शिव शिवलिंग और शिवरात्रि की महिमा
शिव शिवलिंग और शिवरात्रि की महिमा
भगवान शिव कितने करुणामय है, यह बात बताते हुए ब्रह्माजी कहते हैं- हे पार्वति ! तुम अपने पति को समझा दो-यह बड़ा बावला और भोला दानी है। देखो स्वयं तो नंगा फिरता है; परन्तु यदि किसी याचक को देखता है तो कहता है कि थोड़ा मत माँगना, यहाँ कुछ कमी नहीं है। संसार में जितने याचक जोड़े जुट सकते उन्हें जुटाकर उन सब कँगालों को प्रसन्न होकर इन्द्र बना देता है। यह स्वयं तो गले में भयङ्कर विष वाले भीषण सर्प तथा नेत्रों में अग्नि धारण किये हुए है किन्तु इसके शरणागत तीनों तापों से दम्ब नहीं होते। इसके साथी तो भूत-वेतालादि हैं और नाम भी 'भव' है परन्तु यह भव (संसार) के भारी भयों को पलभर में नष्ट कर देता है।
यह तुलसीदास का स्वामी (महादेव) है तो दरिद्रशिरोमणि-से, किन्तु इनका स्मरण करनेपर दुःख और दारिद्रय ठहरने नहीं पाते। इनके घर में केवल भाँग है और आँगन में केवल धतूरा; परन्तु इस नंगे के आगे माँगने वाले निरन्तर बढ़ते ही रहते हैं।
यह सर्प और कपाल धारण करने वाला यह बड़ा कौतुकी है । इनके खुद के घर मे केवल भांग के पौधे है, किंतु मांगने वालो को यह लोकपाल बना देते है । शिव धर्म अर्थ काम मोक्ष सबका दाता है, किंतु भूखा केवल भाव का है , इनका स्मरण मात्र ही हमारा कल्याण करता है, किंतु हम फिर भी इन्हें छोड़कर विषयो के दास बने हुए है ।। यह जो बड़ी बड़ी गाड़िया , महल आदि वाले सेठ है, इन्होंने गलती से कभी किसी जन्म में एक लोटा जल भगवान शिवलिंग को अर्पित कर दिया होगा, उसी कर्म से उन्हें इतनी मौज है । हमआप सभी भी इस कथा को सुनकर अपना जीवन मौज में ले जा रहे है ।
शिवपुराण की पिछली कथाओं में आपने देवराज, बिंदुग की कथा सुनी । जो हत्यारे, व्यभिचारी, लुटेरे डकैत होते हुए भी शिवलोक को प्राप्त हुए । कारण की इन्होंने शिवपुराण की कथा सुनी । शिवपुराण की कथा जहां होती हो, वहां भूत प्रेत , दुःख अशांति नही आ सकती ।। शिवपुराण में तो कहा गया है की जो नित्य शिवपुराण का स्वाध्याय करता है, उसकी सभी मनोकामना पूर्ण हो जाती है ।। अब आपको शिवपुराण से ही एक कथा और सुनाते है । इस कथा में वर्णन है,की श्रीविष्णु और ब्रह्माजी का युद्ध हुआ, तब शिवजी को बीच बचाव के लिए आना पड़ा । उसी समय पहली बार शिवलिंग का प्राकट्य हुआ ।
कथा इस प्रकार है ।
पूर्वकाल में श्रीविष्णुजी अपनी पत्नी श्रीलक्ष्मीजी के साथ शेष-शय्या पर शयन कर रहे थे। तब एक बार ब्रह्माजी वहां पहुंचे और विष्णुजी को पुत्र कहकर पुकारने लगे - पुत्र उठो ! मैं तुम्हारा तुम्हारा ईश्वर तुम्हारे सामने खड़ा हूं।।
यह सुनकर विष्णुजी को क्रोध आ गया। फिर भी शांत रहते हुए वे बोले- 'पुत्र! तुम्हारा कल्याण हो। कहो अपने पिता के पास कैसे आना हुआ?'
यह सुनकर ब्रह्माजी कहने लगे- मैं तुम्हारा रक्षक हूं। सारे जगत का पितामह हूं। सारा जगत मुझमें निवास करता है। तू मेरी नाभि कमल से प्रकट होकर मुझसे ऐसी बातें कर रहा है। इस प्रकार दोनों में विवाद होने लगा। तब वे दोनों अपने को प्रभु कहते-कहते एक-दूसरे का वध करने को तैयार हो गए।
हंस और गरुड़ पर बैठे दोनों परस्पर युद्ध करने लगे। ब्रह्माजी के वक्षस्थल में विष्णुजी ने अनेकों अस्त्रों का प्रहार करके उन्हें व्याकुल कर दिया। इससे कुपित हो ब्रह्माजी ने भी पलटकर भयानक प्रहार किए। उनके पारस्परिक आघातों से देवताओं में हलचल मच गई। वे घबराए और त्रिशूलधारी भगवान शिव के पास गए और उन्हें सारी व्यथा सुनाई। भगवान शिव अपनी सभा में उमा देवी सहित सिंहासन पर विराजमान थे और मंद-मंद मुस्करा रहे थे।
महादेव जी बोले-पुत्रों! मैं जानता हूं कि तुम ब्रह्मा और विष्णु के परस्पर युद्ध से बहुत दुखी हो। तुम डरो मत, मैं अपने गणों के साथ तुम्हारे साथ चलता हूं। तब भगवान शिव अपने नंदी पर आरूढ़ हो, देवताओं सहित युद्धस्थल की ओर चल दिए। वहां छिपकर वे ब्रह्मा-विष्णु के युद्ध को देखने लगे। उन्हें जब यह ज्ञात हुआ कि वे दोनों एक-दूसरे को मारने की इच्छा से माहेश्वर और पाशुपात अस्त्रों का प्रयोग करने जा रहे हैं तो वे युद्ध को शांत करने के लिए महाअग्नि के तुल्य एक स्तंभ रूप में ब्रह्मा और विष्णु के मध्य खड़े हो गए।
महाअग्नि के प्रकट होते ही दोनों के अस्त्र स्वयं ही शांत हो गए। अस्त्रों को शांत होते देखकर ब्रह्मा और विष्णु दोनों कहने लगे कि इस अग्नि स्वरूप स्तंभ के बारे में हमें जानकारी करनी चाहिए। दोनों ने उसकी परीक्षा लेने का निर्णय लिया। भगवान विष्णु ने शूकर रूप धारण किया और उसको देखने के लिए नीचे धरती में चल दिए। ब्रह्माजी हंस का रूप धारण करके ऊपर की ओर चल दिए। पाताल में बहुत नीचे जाने पर भी विष्णुजी को स्तंभ का अंत नहीं मिला। अतः वे वापस चले आए। ब्रह्माजी ने आकाश में जाकर केतकी का फूल देखा। वे उस फूल को लेकर विष्णुजी के पास गए। श्रीविष्णुजी ने उनके चरण पकड़ लिए। ब्रह्माजी के छल को देखकर भगवान शिव प्रकट हुए। विष्णुजी की महानता से शिव प्रसन्न होकर बोले- हे विष्णुजी ! आप सत्य बोलते हैं। अतः मैं आपको अपनी समानता का अधिकार देता हूं।
महादेव जी ब्रह्माजी के छल पर अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने अपने त्रिनेत्र (तीसरी आंख) से भैरव को प्रकट किया और उन्हें आज्ञा दी कि वह तलवार से ब्रह्माजी को दंड दें। आज्ञा पाते ही भैरव ने ब्रह्माजी के बाल पकड़ लिए और उनका पांचवां सिर काट दिया। ब्रह्माजी डर के मारे कांपने लगे। उन्होंने भैरव के चरण पकड़ लिए तथा क्षमा मांगने लगे। इसे देखकर श्रीविष्णु ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि आपकी कृपा से ही ब्रह्माजी को पांचवां सिर मिला था। अतः आप इन्हें क्षमा कर दें। तब शिवजी की आज्ञा पाकर ब्रह्मा को भैरव ने छोड़ दिया। शिवजी ने कहा तुमने प्रतिष्ठा और ईश्वरत्व को दिखाने के लिए छल किया है। इसलिए मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम सत्कार, स्थान व उत्सव से विहीन रहोगे।
ब्रह्माजी को अपनी गलती का पछतावा हो चुका था। उन्होंने भगवान शिव के चरण पकड़कर क्षमा मांगी और निवेदन किया कि वे उनका पांचवां सिर पुनः प्रदान करें। महादेव जी ने कहा - जगत की स्थिति को बिगड़ने से बचाने के लिए पापी को दंड अवश्य देना चाहिए, ताकि लोक-मर्यादा बनी रहे। मैं तुम्हें वरदान देता हूं कि तुम गणों के आचार्य कहलाओगे और तुम्हारे बिना यज्ञ पूर्ण न होंगे। फिर उन्होंने केतकी के पुष्प से कहा- अरे दुष्ट केतकी पुष्प ! अब तुम मेरी पूजा के अयोग्य रहोगे। तब केतकी पुष्प बहुत दुखी हुआ और उनके चरणों में गिरकर माफी मांगने लगा। तब महादेव जी ने कहा- मेरा वचन तो झूठा नहीं हो सकता। इसलिए तू मेरे भक्तों के योग्य होगा। इस प्रकार तेरा जन्म सफल हो जाएगा।
ब्रह्मा और विष्णु भगवान शिव को प्रणाम कर चुपचाप उनके दाएं- बाएं भाग में खड़े हो गए। उन्होंने पूजनीय महादेव जी को श्रेष्ठ आसन पर बैठाकर पवित्र वस्तुओं से उनका पूजन किया। दीर्घकाल तक स्थिर रहने वाली वस्तुओं को 'पुष्प वस्तु' तथा अल्पकाल तक टिकने वाली वस्तुओं को 'प्राकृत वस्तु' कहते हैं। हार, नूपुर, कियूर, किरीट, मणिमय कुंडल, यज्ञोपवीत, उत्तरीय वस्त्र, पुष्पमाला, रेशमी वस्त्र, हार, मुद्रिका, पुष्प, तांबूल, कपूर, चंदन एवं अगरु का अनुलेप, धूप, दीप, श्वेत छत्र, व्यंजन, ध्वजा, चंवर तथा अनेक दिव्य उपहारों द्वारा, जिनका वैभव वाणी और मन की पहुंच से परे था, जो केवल परमात्मा के योग्य थे, उनसे ब्रह्मा और विष्णु ने अपने स्वामी महेश्वर का पूजन किया।
इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने दोनों देवताओं से मुस्कराकर कहा- पुत्रो! आज तुम्हारे द्वारा की गई पूजा से मैं बहुत प्रसन्न हूं। इसी कारण यह दिन परम पवित्र और महान होगा। यह 'तिथि 'शिवरात्रि' के नाम से प्रसिद्ध होगी और मुझे परम प्रिय होगी। इस दिन जो मनुष्य मेरे लिंग अर्थात निराकार रूप की या मेरी मूर्ति अर्थात साकार रूप की दिन-रात निराहार रहकर अपनी शक्ति के अनुसार निश्चल भाव से यथोचित पूजा करेगा, वह मेरा परम प्रिय भक्त होगा। पूरे वर्ष भर निरंतर मेरी पूजा करने पर जो फल मिलता है, वह फल शिवरात्रि को मेरा पूजन करके मनुष्य तत्काल प्राप्त कर लेता है। जैसे पूर्ण चंद्रमा का उदय समुद्र की वृद्धि का अवसर है, उसी प्रकार शिवरात्रि की तिथि मेरे धर्म की वृद्धि का समय है। इस तिथि को मेरी स्थापना का मंगलमय उत्सव होना चाहिए। मैं मार्गशीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र से युक्त पूर्णमासी या प्रतिपदा को ज्योतिर्मय स्तंभ के रूप में प्रकट हुआ था। इस दिन जो भी मनुष्य पार्वती सहित मेरा दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिंग की झांकी निकालता है, वह मेरे लिए कार्तिकेय से भी अधिक प्रिय है। इस शुभ दिन मेरे दर्शन मात्र से पूरा फल प्राप्त होता है। यदि दर्शन के साथ मेरा पूजन भी किया जाए तो इतना अधिक फल प्राप्त होता है कि वाणी द्वारा उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
