रंगोली
रंगोली
आज मैं बहुत उदास थी। बिटिया के बिना ये पहली दीवाली थी। पूरा घर बे-रौनक सा था। हर साल जो घर दीपावली पर जगमगाता रहता था आज गुमसुम, मौन सा था। आयुषी, मेरी बिटिया खूबसूरत रंगोली बनाती, दीये पेंट करती, पूरे घर के कोने कोने को सजाती। पर आज, घर का द्वार ही सूना था। हर आने वाला अतिथि पूछता," अरे इस बार रंगोली नहीं बनाई ?" .
मैं धीरे से कह देती," हमारे घर की रंगोली तो चली गई"।
रात के दस बज रहे थे। बिटिया का फ़ोन तक नहीं आया। फ़ोन की घंटी बजी। आयुषी की सास का फ़ोन था। चहक चहक कर कह रही थी," आयुषी तो गुणों की खान है। घर का कोना कोना सजा दिया है। पहली बार लग रहा है कि दीपावली इसे कहते हैं ! आपने बड़े अच्छे संस्कार दिए हैं बच्ची को। हमारे घर में तो रौनक आ गई है! सुबह से सांस नहीं ली, बढ़ चढ़ के मेहमानों के स्वागत में लगी है। शायद आपको फ़ोन तक नहीं किया। आप सब को हम सब की तरफ से हैप्पी दीवाली !"
फ़ोन रखते ही चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी। एक सुकून सा दिल पे छा गया। मन ने कहा- कहाँ गई है हमारी रंगोली ! वह तो कइयों के जीवन में रंग बिखेर रही है !