साथी
साथी
हर रोज की तरह आज सुबह दरवाजा खोला तब निश्चित समय पर नियमित रूप से आने वाली शांति खामोशी से वाॅश एरिया की ओर बढ गई। जबकि हर सुबह घर में कदम रखते ही उसकी खिलखिलाहट मुझमें नवीन उत्साह भर दिया करती। आज कुछ तो अलग है, पूछ कर देखती हूँ। मैं भी चाय बनाने के लिए रसोई में आ गई।
“क्या बात है शांति? सब ठीक है?"
"हाँ अम्मा! ठीक हूँ।" एक संक्षिप्त उत्तर था। ऐसा ना था कि वह उदास चेहरे के साथ काम को बोझ समझ कर करती, बल्कि दोगुने उत्साह के साथ खुश होकर सभी कार्य निपटा लेती। शायद उसके इसी प्रसन्नचित्त व्यक्तित्व के कारण मैंने उसे काम पर रखा था। आज मेरा मन भी उदास हो रहा था। चाय छान कर साथ पीने बैठ गई।
"बच्चों की तबियत ठीक है ना? स्कूल गए?"
“हाँ! बच्चे ठीक है और स्कूल चले गए। मोहल्ले वाले बातें बनाते है।"
"किस तरह की बातें? बताओ!"
"पति के मर जाने के बाद भी कैसे अच्छी तरह से घर चलाती है और बच्चों को बड़े स्कूल में पढाती है।"
"ये तो बहुत अच्छी बात है। तुम खुश रहा करो।"
"मुझे खुश देखते ही पीठ पीछे बातें करते है। मैं ये सब सुन-सुन कर जब भर जाती हूँ तब सिर बहुत दुखता है। किससे कहूँ? बच्चे छोटे है।" इतना कहते ही उसकी आँखों में आँसू आ गए। मैं झट से उसके लिए सिरदर्द की दवाई लेकर आई। उसके बहते आँसूओं को पोछ कर दिलासा दी, "किसी भी तरह की बात हो, मुझसे निःसंकोच कहो, मैं सुनूँगी।" ऐसा कह तो दिया पर क्या उसके सुख-दुख की साथी बन सकती थी?
एक स्त्री पढी-लिखी हो या अनपढ़ हो, उसके आँखों के तारों पर कुदृष्टि पड़ने पर उनके व्याकुलता में कोई फर्क नहीं होता। ऐसे में पति-पत्नी मिल कर अपने प्रेम के इन निशानियों को धैर्यपूर्वक संभालते है। उसने जो कुछ कहा और जो नहीं कह पाई वह सारी बातें मैं समझ गई थी। उम्र के इस दौर में वह अपने दिवंगत साथी को याद कर रही थी और वही रिक्तता उसे उद्वेलित कर रही थी।
