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स्कयरक्रो

स्कयरक्रो

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एक था स्कयरक्रो, इसको  हिंदी में क्या कहते अभी मालूम नहीं , लेकिन आप जैसे दोस्त ज़रूर बताएँगे, यही सोचकर , कहानी को आगे बढ़ाते है I हां तो एक था स्कयरक्रो, बेचारा, नाम भर के लिए ही बचा था अब. जाने कब , कितने साल पहले कुछ ऊबे हुए बच्चो ने उसे बना डाला था।  एक लंबा सा बांस और उसपर मटमैली सी हांड़ी ! बेचारा डेढ़ आँख , बिना नाक, और बिना कपड़ो के उसका जन्म कर दिया गया था , कुछ देर में बच्चे इस खेल से भी ऊब गए और उसे भूलभाल कर अपने घर लौट गए।  स्कयरक्रो  धूप. आंधी, पानी झेलता अपने जन्म का उत्सव और मातम मनाता खड़ा था। एक दिन ईश्वर की मेहरबानी हुई , अब इसे मेहरबानी कहे या उसका दुर्भाग्य अभी पता नहीं , खैर , साथ के उजड़े खेत में एक किसान आ बसा , जो कुछ कुछ उस स्कयरक्रो जैसा ही था , लेकिन उसके पास एक पत्नी थी और उम्मीद थी कि जल्द ही कुछ बच्चे भी आ ही जाएंगेI कई दिन तक हल जोत , उसने उस खेत में बीज डाला , और देखते देखते उसमे नन्हे पौधे फूटने लगे।  यह हरियाली हमारे स्कयरक्रो  को बहुत भायी I लेकिन अभागा कुछ दूर था , इसलिए पूरी तरह अपनी डेढ़ आँख से देख न पाता।  हरियाली आई तो पक्षी भी आये, आखिर भूख तो उन्हें भी लगती हैI लेकिन किसान और उसकी पत्नी पूरा दिन उन्हें उड़ाते फिरते।  ऐसे ही एक दिन थक कर किसान की पत्नी की नज़र दूर खड़े स्कयरक्रो  पर पड़ी I देखती तो वो उसे रोज़ थी, लेकिन कभी उसकी ज़रुरत महसूस नहीं हुई थी।  उसने झट से पति को बुलाया और दोनों ने मिल कर उसे वहाँ से उखाड़ा और अपने नए खेत में जमा दिया। अब हमारा स्कयरक्रो  थोड़ा बेहतर स्थिति में थाI  किसान की पत्नी ने उसे दो लोटे पानी डालकर पहले तो नहला दिया अपने पति की एक फटी सी कमीज भी पहना दी।  अब वो एक बांस से दो बांस वाला हो गया थाI  दूसरा बांस उसकी बाजु बन गए थे जिसपर पहनाई  कमीज पतंग के जैसे उड़ने लगी।  पक्षी वाकई डर गए और उन्होंने आना कम कर दिया. अचानक मिली अपनी इस शक्ति से स्कयरक्रो  को भी मज़ा आने लगा और वो जी भर भर के धीरे धीरे बढ़ती हरयाली में झूम झूम जाता।  किसान के घर से आने वाली आवाज़े उसके अकेलेपन को बहलाती और वो ऊंघ ऊंघ कर कभी सोता कभी जाग जाता।  दिन अच्छे से काटने लगे थे।  फिर भी कुछ कमी थी जो वो समझ नहीं पा रहा था , यहाँ तक कि मुझे भी अभी ऐसी कोई कमी दिखी नहीं थी।  

खैर , समय के साथ फसल पक गयी और किसान के घर एक नन्ही सी बच्ची ने जन्म लिया। स्कयरक्रो  का थोड़ा और कायाकल्प हुआ, एक नयी लाल हांड़ी से उसकी पुरानी खोपड़ी बदली गयी I पुरानी वाली कई जगह से टूट चुकी थी और उसकी आँख भी डेढ़ से आधी बची थी।  गले में अब कमीज के साथ एक लम्बा सा कपडा भी बांध दिया गया था।  अब ऐसा लगता कि एक उन्मुक्त प्रेमी हरे भरे खेत में पूरे उल्लास के साथ अपनी प्रेयसी के पीछे भाग रहा हो।  बच्ची बड़ी हुई , और उसके हाथो की कलाकारी और कोयले के टुकड़े से स्कयरक्रो को धीरे धीरे दो आँखे मिली , और एक नाक भी , और होंठ भी , मुस्कुराते हुए होंठ देख ऐसा लगता स्कयरक्रो अपने जीवन में पहली बार मुस्कुराया हो ! 

पर इस बार मुझे उसकी आँखों में कुछ दिखाई दियाI यह क्या था, जब तक तय न हो जाए , बताया नहीं जा सकता।  धीरे धीरे खेत बढ़ते गए, फसलें पकती रहीं, किसान के घर में दूसरी बेटी और फिर एक बेटा  भी आ गए I अब वहां की धमाचौकड़ी से हमारा स्कयरक्रो मज़े से रह्ताI ऐसा मुझे लग रहा थाI लेकिन उसकी आँखे अब धीरे धीरे एक आकाश सी विस्तृत हो गयी थी जिनमे बादल और सूरज का आना जाना साफ़ दिखने लगा था।  मुझे आश्चर्य था कि उसके रंग उड़ रहे होंठो का  मुस्कुराना इतना करुणामय क्यों होता जा रहा था  ? 

मौसम आ रहे थे , जा रहे थे।  हमारा स्कयरक्रो लेकिन कुछ बदल सा गया था।  उसकी फटी  कमीज , बेरंग हुआ स्कार्फ अब भी हवा से खूब उड़ते लेकिन उसका सर अब एक दिशा की तरफ ही झुकता जा रहा थाI  ध्यान से देखा तो पाया कि यह किसान के घर की दिशा थी , खेत वाली नहीं ! उस दिन पहली बार मैंने देखा कि बदरंग मटकी वाले उसके सर पर दो आँखों के नीचे कुछ निशाँ बन रहे है ! यह निशाँ मै खूब पहचानती थीI लेकिन स्कयरक्रो कैसे आंसू बहा सकता है और भला क्यों? अब मुझे थोड़ी फ़िक्र हुई।  पर जानती थी कि इतने साल से कुछ नहीं बोला तो वह अब क्या बोलेगा , पर कारण तो पता लगाना थाI सो मै कभी चिडिया बन उसके सर पर जा बैठती तो कभी उसकी खोपड़ी में  प्रवेश करने का कोई रास्ता  ढूंढ़ती।  उसकी उदासी और मेरा जतन दोनों बढ़ते जा रहे थे। 

आखिरकार एक रात किसी के सुबकने की आवाज़े मुझ तक पहुंची और मै ठिठक कर सुनने लगी।  न जाने कैसे मुझे मालूम था कि यह रो कौन रहा है ? झट से मै उसके पास जा पहुंची लेकिन मेरी तरफ उसका कतई ध्यान ना गया।  कुछ पूछती तो वह नहीं बताता सो मैं चुपचाप उसका सर सहलाने लगीI एक पल तो वो चौंकाI लेकिन फिर मुझ से लिपट ज़ोर-ज़ोर रोने लगा।  जाने ऐसे ही कितना समय गुजर गया।  फिर वह भी शांत हो गया I मेरी तरफ झेंपता सा देखने लगा I मैंने एक आश्वासन वाली मुस्कुराहट उसकी तरफ उछाली और हम दोस्त बन गए।  वैसे भी सभी दोस्तियां ऐसे ही यकायक ही तो होती है ! 

'भाई, रो क्यों रहे थे?' 

वो एक उदास हंसी हँसा , बोला कुछ नहींI 

"कई दिनों से देख रही हूँ तुम उदास रहने लगे थे , आज रोते भी देख लिया, बता दो क्या बात है, शायद दिल हल्का हो जाए!" 

दिल कहते ही मै भी कुछ चौंकी, कुछ वह भी हैरान हुआ।  आखिर एक scarecrow में भला दिल कैसे हो सकता है ? पर यह कहानी थी , और इस में सचमुच सब कुछ हो सकता थाI  इस तरह के प्रश्नचिन्ह कहानियों में व्यर्थ ही होते है।  

सुबह हो गयी थीI किसान के घर में चहल - पहल शुरू हो गयी थीI हमारे स्कयरक्रो  ने उदास हो उधर नज़र दौड़ाई और एकटक उनके क्रियाकलापों को देखने लगा।  किसान, उसकी पत्नी, बच्चे .... चिड़ियों के कलरव का शोर- सब सुन्दर था पर स्कयरक्रो निर्लिप्त सा खड़ा खड़ा उन्हें देखता रहा। 

मुझे कुछ कुछ आभास होने लगा थाI फिर भी मै उसके मुहं से सुन लेती तो पक्का हो जाताI 

'बोलो, दोस्त , क्या हुआ है तुम्हे ?'

'मै अकेला हो गया हूँ, सखी , कोई नहीं है मेरा , न पत्नी न बच्चे , ना बात करने वाला, न सुनने वालाI देखो तो उसकी पत्नी को, कितना स्वादिष्ट खाना बनाती हैI महक यहाँ तक आती है I और बच्चे ? उनकी प्यारी मीठी बाते सुनो कभी  .... मेरे नसीब में यह सब क्यों नहीं ?' 

हम्म्म्म ……………… तो यह बात थी ! अब मै खामोश होकर सोचने लगी क़ि अब क्या किया जा सकता है ? स्कयरक्रो   को ऐसा क्या दिया जाए जो उसकी उदासी दूर कर दे ? शादी! बड़ा विचित्र ख्याल था! लेकिन और कोई उपाय भी तो न था ! 

मैंने हल्के से उसका सर सहलाया और कहा- 

"भाई, उदास ना हो, देखते है कुछ "I

उसे विश्वास न हुआ लेकिन उसकी आँखों में कौंधी उम्मीद की किरण मुझे और विचलित कर गयी। 

उस शाम मै किसान के खेत में चुपचाप बैठ गयी, और  ओट करके स्कयरक्रो को छुपा दिया जिससे उसे पक्षी देख ना पाये।  और उसके बाद हर तरह के पक्षी किसान के खेत में जी भर के दाना खाने लगे।  मुझे लगा था मेरी योजना सफल हो जाएगी और किसान दम्पति एक और स्कयरक्रो लगा देंगे ! यह क्रम तीन दिन चला और तीसरे दिन पति पत्नी इतने परेशान हुए कि उन्होंने वो किया जो मेरी कल्पनाशक्ति से परे था ! 

तीसरे दिन, दोनों गुस्से में भर स्कयरक्रो की तरफ गए , और उसे उखाड़ फेंका।  उसका हांडी वाला सर दूर तक लुढ़कता चला गया और चूर चूर हो गया। उसके हाथ पैर इकठ्ठा करके चूल्हे में झोंक दिए गए और स्कयरक्रो  का नामो -निशाँ खत्म ! 

मुझे काटो तो खून नहीं ! एक अपराधबोध से भर कर मै भी वहाँ से लौट गयी।  मुझे उसका दुख दूर करना थाI लेकिन मै ही उसकी मृत्यु का कारण बनीI “अब किसी के बारे में नहीं सोचूंगी” यह प्रण करके मै  भी यहाँ-वहां बिखर गयी। 

 कहानियों की भी एक नियति होती है , सूत्रधार के हाथ में  उन का अंत नहीं होता !

 

 


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