श्रद्धांजलि
श्रद्धांजलि
यादें जो जहन में होती हैंए वे यदा-कदा दस्तक दे देती हैं तथा कुछ यादों का महत्व जीवन में बहुत बाद में पता चलता हैं। उस समय हम उन्हें मजाक से हल्के में लेकर छोड़ देते हैं । लेकिन कुछ समय पश्चात उन्हें हम अपना आदर्श मानते हैं और जीवन को उन्हीं आदर्शों पर चलाने की कोशिश करते हैं । मेरे लिए यह संस्मरण लिखना और उनके दिए नैतिक मूल्यों पर ताउम्र चलना उस नेक आत्मा के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
बात 1982 की है, मैं बी ए प्रथम वर्ष की छात्रा थी । अभी कालिज की दूसरी घण्टी शुरू ही हुई थी कि छुट्टी की घोषणा हो गई। मैंने साथ वाली लड़की से छुट्टी का कारण पूछा तो उसने बताया कि पास के गाँव में किसी प्रतिष्ठत व्यक्ति का निधन हो गया है, कालिज का पूरा स्टाफ उनकी अंतेष्ठि में जाएगा, इसलिए कालिज की छुट्टी हो गई है। मैंने हैरानी में कहा, "अरे! वो तो मेरे दादाजी थे, बूढ़े ही तो थे, छुट्टी की क्या जरूरत थी।" उस समय मैं सत्रह साल की अल्हड़ और अपरिपक्व, उस छुट्टी की गहराई नहीं समझ पाई कि यह छुट्टी उस जीवात्मा के नेक कर्मों का परिणाम है। जब मैं स्कूल में पढ़ती थी, तो स्कूल के बहुत से कमरों की दीवारों पर उनका नाम लिखा होता था। यह कमरा श्री पुत्र श्री ने बनवाया है । उस समय दीवारों पर उनका नाम लिखा होना मुझे गौरवान्वित महसूस नहीं करवाता था, कि वे मेरे दादाजी हैं। अपितु मासूम बचपन में यह सब मजाक लगता था। उसके पीछे के अर्थ और कर्म समझ नहीं आते थे कि इस नश्वर शरीर ने तो एक दिन चलें जाना हैं, लेकिन उसके द्वारा किए काम उसे हमेशा जिंदा रखेंगे। जब वे मृत्यु के एकदम निकट थे, तब मेरे ताऊजी द्वारा पूछे जाने पर कि दान कहाँ-कहाँ पर क्या-क्या देना है, तब भी उन्होंने विद्या की घरों स्कूलों और कालेज को चुना। अपने जीवन काल में उन्होंने विद्या को अत्याधिक महत्व दिया। उनके परिवार में कोई भी अनपढ़ नहीं था। उन्होंने मेरी अनपढ़ दादीजी को भी पढ़ाया । शाम को सब बच्चों की उनके आगे क्लास लगती थी। पहाड़ें सुनाना, कटवा गिनती एक साँस में सुनाना, दिनचर्या का ब्यौरा देना, परीक्षा के नम्बर बताना। अगर कोई अध्यापक हमारी शिकायत करते तो स्कूल में लगड़ी टांग एवं हाथ ऊपर करवा के कड़कती धूप में खड़ा करवा देते थे । इसके अतिरिक्त और भी बहुत सारे असहनीय बंधन थे। नौकरों को नौकर नहीं कहना, उन्हें चौके में बैठा कर खाना खिलाना हैं, घर से बाहर नहीं जाना, फैशन नहीं करना, फिजूल में समय व्यतीत नहीं करना, बिना मतलब घर में कोई सहेली नहीं आएगी। उस समय हमें दादाजी प्यारे कम, सनकी और खूंखार ज्यादा नजर आते थे। क्योंकि हमारी उम्र तो छलाँगें लगा कर उड़ने की थी। वो हर साल बैसाखी पर अखण्ड पाठ रखवाते तथा आसपास के चार-पांच गाँवों का भण्डारा करते थे। गरीबों की बहुत मदद करते तथा श्राद्ध पर पूरे गाँव को न्यौता देते। वो सभी सामाजिक कार्यों में हमेशा अग्रणी रहते थे।कोमल ह्रदय तथा सभी के साथ न्याय करते थे। गाँव वाले उनका बहुत सम्मान करते थे।उस समय मैं अपरिपक्व, अक्सर सोचती इतने कठोर और सनकी आदमी के आगे सारे लालाजी,लालाजी करते क्यों झुकते हैं । अब उनका नाम, काम, सम्मान, संस्कार, कठोरता और आदर्श मूल्यों के अर्थ समझ आते है तो सिर यक बा यक उनके आगे झुक जाता है। उनके दिए संस्कारों ने हमारी जिंदगी बना दी तथा आज हम भी उन्हीं के दिखाए पथ पर चलने की कोशिश करते हैं। अगर जिंदगी में उनके दिए संस्कार और आदर्श मूल्य न होते तो जीवन पथ कर्म विहीन होता। इस संस्मरण के जरिए आज मेरी उनको यह सच्ची श्रद्धाँजली है। वो शुद्ध आत्मा जिस भी जहान में हो उनको मेरा शत-शत शीश नमन ।
उनकी शख्सियत आज भी है जिंदा और जवां
भले ही उन्होंने रूह को दिया हो गंवा।