Suraj Dixit

Abstract

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Suraj Dixit

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संघर्ष, असंभव से संभवतः का

संघर्ष, असंभव से संभवतः का

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ये कहानी जन्म लेती है सोहनपुर नामक छोटे से गांव के बंसल परिवार में। गांव के "सरपंच" होने के नाते प्रतिभा एवं प्रतिष्ठित व्यक्तित्व के धनी श्रीमान,"मनोहर गिरधारी बंसल" उसूलों की डोर से अपने परिवार और गांव की बागडोर थामे हुए रहते थे। सदा सभी के सहायता के लिए तत्पर रहने वाले मनोहर जी, स्वयं के परिवार की सहायता करने में असक्षम सा महसूस करते थे। संतान सुख से वंचित होने का दर्द भीतर ही भीतर सदा उन्हें झंझोड कर रख देता। लेकिन वो कहते है ना ईश्वर भले ही देर से सहायता करता है किंतु वह अपने भक्तो को सदा दुःख में नही देख सकता। 

हाँ यह बात तो सत्य है बंसल परिवार में किलकारियां तो गूंजी किंतु परिवार में जश्न क्यूँ नही? आपकी रोचकता को न बढ़ाते हुए बताना चाहता हूँ की बंसल परिवार में एक समलैंगिक संतान ने जन्म लिया। जिस के ही संघर्ष की गाथा यह कहानी में हमें पढ़ने मिलेंगी। संतान का नाम समर्थ रखा गया। 

धीरे-धीरे वक्त बिता समर्थ अब विद्यालय जाने लगा। विद्यालय में समर्थ की मित्रता अधिकतर लड़कियों से थी। वह उन संग खेलता, एवं अपनी रुचि अनुसार क्रियाएँ करता। जो की सामान्य लड़को के रुचियों से भिन्न थी। इसी बात को लेकर समर्थ को कक्षा दसवी तक इन अपमानजनक तानो को सहन करना पड़ा।

अब वक्त के साथ समर्थ जवानी के पढाव पर था। महाविद्यालय में दाखला होने पर दुनिया को समझने लगा।

स्वयं के सच से अज्ञात था जो वह वक्त के दौर के साथ स्वयं का लड़को के प्रति लगाव को महसूस करने लगा। किंतु वह इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहा था। उसे लगता की वह भी सामान्य लड़को के भाती लड़कियों के प्रेम में पड कर अपना जीवन खुशी-खुशी गुजारेंगा। किंतु संभव होता नजर नही आ रहा था। महाविद्यालय में शिक्षा के अंतिम वर्ष के पढाव पर था,उस स्थिति में समर्थ के मित्र लड़कियों के प्रेम में स्वयं को झोंकते जा रहे थे। किंतु समर्थ चाहकर भी किसी लड़की के प्रेम में स्वयं को झोंक नही पा रहा था। यह सब देखते हुए समर्थ अपने अस्तित्व को समझने में लग गया। कुछ समय में वह अपने अस्तित्व को लड़को के प्रति बढ़ता लगाव देख कर जान गया। अब प्रश्न यह था जो सपने समर्थ ने सामान्य लड़का समझ कर देखे थे क्या वह सपने अधूरे रह जायेंगे? 

हौसले के साथ वो सारे सपने समर्थ को अब टूटते हुए नजर आ रहे थे। सामान्य लोगों की तरह शादी, संतान सुख प्राप्त कर, एक सुखी गृहस्थी यह सभी से समर्थ की इच्छाओं का दमन होता दिखाई दे रहा था। बचपन से संजोया यह सपना की उसे भी पापा कहकर कोई पुकारेंगा यह समर्थ के लिए मानो केवल झूठा ख़्वाब बन कर रह गया था। किंतु जैसा हम ने कहानी में पहले जाना की मनोहर जी को समर्थ की प्राप्ति भले ही ईश्वर ने देर से दी किंतु झोली अवश्य भरी। तो भला वही ईश्वर समर्थ की झोली को खाली कैसे रखते थे? 

हाँ, समर्थ असामान्य अवश्य था किंतु प्राप्त की गई शिक्षा कभी व्यर्थ नहीं जाती यह हम सभी जानते है, और ठीक ऐसा ही हुआ। समर्थ ने अपने सपनों को पूरा करने में अपनी शिक्षा का उपयोग किया। समर्थ जानता था ब्याह की उम्र में वह ब्याह तो नहीं कर सकता। स्वयं संतान को जन्म तो नहीं दे सकता।किंतु गोद लेने जैसी सुविधा के तहत वह अपने संतान पाने के ख़्वाब को पूरा तो कर सकता है। समर्थ अपनी माँ की सहायता से परिवार को राज़ी करने में सफल हुआ। समर्थ शिक्षा प्राप्त कर एक अच्छी नौकरी का मालिक था। समर्थ ही अब बंसल परिवार का कर्ता-धर्ता भी था। समर्थ एक योग्य समय और उम्र के योग्य पढाव पर संतान को गोद लेने के ख़्वाब को पूरा करने शिशु संस्था के आश्रम पहुँचा। दिक्कते वहाँ भी आयी। प्रश्न वहाँ भी पूछे गए किंतु जब ईश्वर की मर्ज़ी हो तो इंसान भला क्या कर सकता है। वर्तमान एक नया इतिहास लिखने जा रहा था। एक समलैंगिक भी आज पिता बनने जा रहा था। एक अंजान किसी के घर की अब जान बनने जा रहा था। आज एक बालक अनाथ से मुक्त हो "सक्षम समर्थ बंसल" बनने जा रहा था। सच सक्षम को गोद में लेकर जो प्रसन्नता समर्थ के मुख पर थी उस चमक के आगे असली हीरे की चमक भी फिकी सी नजर आती।

सही मायने में हौसला हो तो पूर्ण हर ख़्वाब किया जा सकता है।

हो जज़्बा समर्थ सा तो वर्तमान में भी इतिहास रचा जा सकता है।


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