Shikha Gupta

Abstract

1.0  

Shikha Gupta

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सुख

सुख

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आज जैसे ही घर से ऑफिस के लिए निकली और बस स्टाप पर पहुँची ही थी कि बस स्टॉप पर शशांक को देखकर मैं अचंभित हो गई यादों ने करवट लेनी शुरू कर दी।

मैं अक्सर अपने ननिहाल जाया करती थी और उस दिन अचानक ही नाना के साथ किसी को देखा।

नानी से पूछा, ‘‘यह कौन है?’’

नानी जी ने बताया ‘दामोदर तुम्हारे पापा के दोस्त है।’

मेरे पिता गिरिराज दास प्राइवेट कंपनी में काम करते थे। एक दिन अचानक उनकी मुलाकात अपने स्कूल के दिनों के साथी दामोदर सिंह से हो गई। वह अपने बचपन के साथी से मिलकर बहुत खुश थे। दामोदर सिंह का अच्छा खासा बिजनेस था और वह अपने इकलौते बेटे शशांक के लिए सुशील लड़की की तलाश में थे। शंशाक कही ओर शादी करना चाहता था लेकिन पिता की ज़िद और करोड़ों की संपत्ति के लोभ के कारण शायद वह लाचार था। दामोदर सिंह एक दिन गिरिराज दास के घर आए और जिया को देखकर बहुत खुश हुए। वे सुंदर व शालीन लड़की थी, इसलिए उन्होंने अपने दोस्त गिरिराज दास से जिया और शशांक की शादी के बारे में बात की। पापा को पहले तो जिया के भाग्य पर विश्वास नहीं हुआ। फिर उन्हें यह लगा, दिल्ली जैसे शहर में रहने वाला मॉर्डन ख्यालों वाला लड़का क्या वह छोटे से शहर रहने वाली जिया को पसंद करेगा और इस शादी के लिए राजी होगा। लेकिन दामोदर सिंह की ज़िद के आगे गिरिराज दास की एक न चली। हर पिता की तरह वह भी बेटी के सुनहरे भविष्य की कल्पना करते। इस तरह शशांक और जिया की शादी हो गई।

शशांक अपनी शादी से खुश तो नहीं पर पिता की संपति के लालच में उसने जिया से शादी कर ली पर भीतर-ही-भीतर वह अपने लिए एक मॉर्डन लड़की की कल्पना करता रहता और इधर-उधर भड़कता रहता। वह जिया से दूर-दूर रहता उससे सीधे मुंह बात तक नहीं करता। लेकिन जिया एक हिंदुस्तानी लड़की की तरह शंशाक को पति मेरा देवता की कल्पना में रहती।

‘जिया शंशाक के इस तरह के व्यवहार से सोचने लगी शायद यह किसी और को पसंद करते है। मुझे नहीं क्या मैं इनके प्यार के काबिल नहीं? मुझे खुद को इनकी पंसद के मुताबिक ढालना ही होगा।’

जिया ने पति के हिसाब से खुद बदलना शुरु कर दिया। काफी कम समय में जिया ने आधुनिक रहन-सहन अपना लिया। फिर भी शशांक उससे सीधे मुँह बात नहीं करता था।

जिया बहुत दुखी हो शशांक से पूछे कितनी चोट पहुंची है मुझे अपने ही दर्द में चीख सी उठी। ''एक दिन वह शंशाक से पूछ ही बैठीं क्या कमी है...बताइए तो? आप जैसा चाहते हैं, मैं वैसा खुद को बनने की कोशिश करूँगी।’

शशांक कैसे कहे उससे कि वह उसे पसंद नहीं उसने तो पिता की खुशी और करोड़ों की संपति के लालच में उससे शादी की है। वह तो एक खुले विचारों वाली मॉर्डन लड़की से शादी करना चाहता था।

शादी से पहले शंशाक ने अपने दोस्तों से लेट नाइट के बारे में सुना था कि वह उन पार्टियों में कई ऐसे कार्यक्रम होते हैं, जिनसे ज़िंदगी में नयापन आता है। जिसमें पार्टी केवल विवाहित लोग ही शामिल होते है। लेकिन उसकी शादी एक गांव की सीधी-सादी, शर्मिली-संकोची लड़की से होने के बाद वह कभी इस पार्टी में शामिल नहीं हो पाएगा। शादी के कुछ महीने बाद काफी सोच-विचार कर अंततः उसने फै़सला लिया कि जिया को उस पार्टी में ले जाएगा, जहाँ ये कार्यक्रम होता है। फिर नतीजा चाहे जो भी हो। देखा जाएगा?

एक शाम शशांक ने जिया को पार्टी में चलने को कहा।

जिया की खुशी की ठिकाना ही नहीं आज पहली बार उसके पति ने अपने साथ पार्टी में चलने को कहा।

शशांक उसके लिए एक मॉर्डन ड्रेस लेकर आया और तैयार होने का। जिया ने पहले कभी ऐसी ड्रेस पहनी नहीं थी लेकिन शंशाक की खुशी के लिए तैयार हो गई।

जिया ने पहली बार ऐसी पार्टी देखी थी। जिया को सब कुछ बड़ा अजीब-सा लग रहा था, वह डरने लगी पर क्या करे? शशांक ने उसे भी जाम लेने को कहा, पर उसने मना कर दिया। शशांक दूसरी औरतों की तरफ बढ़ गया। जिया देख रही थी कि वहाँ उपस्थित पुरुष दूसरी स्त्रियों में ज़्यादा दिलचस्पी ले रहे थे और स्त्रियाँ भी दूसरे पुरुषों में। तभी अचानक शशांक जिया के फुसफुसाते शब्द कान में पड़े ''कहां खो गई हो।’

''देखो अब इस कार्यक्रम का असली खेल शुरू होने वाला है।''

जिया ने कहा- कौन-सा।

शंशाक तुम देखती जाओ।

क्यों?-जिया ने पूछा। यह खेल है और इस खेल की हिस्सा हर किसी को बनना पड़ता है।

इसमें एक पुरुष आकर पर्ची में लिखे हुए नाम की स्त्री को उस पुरुष के साथ रात भर रहना होता है। जिया ने जैसे ही यह सुना उसके तो पैरों की ज़मीन खिसक गई। वह सोचने लगी अपने पूरे अस्तित्व को शंशाक को समर्पित करके भी वह उसे खुश नहीं कर पाई। मेरे अस्तित्व पर ऐसी गहरी चोट! मेरे पूरे नारीत्व पर ऐसा घोर अनाचार।

‘‘क्या करूं? कैसे अपने दांपत्य जीवन को बचाऊँ? क्या मैं शशांक की बात मान लूँ? आखिर उसी के साथ तो जीवन गुज़ारना है मुझे। क्या एक पुरुष या एक पति इस पीड़ा का स्वरूप समझ सकता है?

''क्या हम पशु हो गए हैं, जहाँ स्त्री बस मादा है और पुरुष सिर्फ नर। कैसे कोई बिना मन से जुड़े किसी के साथ देह बाँट सकता है? कैसे हम उसे सुबह होते ही भूल सकते हैं, जिसके साथ रात गुज़ारी हो? मैंने कहीं पढ़ा था कि हर स्पर्श आत्मा की किताब में दर्ज हो जाता है और इंसान उसे जीते जी नहीं भूल सकता है। क्या भावनाओं का कोई महत्व नहीं? हम कहाँ जा रहे है? शशांक को वह कैसे समझाए? कैसे कहे कि आपत्ति की आग में जितना घी डालो, वह उतनी ही तेज़ भभकती है। इच्छाओं का कही कोई अंत नहीं! क्यों पुरुष अलग-अलग स्त्रियों का सुख भोगना चाहता है? क्या सभी स्त्रियाँ देह के स्तर पर एक-सी नहीं होती? अलग-सा सुख बस दिमाग का फितूर है। उसका यह भ्रम तोड़ना होगा। वह भूल गया है कि सुख देह में नहीं, मन में होता है। मज़ा बदलाव में नहीं, अपनेपन की भावना में है।’

इन्हीं उधेड़बुन के बीच जिया अपनी इस नई ज़िंदगी के बारे में सोचने लगी, जिसे लेकर कुछ दिन पहले तक उसके पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ रहे थे और वह बिना पंख लगाई आसमान में उड़ती थी। लेकिन जब हकीकत से सामना हुआ तो घृणा होती है ऐसे माहौल से। पर यह सब शशांक की खुशी के कारण करना ही पड़ेगा। अपने प्रति एक उदासीन भाव भी पैदा हो गया था। ठीक है जो होगा देखा जायेगा।

जिया ने उसके सामने आखिर हथियार डाल दिए थे। औरत-मर्द के खिलाफ कैसे जा सकती है? शशांक अपनी जीत पर मुस्कराया। अचानक उसने शशांक की ओर देखा। वह अपना साथी चुन कर उसकी कमर में हाथ डाले अपने कमरे में जा चुका था। जिया को भी नए पार्टनर के साथ जाना था। उसकी आँखें जैसे कुछ नहीं देख रही थीं। ऐसा लग रहा था जैसे वह सपना देख रही हो या फिर नींद में चल रही हो। पहली बार शराब की हल्की चुस्की ली थी उसने। नशा चढ़ रहा था। किसी बहुत मखमली अंदाज़ से उसे अपनी बांहों में बांधा मानों बहुत एहतियात से कोई ज़मीन पर गिरे मक्खन को बटोर रहा हो। क्या हो रहा है जिया ने सोचना चाहा? किंतु दिमाग ने कुछ भी सोचने से इंकार कर दिया। फिर उसने महसूस किया, अचानक एक दहशत की लहर सी उसके भीतर से गुज़र गई। एक अजीब सा डर हावी होने लगा। क्यों ऐसा लग रहा है कि मेरे लिए भी सिर्फ सुख नहीं है इस रात में कुछ और भी है। कुछ अनिष्ट? कुछ अनजान सा? कोई उसे प्यार से स्पर्श कर रहा है। पर यह क्या? यह स्पर्श तो उसकी आत्मा को छू रहा है! यह कैसा स्पर्श है जो उसके रोम-रोम को जगा रहा है! एक अलौकिक सुख! कौन है यह शख्स! यह उसका पति शशांक नहीं, उसका प्रेमी भी नहीं, फिर भी उसे आनंद मिल रहा है। यह पाप है? शशांक के साथ तो उसे कभी ऐसा नहीं लगा। उसका प्यार, उसका शरीर, उसकी छुअन, उसकी गंध, तो कभी इस तरह उसकी आत्मा तक नहीं पहुँच सकी थी। फिर यह कैसे? सिर्फ रात भर का साथी! कल सुबह के साथ इस सुख का साथ भी छूट जाएगा। काश! इस रात की सुबह नहीं हो! काश! यह साथी उसकी हर रात का साथी हो...। काश!... जिया के भीतर की स्त्री... जाने कब की सोई अनजान स्त्री... प्रार्थना करती रही... और सुबह हो गई। सभी जोड़े हाल में एकत्र हो गए। अपने-अपने जीवन साथी के साथ। शंशाक बहुत खुश नज़र आ रहा था पर जिया शशांक से आँखें नहीं मिला पा रही थी। उसे अपने औरत होने का कष्ट और पश्चाताप होने लगा कैसी प्रीत है शंशाक की? क्या टूट जाएगी कच्चे धागे सी? वह यही सोचते-सोचते जैसे ही वह शशांक के साथ कार की ओर बढ़ी, एक जानी-पहचानी खुशबू जिया को अपने करीब आती महसूस हुई। किसी ने जिया का हाथ थामा और उसे चूमते हुए कहा- थैंक्यू, यह रात मैं ज़िंदगी भर नहीं भूल पाऊँगा। उस सुख को, जो आपसे पहली बार मिला।

वह यह कह कर अपनी गाड़ी की ओर बढ़ गया, जिया को वह चेहरा याद रहा न उसका पहनावा याद रहा। याद रही तो उसकी खुशबू जो उसे अपनी-सी लग रही थी। इतनी अपनी जैसे सदियों से वो इसी खुशबू की तलाश में भटक रही हो। खुशबू का वो झोंका एक गाड़ी की तरफ बढ़ गया। जिया ने घबरा कर शशांक की ओर देखा। जाने क्यों उसका चेहरा लाल हो रहा था! रास्ते भर शशांक अनमना रहा। क्या इसलिए कि जिया ने उस अनजबी के साथ रात गुज़ारी थी? मगर शशांक ने भी तो दूसरी स्त्री के साथ रात गुज़ारी थी। फिर यह उसी की ज़िद थी।

लेकिन फिर भी यह बात शशांक को चुभ रही थी?

''क्या बात है?'' जिया ने पूछा।

''तुमने उसके साथ ऐसा क्या किया कि वह कह रह था कि तुम्हें भूल नहीं पाएगा?

''क्या कह रहे हैं आप? मैंने कुछ नहीं किया। आपने जो चाहा वह हुआ।'' जिया ने नाराज़गी जताई।

''अच्छा, मेरे साथ तो मुर्दे की तरह पड़ी रहती है और उस साले को ऐसे खुश किया कि कह रहा था तुझे कभी भूल नहीं पाएगा।'' मारे गुस्से के शशांक काँपने लगा था।

''बंद करिए यह सब!'' जिया चिल्लाई।

''अच्छा। चिल्लाती है!'' कहते हुए शशांक ने जिया के गाल पर चाँटा मार दिया। जिया लड़खड़ा गई।

शशांक ने जैसे ही दुबारा हाथ उठाया, तो जिया ने उसका हाथ पकड़ लिया और चिल्ला कर बोली,

''खबरदार शशांक।’’

शशांक हतप्रभ था। पर उसका पुरुष हार मानने को तैयार नहीं था। वह जिया के कपड़े उतारने की कोशिश करने लगा। जिया जम कर विरोध करती रही। उसे लगता है किसी के प्रेमिल स्पर्श से पवित्र हुई, तृप्ति के पुनीत भाव में सराबोर उसकी देह पर अब कोई अजनबी आक्रमण कर रहा है और उसने पूरा ज़ोर लगा कर अपना बचाव किया। शशांक हतप्रभ रह गया। अपमान से तिलमिला उठा।

''मैं तुम्हें छोड़ दूँगा। जो दूसरे मर्दों को सुख देती फिरती हो।''

''ठीक है...जैसा आप उचित समझें। मैं आपका घर छोड़ने को तैयार हूँ। जाने से पहले मैं एक सच आपको बता देना चाहती हूँ। मैंने उस पराए पुरुष को सुख दिया हो या न दिया हो, उसने मुझे वह सुख दिया है, जो आप कभी नहीं दे पाए। दे भी कैसे पाते? अपना पौरुष खो बैठे हैं। वह तो मेरे संस्कार थे कि मैं आपकी कमज़ोरी को सहलाती रही कि आपका अहं आहत न हो। स्त्री की इसी शालीनता का लाभ आप पुरुष उठाते हैं, वरना स्त्रियाँ सच बोलने लगे तो आप जैसे मर्द मुँह छिपाते फिरें। मगर मैं आपको माफ करती हूँ क्योंकि आपके ही कारण मैंने स्त्री होने का मतलब जाना, भले ही एक रात के लिए। आप ज़िद न करते तो शायद मैं जीवन भर उस सुख से वंचित रहती। अब मैं आपके साथ एक पल भी नहीं रह सकती।''

शशांक भौंचक्का-सा जिया को देखता रहा। वह तो सपने में भी नहीं सोच सकता था कि इस औरत के भीतर इतनी आग है। जिया सोच रही थी कि क्या सच्चे पुरुष का कुछ घंटों का साथ भी स्त्री को इतने आत्म-विश्वास से भर देता है? कहाँ छिपी थी उसके भीतर की यह शक्ति?

''आपने तो मुझे पराए पुरुष के पास भेज दिया था। कल फिर किसी के पास भेजेंगे। ऐसे व्यक्ति के साथ मैं नहीं रह सकती। जिया आगे बढ़ी ''अब मेरी यह देह आपके स्पर्श को सह नहीं पाएगी।'' नाता तोड़ती हूँ उन विश्वासों से उन ऊलजुलूल मान्यताओं से जो आज भी दमन करते हैं औरत का। जो एक छोटी सी चूक होने पर उम्र भर सजा देते रहते हैं। क्योंकि खुद को बदल पाना हर इंसान के लिए बहुत मुश्किल है और नाता तोड़ती हूँ उस चुप्पी से से जो औरत को अपने पर होने वाले अनाचार को ज़बान नहीं देने देती।

अब मुझे अपनी देह मुझे अपनी लगने लगी थी। अब कोई शशांक उसे किसी को सौंप नहीं सकता था।

शशांक पराजित-सा रास्ते से हट गया। जिया उस बंगले से बाहर निकल गई, शादी के बाद दुल्हन बन कर जहाँ प्रवेश करते हुए कभी उसने खुद को भाग्यवान समझा था। मगर वह खुश थी। सुबह की पहली किरण एक नई ज़िंदगी की तरह उसके स्वागत में खड़ी थी और खुश्बू का एक ऊर्जावान अध्याय उसे महकाये हुए था। भीतर का सारा शोर शांत हो चुका था।

जिया को लगी उसकी ज़िंदगी को सही दिशा मिल गई उसका सही क्रम शुरू हो गया। कोई टीका-टिप्पणी करने वाला नहीं होगा। किसी का डर नहीं, किसी की परवाह नहीं! बस अपने-आपसे ज़िंदगी को गढ़ो, जियो! सचमुच बहुत खुशकिस्मत हूँ, बहुत खुशकिस्मत। पता नही कैसे मिल गई ऐसी किस्मत? लेकिन अभी भी लिये रास्ते खोजने है मुझे। जो आशीर्वाद साथ हैं वे हवा के झोंके बन मुझे सहारा देते रहेंगे, मेरी गति में वृद्धि करते रहेंगे, कभी फूलों की तरह मेरा श्रृंगार बन जायेंगे, कभी दीये बन मेरे अंतर्जगत को रोशन करते रहेंगे। जो रोड़े-पत्थर रास्ता अटकायेंगे, उन्हें पार कर जाऊंगी। गति थमेगी नहीं। साथ जो अलौकिक सुख था मेरे साथ।


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