स्नेह के पुष्प
स्नेह के पुष्प
'बेटा, पता नहीं क्यों कुछ दिनों से तेरी बहुत याद आ रही है। इस बीमारी ने पहले ही मुझे अपाहिज बना कर रख दिया था पर अब तो न खाना अच्छा लगता है ना उठना बैठना आखिर कब तक घर की चारदीवारी में घुटता रहूँगा !! तेरी माँ के पश्चात अकेला हो ही गया था किंतु राहुल से ऐसी उम्मीद ना थी। बदनसीब आँखें पता नहीं कब बंद हो जायें, हो सके तो आकर मिल जाओ।' फोन पर पिताजी की आवाज टूटती सी लगी।
' पिताजी आप इतने हताश क्यों हो रहे हैं ? मैं कल ही पहुँच रही हूँ। आप हिम्मत रखिए आपको कुछ नहीं होगा।' ऋचा ने उन्हें हिम्मत बनाते हुए कहा।
अवश्य आना बेटा।' कहकर बिना उसकी पूरी बात सुने उन्होंने फोन रख दिया।
पिताजी का दीन स्वर सुनकर ऋचा किंकर्तव्यविमूढ़ सी बैठी रह गई। अलौकिक आत्मविश्वास से युक्त मानव की ऐसी मनःस्तिथि...। पिताजी को इतना निराश हताश उसने कभी नहीं देखा था। सच है समय बड़े से बड़े व्यक्तियों का अहंकार तोड़ देता है।
अचानक बीस पच्चीस वर्ष पूर्व की घटनाएं उसके मन मस्तिष्क में चलचित्र की भांति गुजरने लगी ...याद आया वह दिन जब नमिता उसकी छोटी बहन ने जन्म लिया था। पापा और दादी को जैसे ही पता चला कि लड़की ने जन्म लिया है, वे बिना माँ से मिले घर चले आए थे। उनको आया देखकर जब उसने उनसे माँ के बारे में पूछा तो पापा बिना कुछ कहे बेडरूम में चले गए तथा दादी मुँह फुला कर बोली थीं, 'ठीक क्यों ना होगी !! आखिर एक लड़की और जनी है।'
' हमारी एक और बहन आ गई है यह तो खुशी की बात है पर आप गुस्से में क्यों हो ?' दीपा ने सहजता से पूछा था।
'अपनी किस्मत को रो रही हूँ, न जाने कैसी बहू है जो लड़की पर लड़की जने जा रही है। ना जाने कब पोते का मुँह देखूँगी।' दादी ने गुस्से से उनकी ओर देखते हुए कहा था।
ऋचा और दीपा को पापा और दादी का क्रोधित होना समझ में नहीं आ रहा था। भाई की तो उन्हें भी चाहत थी पर अगर भाई नहीं, बहन आ गई तो सारा गुस्सा माँ पर क्यों निकाल रहे हैं ? वे दोनों सहेली से मिलने जाने के बहाने भी बहाने माँ को देखने घर से निकली हॉस्पिटल पहुँची तो देखा नानी माँ के पास बैठी हैं तथा माँ लगातार रोये जा रही है।
'बेटी, लड़की तो लक्ष्मी होती है। जब तक साथ रहती है तब तक मन को आनंद एवं स्फूर्ति देती है तथा जाते हुए प्यार की ऐसी परछाई छोड़ जाती है जो उसके दूर जाने पर भी निरंतर उसके पास रहने का एहसास कराती रहती है। तुम निराश क्यों होती हो बेटी, तुम्हारी बेटियाँ ही बेटों के समान तुम्हारा वंश चलायेंगी। वैसे भी बेटी बेटियों की माँ राजरानी होती है। मुझे देख, मेरे तीन बेटियाँ हैं पर मुझे कोई दुख है क्या? जब तक तुम लोग थी हर काम में मेरा हाथ बटाती रहीं और आज जब भी मुझे जरूरत होती है तुम तीनों में से कोई ना कोई आ ही जाती हो। अपनी चाची को देख उसके दो बेटे हैं पर कौन सा वह बेटे -बहू का सुख भोग रही है। दोनों में से कोई भी उसे अपने साथ रखना नहीं चाह रहा है। नाते रिश्तेदार अड़ोस -पड़ोस वाले अलग पूछ -पूछ कर उसे परेशान करते हैं कि दो बेटे होते हुए भी आप अकेली क्यों रहती हैं ? अब वह किस-किस को क्या जवाब दें ?
यह सच है कि किसी भी परिवार को पूर्णता पुत्र- पुत्री दोनों के द्वारा ही प्राप्त होती है लेकिन इसके लिए अनावश्यक दुख,संताप या तनाव को साथी बनाना उचित नहीं है। प्रत्येक स्थिति के सकारात्मक पहलू पर विचार कर सदैव प्रसन्न रहने का प्रयास करना चाहिए। दुख न कर बेटी, तेरी यही बेटियाँ तेरे वंश का नाम रोशन करेंगीं।' कहते हुए उन्होंने प्यार से ऋचा और दीपा के सिर पर हाथ फेरा था .
दादी और पापा न जाने किस मिट्टी के बने थे कि भविष्य के लिए वह अपने वर्तमान को नहीं समझ पा रहे थे। माँ ने दादी की सेवा में कोई कमी नहीं रखी थी पर फिर भी बेटा न जन पाने के लिए वह सदा उन्हें ही दोष देती रहीं। पापा को भी वह सदा भड़काती रहती थीं। पापा को भी अपनी माँ ही सदा ठीक लगतीं। उन्हें भी वारिस चाहिए था।
पापा और दादी ने उस नन्ही सी जान का मुँह न देखने की ठान ली थी। पापा और दादी का नन्हीं नमिता के प्रति व्यवहार देखकर माँ छिप-छिप कर रोती थीं । अंततः भरे मन से माँ ने स्थिति से समझौता कर लिया था। माँ ने उन तीनों में ही अपनी दुनिया ढूंढ ली थी। सारी ममता और प्यार उन पर उड़ेलतीं तो भी दादी को अच्छा नहीं लगता। वह कहतीं ' कोख में पुत्र कैसे आया जब सारे दिन तुम इन मरदूदों के पीछे ही पड़ी रहोगी।'
दादी के कटुवचन सुनकर माँ अंतःकवच में कैद होकर रह जातीं। मानो अपनी कोखजाइयों पर ममत्व की वर्षा कर वह कोई अपराध कर रही हों। दादी के तरकश में न जाने कितने जहर बुझे वाण थे जो रह-रहकर माँ को घायल करते रहते थे। वह और दीपा प्रतिरोध करना चाहती तो माँ मना कर देतीं थीं क्योंकि उन्हें भी पता था कि उनका एक वाक्य सौ वाक्यों को निमंत्रण देगा। माँ की परेशानी बढ़ेगी।
माँ एक सामान्य परिवार की कन्या थीं। उनके रूप पर मोहित होकर पिताजी ने उन्हें वर तो लिया था किंतु पुत्र ना दे पाने के कारण उन्हें उनकी उपेक्षा के साथ-साथ मानसिक यंत्रणा से भी गुजारना पड़ रहा था। माँ अत्यंत सहनशील थी और शायद इसी गुण के कारण वह स्वयं पर हुए अत्याचारों को निशब्द सहती रही थीं। ऐसा नहीं था कि उन्हें कभी बुरा नहीं लगता था या वे विरोध करने के लिए तड़फड़ाई ना हो पर मन में पैठी हीनभावना के कारण वह विषम परिस्थितियों में भी विरोध नहीं कर पाती थीं। वैसे भी अपनी तीन नाबालिग कन्याओं को लेकर जातीं भी तो कहाँ जातीं। दादी और पिताजी के व्यंग्य बाणों से आहत माँ को अकेले बैठकर रोते उसने कई बार देखा था।
एक बार माँ को ऐसी अवस्था में देख, जब ऋचा ने उनसे रोने का कारण पूछा तो उन्होंने उसे अंक में भरते हुए व्यथित स्वर में कहा था,' बेटा, खूब पढ़ो ...आत्मनिर्भर बनो जिससे किसी के आगे झुकना ना पड़े। अपने फैसले तुम स्वयं ले सको।।'
दादी के दो पुत्र और थे। वह अधिकतर उन्हीं के पास ही रहती थी क्योंकि उनकी पत्नियों से उनकी बनती ही नहीं थी। आखिर सब माँ की तरह सहनशील तो नहीं होते। वे आकर दादी से मिलने तो आते किंतु अपने साथ चलने के लिए कभी नहीं कहते थे। दादी ने कभी जाना नहीं चाहा। वह कभी उनके पास गई भी, तो महीने दो महीने से ज्यादा नहीं रह पातीं थीं पर फिर भी वह माँ की सेवा की कद्र नहीं कर पाई। त्रुटि न होने पर भी त्रुटि निकाली जाती। माँ को जब तब उनके क्रोध का शिकार बनना पड़ता। शायद यही मानव की प्रकृति है जो जितना दबता है, उसे उतना ही और दबाया जाता है।
पिताजी को तो पुत्र ही चाहिए था अतः दूसरे वर्ष माँ पुनः गर्भवती हो गई। पिताजी की पुत्र के लिए चाह तथा पुत्रियों से विरक्ति ने उसके छोटे से मन में अंतर्द्वंद मचा दिया था। उसने मन ही मन खूब पढ़ने का संकल्प ले लिया था। माँ सिर्फ बच्चे जनने की मशीन बनकर रह गई थीं। गिरती शारीरिक स्थिति के कारण वह अब चाह कर भी उनके लिए कुछ नहीं कर पाती थी।
यद्यपि सेक्स की जाँच के लिए अल्ट्रासाउंड कराना अपराध है पर पैसे से किसी को भी खरीद जा सकता है। इसी हथिया का प्रयोग कर इस बार अनहोनी की आशंका से बचने के लिये अल्ट्रासाउंड करवाया गया। पता चला कि पुत्री ही गर्भ में है। दादी ने गर्भपात करवाने का निर्णय सुना दिया। माँ आँखों में आँसू लिए बेबस बकरी की तरह ज़िबह होने चल दीं।
जब वे अस्पताल से लौटे तो दादी पैर पटकते हुए पूजा घर में जाकर बैठ गई जबकि पिताजी पहले ही कहीं चले गए थे। माँ अपने कमरे में बैठकर रोने लगीं। माँ को रोता देखकर दीपा और नमिता भी रोने लगीं। बाद में पता चला गर्भ में पुत्री नहीं पुत्र था। अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट अस्पताल के स्टाफ की लापरवाही के कारण बदल गई थी। प्रकृति ने निरपराध मासूम की जान लेने का अपराध करने वालों को दंड दे दिया था। इस बार पिताजी भी निराश हताश लगे। जिस मेडिकल साइंस पर उन्हें इतना विश्वास था जिसके बल पर वह अपने भाग्य का निर्माण करना चाहते थे वह भी धोखा दे गया अब किसकी शरण में जाते !!
वे तीनों पापा के स्नेह की आस में उनके चारों ओर मंडरतीं। उनके एक-एक काम को अपने नन्हे नन्हे हाथों से करके उनके मन को जीतना चाहतीं किंतु उन पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता था। वह अपने व्यवसाय में इतना व्यस्त रहते थे या व्यस्त रहने की कोशिश करते थे कि लगता था कि उनके पास समय ही नहीं है। घर में रहते तो सदा फोन पकड़े रहते या मोटी मोटी फाइलों में सिर छुपाए रहते। माँ से भी उन्हें कम ही बातें करते देखा था। घर खर्च के लिए माँ को रुपए पकड़ा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेना उनकी आदत बन गई है।
माँ ने अपनी स्थिति से समझौता कर लिया था किंतु पिता के प्यार से वंचित वे तीनों उनके व्यवहार एवं बेरुखी को सहन नहीं कर पा रही थीं। जब वे अपनी हमउम्र सहेलियों को अपने पिता के साथ घूमते देखतीं तो मन मसोसकर रह जातीं। यहाँ तक कि उसके पिता ने उसके जन्मदिन पर कोई उपहार दिया हो या अपने आप कहीं घुमाने ले गए हो यह भी उसे याद नहीं था। वह समझ नहीं पा रही थी कि इस दुनिया में जन्म लेकर उसने तथा उसकी बहनों ने क्या अपराध किया है !! वे स्वयं तो आई नहीं थीं। उन्हें लाने वाले उनके माता-पिता ही थे फिर उनके साथ ऐसा व्यवहार क्यों ? उस समय वह यह सोच कर मन को तसल्ली दे लेती थी कि हो सकता है कि पापा को अति व्यस्तता के कारण वास्तव में उनसे बात करने का समय न मिलता हो या उन्हें अपने लंबे चौड़े व्यवसाय के लिए उत्तराधिकारी न मिल पाने के कारण उनका व्यवहार अनजाने में उन सबके प्रति अस्वाभाविक और असंयत हो गया है। यद्यपि पापा ने रुपए पैसों से उन्हें कोई कमी नहीं होने दी थी। जो भी उन्होंने माँगा मिला। पापा ने उन्हें अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवाई फिर भी पता नहीं क्यों मन में पैठी ग्रंथि के कारण वह चाह कर भी सहज नहीं हो पाती थी I
अभी अभी घटना को एक वर्ष भी नहीं बीता था कि पता चला माँ फिर गर्भवती हैं। इस बार माँ विशेष प्रसन्न नहीं थीं। लगता था पत्नी धर्म निभाते -निभाते वह मशीन बन गई हैं। दोबारा अल्ट्रासाउंड करवाया गया। एक बार नहीं दो दो बार, वह भी अलग-अलग डॉक्टरों से। दोनों रिपोर्ट में पुत्र होने की सूचना मात्र से पिताजी का चेहरा दमक उठा। दादी भी अचानक बदल गई जिस बहू में उनको सदा दोष ही दोष नजर आते थे अब वह उनका विशेष ध्यान रखने लगीं। उसे भी लगने लगा था कि इस बार भाई आ जाए तो माँ की सारी परेशानियां दूर हो जाएं तथा हो सकता है पापा और दादी का प्यार भी उन्हें मिल जाए।
माँ भी उत्सुकता से पुत्र के स्वागत की तैयारी करने लगी। उनका यौवन पिताजी की इच्छाओं की भेंट चढ़ गया था। अपनी मानसिक अस्वस्थता के कारण वह अनायास ही जीवन से दूर होती चली गई थीं। जीवन के प्रति उनमें न कोई उत्साह रह गया था और न ही कोई लगाव पर अब अचानक ऐसा लगने लगा था जैसे जीवन के प्रति उनका अनुराग बढ़ने लगा है। साथ ही दादी की अत्यधिक देखभाल के कारण उनका खोया आत्मविश्वास भी लौटने लगा था।
कहते हैं अच्छा समय बीते देर नहीं लगती...आखिर वह दिन भी आ गया जब एक नन्ही जान ने दुनिया में कदम रखा। उसके कदम रखते ही मानो घर से बुरी आत्मा का साया दुम दबाकर भाग गया था। सदा चिड़चिड़ाने वाली दादी तो लगता था कि खुशीके कारण पागल हो गई हैं। अब वह उन सबके साथ भी अच्छी तरह पेश आने लगी थीं।
घर में पुत्र रत्न होने पर खुशियां मनाई गई। शानदार पार्टी दी गई। घर आए मेहमानों को उपहार और मिठाई देकर विदा किया गया। पिताजी अचानक ही अपनी उम्र से दस वर्ष कम लगने लगे थे। जिनको उसने कभी किसी बच्चे को गोद में खिलाते नहीं देखा वही पिताजी नवजात शिशु को गोद में उठाए ऐसे खुश हो रहे थे मानो किसी बच्चे को उसका खोया हुआ खिलौना वापस मिल गया हो। ऋचा ने अपने होशो हवास में पिताजी को इतना प्रसन्न कभी नहीं देखा था। आखिर उनका वंश चलाने वाला आ गया उनके बुढ़ापे का सहारा जो आ गया था।
माँ के चेहरे पर छाई रहने वाली उदासी भी विलुप्त हो गई थी। उन सबकी ओर तो वह पहले ही खराब स्वास्थ्य के कारण कम ध्यान दे पातीं थीं किंतु अब नवासे की वजह से समय और भी कम समय मिलने लगा था। पर उन्हें बुरा नहीं लगता था क्योंकि वह उनके प्यारे भाई की देखभाल ही तो कर रही थीं। अब उन्हें रक्षाबंधन पर राखी बांधने के लिए भाई मिल गया था। उस दिन उसकी नन्हीं कलाई पर राखी बांधने की होड़ लगती कि कौन पहले राखी बांधेगा और वह शैतान उन्हें परेशान करने के लिए इधर-उधर भागता रहता। दादी उसकी शैतानी देखकर दादी लोटपोट हो जातीं। लगता ही नहीं था कि वह पहले वाली दादी हैं।
नदी की लहरों की तरह पत्थरों से टकरा -टकरा कर आगे बढ़ते ही रहे। ऋचा का इंजीनियरिंग में चयन हुआ तो माँ अत्यंत प्रसन्न हुई पर पापा निर्विकार ही रहे। शायद उसकी सफलता से पिताजी को कोई अंतर नहीं पड़ने वाला था। दादी अवश्य पापा से बोली थीं,' बबुआ ज्यादा पढ़ाई लिखाई लड़कियों का दिमाग खराब कर देवें है, मेरी मान कोई अच्छा सा लड़का देख इसके हाथ पीले कर दे।'
ऋचा की इच्छा देखकर पापा ने बेमन से हामी भर दी थी। उसकी देखा देखी दीपाली और नमिता ने भी मेहनत की थी। समय के साथ दीपाली का मेडिकल में तथा नमिता का बैंकिंग सेवा में चयन हो गया था। धीरे-धीरे उनको अपने मंजिल की ओर अग्रसर देख माँ बहुत खुश थीं।
धीरे-धीरे उनके विवाह भी हो गए।
राहुल का भी इंजीनियरिंग में दाखिला हो गया। तभी दादी की मृत्यु हो गई। दादी के जाने के पश्चात माँ अकेली रह गई। राहुल हॉस्टल में था तथा पिताजी अधिक कार्य व्यस्तता के कारण अधिकतर घर से बाहर ही रहते थे। धीरे-धीरे माँ अनेक रोगों से ग्रस्त होती गई। दीपा और उसके पति अमित ने भी वही नर्सिंग होम ले लिया था।
अमित, दीपा का सहपाठी था। उसके माता-पिता बचपन में उसे अकेला छोड़ कर चले गए थे। उसकी बुआ ने उसे पाला था। दीपक का मित्र होने के कारण वह अक्सर उनके घर आता रहता था। माँ पापा को अपने माता- पिता के समान समझकर उन्हें मान सम्मान देता रहा था। यही कारण था कि माँ पापा को भी उससे अपनत्व हो गया था अतः जब उसने अपनी बुआ के साथ आकर दीपा का हाथ माँगा तो वह मन नहीं कर पाये। उन्होंने बिना देरी किये शहनाई बजवा दी थी। वैसे भी इतना जाना परखा, होनहार लड़का उन्हें चिराग़ लेकर ढूंढने से भी नहीं मिलता।
दीपा और अमित नर्सिंग होम से छुट्टी पाकर कुछ समय माँ के साथ बिता कर उनका अकेलापन दूर करने का प्रयास करते थे। दूर होने के कारण वह और नमिता तो कभी-कभी ही आ पाते थे किंतु फोन से लगातार उनका कुशलक्षेम पूछते रहते थे। राहुल ग्रेजुएशन करने के पश्चात पिताजी के साथ ही फैक्ट्री में लग गया। राहुल के साथ आने के कारण पिताजी ने छोटी यूनिट को विस्तार देने की योजना बनाई जिससे वह और भी व्यस्त हो गए। समय आने पर माँ-पापा ने राहुल का विवाह कर अपने सारे अरमान पूरे करने का प्रयास किया था।
शोभना सचमुच बहुत सुंदर और प्यारी लड़की थी। वे तीनों भी यह सोचकर निश्चिंत हो गई थी कि अब माँ की अच्छी देखभाल हो जाएगी। पिताजी के स्वप्न साकार होने जा रहे हैं आखिर इसी दिन के लिए तो उन्होंने पुत्र की चाहना की थी। एक वर्ष भी राहुल के विवाह को नहीं हुआ था कि सुना उसने वहीं उसी शहर में दूसरा घर ले लिया है शायद शोभना को स्वतंत्रता चाहिए थी। वह सीधी साधी बीमार माँ के साथ तालमेल नहीं बिठा पाई थी।
माँ- पिताजी ने अपने दिल पर पत्थर रखकर उनके नए घर को सजाने संवारने में योगदान दिया था किंतु दिल तो दिल ही है एक बार टूटा तो फिर जोड़ ही नहीं सका। था। अभी वह सब इस घटना से संभल भी नहीं पाए थे कि दीपा का फोन आया की मां अचानक हमें छोड़ कर चली गई हैं।
एक बार फिर सब इकट्ठे हुए पिताजी का पुरूषोचित अहंकार भी टूटता सा लगा था। तकदीर के लिखे को कौन मिटा सकता है अतः उन्होंने स्वयं को काम में डुबो दिया। घर का पुराना नौकर रमेश था ही अतः खाने पीने की कोई दिक्कत नहीं थी। माँ जीवित थी तब भी वही घर का सारा काम किया करता था। उन तीनों बहनों का घर से संबंध कम होता गया। पिताजी से उन तीनों का कभी तारतम्य रहा ही नहीं था। माँ ही उन सबको एक सूत्र में बांधने वाली कड़ी थीं अब वह कड़ी ही नहीं रही...तन मन में एक अजीब सा सूनापन छा गया था।।
ऋचा जितना सोचती उतनी ही भूत भविष्य के भंवर जाल में उलझती जाती। आज उसके एक पुत्र और एक पुत्री है । नानी माँ के शब्द कानों में घुसकर उनके कथन की यथार्थता का बोध कराते रहते हैं। पुत्री पारुल सदैव उसके चारों ओर घूमती रहती है। किसी दिन नौकरानी नहीं आती तो कहती,' मम्मा इतना काम आप अकेले कैसे करोगी ?'
कॉलेज जाने से पूर्व नाश्ता बनवाने में उसकी मदद करती। पूरे घर को व्यवस्थित रखने की जिम्मेदारी उसने अपने नाजुक कंधों पर पहले ही उठा रखी है जबकि उस से दो वर्ष बड़ा बेटा पल्लव पानी का ग्लास भी माँग कर पीता है। वह गिलास भी घंटों वही पड़ा रहता है जहाँ उसने पानी पीया था। जरा भी सिर में दर्द होने पर कहती,' मम्मा लाओ मैं बाम लगा दूँ। तुम इतना काम क्यों करती हो ? थक जाती होगी छोड़ दो नौकरी।'
अपने कालेज की एक-एक बात आकर उसे बताती थी। कभी-कभी लगता था कि वह उसकी बेटी नहीं सखी है।
एक दिन बेटे का कमरा साफ कर रही थी कि देखा सिगरेट का आज जला टुकड़ा पड़ा है। मन में चुभन हुई, यह मेरा पुत्र है, मेरे शरीर का अंश ...सिगरेट पीने लगा है और मुझे पता ही नहीं चला। सोच ही नहीं पा रही थी क्या उचित है और क्या अनुचित !! संतान अपनी है अच्छी या बुरी भोगना तो है ही।
पल्लव से पूछा तो उसने कहा,: सॉरी मम्मा।'
' बेटा, पकड़े जाने पर केवल सॉरी बोलकर तुम अपनी गलती को सुधार नहीं सकते। क्या तुम नहीं जानते कि सिगरेट पीना शरीर के लिए कितना हानिकारक है ? पर मेरे कहने से कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला जब तक कि तुम स्वयं उसकी अच्छाई और बुराई को समझ ना सको। मैं हमेशा तो तुम्हारी निगरानी कर नहीं सकती शायद तुम्हें अच्छा भी ना लगे। तुम बड़े हो रहे हो अपना भला-बुरा स्वयं समझ सकते हो लेकिन यही उम्र है जीवन संवारने की। अब चाहे इसे सवारों या बिगाड़ो, सब तुम्हारे हाथ में है ' ऋचा ने बेटे को समझाते हुए कहा था।
' सॉरी मम्मा, अब आपको कोई शिकायत का मौका नहीं दूँगा।'
'तुमसे यही उम्मीद है।' प्यार से पल्लव के गाल को थपथपाते हुए उसने कहा था।
पल्लव के चेहरे पर शर्मिंदगी के भाव तथा क्षमा याचना उसे सुकून पहुँचा गई थी। जब बच्चे बड़े होने लगते हैं तब हर माता-पिता को बच्चों के भविष्य की चिंता सताने लगती है। अगर बच्चे अच्छे निकल गए तो लगता है जीवन संवर गया। लेकिन यह भी भ्रम ही है माता-पिता भले ही भली भांति अपना कर्तव्य निभा लें लेकिन अपनी ऊंची उड़ान और जवानी के नशे में बच्चे अपने बूढ़े और लाचार माता- पिता के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह भली-भांति कहाँ कर पा रहे हैं ?
कुछ दिन पूर्व ही पिताजी को पैरालिसिस का अटैक पड़ा था। उनका आधा हिस्सा निष्क्रिय हो गया था। तीनों बहने बारी-बारी से उनकी सेवा में संलग्न रहने की कोशिश करतीं। राहुल और शोभना भी आ जाया करते थे पर उनका व्यवहार देखकर लगता था कि उन्हें उन तीनों का पिताजी के पास आना और रहना पसंद नहीं है। उन्होंने यह भी कभी नहीं कहा कि आप सब क्यों परेशान होती हैं मैं और शोभना तो है ही, उनकी देखभाल के लिए। वह ना तो पिताजी को अपने घर ले जाकर उनकी सेवा करके अपना कर्तव्य निभाना चाहते थे और ना ही यह चाहते थे कि वे तीनों वहाँ आया करें भला ऐसे कैसा हो सकता है था ?
उन तीनों को बारी-बारी से पिताजी की सेवा में संलग्न देख राहुल शोभना भी वहीं आकर रहने लगे। यह देखकर ऋचा को अच्छा लगा। चलो किसी भी तरह उन्हें अपने कर्तव्यों का एहसास तो हो रहा है। शोभना भी पिताजी के साथ ठीक से पेश आ रही थी तथा राहुल भी ऑफिस से आते वक्त उनके लिए फल इत्यादि ले आता था।
एक दिन ऋचा ने राहुल से कहा,' अब जब तुम दोनों आ ही गए हो तो मैं चली जाती हूँ।'
' ठीक है दीदी।'राहुल ने संक्षिप्त उत्तर दिया था।
एक रात को उसे नींद नहीं आ रही थी पिताजी के कमरे में जाकर देखा तो वह सो रहे थे। वह फ्रिज से पानी निकाल कर अपने कमरे की ओर जाने लगी तभी राहुल के कमरे से कुछ आवाजें सुनाई पड़ी। वैसे तो उसे छिपकर किसी की बात सुनने का कभी शौक नहीं रहा रहा था पर अपना नाम सुनकर उसके पैर थम गए।
शोभना की आवाज थी,' अच्छा हुआ जो हम लोग समय पर आ गए वरना दीदी पिताजी को बरगला कर सब कुछ अपने नाम करवा लेतीं।'
'शायद तुम ठीक कह रही हो। तुम पिताजी का जरा ठीक से ख्याल रखना। यही समय है जब हम उन्हें अपनी ओर कर सकते हैं। डॉक्टर कह रहा था कोई इंप्रूवमेंट नहीं है। हार्ट पर भी असर आ गया है। ऐसे लोग कुछ ही दिनों के मेहमान होते हैं।'
' मैं सब समझ रही हूँ पर अब तुम दीदी को जल्दी से जल्दी विदा कर दो वरना कहीं हमारी मेहनत असफल ना हो जाए।'
राहुल और शोभना का वार्तालाप सुनकर ऋचा को काठ मार गया। कितने निकृष्ट विचार हैं इनके !! यह लोग पिताजी की सेवा के लिए आए हैं या उनके मरने का इंतजार कर रहे हैं। शोभना तो खैर दूसरे घर की बेटी है पर राहुल !! क्या इसी दिन के लिए पिताजी ने पुत्र की चाहना की थी ?
ऋचा की आंखें डबडबा आई। पिताजी ने भले ही उनका तिरस्कार किया हो पर हैं तो वे उनके जन्मदाता ही। भाई जिसके साथ जीवन के इतने बसंत बिताए थे अचानक पराया लगने लगा। उनके प्यार और सेवा का यह अर्थ !! आखिर उन्हें क्या कमी है जो वह ऐसा करेंगी या चाहेंगी। भारी कदमों से ऋचा अपने कमरे में लौट आई तथा दूसरे दिन ही जाने का मन बना लिया वरना एक-दो दिन और रुकने की सोच रही थी। अपने भी कभी-कभी कितने बेगाने हो जाते हैं। दिल छलनी हो गया था।
पिताजी जिन्हें अब पैसे से ज्यादा प्रेम और अपनत्व की आवश्यकता है, उन्हें इन लोगों के बीच छोड़ने का मन तो नहीं था। कहते भी हैं बीमार व्यक्ति को दवा से ज्यादा प्यार के मीठे बोलो की आवश्यकता होती है पर घर की सुख शांति के लिए जाना ही श्रेयस्कर कर लगा था।
विधि को कुछ और ही मंजूर था दीपा से पता चला कि पिताजी अब ठीक हो रहे हैं तो मन प्रसन्नता से भर उठा। राहुल और शोभना का सेवा करने का धैर्य समाप्त हो गया था। वे फिर अपनी दुनिया में लौट गए थे। रमेश ही उनकी सेवा कर रहा था।
उनको अकेले रहता देख ऋचा उनसे मिलने गई। उसका मन था कि ऐसी स्थिति में पिताजी अकेले रहने के बजाय उसके पास रहें। उसके अनुरोध पर पिताजी बोले थे,' बेटा इंसान को विषम परिस्थितियों में भी घबराना नहीं चाहिए। रमेश है ही मेरी देखभाल के लिये, दीपा भी जब तक आप कर मुझे देख जाती है। तुम लोगों के रहते मैं अकेला कहाँ हूँ। अब तो व्हीलचेयर पर बैठकर घर में स्वयं घूम भी लेता हूँ। जाओ बेटा, मेरे लिए क्यों अपने बच्चों और घर को उपेक्षित कर रही हो। जब आवश्यकता होगी तब बुला लूँगा।' होठों पर सहज मुस्कान के साथ-साथ आँखों में आँसू भी झिलमिला उठे थे।
उनके मुँह से अपने लिए प्यार भरे शब्द सुनकर ऋचा को सुखद आश्चर्य हुआ था। शायद उनके निस्वार्थ प्रेम का मूल अब वे समझ पाए हैं। समय के साथ-साथ उनकी मनोवृति में भी परिवर्तन आता गया किंतु पुत्र के लिए उन्होंने उनकी उपेक्षा की थी, चाहकर भी वह भूल नहीं पाती है किंतु उन्हें हैरान परेशान देखकर जब तक जब तक दौड़ी भी जाती है। कैसी है स्त्री मन की मानसिकता ? यही भावना लड़कों को क्यों उद्देलित नहीं कर पाती ? वह पिता के व्यवसाय को संभालने की जिम्मेदारी तो उठाना चाहता है किंतु पिता को नहीं। पिता का प्यार दुलार पुत्र के लिए रहता है जबकि पुत्री अपनी संपूर्ण चेतना, संपूर्ण मन से बिना किसी स्वार्थ के उस घर से जुड़ी रहती है जहाँ उसने जन्म लिया था किंतु फिर भी उसे सदा पराया धन ही समझा जाता है ऐसा क्यों ?
मन में बार-बार उठते प्रश्नों ने एक बार फिर ऋचा के मन में पुनः उथल-पुथल मचा दी थी।
' क्या तबीयत ठीक नहीं है जो अँधेरे में बैठी हो ?' अखिलेश ने अंदर आते हुए पूछा।
अखिलेश की आवाज सुनकर वह अतीत से वर्तमान में आई तथा पिताजी से फोन पर हुई बातें हैं उन्हें बताई।
' पिताजी ने बुलाया है तो चली जाओ।'
' बार-बार जाने से आप सबको परेशानी हो जाती है।'
पिताजी की जरा सी तबीयत खराब की खबर सुनकर बार-बार जाने वाली ऋचा पता नहीं कैसे यह बात कह गई। शायद राहुल और शोभना का वार्तालाप वह भूल नहीं पा रही थी।
' परेशानी कैसी ? इस समय तुम नहीं जाओगी तो फिर कब जाओगी। बच्चे अब छोटे नहीं है फिर मैं तो हूँ ही न।' अखिलेश ने आश्चर्य से उसकी ओर देखते हुए कहा।
अखिलेश की यही तो खूबी है। उन्होंने सुख दुख में सदा उसका साथ दिया है। एक बार फिर अखिलेश पर घर की जिम्मेदारी छोड़कर पहली ट्रेन से ऋचा चल पड़ी। घर पहुँची तो देखा, पिताजी बेड पर हैं। दीपा नमिता पहले से मौजूद थीं।
ऋचा को देखकर पिताजी की आँखों में एक चमक आई। इशारे से उन्होंने उसे अपने पास बुलाया तथा बोले …
'तू कहती थी ना कि आपने हमें ...तुम तीनों को कभी प्यार नहीं किया। देख यह आँखें तेरा ही इंतजार कर रही हैं। बेटा, अब मेरे जाने का समय नजदीक आ गया है। तू बड़ी है। पूरे परिवार को एक सूत्र में बाँधकर रखना।'
'पिताजी आप ऐसा क्यों कह रहे हैं ? आप ठीक हो जाएंगे। हम आपको कहीं नहीं जाने देंगे। दीपा देखो ना पिताजी क्या कह रहे हैं ?' भाव विह्वल स्वर में ऋचा ने दीप की ओर देखते हुए कहा।
' दीदी, धीरज रखो।'
पर पिताजी उसके बाद कहाँ कुछ बोल पाये। राहुलके काम के सिलसिले में बाहर गया था। इस बार शोभना भी उसके साथ गई थी। उनकी स्थिति देखकर ऋचा ने उनको खबर कर दी थी। उनके आने तक भी पिताजी नहीं रुक पाये। उनकी आत्मा के परमपिता में विलीन होते ही एक युग का अंत हो गया था। वह यादें जो उनके दिलों में दर्ज थी अब इतिहास बन गई थी। उनसे उनका मायका तो माँ के निधन के पश्चात ही छिन गया था किंतु पिता के रहने पर यहाँ इस घर में आने का एक बहाना तो था। वह घर जिसमें उनका बचपन बीता था। जिससे न जाने कितनी खट्टी मीठी यादें जुड़ी थी अब बेगाना हो जायेगा। यह सोच ऋचा को पागल बना रही थी।
राहुल के आते ही पिताजी की अंतिम यात्रा पर चल पड़े पूरा परिवार एकत्रित था पर किसी के मुँह में शब्द नहीं थे। ना जाने यह कैसी घड़ी थी... राहुल और शोभना घर के बेटा बहू होने के कारण सब रीति रिवाज निभा रहे थे। काश वे पिताजी के सामने भी उनके प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह कर पाते तब शायद अपने अंतिम समय में वह इतने अकेले और बेबस ना होते।
अभी अंतिम संस्कार के विधि-विधान चल ही रहे थे कि कि पिताजी के अभिन्न मित्र एडवोकेट श्यामा प्रसाद ने बताया कि मरने से एक हफ्ते पूर्व ही उन्होंने उन्हें बुलाकर, अपनी वसीयत लिखवाई थी। उनकी बात सुनकर राहुल चौंक गया तथा शोभना भी उखड़ी उखड़ी लगी।
' चाचा जी,वसीयत चाहे जो भी हो हम तो इतना जानते हैं कि जो कुछ पिताजी का है वह राहुल का ही है। हम तीनों को उसमें से कुछ नहीं लेना है।' स्थिति संभालते हुए ऋचा ने कहा। ऋचा के शब्द सुनकर जहाँ दीपा और नमिता ने मौन सहमति दे दी वहीं राहुल और शोभना ने संतोष की सांस ली।
पिताजी की तेरहवीं के पश्चात उनकी वसीयत पढ़ी गई। वसीयत में फैक्टरी और मकान राहुल के नाम करके अन्य संपत्ति के चार हिस्से करके, मकान के पिछवाड़े बने कमरे को जिसमें रमेश रहता था, उसे उसके नाम कर दिया था।
उन तीनों ने अपना-अपना हिस्सा उसी समय राहुल को
हस्तांतरित कर दिया था। यद्यपि उनके आग्रह को स्वीकार करने में राहुल ने हिचकिचाहट दिखी।
' तुम जानते हो राहुल पिताजी के लिए पुत्र का दर्जा सदा पुत्रियों से अधिक रहा है पर आज उन्होंने पुत्र और पुत्री में कोई भेद न करके हमारा मान बढ़ाया है। इससे बढ़कर हमें और क्या चाहिए !! पिताजी का जो कुछ भी है वह तुम्हारा ही है और तुम्हारा ही रहेगा। आज हमारे पास जो कुछ है नाम, शोहरत,इज़्ज़त,सुख,संतोष और शांति वह भी तो पिताजी की की ही देन है फिर और किसी भौतिक वस्तु की चाहत हम क्यों करें ? बस एक दूसरे के दिल में,एक दूसरे के लिए जगह बनी रहे,आपस में प्रेम रहे, हम तीनों की बस यही इच्छा है और यही पिताजी की अंतिम इच्छा थी।' राहुल की हिचकिचाहट देखकर ऋचा ने कहा।
'दीदी, मुझे क्षमा कर दो। मैं स्वार्थी बन गया था। तभी आप सबके निश्छल प्रेम को समझ नहीं पाया। यह घर जैसा था वैसा ही रहेगा। माँ पापा नहीं रहे तो क्या हुआ मैं उनके कर्तव्यों को, उनकी सारी जिम्मेदारियों को पूरा करूँगा।' भाव विह्वल स्वर में कहते हुए राहुल ने उसका हाथ पकड़ लिया।
'हाँ, एक बात और राहुल ...रमेश ने सदा पापा की सेवा की है उसे उसके हिस्से से बेदखल मत करना। 'राहुल के भाव विह्वल स्वर को सुनकर भी ऋचा ने निस्पृह स्वर में कहा। वह आज तक राहुल और शोभना का वार्तालाप भूल नहीं पाई थी।
' दीदी आप निश्चिंत रहिए। जैसे रमेश पापा के समय रहता था, अभी वैसे ही रहेगा।' राहुल ने कहा।
ऋचा के पीछे खड़ी शोभना के चेहरे पर भी राहुल के समान भाव ही झलक रहे थे। ऋचा सोच रही थी कि पापा की पुत्र के लिए चाह गलत नहीं थी। एक पूर्ण परिवार के लिए पुत्र और पुत्री का होना आवश्यक है। बहन से जहाँ भाई को माँ का वात्सल्य मिलता है वही भाई से बहन को पिता का स्नेह और सुरक्षा मिलती है। परिवार रूपी वृक्ष की हर डाली का अपना एक महत्व होता है, रूप होता है पर इसके लिए वृक्ष की जड़ का मजबूत होना बहुत आवश्यक है। ऐसा ना हो कि एक डाली की सुरक्षा के लिए दूसरी डाली को काट दिया जाये या मुरझाने दिया जाये। भेदभाव करने से डालियां तो मुरझाएंगी ही, पेड़ भी नहीं पनप पाएगा। इसी शाश्वत सत्य पर पूरा जीवन टिहोभनका है पर हम इंसान सब कुछ जानते समझते हुए भी जीवन में इस शाश्वत सत्य को अपना नहीं पाते हैं।
ऋचा को खुशी थी तो सिर्फ इतनी कि राहुल और शोभना के व्यवहार ने उनके परिवार को स्नेह के मजबूत धागे में बांध दिया है। अब माँ-पिताजी के रोपे पौधे में पुनः प्यार और स्नेह के पुष्प निकलने लगे हैं और शायद सदियों तक अनेक रूपों में अपनी महक बिखेरते रहेंगे ...पर यह तभी संभव है जब हम सब अपने मन में पैठे अविश्वास के पौधों को निकालकर सदा विश्वास रूपी पौधों का रोपन करें।