प्यार से खिलाने वाले हाथ!!!
प्यार से खिलाने वाले हाथ!!!
बचपन से ही मैंने अपनी माँ को सबसे अंत में खाना खाते हुए देखा था। अंत में कभी सब्जी कम पड़ जाती थी, या कभी रोटी। उन दिनों आज की तरह गैस चूल्हे नहीं होते थे कि, फट से चूल्हा जलाया और खाना बना लिया। वैसे होता भी तो, मेरी माँ कभी खुद के लिए न तो रोटी सेकती और न ही सब्ज़ी बनाती। मेरी माँ ही क्या, हर गृहिणी की यही कहानी है।
लेकिन हमारे घर पर रोज़ शाम को राबड़ी जरूर बनती थी, तो मेरी माँ कभी छाछ -राबड़ी खाकर अपना पेट भर लेती या कभी दूध राबड़ी। उसके बाद माँ के लीवर में कोई समस्या हो गयी थी तो माँ चाहकर भी घर पर बनने वाले सभी प्रकार के व्यंजन नहीं खा सकती थी।
मैंने बचपन से अपनी शादी होने तक माँ को ऐसे ही देखा था ;मानो उनका अपनी स्वादेंद्रि पर पूरा नियंत्रण हो गया हो। मैंने भी अपनी माँ से यही सीखा, शादी के बाद मैं भी खाने को ही क्या, हर छोटी -बड़ी चीज़ को लेकर अपनी पसंद -नापसंद भूल गयी थी। मुझे महसूस होता है, ऐसा मेरे साथ ही नहीं हर दूसरी लड़की के साथ होता होगा।
खैर आज मैं, सावित्री यहाँ आपको बताने जा रही हूँ कि मुझे ख़ुशी कब मिलती है। समय के साथ मैं खुद भी 2 बच्चों की माँ बन गयी। परिस्थितयाँ कुछ ऐसी हुई कि मेरे भाई गांव छोड़कर शहर आकर बस गए ;पिताजी पहले ही गुजर गए थे तो माँ भी भाइयों के साथ शहर में आकर रहने लगी। कुछ समय बाद मैंने भी शहर में अपने भाइयों से कुछ दूरी पर घर ले लिया। वैसे मेरे पति की सरकारी नौकरी के कारण मैं कई शहरों में घूम चुकी थी ;लेकिन यह एक बड़ा शहर था और राजधानी भी था तो हमने अपना घर इस शहर में बनाने का निर्णय लिया था।
मेरी माँ का शहर में आकर मैगी से परिचय हुआ। कभी भतीजे -भतीजियों को खाते देखा होगा। लेकिन माँ को किसी ने नहीं दिया ;क्यूँकि सब यही मानते थे कि माँ तो केवल छाछ -राबड़ी खाती है। लेकिन अब माँ की स्वादेंद्री वापस काम करने लगी थी। अब वह जब बच्चों को कुछ खाते देखती तो उनका मन भी ललचाता था। और खाने -पीने की चीज़ें तो उन्हें दे दी जाती थी, लेकिन मैगी उन्हें किसी ने नहीं दी।
माँ कभी -कभी मुझे मिलने आती थी। कभी बेटी के घर का पानी तक न पीने वाली मेरी माँ अब मेरे घर कभी कोई अच्छी -बुरी चीज़ देखती तो खा लेती थी और मैं भी माँ को खाने के लिए पूछ लेती थी। अब तक मैंने सुना भर था कि बच्चा और बूढा व्यक्ति एक जैसा होता है ;लेकिन अब देख भी लिया था।
एक दिन मेरे बच्चों ने मैगी बनाई और माँ को खाने के लिए दे दी ;उस दिन मैं शायद पड़ौस में कहीं गयी हुई थी। जब मैं लौटकर आयी तो माँ मैगी बड़े चटखारे ले -लेकर खा रही थी।
अब माँ जब भी आती और मैं उनसे पूछती कि क्या खाओगी ?तो माँ कहती कि मैं तो घर से खाकर आयी हूँ। लेकिन तू ज्यादा जबरदस्ती कर रही है तो वह लटों सी बच्चे क्या बनाते हैं, बना दे तो थोड़ी सी खा लूंगी। माँ मैगी को लटों सी बोलती थी। माँ को मैगी खाता हुआ देखकर मुझे असीम सुख़ और शांति का अनुभव मिलता था। मुझे अपनी पसंद की चीज़ें प्यार से खिलाने वाले हाथों को, मुझे कुछ प्यार से खिलाने का मौका जो मिल गया था।