वो लड़का

वो लड़का

7 mins
268



मैं ऑफिस से घर वापस लौट रहा था। तकरीबन सवा नौ बज रहे थे रात के। ट्रैफिक सिग्नल पर लाल बत्ती देखी तो मैंने अपनी गाड़ी रोक दी। और सिग्नल के ग्रीन होने का इंतजार करने लगा। तभी चौराहे पर से आती तेज - तेज आवाजों पर मेरे कान टिक गए। करचोर - चोर की तेज आवाज सिग्नल तक साफ सुनाई दे रही थी। लोग चोर - चोर कह रहे थे और लग रहा था कि किसी को चारों तरफ से वे घेरे हुए खड़े थे। किसी के रोने - चीखने की आवाज भी आ रही थी। ऐसा लग रहा था कि लोग उस चोर की बेतहाशा धुलाई करने में लग रहे थे। अचानक सिग्नल ग्रीन हो गया, सभी गाड़ियां अपने अपने गंतव्य की ओर दौड़ने लगी। मैं भी चौराहे वाले चोर की बात को दिमाग से झटक कर आगे की ओर बढ़ने लगा। अभी अगले चौराहे तक पहुंचा भी नहीं था कि ना जाने उस चोर की बात मेरे दिमाग में फिर से क्यों घूम गई ? मैंने फिर से इसे दिमाग से दूर करना चाहा यह सोचकर कि "आजकल तो किसी पर भरोसा ही नहीं रहा, कब, कौन, किस वक्त हाथ साफ कर जाए, कुछ नहीं कह सकते। आजकल तो किसी पर भी विश्वास कर ही नहीं सकते। किया होगा किसी ने किसी की जेब पर हाथ साफ, तो फिर सजा तो मिलनी ही है। अच्छा है इनको ऐसे ही सबक मिलना चाहिए।" मैं जितना इस बात को अपने दिमाग से बाहर निकालने की कोशिश करता दिमाग फिर से उसी बात में जा टिकता। बल्कि दिमाग उस बात में और अंदर तक धँसता चला जा रहा था। पर अब दिमाग में कुछ और ही विचार चलने लगे बार-बार दिमाग में यह नई बात घूमने लगी कि " उसने चोरी क्यों की ? क्या उसकी कोई मजबूरी थी या फिर ---------।" ना जाने कितने सवाल अनायास ही मेरे छोटे से दिमाग में गहराने लगे। चोर व चोरी के बारे में तो न्यूज़, टी.वी. व अखबार में अक्सर ही पढ़ने, सुनने को मिल जाता है,पर इस बार मेरा दिल उस चोर वाली बात से हट क्यों नहीं रहा ? यह मैं समझ नहीं पाया। मैंने इसी अंतर्द्वंद में दस मिनट निकाल दिए। पर मेरा दिल व दिमाग उस चोर में ही अटका रहा। अब मुझसे और रहा नहीं गया और मैंने आगे वाले चौराहे से कट मारते हुए गाड़ी फिर से पीछे घुमा ली। अब मैं वापस उसी पहले चौराहे पर था, मैंने देखा भीड़ अब भी उस चोर की धुलाई करते हुए उसे घेरे हुए खड़ी थी। पर अब चोर की आवाज सुनाई नहीं दे रही थी। मैंने गाड़ी साइड में खड़ी की और पैदल ही भीड़ की ओर बढ़ने लगा। लोगों को हटाते हुए जब उस जगह तक पहुंचा, तो उस नजारे को देखकर मेरे होश उड़ गए। वहां कोई हट्टा - कट्टा चोर नहीं, चोर के रूप में बारह-तेरह साल का बच्चा था। जिसे भीड़ ने मार-मार कर अधमरा कर दिया था। उसके शरीर पर जगह - जगह चोट के निशान दिखाई दे रहे थे। शरीर के कई अंगों से खून बहने लगा था। वहां जाकर सबसे कारण पूछा तो पता चला उस लड़के ने किसी के पर्स से सौ रुपए चुरा लिए थे। मैं हतप्रभ रह गया ये सुनकर कि केवल सौ रुपये के पीछे उस बच्चे की इतनी बेरहमी से पिटाई की थी उस भीड़ ने। मैं चोर व चोरी का हिमायती नहीं हूँ। चोरी चाहे एक रुपये की हो या सौ रुपए की, चोरी - चोरी ही कहलाती है, मेरे भी यही विचार हैं। पर इस समय स्थिति कुछ और थी उस बच्चे की उम्र तो देखते सब। उस बच्चे को डांट सकते थे, थोड़ा-बहुत कह-सुन लेते। यह कहां का इंसाफ की सौ रुपये की चोरी के बदले उस बच्चे की जान ही ले लेंगे।चोरी की बात मुझे भी गलत लगी, पर उस बच्चे की ऐसी हालत देखकर बहुत बुरा लग रहा था। मुझे और कुछ सूझा नहीं कोई तरीका उस बच्चे को भीड़ से बचाने का, तो मेरे मुंह से अचानक यही निकला "ये क्या हो रहा है यहां ? इतनी भीड़ क्यों जमा है ? जाओ अपना - अपना काम करो। ये पुलिस का काम है यहां सब देखना। हम पुलिस वाले सब संभाल लेंगे। आप सब जाओ यहां से।"

मेरे ये कहते ही भीड़ वहाँ से हटने लगी। पर वहां दो-तीन हवलदार आते हुए दिखाई दे रहे थे। उन्हें देखकर मेरी सिट्टी पिट्टी गुम हो रही थी। अब आगे क्या करूं ? दिमाग तेजी से इसी के बारे में सोचने लगा। तभी एक हवलदार मेरे नजदीक आया, मुझसे मेरा परिचय जानना चाहा। मेरे होश उड़ रहे थे, क्या करता मैं ? मैंने कहा, "मैं शहर के दक्षिणी हिस्से में स्थित ( कोई झूठा नाम ) पुलिस स्टेशन में हवलदार हूं। हवलदार मुझे गौर से देखने लगा। एक बार तो लगा कि वर्दी नहीं पहनी होने पर ये शायद मेरी बातों पर विश्वास नहीं करेगा, पर मैंने जब ये कहा कि "मैं आज छुट्टी पर हूँ और यहां मार्केट में खरीदी करते समय यहां भीड़ देखी तो मैं यहां रुक गया ये सब जानने के लिए।" फिर पता नहीं कैसे वो मेरी बात से सहमत हो गया। मैंने यहां सब संभालने का कहकर उसे वहां से जाने के लिए राजी कर लिया। अब मैंने उस बच्चे को साथ लिया और तुरंत गाड़ी में बिठा कर अस्पताल पहुँचा। वहां उसकी चोट पर दवा-इलाज कराकर उसे कुछ खिलाया। फिर शांत दिमाग से उससे पूछा कि "उसने चोरी क्यों की ? क्या स्कूल में तुमने ये पढ़ा नहीं कि चोरी करना गलत बात होती है ?" वो लड़का बोला,"साहब स्कूल तो मैं कभी गया ही नहीं। पर ये जरूर पता है कि चोरी करना गलत होता है।"

मैंने कहा,"तो फिर तुमने चोरी क्यों की ? वो बोला, "साहब मैं चोरी नहीं करता हूं। मैं तो मेरी मां के बनाये खिलौने बेचकर अपना घर चलाता हूं। मां बीमार होने के कारण खिलौने नहीं बना पाई तो तीन दिन से घर में कुछ नहीं है खाने को। मैं तो भूखा रह भी लेता पर छोटी बहन है घर में, मैं उसे भूखा कैसे देख सकता हूं ? मां को भी दवाई व खाना देना चाह रहा था। पैसे नहीं थे मेरे पास। मैं भिखारी नहीं हूँ पर फिर भी मैंने आज सब से भीख मांगी। पर किसी ने मेरी कोई मदद नहीं की। मुझे केवल थोड़े से रुपए चाहिए थे, सब की भूख मिटाने के लिए कुछ खाना लाना था। पर मेरी किसी ने मदद नहीं करी, तो अंत में मैंने एक व्यक्ति का पर्स छीन लिया। उसमें से सौ रुपए लिए बाकी पर्स उस व्यक्ति को लौटा दिया। पर उस व्यक्ति ने चोर-चोर कहकर लोगों को इकट्ठा कर लिया। और फिर बाकी तो सब आपके सामने है ही।"

मैं आश्चर्य से उस बच्चे की बात सुन रहा था। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि यह लड़का वाकई सच बोल रहा है।

मैंने उससे कहा," तुम्हारी छोटी बहन भी है ? और तुम्हारी मां बीमार है ? तो वे लोग अभी कहां है ?"

वो बोला,"घर पर है।"

मैंने कहा,"मुझे अपना घर नहीं दिखाओगे कहां है ?"

मैं सच देखना चाह रहा था कि वो लड़का सच में सब सच बता रहा है या फिर सहानुभूति पाने के लिए झूठ बोल रहा है। हम दोनों मेरी गाड़ी में बैठे और उसकी बताई जगह पर पहुंचे। तो मैंने देखा एक टूटी- फूटी जर्जर सी झोंपड़ी बनी हुई थी। उसके ऊपर पुराने प्लास्टिक के कुछ कट्टे लगे थे, बारिश से बचने के लिए। हम अंदर झोंपड़ी में घुसे तो अंदर अंधेरा ही अंधेरा। लड़का बोला," साहब आप रूकिये, मैं रोशनी करता हूँ।"

उस लड़के ने छोटी सी कांच की बोतल की चिमनी बना रखी थी रोशनी के लिए। उसने वो माचिस से जलाई तो झोपड़ी में थोड़ी रोशनी हो गई। झोपड़ी के एक तरफ चटाई पर एक औरत लेटी थी और पास ही में एक छोटी सी ढाई, तीन साल की बच्ची भी सो रही थी। हम आते वक्त खाने की चीजें लेकर आए थे तो उस लड़के ने मां को व बहन को जगा कर वो चीजें दी खाने को। मुझे अब उस लड़के पर विश्वास हो चुका था। और मैंने सोच लिया था की मैं इस लड़के को अब दोबारा कभी भीख नहीं मांगने दूँगा और ना ही कभी दोबारा इसे अब चोरी करने दूँगा। बल्कि मुझसे जितना हो सकेगा मैं इनकी मदद करूंगा। मैं कल फिर आने की कह कर उस लड़के के घर से बाहर आ चुका था। रात के दो बज रहे थे पर मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी। मैंने अपनी जेब से फोन निकाला और दो नंबरों पर बात करने के लिए फोन लगाया। पहला - एनजीओ को जो उस बच्चे के परिवार की मदद कर सके। दूसरा - राज्य क्राफ्ट उद्योग को जहां वे अपनी बनाई चीजें - खिलौने आदि बेचकर अपना परिवार पाल सके।



Rate this content
Log in