" श्राद्ध नहीं श्रद्धा "
" श्राद्ध नहीं श्रद्धा "
बहुत दिनों से सोच रहा था कि मैं इस कहानी को लिखूं या न लिखूं।आखिर ये किसी दूसरे के घर का मामला था। मैं बेकार क्यूं इन पचड़ों में पड़ूं?लेकिन दिल और दिमाग की लड़ाई में आखिर जीत दिल की ही हुई और अंततः मैंने अपनी कलम उठा ही ली।
शर्मा अंकल का परिवार शुरू से ही हमारा पड़ोसी रहा है। अब तो खैर बहुत बस्ती हो गई।पहले ये इलाका जहां पापा ने घर बनाया था,शहर से बाहर था।शर्मा अंकल और पापा दोनों एक ही ऑफिस में काम करते थे। दोनों ने एक साथ शहर से बाहर एक सस्ता जमीन का टुकड़ा देख कर मकान बनवाया और तबसे दोनों परिवार एक दूसरे के पड़ोसी हो गए।हमारे परिवारों ने सुख दुख के इतने साल एक साथ गुजारे। दोनों परिवारों में अच्छा मेलजोल शुरू से ही रहा। शर्मा अंकल के दो बेटे थे।मैं अपने घर में अकेला था। शर्मा आंटी कई बार मम्मी से मजाक में बोलती थी 'अरे बहन,हमारे तो दो दो लड़के हैं,अगर बुढ़ापे में एक से न बने तो दूसरे का आसरा तो है।मगर तुम लोगों का क्या होगा?' मम्मी हंसी में बात को टाल देतीं। कहतीं ' बहन,लड़का तो एक ही अगर ढंग का निकाल जाए तो सौ से बेहतर और न निकले तो सौ भी किस काम के?'
समय अपनी रफ्तार से चलता रहा।समय के साथ हम बच्चे भी बड़े हो गए।सबकी शादियां भी हो गईं।मेरी बैंक में इसी शहर में नौकरी लग गई।तो मैं इसी शहर में मम्मी पापा के साथ रह गया।शर्मा अंकल का बड़ा बेटा पढ़ने में बहुत अच्छा नहीं निकला।किसी तरह से ग्रेजुएट हो गया।शर्मा अंकल ने कुछ पैसे डाल कर इसी कॉलोनी में उसे एक दुकान खुलवा दी।अपनी मेहनत से उसने अपनी दुकान जमा ली,और वो यहीं अंकल आंटी के साथ मजे से रहने लगा।छोटा वाला पढ़ने में थोड़ा तेज था।उसे शर्मा अंकल ने पास के किसी प्राइवेट कॉलेज से कंप्यूटर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करा दी।उसकी भी पूना की किसी कंपनी में जॉब लग गई।वो वहां सेटल हो गया।
मेरी शादी के कुछ समय बाद ही एक दिन अचानक मम्मी को एक छोटा सा अटैक आया और हम लोग कुछ समझ पाते या कर पाते,वो हम सबको छोड़ कर चली गईं। अभी हमारी शादी को कुछ ही महीने हुए थे।ऐसे में मम्मी का अचानक चले जाना, हम सबके लिए बहुत बड़ा सदमा था। पूजा मेरी पत्नी भी अभी बीस- बाइस की उम्र की थी।ऐसे समय में पापा ने ही बहुत हिम्मत से काम लिया और हम सबको संभाला।
आंटी जरूर बीच बीच में कभी पापा से कभी मुझसे कहती रहतीं 'घर तो घर वाली के रहने से होता है, अब बहनजी ही न रहीं तो घर की फिकर कौन करेगा?'मैं तो खैर उन्हें क्या ही जवाब देता? पापा जरूर कहते 'भाभी जी अब होनी को कौन टाल सकता है? हम सब मिल कर कर लेते हैं।आंटी जब तब तीज त्योहार व्रत उपवास के तौर तरीकों को लेकर भी टोका टाकी करती रहतीं।पापा ने कह रखा था कि बच्चों जो कर सकते हो वो पूरे मन से करो।जो नहीं हो सकता उसके लिए परेशान होने की जरूरत नहीं।
शर्मा अंकल जब पैरालाइज हो गए तो उनके परिवार की परेशानी काफी बढ़ गई।छोटा बेटा नीरज तो अपने परिवार के साथ बाहर ही था।कभी कभी छुट्टियों में आता एक दो दिन रुक कर कुछ पैसे देकर चला जाता। बड़े वाला पंकज पूरा दिन दुकान में लगा रहता था। आंटी केवल मुंह से बोलने और सुनाने में ही रहतीं।ले देकर अंकल की देखभाल बड़ी बहू सुशीला के ही जिम्मे थी।वो बेचारी दिन भर घर बच्चों और अंकल के कामों में लगी रहती।ऐसे में कभी किसी काम के कोई चूक हो जाए तो आंटी सुशीला और उसके घर वालों को गंदी गंदी गालियां दे देकर सारा माहौल प्रदूषित कर देती थीं।
अंकल आवाज तो लगा नहीं पाते थे बस मुंह से घों घों की आवाज निकालते रहते।कभी उनके घर जाओ तो बस रोते रहते। सच उनके लिए वाकई बहुत कठिन समय था।फिर भी जाने कैसे उन्होंने चार साल निकाल लिए। पिछले साल जाड़े में शायद ईश्वर से भी उनके कष्ट देखे नहीं गए और एक रात उन्हें उनके कष्टों से मुक्ति मिल गई।छोटा बेटा नीरज भी आया सबने मिलकर अच्छे से उनकी सारी अंतिम क्रियाएं कर दीं। सब कुछ अच्छे से निपट गया।नीरज अपने घर पूना चला गया अपने बीवी बच्चों के साथ। यहां आंटी और बड़े बेटे पंकज का परिवार रह गया। आंटी बराबर पंकज,उसकी पत्नी और बच्चों को ताने देती रहतीं।नीरज,उसकी पत्नी और उसके बच्चों की तारीफ करती रहतीं। सुशीला ये सब सुन सुन कर परेशान होती।मेरी पत्नी पूजा ही उसकी एक मात्र सहेली थी। उससे ही बोल कर कभी कभी अपना दिल हल्का कर लेती।
अब इस बार श्राद्ध आए तो आंटी सुशीला के पीछे पड़ गईं,शर्मा अंकल का श्राद्ध करना है। पहला श्राद्ध है इसलिए पंडितों का भोजन, दान आदि की लंबी चौड़ी लिस्ट बना दी।पंकज की हैसियत इतना कुछ करने की नहीं सो उसने मां से खर्चे कुछ कम करने को कह दिया।बस इसी बात को लेकर आंटी बिफर गईं।'अभी नीरज होता तो ऐसे मना न कर देता। सब कुछ बड़े अच्छे से करता। बाप का श्राद्ध करने में पैसों का मुंह देख रहा है जोरु का गुलाम।' और पता नहीं क्या क्या? सुशीला ने कह दिया ' बगल में आंटी का श्राद्ध तो नहीं किया उन लोगों ने इतने खर्चे से।' 'उनकी तो बात ही न कर,सारे संस्कार बेच डाले हैं।इस उमर में श्रीवास्तव जी बहू बेटे की सेवा में लगे रहते हैं। बहू को किसी का डर भी है वहां?' सुशीला जब ये बात पूजा से कह रही थी तो पापा वहीं से गुजर रहे थे।उनके कानों में भी ये बात पड़ गई।पापा वहीं रुक गए और बोले 'बेटा अब इस उमर में तुम्हारी मम्मी को तो क्या समझाया जाए? बस इतना समझ लो कि जिंदा की कदर मरे से ज्यादा होनी चाहिए।शर्मा जी ने जीते जी जो कष्ट झेले वैसे कष्ट ऊपर वाला दुश्मन को भी न दे। श्राद्ध करो,अपनी हैसियत में रहकर करो।लेकिन जीते जी तो पूछा नहीं बाद करने को कुछ भी करो तो किस काम का?श्रद्धा न हो तो लाख श्राद्ध करो।किस काम का?'
