने बड़े बंगले में अकेली रह कर बोर हो जाती होंगी वो भी, किट्टू से दिल लगा रहता है ।"

मैं एक ३५ वर्षीय महिला हूँ, पूर्व में दिल्ली के एक कॉलेज में बॉटनी की प्राध्यापक थी, पर इनका पिछले वर्ष जोधपुर तबादला हुआ था, तो एक साल से यहीं हूँ, दोबारा काम करने का मन नहीं किया तो कॉलेज ज्वाइन नहीं किया।

बच्चों से बहोत स्नेह है मुझे। सोचा समय निकलने के लिए बागवानी करुँगी और कॉलोनी के छोटे बच्चों को पढ़ाऊंगी।

शाम ७ बजे तक पति आ जाते हैं, उनके साथ चाय पर गपशप होती है, इनके ऑफिस की कुछ बातें और रसोइये को शाम के खाने के निर्देश देते-देते ९ बज जाती है।

भोजन के बाद अपने ही आँगन में टहला करते हैं और रात ढलने पर सोने के समय का इंतज़ार।

सुकून से कट रही है ज़िन्दगी।

पर इंसान के सुकून की परिभाषा क्षण-क्षण में बदलती है।

मैं इस क्षण दुखी हूँ, अजीब सी घुटन महसूस कर रही हूँ, सर में भारीपन है।

मेरे पति, समाज और स्वयं की नज़रों में मैं एक सुलझी हुई औरत हूँ। एक सुन्दर, समझदार और बुद्धिमान ऊँचे तबके की सामाजिक महिला, जिसकी जीवनशैली अपनाने की कल्पना कोई भी औरत करना चाहेगी।

परंतु मेरी ये बार-बार प्रकट होने वाली उलझन को खुद ही वहन करना नहीं बन पड़ रहा आज।

शायद आज मुझे अपने अंदर की सामान्य, धीरहीन नारी को उभारकर बात करने की ज़रूरत है।

मुझे बात करनी है इनसे। जो भी शब्द मेरे दिमाग में पहले उठें, जैसे भी, कच्चे-पक्के, तर्कहीन, उन्हें जस का तस अपने हाव भावों में उभारकर, मुझे बात करनी है ।

कब से कचोट रही इस घुटन को मैंने एक लंबी सांस के साथ दबाकर कुछ कहा "किट्टू की माँ से बात करूँ" ?

"किस बारे मैं ?" इन्होंने करवट बदलकर मेरे मुख को देखकर पूछा ।

"तीन बच्चे हैं विभा के, पता है आपको ? और फिर पेट से है , उसके पति की नौकरी के हिसाब से आज की महँगाई देखकर चार बच्चे पालना कितना मुश्किल है, है ना ?"

"हाँ, है तो सही,पर सबका अपना-अपना नज़रिया है, हमें जो अजीब लग रहा है, शायद उनके लिए सामान्य होगा" इन्होंने शरारती मुस्कान के साथ कहा ।

हाँ, शायद, पर इतने हमउम्र बच्चों का ध्यान कैसे रख पाएगी वो ? मैंने रुआंसे स्वर में कहा !

तो, तुम क्या कहना चाहती हो बस ये बताओ ?

"मैं विभा से किट्टू गोद लेना चाहती हूँ । उससे बात करूँ ?"

ये कुछ नहीं बोले ।

मेरे पति मुझसे प्रेम करते थे और हमारे संतानहीन होने को कभी कोई बड़ा मसला बनाकर बात नहीं की उन्होंने, परंतु मेरे ख़ालीपन से भलीभांति वाकिफ़ थे।

"पूछूँ ?"

मेरी हम-उम्र है, बहुत इज़्ज़त करती है मेरी। सच कहूं तो अब तो अच्छी सहेली हो गई है मेरी । उस दिन खुद ही उसने अपने पेट से होने की बात बताई और कहा इस महंगाई में कैसे पालन-पोषण होगा ? कह रही थी कि कैसे इस ज़माने में भी वो परिवार नियोजन से चूक गयी। अपनी भूल पर शर्मिंदा भी हो रही थी और विचलित भी । "पूछ लूँ उससे ?"

'पूछ लो अगर तुम्हे ठीक लगे तो' इन्होंने बे मन से कह दिया।

मैं इतनी खुश थी कि सारी रात बस करवटें बदलते और विभा से बात करने के लिए उचित वाक्य बनाने में गुज़र गयी।

किसी सुबह का इतनी बेसब्री से इंतज़ार मैने शायद ही कभी किया होगा।

सुबह और दोपहर जैसे तैसे कट गयी, कार्तिक के स्कुल से आने का वक्त हो गया था । मैं उसके क्रियाकलापों की कल्पना करने लगी, "अभी खाना खा रहा होगा, फिर दोपहर की नींद लेगा, फिर कुछ ही देर में यहाँ पढ़ने आयेगा"

मैं मन शांत करने के लिए संगीत सुनने लगी। दोपहर के ४ बज चुके हैं, एक एक करके बच्चे ट्यूशन के लिये आने लगे, किट्टू भी आया।

प्यारा सा किट्टू, अपना छोटा बस्ता लटकाकर, मम्मी की ऊँगली पकड़कर मेरी तरफ बढ़ चला। फिर भागकर मेरी बाँहों में आया और मैंने अपनी सारी ममता उसपर उड़ेल दी।

मैंने जाती हुई विभा को रोककर कहा कि मुझे उससे कुछ बात करनी है।

उसने मेरी ओर कौतूहल से देखा और पूछा, "क्या बात है ?"

मैंने सारा साहस और आत्मविश्वास जुटा कर टूटे फूटे शब्दों में सबकुछ कह दिया।

उसकी प्रतिक्रिया लफ़्ज़ों में कुछ यूँ फूटी" ओह, नहीं। मुझे बहुत प्यार है अपने बच्चों से, ये मैं नहीं कर पाऊँगी।'

'वैसे मेरे इनसे भी बात की है मैने गांव की ज़मीन बेचने को लेकर, वहाँ बड़ा घर है न हमारा, खेत हैं अपने, बच्चो की परवरिश के लिए पर्याप्त पूँजी है हमारे पास।'

'और किट्टू तो आपका ही है, जब चाहे खिला लीजियेगा, आता रहेगा वो।'

मैंने अगले ही पल अपनी भावनाएं सँभाल कर उससे क्षमा मांगी और कहा 'कोई बात नहीं, मैने तो कुछ ज़्यादा ही दूर की सोच ली !'

फिर अपने छलछलाते अश्रुओं को तुरंत ही छुपाने के लिए खिलखिलाकर हंसने के सिवाय मुझे और कोई यत्न न सुझा।

विभा भी एक भारी, बेजान सी हंसी हंसकर दरवाज़े की तरफ़ बढ़ चली।

आज इस बात को ५ दिन हो गए हैं, किट्टू अब घर नहीं आता, विभा ज़्यादा बात नहीं करती, सिर्फ दूर से मुस्कुरा देती है, उसे अब अपने पति की कम आय से कोई शिक़ायत नहीं और मेरी दोस्त होने का कोई घमंड नहीं।

सुकून से कट रही है ज़िन्दगी।


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