सगा भाई

सगा भाई

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जग्गी के आते ही मोहन ने चाय को दो गिलासों में बांट लिया और जग्गी को चाय देने लगा," यह लो दादा चाय पीओ " कहते हुए मोहन ने एक गिलास जग्गी को दिया तो दूसरा गिलास अपने होठों से लगा लिया। बहुत गहरा रिश्ता है मोहन और जग्गी का। एकदम सगे भाइयों जैसा। उम्र में ज्यादा फर्क नहीं दोनों में। जग्गी ने मोहन को कभी अपने सगे भाई से कम नहीं समझा। बचपन से दोनों ही एक दूसरे की दुनिया बने हुए हैं। मोहन के लिए तो जग्गी ही पिता, भाई सब कुछ है। माँ के सिवा जग्गी ही तो है जिसको उसकी चिंता फिकर है। अब तो माँ भी उसकी ना रही।एक जग्गी ही है इस भरी दुनिया में जो सिर्फ उसका है। चाय पीते हुए अक्सर मोहन को अपने बचपन के वो दिन याद आ जाते जब उसे मजबूर होकर अपना गांव छोड़ना पड़ा। कितना छोटा, कितना मासूम ही तो था वह उस समय। गांव में पक्का घर, खेत में लहलहाती फसलें,घर में गाय - भैंसों के दूध से लबालब दही, दूध व सब्जियां साक्षात अन्नदेवता की कृपा बरसती थी। पिताजी का गांव में मान - सम्मान, वैभव सभी कुछ तो था। पर ना जाने किसकी नजर लगी। एक तूफान आया जिंदगी में और सब एक ही पल में उड़ा ले गया। पिताजी की अकस्मात मौत घर की सब खुशियां छीन ले गई। पिता जी के छोटे भाई ने पूरी धन-संपत्ति, जमीन-जायदाद पर जबरदस्ती कब्जा कर लिया व माँ को चरित्रहीन करार देकर पंचों द्वारा गांव से निकलवा दिया।

माँ और मोहन ने जगह-जगह बहुत ठोकरें खाई।बहुत मुश्किलों भरे दिन थे वे। फिर मदद के नाम पर एक व्यापारी ने एक दिन मां से फिर से विवाह कर लिया। उस व्यापारी ने मां को तो अपनाया पर वो मोहन को अपना ना सका। जब-तब वह व्यापारी मोहन को गाली गलौज, मारपीट करके अपने मन का गुबार निकालता।मोहन को पढ़ने के लिए स्कूल नहीं भेजा कभी। अपनी दुकान पर नौकर बनाकर रात - दिन काम में लगाए रखता। दुकान में अगर कुछ नुकसान हुआ नहीं कि मोहन को भूखा रखकर, उसे मारपीट कर व्यापारी अपने मन की पूरी भड़ास निकालता। माँ बेटे के दुख से दुखी व चिंतित तो होती पर वो फिर से अपना सुहाग खोना नहीं चाहती थी। इसलिए जो पति ने कह दिया वही सत्य वचन और इस मंत्र को मां ने अपने पल्लू से हमेशा के लिए गांठ बांध लिया।

क्या करता मोहन आखिर ? एक दिन हद ही हो गई। व्यापारी ने गल्ले से पैसे चुराने का झूठा इल्जाम लगाकर जो मोहन को डंडे से पीटा, मोहन की पूरी काया नीली पड़ गई।वह बेबस नजरों से मां को ताक रहा था। मां की नजरों में उसे अपने लिए दुख तो जरूर महसूस हुआ पर माँ जब व्यापारी की मार से उसे बचाने नहीं आई, तो उसका सारा भ्रम टूट गया। उसने एक ही पल में इतना बड़ा फैसला ले लिया कि जिस मां के बिना वो एक पल भी कभी नहीं रहा, आज उसी मां को हमेशा के लिए छोड़ के शहर की अनजान सड़कों पर भटक रहा था। 9 वर्ष के मोहन के लिए वह अनजान शहर उसकी अनजान गलियां सब समझ से परे थी। भूख- प्यास से बेचैन उसने दो दिन कैसे गुजारे ये वही अच्छे से जानता है या फिर उसके जग्गी भाई ही जानते हैं। उससे उम्र में दो साल ही बड़े हैं।

पर तजुर्बे में अच्छे - अच्छों को मात दे जाए।उस अनजान शहर में वे भी मोहन के आने से पहले अनाथों की जिंदगी ही बसर कर रहे थे। इस शहर में छोटी सी बूट पॉलिश की चलताऊ दुकान थी जग्गी भाई की। एक रात मोहन को उन्होंने भूखे-प्यासे फुटपाथ पर रोते हुए देखा तो ना जाने कैसे उनका दिल मोहन की ओर मुड़ गया। वे उसे अपने साथ ले आए और बड़े भाई बनकर उसकी जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली।अच्छा-बुरा,ऊंच-नीच सब मोहन को उन्होंने ही समझाया। और आज मोहन को उन्होंने इस काबिल बना दिया कि इस बड़े से शहर में आज उन दोनों भाइयों की एक बड़ी सी दुकान है।

जग्गी व मोहन आज भी कम पढ़े लिखे हैं, पर जग्गी ने मोहन को ये हिसाब अच्छे से याद करा दिया है कि एक और एक दो नही, ग्यारह होते हैं। मोहन की चाय खत्म होते ही वो भी अपनी पुरानी यादों से बाहर निकल आया। वे दोनों बचपन से ही शाम की चाय अक्सर यहीं पीने आते हैं। ये वही तो जगह है जहां वे दोनों पहली बार एक- दूसरे से मिले थे। और दोनों ने शाम के समय रोज यहां आने का नियम बचपन से ही बना रखा है। मोहन ने जग्गी की ओर प्यार से देखा और कहा,"चलें दादा।"


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