सबहु नचावत राम गोसाईं

सबहु नचावत राम गोसाईं

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बात 2008 के सितंबर की है। बच्चों की दशहरा की छुट्टी होने वाली थी। इस बार छुट्टियों में माँ -बाबू जी के साथ राजस्थान घूमने का प्लान बन रहा था। उदयपुर, जयपुर, माउंटआबू, घूमते हुए कुछ दिन देवर जी के यहाँ रहते हुए वापस जमशेदपुर आना था। टिकट कई टुकड़ों में कटाया गया था। जमशेदपुर से दिल्ली, दिल्ली से उदयपुर फिर राजस्थान घूमते हुए लौटते में जयपुर से जमशेदपुर का टिकट था। सभी जगहों की टिकट तो कन्फ़र्म या RAC मिल गया लेकिन जमशेदपुर से दिल्ली की टिकट वेटिंग ही था। अभी काफी दिन बाकी था, इसलिए कन्फ़र्म हो जाने की पूरी संभावना थी। मैं और मेरे बच्चे बहुत खुश थे कि दादा-दादी के बहाने ही सही उन्हे भी घूमने का नई-नई जगहों को देखने का मौका मिलेगा। नियत तिथि से दो दिन पहले माँ-बाबू जी खगड़िया से आ गए। जाने की सारी तैयारियाँ पूरी हो गई थी। परन्तु ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। एक कहावत है - " men proposes God disposes"। जमशेदपुर से दिल्ली जाने वाली टिकट वेटिंग ही रह गया। बच्चों के उत्साह और मेरे मंसूबे पे घड़ों पानी पड़ गया।

इसके पूर्व भी एक बार पूरी और भुवनेश्वर जाने का प्रोग्राम बना था। टिस्को के गेस्ट हाउस में रूम भी बुक किया जा चुका था। पतिदेव के कुछ दोस्त भुवनेश्वर के थे उन्होंने भी अपने घर आने का निमंत्रण दिया था। परन्तु किसी कारण वश माँ - बाबूजी नहीं आ पाए। छुट्टियाँ भी ली जा चुकी थी, इसलिए मैंने कहा कि हमलोग तय कार्यक्रम के अनुसार घूम आते हैं। माँ - बाबू जी के साथ एक बार पुनः घूम आयेंगे। परन्तु कार्यक्रम को स्थगित कर दिया गया। ली हुई छुट्टियाँ घर में ही बीत गयी। मैंने कई दिन नाराजगी में बिताया , बच्चे भी दुखी-दुखी।

इस बार भी तय हुआ कि इतनी लम्बी यात्रा माँ - बाबू जी एवं बच्चों के साथ बिना रिजर्वेशन के करना उचित नहीं होगा अतः यात्रा रद्द कर दी गई। फिर से सारे अरमानों पर पानी फिर गया।

घर में सभी लोग दुखी मन से बैठे वार्ता कर रहे थे। इसी बीच एकांत पाकर माता जी ने कहा :- "देखो ना कनिया ह्म्मर गल्ला में घेघ निकलल जाय छै, बाप से कहलियून त कहै छथिन कि इ उमर में तोड़ा घेघ निकलियो जैतून त छोड़ थोड़े देभुन"। गर्मी छुट्टी में कनियो अयलेरहै त उनको कहलियै कि "हे कनिया देखो न ह्म्मर गल्ला फूलल जाय छै से डागडरो से देखैथियै। लेकिन काम-धाम में ओकरो फुरसत नय होलय से मन में चिंता होय छै। अनायास ही मेरी नजर माँ के गले की ओर उठी, गले के दाहिनी ओर गाँठ सा उभार था। मई से सितंबर बीत गया लेकिन किसी को भी माँ को दिखाने की फुर्सत नहीं हुई। मन में विचार उठा बाबूजी तो दिन भर घर में रहते हैं, क्या उनके पास भी माँ को दिखाने के लिए समय एवं पैसे का आभाव है। दोनों आज्ञाकारी बेटे तो हर जरूरत पर आगे बढ़ कर पैसा भी देते हैं। बाबूजी खुद भी अच्छी खासी पेंशन पाते हैं। मैंने पति से कहा सुबह हमलोग हॉस्पिटल चलते हैं l बाबूजी ने कहा उन्हे भी आँख दिखाना है। सुबह जल्दी जग कर घर का काम-काज निबटाया। उस समय फ़ोन से बुकिंग या online appointment लेने की सुविधा नहीं थी। लाइन लग के नंबर लेना पड़ता था, सो बच्चों को घर में रहने के लिए समझा बुझा कर हमलोग हॉस्पिटल भागे। टाटा मेन हॉस्पिटल मेरे घर से लगभग 18 किलोमीटर दूर है दो जगह ऑटो भी बदलना पड़ता है। जल्दी-जल्दी हॉस्पिटल पहुँचे। लाइन लग के ई. एन. टी. और आई डिपार्टमेंट का नंबर लिया। आई में माँ-बाबूजी को दिखा कर ई . एन. टी. आये, वहाँ मांँ की पूरी सघन जांँच करने के बाद डॉक्टर ने सर्जन से दिखाने की सलाह दी। मेरा माथा वहीं खटका। अब आज तो सर्जन का नंबर मिलने से रहा सुबह ही सारा नंबर ख़त्म हो जाता है। कल फिर आना पड़ेगा। घर में बच्चे भी भूखे प्यासे इन्तजार कर रहे होंगे। फिर अगले दिन सर्जन को दिखाया गया। उन्होंने बायोप्सी करवाने को कहा। बाबूजी को भी डॉक्टर ने मोतियाबिंद के आॅपरेसन करवाने की सलाह दी। इसी तरह से सवा महीना हॉस्पिटल की भागदौड़ चलती रही, किसी दिन माँ को लेकर किसी दिन बाबूजी को लेकर। खून जाँच, एक्सरे, बायोप्सी, रिपोर्ट कलेक्शन, सिटी स्कैन, सभी गले में कैंसर होने की पुष्टि करते गया। एनेस्थीसिया से लेकर शल्य क्रिया की तिथि मिलने में सवा महीना लग गया। बाबूजी के आँखो के शल्यक्रिया का दस दिन बीत चुका है l वो डॉक्टर द्वारा गए परहेज का पालन नहीं करते हैं, कभी टहलने निकल जाते हैं, कभी हाथों से आँख को छूते हैं, कभी धूप बैठ जाते हैं, बच्चों की तरह मनमानी करते हैं, कब दशहरा की छुट्टी आयी और चले गयी इस भागदौड में पता ही नहीं चला। कहाँ तो चली थी छुट्टियों में सैर को, लेकिन ईश्वर को कुछ और मंजूर था। हर बार छुट्टियों में बच्चों के साथ कितनी मस्तियाँ होती थी, इस बार दोनों की छुट्टियाँ घर में अकेले बीत गयी। विद्यालय खुलने पर अलग परेशानी शुरू हुई। सुबह बच्चों को भेज कर हॉस्पिटल जाती लौटने में अक्सर देर हो जाती। बच्चे स्कूल से आकर गेट पर धूप में भूखे-प्यासे बैठे मिलते। धूप से कुम्हलाया उसका चेहरा देख कर दया आ जाता थी। कितनी भी जल्दी आने की कोशिश करती लेकिन हॉस्पिटल की लंबी पंक्ति की वजह से विलंब हो ही जाता था। चूँकि यह सिलसिला लम्बा चलने वाला था इसलिए तय हुआ कि एक नियत जगह पर मैं चाभी रख कर जाऊँगी वो विद्यालय से आने के बाद वहाँ से निकाल लेगा। उसके बाद मैं घर बंद कर के नियत स्थान पर चाभी रख देती थी। बच्चों के ऊँचायी के हिसाब से वह जगह काफी ऊँचा था, फिर भी लटक के वह निकाल लेता था। जरा सी भी असावधानी होने पर चाबी खिड़की पर से घर में गिर सकती थी जो हम सबों के लिए काफी परेशानी का सबब हो सकता था, लेकिन मेरी दी गई हिदायतों का सावधानी पूर्वक पालन करते हुए होसि‍यारी से वह चाभी निकाल कर घर में प्रवेश कर जाता था। गृह कार्य करते हुए मेरा इंतज़ार करता।

डॉक्टर के अनुसार अभी बीमारी शुरूआती स्थिती में है अतः शल्य क्रिया से पूर्णतः ठीक हो जाने की संभावना है। यदि कुछ अंश बचा रहा तो कीमोथेरेपी और रेडिएशन की आवश्यकता पड़ सकती है। अचानक सर पर एक बड़ी मुसीबत आ गई थी। परिवार के अन्य सदस्यों को बताना भी बहुत हिम्मत का काम था। किसी तरह हिम्मत बाँध कर सबको सूचित किया गया। देवर जी भी शल्य क्रिया की तिथि के हिसाब से रिजर्वेशन करवा लिए थे। एक दो और सहयोगियों की आवश्यकता थी, क्योंकि मुझे तो माँ के साथ हॉस्पिटल में ही रहना था। घर में रोने-धोने का माहौल उत्पन्न हो गया था। किसे-किसे सम्हालूँ, या अपने बच्चों को देखूँ। सारी जाँच पूर्ण होने के बाद शल्य क्रिया की तिथि एक सप्ताह बाद मिली। मन तो अंदर से घबड़ा रहा था परन्तु ये समय हिम्मत हारने का नहीं था। मैं अंदर से खुद को मजबूत करने लगी। बच्चों को भी मानसिक रूप से तैयार किया कि, मेरी अनुपस्थिति में कैसे उन्हें खुद की देखभाल करनी है। मैंने माँ की भी मनोस्थिति जानने की कोशिश की कि कहीं वो शल्य क्रिया से घबड़ा तो नहीं रही है। उनके अंदर जीने की अदम्य लालसा थी, और वो शल्य क्रिया करवाने के लिए तैयार थी।

तय हुआ कि घर से जयधी आ जायेगी वो घर का काम-काज संभाल लेगी l बाहर की भागदौड़ के लिए देवर जी रहेंगे l हम सभी मिल के माँ के शल्य चिकित्सा को सफलतापूर्वक अंजाम देंगे और उन्हें नई जिन्दगी प्रदान करने की कोशिश करेंगे l शल्य चिकित्सा में कभी-कभी कुछ जटिलताएँ भी आ जाने की संभावना होती है इन सब से मन घबराया भी हुआ था l परन्तु मन में आधुनिक चिकित्सा प्रणाली, नये रिसर्च, एवं डॉक्टर के ऊपर भरोसा होने के कारण मन में विश्वास था कि माँ अवश्य ठीक हो जायेगी। मेरी मिहनत बेकार नहीं जाएगी l मेरे परिवार में 3-4 डॉक्टर हैं उनसे भी मैं रिपोर्ट भेज कर सलाह ले ली थी कि शल्य चिकित्सा करवाना उचित निर्णय है या नहीं l सबों की सहमति मिली कि शल्य क्रिया से अस्सी प्रतिशत संभावना है उनके ठीक होने की और छोड़ देने से शून्य प्रतिशत l तो क्यों नहीं उस अस्सी प्रतिशत के लिए ही पूरी तन्मयता के साथ प्रयास किया जाय l

बीच की इस अवधि में बाबूजी ने कहा कि माँ को घर लेकर जाता हूँ, सबसे मिलवा कर नियत तिथि से एक दिन पहले चला आऊँगा। तय तिथि को घर से फोन आया कि माँ शल्य क्रिया नहीं करवायेगी। मैंने कारण जानना चाहा तो सबों की बहुत तीखी प्रतिक्रिया मिली। पता चला कि सभी एकमत से कह रहे हैं कि- "इस बीमारी में कोई बचता है क्या बिना शल्य चिकित्सा के तो वह कुछ दिन बच भी जायेगी लेकिन आॅपरेशन करवाने से अभी ही खत्म हो जाएगी "। यह सुनकर मेरा सर चकराने लगा। उस दिन से मैं परिवार के सदस्यों के बीच मूक दर्शक बन गई। आज तकनीक कितनी उन्नति कर गयी है फिर भी लोगों के मन में शल्य चिकित्सा के प्रति अभी भी भ्रांतियाँ फैली हुई है। परिवार के सारे सदस्यों की एक मत थी कि बाबा रामदेव की दवाई खायी जाय। समय के साथ धीरे-धीरे उनका गाँठ बढ़ता गया और उनकी भोजन नली अवरुद्ध हो गयी और भोजन का एक भी निवाला एवं पानी की एक बूँद भी उनके गले से उतरना बंद हो गया। मैं उनकी पीड़ा समझते हुए भी चुप-चाप आँसू पीने के सिवा कुछ नहीं कर सकती थी। मेरी अपनी बहन एवं भाभी के पिता के कैंसर विशेषज्ञ होते हुए भी मैं माँ को बचा नहीं पायी इसका मुझे जिंदगी भर अफसोस रहेगा। "ईश्वरेच्छा बलीयसी"। उनकी स्मृति में नारी को महिमामंडित करती काव्य चंद्रभामिनि एवं चन्द्रावती राजा पुस्तकालय की स्थापना करने वाले पति एवं परिवार के अन्य सदस्यों ने भी कहीं दूसरे जगह के डॉक्टर से सलाह लेने की आवश्यकता नहीं समझी। देश एवं विदेशों में भी एक से बढ़कर एक कैंसर संस्थान होते हुए एवं परिवार के सभी सदस्य आर्थिक रूप से सक्षम होते हुए भी स्मृतिशेष माता जी पतंजलि की चूर्ण फाँकती हुईं, जिंदगी की जंग लड़ते-लड़ते 20/11/2011 को निर्वाण को प्राप्त हुई l भरे पूरे घर की मल्लिका एक-एक दानों को तरसते हुये भूख से ठठरी देह को छोड़ सदा के लिए विदा हो गयी। मेरे मन में आज भी कसक है कि परिवार के सदस्यों ने थोड़ी भी कोशिश की होती आज भी उनकी छत्र-छाया हमलोगों के ऊपर होती l


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