रुपये का चेहरा
रुपये का चेहरा
पड़ोस में रहने वाली सुधा भाभी के टकराते ही मैं बोली, "बधाई हो भाभी, देवरानी आ रही है। सुना है सुबोध भैया की सगाई कर दी है आपने बरेली में। बहुत अच्छा लगा जान कर।"
"हुँह...कैसी सगाई...भैया ने सगाई तोड़ दी है।"
"तोड़ दी...मतलब?"
"कहते हैं आंखें बहुत छोटी हैं, लड़की पहाड़ी सी लगती है।"
" तो क्या पहाड़ी इंसान नहीं होते? और ये सब पहले नहीं दिखा था क्या... फिर उन्होंने जो खर्च किया उसका क्या?" कुछ अचंभित होकर व बैचैनी में मैंने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
" क्या कहूँ प्रिया जी, खर्च उन्होंने किया तो खर्चा हमारा भी हुआ है... बात बराबर। और फिर देवर जी मल्टिनैशनल कंपनी में ऊंचे पद पर हैं... जब तक बीस पच्चिस रिश्ते ठुकराएँगे नहीं, भला साख कैसे जमेगी? हाँ, उसके लाये माल से हमारी आँखे चुंधिया कर छोटी करती तो बात बन भी सकती थी।"
"पर... आपके खर्चे ने तो उनकी ज़िन्दगी भर की कमाई इज्ज़त खरीद ली...उसकी भरपाई कैसे होगी भाभी?" शब्दों के साथ मेरी निगाहें अनायास ही पास खड़ी उनकी छः साल की बेटी पर जा टिकी।
और भाभी मेरी निगाहों का पीछा करते हुए अपनी बेटी की दबी नाक और उभरे माथे को देख सहम गई थीं।