Shreya Joshi

Abstract

4.5  

Shreya Joshi

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रिश्ते की पवित्रता

रिश्ते की पवित्रता

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386


गुजरात के लिए तो नवरात्रि का उत्सव एक महापर्व के समान होता है। जिसके लिए बच्चे, युवा और वृद्ध सभी उत्साहित होते हैं।लगभग एक माह पहले से तैयारियां शुरू हो जाती है।

इसी क्रम में अहमदाबाद की राजल भी अपनी तैयारियों में व्यस्त थी। नौ दिन के अलग अलग कपड़े उनके साथ के गहने और मोजड़ी। एक एक दिन की तैयारी वह बड़े उत्साह से कर रही थी, जिसमें उसे चार चार दिन लग रहे थे, क्योंकि उसे पूरे गरबा पंडाल में अलग जो दिखना था! दिखे भी क्यों नहीं आखिर वह उस क्लब के अध्यक्ष श्रीमान् विरल जोशी जी की इकलौती बेटी जो थी।

धीरे धीरे सारी तैयारियां पूरी हो गईं। आखिरकार वो घड़ी आ ही गईं जिसके लिए इतने दिनों से तैयारियां चल रहीं थीं।

आज नवरात्रि का पहला दिन था। राजल उत्साहित तो सुबह से ही थी पर वह इस उत्साह को प्रदर्शित नहीं कर पा रही थी क्योंकि आज सुबह से ही वह रसोई में अपनी माँ हिरल बेन की मदद कर रही थी, क्योंकि गुजराती परंपरा के अनुसार आज घर में गरबा (गर्भदीप) की स्थापना होनी थी जिसके लिए प्रसाद बन रहा था।

लेकिन जैसे ही वह काम से निवृत्त हुई, उसका उत्साह घर के कोने कोने में दिखाई देने लगा। कभी वह अपने कपड़े निहार रही होती तो कभी गहने देख रही होती।

घड़ी में ८ बजते ही वह सफेद रंग का खूबसूरत पारंपरिक गुजराती परिधान पहने हुए गरबा पंडाल में जाने के लिए निकल गई, जो घर से ३० मिनट की दूरी पर था।

हर साल की तरह वहाँ ताली रास तो सामान्य ही हो रहा था, जिसमें राजल पूरे उत्साह के साथ गरबा कर रही थी। लेकिन राजल के उत्साह का रंग तब फीका पड़ गया जब उसे पता चला कि इस साल डांडिया रास की जोड़ियों के लिए थीम निर्धारित है, जिसके अंतर्गत आज डांडिया रास करने वाली सभी जोड़ियाँ भाई-बहन की होंगी।

इतना सुनते ही ताली रास को बीच में ही छोड़ कर डांडिया रास प्रेमी और पिछले ५ सालों से Best Steps Taker award पाने वाली राजल उदास मन से दर्शक दीर्घा में जा बैठी।

सभी ताली रास की मस्ती में थे, इस कारण किसी का ध्यान इस बात पर नहीं गया कि राजल ने रास छोड़ दिया है।

इधर राजल की आँखें तो मानो गंगा यमुना के जैसे बह उठीं, उसकी उदासी इस बात की थी कि वह इस साल नवरात्रि के पहले दिन ही डांडिया रास नहीं कर सकेगी क्योंकि उसको तो भाई ही नहीं है।

राजल इस विचार में इतनी गहराई तक डूब चुकी थी, कि उसे आस पास की कोई सुध नहीं थी।

इस बीच ताली रास खत्म हुआ और डांडिया रास के शुरू होने की घोषणा हो गई। लेकिन राजल पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ा।

इधर सभी लोग व्याकुलता से क्लब की डांडिया क्वीन राजल विरल जोशी के मैदान पर आने का इंतज़ार कर रहे थे, लेकिन घोषणा को १५ मिनट हो चुके थे अब तक राजल का कोई पता नहीं था।

तब लोगों के आग्रह पर संचालक महोदय ने बड़े सम्मान के साथ राजल से मैदान पर आने का नम्र निवेदन किया। क्योंकि लोग उसके बिना डांडिया रास की शुरुआत नहीं करना चाहते थे।

कुछ लोग तो केवल उसके steps और style को देखने के लिए ही आए थे। लेकिन ऐसा लगा मानो राजल वहाँ हो ही नहीं क्योंकि mic जो पंडाल के चारों कोनों में लगे ४ speakers जिनमें से हर एक की sound coverage capacity लगभग २ किलोमीटर थी, से जुड़ा हुआ था उसकी आवाज भी राजल के कानों तक नहीं जा रही थी। जबकि वह दर्शक दीर्घा की पहली पंक्ति की पहली ही कुर्सी पर बैठी थी।

राजल की तंद्रा तब टूटी जब अचानक एक हाथ उसके कंधे पर पड़ा। राजल ने देखा तो उससे उम्र में ८ साल बड़ा दिखने वाला एक युवक सामने खड़ा था।

राजल: आप कौन? मैंने आपको पहचाना नहीं।

स्नेहल (सामने खड़ा अपरिचित युवक): लेकिन मैंने तुम्हें पहचान लिया, तुम इस क्लब की डांडिया क्वीन राजल विरल भाई जोशी हो ना? मेरा नाम स्नेहल विजय भाई दवे है। मैं तो तुम्हारा डांडिया देखने ही आया था, लेकिन तुम तो मैदान पर जा ही नहीं रही, क्यों? क्या हुआ?

 (तभी स्नेहल की नज़र राजल की आंखों पर पड़ती है।) 

स्नेहल: अरे! ये क्या? तुम्हारी आंखें इतनी लाल और सूजी क्यों हैं? तुम रो रही थी? लेकिन क्यों क्या हुआ ?

(अपरिचित युवक से बात करने में राजल को संकोच हो रहा था, वह चुप थी।) 

स्नेहल: अरे! चुप क्यों हो? कुछ तो बोलो। बात करोगी तभी समस्या का हल मिलेगा, रोने से नहीं।

राजल: (चिढ़कर) किस समस्या का हल देंगे आप ?

स्नेहल: (सहजता से) तुम्हारी जो समस्या होगी उसका, अगर तुम मुझे बताओगी।

राजल: (गुस्से में) क्यों आप किसी चिराग से निकले जिन्न हैं क्या? जो आपके पास हर समस्या का हल है, जो मेरी समस्या हल कर देंगे।

स्नेहल: (मुस्कुराते हुए) नहीं मैं कोई जिन्न तो नहीं लेकिन तुम्हारी गरबा खास तौर पर डांडिया करने की शैली एक का बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ। जिस कारण मैं हर साल इसी क्लब में आता हूँ तुम्हारा डांडिया देखने और तुम्हें खुशी से झुमते गाते देखता हूँ। लेकिन इस साल तुम्हें रोते हुए देखकर अच्छा नहीं लग रहा इसलिए पुछ लिया लेकिन तुम्हें नहीं बताना तो ठीक है, कोई बात नहीं।

(इतना कहकर स्नेहल खाने पीने से स्टॉल की ओर बढ़ जाता है।)

राजल: (कुछ देर सोचने के बाद) सुनिए! 

स्नेहल: (वापस आकर) हाँ बोलो।

राजल: माफ़ कीजिएगा! मैंने आप से ठीक ढंग से बात नहीं की, आप तो मेरी मदद करने आए थे।

स्नेहल: बस इतना ही कहना था या फिर कुछ और भी? वैसे कोई बात नहीं तुम्हारा व्यवहार स्वाभाविक ही था।

राजल: आप मेरी समस्या जानना चाहते थे ना?

स्नेहल: हाँ, बताओगी ?

राजल: हाँ, इसीलिए बुलाया है।

स्नेहल: तो बताओ।

राजल: इस साल डांडिया रास करने के लिए जोड़ीदारों में भाई बहन का रिश्ता होना जरूरी है और मेरा तो कोई भाई है ही नहीं तो फिर मैं मैदान पर जाकर क्या करूंगी? किसके साथ डांडिया करूँगी ?

स्नेहल: अरे! बस इतनी सी बात, वैसे तो मैं तो सिर्फ देखने आया था, लेकिन अगर मुझे तुम्हारे जैसी इतनी प्यारी सी छोटी बहन मिल रही हो तो मुझे डांडिया करने में कोई समस्या नहीं है क्योंकि जैसे तुम्हें भाई नहीं है वैसे ही मुझे बहन नहीं है। हाँ लेकिन अगर तुम मुझे अपना भाई मान सको तो।

राजल: (खुशी से) हाँ बिल्कुल! क्यों नहीं? भाई चलिए ना।

दोनों खुशी खुशी डांडिया करने चले गए। लेकिन सब के आसपास कोई न कोई ऐसा होता ही है जो अच्छाई में भी कोई न कोई बुराई ढूंढ ही लेता है और राजल के लिए वह उसके पड़ोस वाली गंगा काकी थीं, जो कार्यक्रम का मज़ा लेने में कम और राजल के ख़िलाफ़ बातें करने में ज़्यादा व्यस्त थीं क्योंकि राजल का कोई भाई ना होने के बाद भी भाई बहन की थीम होने के बाद भी डांडिया जो कर रही थी।

इधर डांडिया रास ख़त्म हुआ और आरती शुरू हो गई लेकिन गंगा बेन तो अब तक बातों ही खोई हुई थीं फिर मंच से संचालक महोदय को हस्तक्षेप करना पड़ा।

आरती पूरी होने के बाद राजल और स्नेहल के बीच मोबाइल नंबर का लेनदेन हुआ और दोनों अपने अपने घर चले गए। 

स्नेहल ने घर पहुँचते ही यह जानने के लिए राजल को फोन किया कि वह ठीक से घर पहुँची या नहीं लेकिन राजल तो कपड़े बदलने गई हुई थी इसलिए हिरल बेन ने फोन उठाया।

स्नेहल: हैलो! राजल तुम ठीक से घर पहुँच गई ?

हिरल बेन: हाँ राजल तो ठीक से पहुँच गई लेकिन तुम कौन ?

स्नेहल: मैं स्नेहल विजय भाई दवे, और आप ?

हिरल बेन: मैं राजल की माँ, हिरल विरल भाई जोशी।

स्नेहल: ओह! जय माताजी काकी, मैंने सिर्फ इतना जानने के लिए ही फोन किया था। अब मैं रखता हूँ।

हिरल बेन: ठीक है, जय माताजी बेटा।

फोन काटकर मेज़ पर रखतीं हिरल बेन विचार में पड़ गई कि ये स्नेहल कौन है? ये राजल की इतनी चिंता क्यों कर रहा था? कहीं यही वो लड़का तो नहीं जिसके बारे में गंगा बेन बता रहीं थीं? इतने में राजल कपड़े बदल कर आ गई। 

राजल: (माँ को विचार में खोया देखकर) क्या हुआ माँ क्या सोच रहीं हैं ?

हिरल बेन: ये स्नेहल विजय भाई दवे कौन है ?

राजल: क्यों क्या हुआ ?

हिरल बेन: फोन आया था उसका अभी तेरे फोन पर, बड़ी चिंता है उसे तेरी! पुछ रहा था कि तू ठीक से घर पहुँच गई ?

राजल: हाँ तो बड़े भाई को छोटी बहन की चिंता तो होगी ही ना, इसमें इतना सोचने जैसा क्या है ?

हिरल बेन: बड़ा भाई! लेकिन गंगा बेन तो कुछ और ही बोल रहीं थीं।

राजल: क्या माँ आप भी! किसकी बातों में आकर अपना ख़ून जला रहीं हैं! गंगा काकी का स्वभाव आप नहीं जानतीं? एक बार मुझसे पूछ लेतीं।

हिरल बेन: पुछ तो रही हूँ, अब बता दे। बात को गोल गोल क्यों घुमा रही है ?

फिर राजल ने बड़ी सहजता से माँ को पलंग पर बैठाया, फिर प्यार से सारी बातें बताईं। तब कहीं जाकर हिरल बेन को शांति मिली क्योंकि उन्हें अपनी राजल पर पूरा विश्वास था।

हिरल बेन: राजल एक काम कर तू अभी स्नेहल को फोन कर, मुझे उससे बात करनी है।

राजल: माँ आपको बात करनी है, तो कल कर लीजिएगा अभी बहुत रात हो चुकी है।

हिरल बेन: रात हो गई है तो क्या हुआ? हम भी तो जाग रहे हैं ना? वैसे भी एक माँ को अपने बेटे से बात करने के लिए समय थोड़े ही देखना पड़ता है। तू फोन लगा अभी।

राजल: ठीक है, लगाती हूँ।

राजल: (कुछ देर बाद) ये लीजिए लग गया।

हिरल बेन: हैलो! स्नेहल, मैं राजल की माँ बोल रही हूँ, सो रहे थे बेटा ?

स्नेहल: अरे! नहीं काकी, आप बोलें, अभी अभी तो बात हुई थी हमारी, फिर तुरंत फोन करना पड़ा आपको, मुझसे कोई भूल हुई क्या ?

हिरल बेन: अरे! नहीं बेटा मैंने तो तुम्हें कल दोपहर के खाने पर बुलाने के लिए फोन किया है। एक काम करो अपना फोन speaker पर डालकर अपने माँ पापा के पास ले जाओ।

स्नेहल: ठीक है काकी १ मिनट।

स्नेहल: (कमरे में पहुँच कर) हाँ काकी अब बोलें हम सब सुन रहे हैं।

हिरल बेन: जय माताजी विजय भाई, मैं स्नेहल की मुंहबोली बहन राजल की माँ, हिरल विरल भाई जोशी बोल रही हूँ।

विजय भाई: अरे! हाँ हिरल बेन जय माताजी, स्नेहल ने हमें बताया राजल के बारे में, बोलें, कैसे याद किया?

हिरल बेन: मैंने आप सबको कल दोपहर के खाने पर आमंत्रित करने के लिए फोन किया है, सबको आना है, कोई बहाना नहीं सुनू़ंगी।

विजय भाई: अरे! हाँ जरूर, तो कल मिलते हैं, जय माताजी।

हिरल बेन: जी बिलकुल, जय माताजी भाई।

हिरल बेन ने अपने कमरे में जाकर सारी बातें विरल भाई को बताकर १ सामान की सूची थमाई।

हिरल बेन: (सूची थमाते हुए) कल सुबह ये सामान ला देना।

विरल भाई: ठीक है, ला दूंगा, लेकिन इस रिश्ते की सच्चाई हम जानते हैं लेकिन पड़ोसी क्या सोचेंगे ?

हिरल बेन: सिर्फ हम ही नहीं, इस सच्चाई को माताजी भी जानतीं हैं। जो गलत अर्थघटन करेगा इस रिश्ते की पवित्रता माताजी ही उसको दिखाएंगी, आप चिंता मत करो।

विरल भाई: माताजी कृपा करें ऐसा ही हो।

दूसरे दिन सुबह से ही हिरल बेन रसोई में ऐसे लग गईं मानो उनके अपने बेटे का स्वागत करना हो।

तय समय तक सब हो गया और तभी दरवाजे पर दस्तक हुई।

हिरल बेन: राजल देख तो बेटा, तेरा भाई होगा शायद।

राजल: (चहकते स्वर में) आई माँ।

दरवाजा खोलकर देखा तो राजल खुशी के मारे उछल पड़ी।

राजल: अरे! जय माताजी भाई आ गए आप लोग, आइए अंदर आइए ना।

राजल की आवाज की चहक study room में बैठे विरल भाई के कानों में पड़ी। उन्हें समझने में देर ना लगी कि स्नेहल अपने परिवार के साथ आ चुका है। वे भी तेज़ कदमों से हॉल की ओर बढ़े। आते आते उन्होंने आवाज़ लगाई अरे! हिरल कहाँ हो? तुम्हारा बेटा आ गया।

हिरल बेन: हाँ हाँ आप नीचे आ जाओ मैं यहाँ हॉल में ही हूँ।

तब तक राजल भ सबको साथ लेकर हॉल में आ गई। 

परिचय के बाद कुछ देर बातचीत हुई, तब तक खाना मेज़ पर लग गया।

खाना ख़त्म कर सबने साथ में selfie ली और फिर दवे परिवार ने विदा ली।

इसी समय गंगा बेन अपनी बाल्कनी में खड़ी बच्चों के school से आगे का इंतज़ार कर रहीं थीं। उन्होंने स्नेहल को पहचान लिया, रात को गंगा बेन ने इस बात को मिर्च मसाला लगाकर फैला दिया। सब जोशी परिवार के बारे में बातें बनाने लगे।

लेकिन उन सबको माताजी पर विश्वास था इसलिए उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उस रात गंगा बेन के सपने में माताजी ने आकर कहा गंगा यदि कोई बात पूरी तरह से पता ना हो तो, किसी के चरित्र पर दाग नहीं लगते।

गंगा बेन: माताजी आप किस बारे में बात कर रहीं हैं ?

माताजी: राजल और स्नेहल के बारे में।

गंगा बेन: मैं समझी नहीं माताजी।

माताजी: जो बातें तुमने आज कहीं हैं, वो सच्ची नहीं हैं।

(माताजी ने सारी बातें बताईं) 

माताजी: नवरात्रि में केवल घर और शरीर की पवित्रता ही नहीं अपितु मन की पवित्रता भी आवश्यक होती है। अपने मन की अपवित्रता के कारण तुमने एक पवित्र रिश्ते को अपवित्र करने की चेष्टा की है। तुम्हें इसका प्राश्चित करना होगा।

गंगा बेन: (माताजी के चरणों में गिरकर) आप जैसा कहें वैसा करने को तैयार हूँ।

माताजी: तुमने जैसे बात फैलाई है वैसे ही क्षमा भी मांगनी होगी।

गंगा बेन समझ गईं और दूसरे दिन रात को पंडाल में जाकर सबके सामने mic से अपनी भूल स्वीकारी फिर जोशी और दवे परिवार से माफ़ी भी मांगी।


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