Prabodh Govil

Classics

4.5  

Prabodh Govil

Classics

साहेब सायराना-19

साहेब सायराना-19

2 mins
313


कालजयी उपन्यासकार शरतचंद्र के उपन्यास पर आधारित फ़िल्म "देवदास" कई बार बनी। 1955 में जब दिलीप कुमार को लेकर इसे प्रदर्शित किया गया तब तक दिलीप कुमार अपार ख्याति पा चुके थे। उन्हें फ़िल्मों में आए दस साल से भी अधिक समय हो चुका था। वे अंदाज़, दीदार, ज्वारभाटा, जोगन जैसी कई फिल्मों में काम कर चुके थे।

देवदास में उनके साथ वैजयंती माला और सुचित्रा सेन थीं। पेशावर में जन्मे दिलीप कुमार, बंगाल की सुचित्रा सेन और मद्रास की वैजयंती माला इस विशाल देश के तीन सुदूर कौनों से आए थे। किंतु इस फ़िल्म में तीनों ने कहानी को जिस तरह जीवंत किया उससे यही विविधता कालांतर में हिंदी फ़िल्मों का प्राणतत्व बन गई। इस तिकड़ी ने बहुभाषी देश के एक ऐसे ज्वलंत सवाल का माकूल जवाब दिया जो आज तक कदम- कदम पर उठता रहता है।

कुछ लोग, जिनमें गंभीर सिने समीक्षक भी शामिल हैं, ये कहते पाए जाते हैं कि अन्य क्षेत्रीय भाषाओं, यथा- बांग्ला, मराठी, तमिल, पंजाबी आदि की फ़िल्मों में जो गहराई अथवा परिवेश की स्वाभाविक पकड़ आती है वह बहुधा हिंदी फ़िल्मों में क्यों नहीं आ पाती?

इस प्रश्न का सटीक उत्तर देते हुए, प्रश्न और उत्तर की व्याख्या करते हुए तथा इस आक्षेप से हिंदी फ़िल्मों का बचाव करते हुए देवदास फ़िल्म की बात आज भी उसी तरह की जाती है जैसे फ़िल्म के रिलीज़ होते समय की गई होगी।

जब हम क्षेत्रीय भाषाई फ़िल्मों, जैसे ओड़िया, तेलुगू, गुजराती, राजस्थानी आदि की बात करते हैं तो हम ये नहीं भूल सकते कि अधिकांश भाषाओं की फ़िल्मों की निर्माण- टीम उसी भाषा या समाज के लोगों से बनी हुई होती है। गुजराती फ़िल्म उद्योग में अधिकांश लोग गुजराती ही होंगे, पंजाबी फ़िल्मों में पंजाबी मूल के लोगों की बहुतायत होगी, बांग्ला फ़िल्मों में बंगाल से जुड़े लोगों का बोलबाला होगा किंतु हिंदी फ़िल्म में पूरे देश के कौने- कौने से आए लोग होंगे। यहां बंगाल की राखी भी होंगी, हरियाणा की कंगना भी, कर्नाटक की दीपिका भी, तो विदेश से आई कैटरीना भी।

हिंदी फ़िल्म की यूनिट में रचनात्मक और तकनीकी लोग तो अहिंदी भाषी होंगे ही, अंग्रेज़ी में इंटरव्यू देने वाले हीरो- हीरोइन तथा उर्दू में संवाद लिखने वाले लेखक भी दिखेंगे

यही कारण है कि हिंदी फ़िल्मों का परिवेश किसी एक जगह की आंचलिकता को नहीं छूता।

फ़िर यहां तो यूसुफ खान दिलीप कुमार बन कर बल्लेबाजी कर रहे थे। मज़ा आना ही आना था आया, और जमकर आया।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Classics