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Gautam Kothari

Inspirational

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Gautam Kothari

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जयचंद : देशभक्त या गद्दार?

जयचंद : देशभक्त या गद्दार?

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भगवान प्रभु श्रीराम चंद्र जी के अवतरण, अयोध्या राम मंदिर के निर्माणकर्ता, सूर्यवंशी कुलभूषण राष्ट्र कूटलेख राजवंशी महाराजाधिराज जयचंद मनोहर गहरवार जी

ऐसे ही प्रतापी महाराजाधिराज ने कई डिग्रीयो से नवाजा था कन्याकुब्जेश्वर धर्मपरायण देशभक्त महाराजा जयचंद जी को यौवनो के नाका, दलपंगुल और नारायण का अवतार बताया गया है! कान्यकुब्जेश्वर धर्मपारायण देशभक्त महाराजा जय चन्द्र जी का जन्म सन् 1114 ई.पू. में महाशिवरात्रि के दिन हुआ था !! इसी दिन दादा महाराजा गोविंद चंद्र गहरवार जी ने दशार्ण देश (पूर्वी मालवा) पर विजय प्राप्त की थी !! इसका उल्लेख करते हुए नयचंद्र ने अपनी पुस्तक 'रंभामंजरी' में लिखा है-

पितामहेन तजजन्मदिने दशार्णदेशेसु प्राप्तं प्रबलम् !!

यवन सैन्य जितम् अतैव तन्नम जत्रचन्द्रः !!

अर्थात् दूसरे जन्म के दिन पितामह ने युद्ध में यवन-सेना (बाहरी आक्रमण म्लेच्छो) पर विजय प्राप्त की, अर्थात् इनका नाम जत्रचन्द्र रखा गया। संस्कृत-साहित्य में महाराज जयचंद के अनेक नाम मिलते हैं। मेरुतुंग ने प्रबंधनचिंतामणि को 'जयचंद्र' में, राजशेखर सूरी ने प्रबंधनकोश को 'जयंतचंद्र' में, नयचंद्र ने रामभामंजरी को 'जैत्रचंद्र' में कहा है !!


भगवान प्रभु श्रीराम चंद्र जी के अवतरण, अयोध्या राम मंदिर के निर्माणकर्ता, सूर्यवंशी कुलभूषण राष्ट्र कूटलेख राजवंशी महाराजाधिराज जयचंद मनोहर गहरवार जी

फरिश्ता के अनुसार महाराजा जय चन्द्र जी के पास सबसे बड़ी विशाल सेना थी !!

कामिलउत्तवारीख ने वर्णन किया है कि महाराजा जय चन्द्र जी की सेना में 700 हाथी थे !!

ताजल-एम-अतिर के अनुसार महाराजा जय चन्द्र जी की सेना बालुका सामीथ के अनुसार थी !!

रामभमंजरी में भी महाराजा जय चन्द्र जी की विशाल सेना और विशाल राज्य का उल्लेख है !!

जय चन्द्र जी एक धर्मपारायण देशभक्त महाराजा थे, उनके ऊपर लगे आरोप का कोई आधार नहीं है, यह आरोप निराधार है!

ऐसे ही प्रतापी महाराजाधिराज ने कई डिग्रीयो से नवाजा था कन्याकुब्जेश्वर धर्मपरायण देशभक्त महाराजा जयचंद जी को यौवनो के नाका, दलपंगुल और नारायण का अवतार बताया गया है! कान्यकुब्जेश्वर धर्मपारायण देशभक्त महाराजा जय चन्द्र जी का जन्म सन् 1114 ई.पू. में महाशिवरात्रि के दिन हुआ था !! इसी दिन दादा महाराजा गोविंद चंद्र गहरवार जी ने दशार्ण देश (पूर्वी मालवा) पर विजय प्राप्त की थी !! इसका उल्लेख करते हुए नयचंद्र ने अपनी पुस्तक 'रंभामंजरी' में लिखा है-

पितामहेन तजजन्मदिने दशार्णदेशेसु प्राप्तं प्रबलम् !!

यवन सैन्य जितम् अतैव तन्नम जत्रचन्द्रः !!

अर्थात् दूसरे जन्म के दिन पितामह ने युद्ध में यवन-सेना (बाहरी आक्रमण म्लेच्छो) पर विजय प्राप्त की, अर्थात् इनका नाम जत्रचन्द्र रखा गया। संस्कृत-साहित्य में महाराज जयचंद के अनेक नाम मिलते हैं। मेरुतुंग ने प्रबंधनचिंतामणि को 'जयचंद्र' में, राजशेखर सूरी ने प्रबंधनकोश को 'जयंतचंद्र' में, नयचंद्र ने रामभामंजरी को 'जैत्रचंद्र' में कहा है !!

जबकि लोक में 'जयचंद' कहा जाता है। 'रामभामंजरी' के अनुसार महाराज जयचंद्र की माता का नाम 'चंद्रलेखा' था, जो अनंगपाल तोमर की ज्येष्ठ पुत्री थीं! बुरा 'पृथ्वीराज रासो' की छंद संख्या 681-682 के अनुसार उनका नाम सुंदरी देवी था। 'भविष्यपुराण' में महाराज जयचंद्र की माता का नाम चन्द्रकान्ति बताया गया है।

आषाढ़ शुक्ल दशमी संवत 1224 रविवार रविवार 16 जून, 1168 को पिता महाराज विजयचंद्र ने जयचंद्र को युनाइटेड के पद पर अभिषिक्त किया। आषाढ़ शुक्ल षष्ठी संवत 1226 रविवार रविवार 21 जून, 1170 ई. महाराज जयचंद्र को राज्याभिषेक हुआ था। राज्याभिषेक की मूर्ति व पूर्व में भी महाराज जयचंद ने कई युद्धों में विजय प्राप्त की थी।

'पृथ्वीराज रासो' के महाराज जयचंद ने सिन्धु नदी पर दादरी (सुल्तान, गौड़) से ऐसा घोरमबत किया कि नदी के नील जल से रक्त की धारा बिल्कुल ऐसी लाल हुई मानो मानस की रात में उषा अरुणोदय हो गया। महाकवि विद्यापति ने 'पुरुष परीक्षण' में लिखा है कि यवनेश्वर साहबुद्दीन मोहम्मद गौरी को जयचंद्र जी ने कई बार रण में उतारा था। और युद्ध क्षेत्र से भागकर मोहम्मद गौरी ने अपना जान उद्योग बनाया था !! 'रामभमंजरी' में यह भी कहा गया है कि महाराज जयचंद्र ने यवनों (बाहरी आक्रमणकारी म्लेच्छ तुर्को मुगलो) का नाश किया था।

वर्षदेव कृत 'सुभासितावली' में वर्णित है कि शहाबुद्दीन मोहम्मद गोरी ने उत्तर-पूर्व के राजाओं के पददलित होकर उन्हें स्वीकार किया था, महाराज जयचंद्र ने उन्हें अपने दूत के द्वारा निम्नलिखित पद लिखकर भेजा था-

स्वच्छन्दं सैन्यसंघेन चरन्त मुक्तो भयं।

शहाबुद्दीन भूमिन्द्रं प्राणिनोदिति लेखकम्।।

कथं न हि विष्णुसेन्यज कुर्ग लोलक्रमं।

परिक्रमितु महसे विरमनैव शून्यं वनम्।।

स्थितोत्र गुयुथनाथ मथनोक्लाक्रोनितम्।

पिपासुरि मर्दनः सच सुखेन पंचाननः।।

यानी स्वतन्त्रता और महती सेना के साथ निर्भय भारतवर्ष में शहाबुद्दीन की पदयात्रा को सुनकर महाराज जयचन्द्र ने अपने दूतों को यह पद्य भेजा; ऐ तुरत मृगशावक, तू अपनी चंचलता से इस महावन रूपी भारतवर्ष में उछाल-कूद मचाये हुए है !!

समझो यह वन शून्य है या तू-सा दृश्य अन्य जंतु इस महावन में नहीं है !

यह केवल धोखा और भ्रम है। राज्य में आगे मत बढ़ो, निःशंकता छोड़ो आगे यह मृगराज गजराजों के रक्त का पिपासू है !! यह महा-अरिममर्दक है, तेरे ऐसन को छीलने से इसमें कुछ भी श्रम दिखाई नहीं देता !! वह इस समय यहां सुख से विश्राम ले रही है। महाराज जयचन्द्र के सम्बन्ध में 1186 ई. (1243 वि.सं.) में फैजाबाद ताम्र-दानपत्र में लिखा गया है-

अद्भुत विक्रमादाय जयचन्द्राभिधानः पतिर्

भूपानमवातिर्न एष भुवनोद्धराय नारायणः।

धीमेवमपास्य विग्रह रुचिं धिकृत्य शांताशय

सेवन्ते यमुद्ग्र बंधन भयध्वंसार्थिनः पार्थिकाः।।

चेन्मुच्छिमतुच्छं न यदि केवल येत् कूर्म पृष्टमिधात्

त्यवृत्तः शरमर्तो नमदखिल फणश्वा वसत्य सहस्रम्।

उद्योगते यस्य धावद्धरणिधारधुनि निर्जर्सफरधार-

स्याद्दनंद विपाली वहल भर्गलद्वैर्य मुद्राः फणीन्द्रः।।

यहां अभिलेखकार ने पहले श्लोक में बताया है कि महाराज विजयचंद्र (विजयपाल = देवपाल) के पुत्र महाराज जयचंद्र थे, जो अद्भुत वीर थे। पुरोहित स्वामी महाराज जयचन्द्र साक्षात नारायण के अवतार थे ! पृथ्वी के सुख लाभ का जन्म हुआ था। अन्य राजागण अपनी स्तुति करते थे।

दूसरे श्लोक में कहा गया है कि उनके हाथों की सेना के भार सेना शेष दब गए थे और मुर्छित होने की स्थिति को प्राप्त हुए थे।

उत्तर भारत में महाराज जयचंद्र का विशाल साम्राज्य था। उन्होंने अनहिल वेवेअर (गुजरात) के शासक सिद्धराज को हराया था। अपने राज्य की सीमा का उत्तर से लेकर दक्षिण में नर्मदा के तट तक और पूर्व बंगाल के लक्ष्मणसेन के राज्य तक विस्तार हुआ। मुस्लिम इतिहासकार इब्न असीर ने अपने इतिहास-ग्रन्थ 'कामिल उत्तवारीख' में लिखा है कि महाराज जयचंद्र के समय में कायनात राज्य की मंझली उत्तर में चीन की सीमा से दक्षिण में मालवा प्रदेश तक और समुद्र तट से दस मील दूर तक विस्तृत था।

महाराजा जय चन्द्र जी उस समय भारत वर्ष के सबसे बड़े राजा थे! ऐसा मुस्लिम इतिहासकारो ने खुद लिखा है !! महाराजा जयचंद के राज्य का विस्तार 5600 वर्ग मील था !! उस सदी में पूरे भारत वर्ष में सबसे बड़ी सेना महाराजा जय चन्द्र जी का ही था !!

भगवान प्रभु श्रीराम चंद्र जी के अवतरण, अयोध्या राम मंदिर के निर्माणकर्ता, सूर्यवंशी कुलभूषण राष्ट्र कूटलेख राजवंशी महाराजाधिराज जयचंद मनोहर गहरवार जी

फरिश्ता के अनुसार महाराजा जय चन्द्र जी के पास सबसे बड़ी विशाल सेना थी !!

कामिलउत्तवारीख ने वर्णन किया है कि महाराजा जय चन्द्र जी की सेना में 700 हाथ थे !!

ताजल-एम-अतिर के अनुसार महाराजा जय चन्द्र जी की सेना बालुका सामीथ के अनुसार थी !!

रामभमंजरी में भी महाराजा जय चन्द्र जी की विशाल सेना और विशाल राज्य का उल्लेख है !!

जय चन्द्र जी एक धर्मपारायण देशभक्त महाराजा थे, उनके ऊपर लगे आरोप का कोई आधार नहीं है, यह आरोप निराधार है!

ऐसे ही प्रतापी महाराजाधिराज ने कई डिग्रीयो से नवाजा था कन्याकुब्जेश्वर धर्मपरायण देशभक्त महाराजा जयचंद जी को यौवनो के नाका, दलपंगुल और नारायण का अवतार बताया गया है! कान्यकुब्जेश्वर धर्मपारायण देशभक्त महाराजा जय चन्द्र जी का जन्म सन् 1114 ई.पू. में महाशिवरात्रि के दिन हुआ था !! इसी दिन दादा महाराजा गोविंद चंद्र गहरवार जी ने दशार्ण देश (पूर्वी मालवा) पर विजय प्राप्त की थी !! इसका उल्लेख करते हुए नयचंद्र ने अपनी पुस्तक 'रंभामंजरी' में लिखा है-

पितामहेन तजजन्मदिने दशार्णदेशेसु प्राप्तं प्रबलम् !!

यवन सैन्य जितम् अतैव तन्नम जत्रचन्द्रः !!

अर्थात् दूसरे जन्म के दिन पितामह ने युद्ध में यवन-सेना (बाहरी आक्रमण म्लेच्छो) पर विजय प्राप्त की, अर्थात् इनका नाम जत्रचन्द्र रखा गया। संस्कृत-साहित्य में महाराज जयचंद के अनेक नाम मिलते हैं। मेरुतुंग ने प्रबंधनचिंतामणि को 'जयचंद्र' में, राजशेखर सूरी ने प्रबंधनकोश को 'जयंतचंद्र' में, नयचंद्र ने रामभामंजरी को 'जैत्रचंद्र' में कहा है !!

जबकि लोक में 'जयचंद' कहा जाता है। 'रामभामंजरी' के अनुसार महाराज जयचंद्र की माता का नाम 'चंद्रलेखा' था, जो अनंगपाल तोमर की ज्येष्ठ पुत्री थीं! बुरा 'पृथ्वीराज रासो' की छंद संख्या 681-682 के अनुसार उनका नाम सुंदरी देवी था। 'भविष्यपुराण' में महाराज जयचंद्र की माता का नाम चन्द्रकान्ति बताया गया है।

आषाढ़ शुक्ल दशमी संवत 1224 रविवार रविवार 16 जून, 1168 को पिता महाराज विजयचंद्र ने जयचंद्र को युनाइटेड के पद पर अभिषिक्त किया। आषाढ़ शुक्ल षष्ठी संवत 1226 रविवार रविवार 21 जून, 1170 ई. महाराज जयचंद्र को राज्याभिषेक हुआ था। राज्याभिषेक की मूर्ति व पूर्व में भी महाराज जयचंद ने कई युद्धों में विजय प्राप्त की थी।

'पृथ्वीराज रासो' के महाराज जयचंद ने सिन्धु नदी पर दादरी (सुल्तान, गौड़) से ऐसा घोरमबत किया कि नदी के नील जल से रक्त की धारा बिल्कुल ऐसी लाल हुई मानो मानस की रात में उषा अरुणोदय हो गया। महाकवि विद्यापति ने 'पुरुष परीक्षण' में लिखा है कि यवनेश्वर साहबुद्दीन मोहम्मद गौरी को जयचंद्र जी ने कई बार रण में उतारा था। और युद्ध क्षेत्र से भागकर मोहम्मद गौरी ने अपना जान उद्योग बनाया था !! 'रामभमंजरी' में यह भी कहा गया है कि महाराज जयचंद्र ने यवनों (बाहरी आक्रमणकारी म्लेच्छ तुर्को मुगलो) का नाश किया था।

वर्षदेव कृत 'सुभासितावली' में वर्णित है कि शहाबुद्दीन मोहम्मद गोरी ने उत्तर-पूर्व के राजाओं के पददलित होकर उन्हें स्वीकार किया था, महाराज जयचंद्र ने उन्हें अपने दूत के द्वारा निम्नलिखित पद लिखकर भेजा था-

स्वच्छन्दं सैन्यसंघेन चरन्त मुक्तो भयं।

शहाबुद्दीन भूमिन्द्रं प्राणिनोदिति लेखकम्।।

कथं न हि विष्णुसेन्यज कुर्ग लोलक्रमं।

परिक्रमितु महसे विरमनैव शून्यं वनम्।।

स्थितोत्र गुयुथनाथ मथनोक्लाक्रोनितम्।

पिपासुरि मर्दनः सच सुखेन पंचाननः।।

यानी स्वतन्त्रता और महती सेना के साथ निर्भय भारतवर्ष में शहाबुद्दीन की पदयात्रा को सुनकर महाराज जयचन्द्र ने अपने दूतों को यह पद्य भेजा; ऐ तुरत मृगशावक, तू अपनी चंचलता से इस महावन रूपी भारतवर्ष में उछाल-कूद मचाये हुए है !!

समझो यह वन शून्य है या तू-सा दृश्य अन्य जंतु इस महावन में नहीं है !

यह केवल धोखा और भ्रम है। राज्य में आगे मत बढ़ो, निःशंकता छोड़ो आगे यह मृगराज गजराजों के रक्त का पिपासू है !! यह महा-अरिममर्दक है, तेरे ऐसन को छीलने से इसमें कुछ भी श्रम दिखाई नहीं देता !! वह इस समय यहां सुख से विश्राम ले रही है। महाराज जयचन्द्र के सम्बन्ध में 1186 ई. (1243 वि.सं.) में फैजाबाद ताम्र-दानपत्र में लिखा गया है-

अद्भुत विक्रमादाय जयचन्द्राभिधानः पतिर्

भूपानमवातिर्न एष भुवनोद्धराय नारायणः।

धीमेवमपास्य विग्रह रुचिं धिकृत्य शांताशय

सेवन्ते यमुद्ग्र बंधन भयध्वंसार्थिनः पार्थिकाः।।

चेन्मुच्छिमतुच्छं न यदि केवल येत् कूर्म पृष्टमिधात्

त्यवृत्तः शरमर्तो नमदखिल फणश्वा वसत्य सहस्रम्।

उद्योगते यस्य धावद्धरणिधारधुनि निर्जर्सफरधार-

स्याद्दनंद विपाली वहल भर्गलद्वैर्य मुद्राः फणीन्द्रः।।

यहां अभिलेखकार ने पहले श्लोक में बताया है कि महाराज विजयचंद्र (विजयपाल = देवपाल) के पुत्र महाराज जयचंद्र थे, जो अद्भुत वीर थे। पुरोहित स्वामी महाराज जयचन्द्र साक्षात नारायण के अवतार थे ! पृथ्वी के सुख लाभ का जन्म हुआ था। अन्य राजागण अपनी स्तुति करते थे।

दूसरे श्लोक में कहा गया है कि उनके हाथों की सेना के भार सेना शेष दब गए थे और मुर्छित होने की स्थिति को प्राप्त हुए थे।

उत्तर भारत में महाराज जयचंद्र का विशाल साम्राज्य था। उन्होंने अनहिल वेवेअर (गुजरात) के शासक सिद्धराज को हराया था। अपने राज्य की सीमा का उत्तर से लेकर दक्षिण में नर्मदा के तट तक और पूर्व बंगाल के लक्ष्मणसेन के राज्य तक विस्तार हुआ। मुस्लिम इतिहासकार इब्न असीर ने अपने इतिहास-ग्रन्थ 'कामिल उत्तवारीख' में लिखा है कि महाराज जयचंद्र के समय में कायनात राज्य की मंझली उत्तर में चीन की सीमा से दक्षिण में मालवा प्रदेश तक और समुद्र तट से दस मील दूर तक विस्तृत था।

महाराजा जय चन्द्र जी उस समय भारत वर्ष के सबसे बड़े राजा थे! ऐसा मुस्लिम इतिहासकारो ने खुद लिखा है !! महाराजा जयचंद के राज्य का विस्तार 5600 वर्ग मील था !! उस सदी में पूरे भारत वर्ष में सबसे बड़ी सेना महाराजा जय चन्द्र जी का ही था !!

फरिश्ता के अनुसार महाराजा जय चन्द्र जी के पास सबसे बड़ी विशाल सेना थी !!

कामिलउत्तवारीख ने वर्णन किया है कि महाराजा जय चन्द्र जी की सेना में 700 हाथी थे !!

ताजल-एम-अतिर के अनुसार महाराजा जय चन्द्र जी की सेना बालुका सामीथ के अनुसार थी !!

सूर्यप्रकाश निर्मित है - महाराजा जय चन्द्र जी की सेना में 80 हजार पैदल सेना, 3 लाख पैदल सेना, 2 लाख धनुर्धारी, 30 हजार अश्वारोही और बहुसांख्यक हाथी थे !!

इसके अलावा स्वयं पृथ्वी राज रासो के रचयिता कवि चन्द्रवरदाई ने स्वयं स्वयं महाराजा जय चन्द्र जी की #विशाल सेना का वर्णन किया है !!

स्वयं पृथ्वी राज रासो में चन्द्रवरदाई ने महाराजा जय चन्द्र जी को "दल पंगुल" कहा है !! ये सेनाये हमेशा विचरण करती रहती है !!

कुछ इतिहास ने तो हजारो हाथीओ और लाखो घोड़ों का वर्णन किया है इतनी विशाल सेना होने के कारण ही महाराजा जयचंद जी को "दलपंगुल" की डिग्री मिली थी !!

राज शेखर सूरी ने अपने प्रबंधकोश में कहा है कि काशीराज जय चंद्र विजेता थे, और गंगा यमुना दोआब तो उनके विशेष रूप से विशेष प्रदेश थे!

नयनचंद्र ने रंभामंजरी में महाराजा जय चंद्र जी को युवाओं का नायक और विशाल सेना का नेता लिखा है !!

राय ने लिखा कि महाराजा जयचंद युध्दप्रिय होने के कारण अपनी सैन्य शक्ति ऐसी साईसाई की वह #_अद्वितीय हो गयीं !! जिस कारण से महाराजा जय चन्द्र जी को "दल पंगुल" डिग्री से जाना लगा !!

विद्यापति जी ने अपनी "पुरुष-परीक्षा" में कहा कि महाराजा जय चन्द्र जी ने उसी मोहम्मद गौरी को कई बार हराया था !!

रामभमंजरी में भी महाराजा जय चन्द्र जी की विशाल सेना और विशाल राज्य का उल्लेख है !!

इन सभी प्रमाणों के आधार पर कोई भी सत्य से सहमत हो सकता है कि महाराजा जय चन्द्र जी को धोखा दिए बिना हरना मुश्किल है !!

नयनचंद्रकृत "रंभामंजरी" में जयचंद्र महाराज के भुजाओं की सेना की तुलना चंदेलो के राजा "मदन वर्मा" राज्यश्री रूपी हाथी को बांधने के लिए खंभ से की गई है !!

महाराज मदन वर्मा (1129 – 1163) व महाराजा जयचंद्र का शासन काल (1170-1194) रहा जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह उपलब्धि महाराजा जयचंद जी ने अपने राज काल में ही हासिल किया था !!

समकालीन साहित्य से पता चलता है कि चंदेलो के राजा परमाल चंदेल और महाराजा जयचंद्र जी के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध रहे हैं !!

आल्हा ऊदल जैसे महान योद्धा भी महाराजा जयचंद्र जी के सेनापति थे !!

संवत 1241 (सन् 1184) अयोध्या में श्रीराम मंदिर का पुनर्निर्माण करवाये थे वे सोने की परत चढ़ाये थे !!

80 वर्ष की आयु में महाराजा जयचंद्र जी संवत 1250 (सन् 1194) में मोहम्मद गौरी से रणभूमि में युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे !!

महाराजा जयचंद्र जी के वंशजों के कुछ ऐतिहासिक कार्य

1- महाराजा जयचंद्र जी के दादा गोविंदचंद्र जी ने अयोवृंदा राम मंदिर का पुनर्निर्माण किया था, और उन्ही के भव्य शिलालेख (श्री विष्णु हरि भगवान) के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने # अयोध्या मंदिर का पुनर्निर्माण किया था में दिया गया निर्णय.

1544 में गिरी सुमेल में उसी के वंसज राव मालदेव से बुरी तरह हरण के बाद मुगल शासक # शेरशाह_सूरी ने कहा था कि मुट्ठी भर युद्ध बाजरे की खातिर आज हिंदुस्तान की सल्तनत खो दी गई।

जयचंद के ही वंसज जयमल मेड़तिया द्वारा अकबर

की मेवाड़ पर शोक में डूबे हुए किसानों के कंधों पर अकबर की

विशाल सेना को तहस नहस करने के बाद जब वीरगति प्राप्त हुई

तो अकबर ने चैन की सांस लेते हुए कहा था की मैंने युवाओं के चार हाथो वाले # देवता विष्णु के बारे में सुना तो आज के युद्ध में लगा की साक्षात् विष्णु ही मेरी सेना को तहस नहस कर रहा है।

इसके बाद अकबर ने आगरा के किले के दरवाजे पर दोनों वीरो की संगमरमर की मूर्ति बनवाई थी।

जयचंद के ही वंशज सिंह के अवशेष औरंगजेब ने किसी भी हिंदू मंदिर को तोड़ने की हिमाकत नहीं की थी।

क्योंकि मित्र सिंह ने कहा था कि औरंगजेब अगर # एक मंदिर तुड़वाएगा तो में # दो मस्जिद तहस नहस दस्तावेज़,

मित्र सिंह की मौत के बाद ओरंगजेब का सिद्धांत था कि आज कुफ्र (धर्म विरोध) का दरवाजा टूट गया।

जयचंद के ही वंसज # वीर दुर्गा_दास ने सिंह की मृत्यु के बाद औरंगजेब के हिंदू विरोधी विरोधियों को तोड़ दिया, अपना जीवन बर्बाद कर दिया,उन्होंने औरंगजेब के मटकी पोतियों को बंधक बना कर रखा था,हालांकि उनके लालन अनुयायी महाराजा इस्लामिक परंपरा के अनुसार ही थे।

महाराजा जयचंद के ही वंसज बिकानेर महाराजा ने

औरंगजेब की चाल से सभी राजाओ की प्रजा को कैद करने और फिर जबरन इस्लाम ग्रहण के साधन को भांप कर उनके सैनिकों से बातचीत विफल कर दी थी,जिससे उन्हें #जंगलधर बादशाह की पदवी मिल गई थी।

जयचंद के वंसज पाबूजी ने विधर्मियो द्वार गायो की सुचना पर छोटे फेरे के बीच में ही विवाह बेदी ठीक करना समझा और गौ की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त किया।

जयचंद के ही वंसज #गोपाल_सिंह खरवा ने अंतिम सांसो तक आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों का मुकाबला किया था।

इसी जयचंद के वंसज आउआ ठाकुर खुशाल सिंह जी ने अपनी छोटी सी सेना से अंग्रेजों को धूल चटाई थी और ब्रिटिश वस्तुओं का सरसरी गढ़ के दरवाजे पर लटका था। उनकी याद में आज भी आउआ में मेला लगता है!

10- इन्ही के वंशज प्रतापी राजा प्रताप रुद्र देव बुंदेला जी ने ओरक्षा नगर को बसाया था !

11- इनमें से एक हैं वंशावली ओरक्षा नरेश महाराजाधिराज महेंद्र सवाई श्री सर प्रताप सिंह बहादुर उनकी धर्मपत्नी वृषभानु कुँवरि जू देवी ने सन् 1885 ईस्वी में अयोध्या में कनक भवन का निर्माण कराया था, जो रामोपासना का सबसे महत्वपूर्ण, मनोहारी और श्रद्धास्पष्ट मंदिर है जहाँ भगवान प्रभु हैं श्रीराम चन्द्र जी आराम फरमाते हैं!!

12- अयोध्या में "कनक भवन" के निर्माण के बाद महाराजाधिराज महेंद्र प्रताप न सवाई श्री सर प्रताप सिंह ने उनकी धर्मपत्नी कुँवरी जू देवी जी ने कनक भवन की तरह ही जगतंदिनी श्री जानकी (माता सीता)जी के "नौ लाखा" मंदिर का निर्माण किया। निर्माण हुआ था!

13- भगवान के वंशज महाराजा वीर सिंह जूदेव बुंदेला जी ने मथुरा में श्री कृष्ण जी के अंतिम समय का मंदिर "केशराय" मंदिर का निर्माण करवाया था।

14- भगवान के वंशज महाराजा छत्रसाल जो 'लक्ष्मण केशरी' के नाम से भी जाना जाता है!

जो एक अद्वितीय महान योध्या थे, जो अपने जीवन काल में एक भी युद्ध नहीं सारे थे! बिल्ली औरंगजेब को झाड़ा चटाया !

जिसमें मुगलों के काल महाराजा छत्रसाल का नाम भी शामिल है!

आज़ादी के बाद भारत की सभी सैन्य टुकड़ियों में उनकी भी वंसज लगातार अपनी सेवा दे रही है और देश को अपना लहू देती आ रही है !!

सूची बहुत लंबी हो जाएगी अगर महाराजा जयचंद्र जी के वंशजों के धार्मिक, राष्ट्रहित और पराक्रम की बयाख्या शामिल हो तो !!

यवनो के नायक "दल पंगुल" सेना के नेता महाराजाधिराज जयचंद्र पर कुछ लोगों के पास मौजूद कपोल कल्पित चित्रों के आधार पर प्रश्न चिन्ह है ऐसे कमजोर लोगों के लिए कुछ ऐतिहासिक लेख, शिलालेखों, तामपत्रों के आधार पर उपलब्ध करवा हो -

काशीराज महाराज जयचंद के यश को कम करने और कुछ देश द्रोहियों के नाम छुपाने की साजिश के तहत जयचंद जी का नाम बदनाम कर दिया गया।

निम्नलिखित इतिहासकारों ने ऐतिहासिक ग्रंथों और अन्य लेखकों को महाराज जयन्द जी की राय दी के बाद पढ़ा।

डा. आर. सी. मजूमदार का मत है कि इस कथन में कोई सत्यता नहीं है कि महाराज जयचंद ने पृथ्वीराज पर आक्रमण करने के लिए महम्मद गौरी को आमंत्रित किया था (एन्सेंट इंडिया पृ. 336 डा. आरसी मजूमदार)। अपनी एक अन्य पुस्तक में वकील स्कॉलर हिस्टोरियन ने दस्तावेजों की बात का खंडन किया है।

जे.सी. पोवलराज सार्क का मत है कि यह बात आधारहीन है कि महाराज जयचंद ने मोहम्मद गौरी को पृथ्वी पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया था। (भारत से निबंध) ।

डा. रामशंकर त्रिपल का कथन है कि जयचंद पर यह आरोप गलत है। उनका मानना ​​है कि समकालीन मुस्लिम इतिहासकार इस पर पूर्णतया मौन है कि जयचंद ने ऐसा कोई स्मारक भेजा था।

श्री महेंद्रनाथ मिश्र जो एक महान इतिहासकार हैं, उन्होंने जयचंद पर देश-विद्रोह का आरोप असत्य माना है। उनका कथन है राज यह धारणा है कि पृथ्वी पर चढ़ाई करने के लिए नायिका को आमंत्रित किया गया है। उस समय के कपित्य गायत्री प्राप्य में किसी भी प्रकार की बात का उल्लेख नहीं है। वे ग्रंथ पृथ्वीराज-विजय, हम्मीर महाकाव्य, रंभा-मंजरी और प्रबंध-कोश किसी भी मुस्लिम यात्री ने फिल्मों का ज़िक्र नहीं किया है। इतिहास गवाह है कि जयचंद ने चंदावर में मोहम्मद गौरी से वीरतापूर्वक पूर्ण युद्ध किया था।

इब्न नासिर कृत "कामिल-उत्-तवारीख" में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है कि, बात यह है कि जयचंद ने शाहबुद्दीन को पृथ्वीराज पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया था। शहाबुद्दीन को अच्छी तरह से पता था कि जब तक उतरते भारत के महाशक्तिशाली जयचंद को परास्त नहीं किया जाएगा, तब तक उनका दिल्ली और अजमेर आदि भू-भाग पर अधिकार नहीं रहेगा, क्योंकि जयचंद के अराध्य ने और स्वयं जयचंद ने तुर्कों से कई बार तक लिया था। हराया था.

स्मिथ सर ने भारत में अपनी लाइब्रेरी अर्ली क्रॉनिकल्स पर इस आरोप का उल्लेख नहीं किया है। पृथ्वीराज की तराईन के तीसरे युद्ध में हुई पराजय का दोष जयचंद को नहीं माना गया।

डा. राजबली पाण्डे ने अपनी पुस्तक प्राचीन भारत की टिप्पणी में लिखा है, ''यह विश्वास कि गौरी को जयचंद ने पृथ्वीराज के विरुद्ध निमन्त्रण दिया था, (डा. त्रिया के अनुसार) ठीक नहीं जान पाता क्योंकि मुस्लिम लेखकों ने कहीं भी इसका दस्तावेजीकरण नहीं किया है।

क्रॉनिक ऑफ कन- डा. त्रि। इसका अर्थ यह है कि दा. पाण्डे ने दा. त्रिगुण का वर्णन सत्य माना गया है। वे पूर्णतः सहमत हैं क्योंकि उन्होंने प्रतिवाद नहीं किया।

यदि किसी भी सनातनी को किसी भी प्रकार की मान्यता हो महाराजा जय चन्द्र जी के गौरवमयी इतिहास पर तो वो सानिध्य काल्पनिक कहानियों से बाहर ज्ञान से किसी भी पुस्तक का अध्ययन कर सच्चाई से अवगत हो जाये!!

इतिहास के कई सारे लेखों में यह कहा गया है कि महाराजा

जय चन्द्र जी एक धर्मपारायण देशभक्त महाराजा थे, उनके ऊपर लगे आरोप का कोई आधार नहीं है, यह आरोप निराधार है!

उन इतिहासकारों के नाम पुस्तक का नाम पृष्ठ संख्या सहित साक्ष्य पर –

1 – नयचन्द्र : रामभामंजरी का प्रस्ताव !!

2 - भारतीय पुरावशेष, XI, (1886 ई.), पृष्ठ 6,

श्लोक 13-14 !!

3 – भविष्यपुराण, प्रतिसर्ग पर्व, अध्याय 6 !!

4 - डॉ. आर.एस.त्रिपाठी :कन्नौज का इतिहास,

पृष्ठ 326!!

5 - डॉ. रोमा नियोगी : गहरवाल

राजवंश का इतिहास, पृष्ठ 107 !!

6 - जेएच गेंस : भारत का इतिहास (1954 ई.),

पृष्ठ 102 !!

7 - जॉन ब्रिग्स: राइज़ ऑफ़ द मोहोमेडेन

पावर इन इंडिया (तारीख-ए-फ़रिश्ता),

वॉल्यूम। मैं, पृष्ठ 170!!

8 - डॉ. रामकुमार कृषक एवं कृष्णदत्त लेफ्ट :

कन, पृ. 15!!

9 - डॉ. आरसी मजूमदार: प्राचीन भारतीय, पृष्ठ

336 एवं भारत का एक उन्नत इतिहास,

पृष्ठ 278 !!

10 - डॉ. रोमा नियोगी : गहरवाल

राजवंश का इतिहास, पृष्ठ 112 !

11 - जे.सी. पॉवेल-प्राइस : भारत का इतिहास,

पृष्ठ 114 !!

12 - विंसेंट आर्थर स्मिथ:

भारत का प्रारंभिक इतिहास, पृष्ठ 403 !!

13 - डॉ. आनंदस्वरूप मिश्र: कैनन का इतिहास,

पृ. 519-555!!

14-- आनंद शर्मा : अमृत पुत्र, पी. आठवीं-बारहवीं!!

15-- आनंद शर्मा : अमृत पुत्र, पी. ग्यारहवीं!!

नोट: राजा जयचंद गद्दार नहीं, अन्यायी थे, और एक प्रतापी प्रिय धर्म परायण राजा थे! वे दुष्प्रचार के शिकार हो गए। इन सभी प्रमाणों के आधार पर कोई भी सत्य से सहमत हो सकता है कि महाराजा जय चन्द्र जी से छल के बिना हरना मुश्किल है!



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