प्यार दिल्ली में छोड़ आया - 16

प्यार दिल्ली में छोड़ आया - 16

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लेखक : धीराविट पी. नात्थागार्न

अनुवाद : आ. चारुमति रामदास


*Nunc scio suid sit Amor (Latin): अब मैं जान गया हूँ कि प्‍यार क्‍या है – वर्जिल 70-19 BC – AD C 17


उनतीसवाँ दिन

फरवरी ८, १९८२


मैं अभी अभी वुथिपोंग के कमरेसे लौटा हूँ। मैंने वहीं डिनर खाया। बाहर कडा़के की ठंड है। मैं उस कडा़के के मौसम में चलकर वापस आया। आज आसमान एकदम साफ है, क्‍योंकि आज पूर्णमासी की रात है, साथ ही वह दिन भी है जब भगवान बुद्ध ने अपने शिष्‍यों को, जो बिना किसी पूर्व सूचना के एकत्रित हो गए थे, ओवापातिमोख का उपदेश दिया। ओवापातिमोख के तीन प्रमुख सिद्धान्‍त है :


१.      सभी बुराइयों से दूर रहो

२.      अच्‍छी आदतें डालो

३.      मस्तिष्‍क को शुद्ध करो

थाई में हम इस दिन को ‘‘माघ पूजा दिन’’ कहते हैं। परंपरानुसार इस दिन भिक्षुओं को भोजन दिया जाता है, बौद्ध धर्म की पांच शिक्षाओं का पालन किया जाता है, और उपोसथा के चारों ओर मोमबत्तियों का जुलूस निकाला जाता है।


आज, इस उत्‍सव के संदर्भ में मैं एवम् अन्‍य थाई विद्यार्थी (भिक्षु, पूर्व-भिक्षु और आम आदमी) भिक्षुओं को भोजन देने और पाँच शिक्षाओं का पालन करने अशोक बौद्ध मिशन की ओर चले। ये बडा़ शानदार समागम था, चारों ओर थाई वातावरण था। मगर मेरे लिये बुरी बात यह रही कि मैं कुछ बीमार था और मोमबत्तियों का जुलूस शुरू होने से पहले मुझे वापस लौटना पडा़। उस जगह के बारे में थोडा़ सा बताता हूँ।


अतिशयोक्ति नहीं होगी अगर यह कहूँ कि अशोक मिशन ठीक वैसा ही है जैसा दो साल पहले था, जब मैं यहाँ भिक्षु-वस्‍त्र उतारने आया था। कोई ठोस परिवर्तन नहीं हुए है। कुछ भिक्षु थे, मगर बहुत सारे ऐसे थे जो भिक्षु नहीं थे, विभिन्‍न देशों से : लाओ, कम्‍बोडिया, तिब्‍बत, वियतनाम, और पश्चिमी देश। मुझे तो यह मठ की अपेक्षा एक शरणार्थी कैम्‍प प्रतीत होता है।


वे एक साथ रहते है और अनेक कार्यकलापों में व्‍यस्‍त रहते है, जिनमें अनेक अवांछनीय है।पश्चिमी लोग ड्रग्‍स के गुलाम है, घडों में नशीली दवाएँ जलाकर पीते है, ये एक अलग हिस्‍से में रहते है। केवल एक भिक्षु ऐसा है जो हमेशा मठ में ही रहता है। वह रेगिस्‍तान में किसी नखलिस्‍तान की तरह है। इस जगह कोई भी खाना पका सकता है – प्रसन्‍नता से या मजबूरी से। यह उसी पर निर्भर करता है। मैं स्‍वीकार करता हूँ कि इस भाग के माहौल के बारे में मेरा थोडा़ नकारात्‍मक रूख है। मैं यह नहीं कह रहा कि उन्‍हें एक साथ नहीं रहना चाहिये, बल्कि यह कह रहा हूँ कि मठ में अनैतिक/अधार्मिक कृत्‍य नहीं होने चाहिए।


मेरी संवेदना को बड़ी चोट पहुँची जब वहाँ रहने वाले किसी ने बताया कि यहाँ तो लड़की भी बिल्‍कुल सस्‍ते में मिल जाती है। पश्चिमी लोगों को, किसी कंकाल के समान इस भाग में इधर उधर देखना मुझे अच्‍छा नहीं लगता। मैं मठ के उस हिस्‍से से भाग जाना चाहता था, जहाँ मैंने इन चलते फिरते कंकालों को देखा था। ये यहाँ क्‍या कर रहे है? उन्‍हे यहाँ रहने की इजाज़त किसने दी? इन सामाजिक अवशेषों के लिये कौन जिम्‍मेदार है?

ठीक है। बहुत हो गया। अब कुछ और कहता हूँ। मैं वुथिपोंग, आराम, रेणु, जस, टूम, जूली और पिएन के साथ युनिवर्सिटी लौटा। मैं अकेला मॉल-रोड पर बस से उतरा, बाकी लोग अपने रास्‍ते निकल गए। मुझे बुखार था। जब मैं कमरे में पहुँचा तो मैंने एस्‍प्रो की दो गोलियाँ खा ली और आराम करने लगा। मैं आधा-जागा था जब महेश होस्‍टेल में नहाने के लिये आया। जब वह अपने घर जाने लगा तो मैंने उससे वुथिपोंग को यह संदेश देने के लिये कहा :


‘‘कृपया जाओ और ओने को हमारे साथ डिनर करने के लिये ले आओ। मैं कोई खास चीज लेकर तुम्‍हारे पास आ रहा हूँ।’’

कुछ देर बाद मैं उसके कमरे में गया। महेश ने बाहर आकर मेरा स्‍वागत किया।

‘‘वुथिपोंग ओने को लाने गया है,’’ उसने कहा।

‘‘क्‍या वह तुम्‍हारे पास चाबी छोड़कर गया है?’’ मैंने पूछा उसने कहा, “नहीं,” और फिर मुझे अपने कमरे में आकर बैठने को कहा, वुथिपोंग का इंतजार करते हुए। मैं दस मिनट तक इंतजार करता रहा। वुथिपोंग चेहरे पर मायूसी ओढ़े आया।


‘‘क्‍या हुआ?’’ मैंने उससे पूछा।

‘‘वह नहीं आना चाहती। वह अपने ट्यूटर के साथ पढ़ रही है। मुझे बड़ी निराशा हुई है,’’ वह बरसा।

‘‘ठीक है। उसको अपना काम करने दो, हम अपना काम करेंगे। भूल जाओ उस बारे में।’’

मैंने उसे दिलासा दिया, यह न जानते हुए कि और क्या कहूँ। फिर हमने अपना ‘स्‍पेशल डिनर’ गरम किया और खाया। जब स्‍पेशल डिनर खतम हो गया तो उसने कहा :

‘‘कॉफी तो खतम हो गई है। हम चाय ही पियेंगे।’’

‘‘चलेगा,’’ मैंने कहा।


इस तरह हमने अपनी मनपसन्‍द ब्‍लैक कॉफी के बदले चाय पी। आज महेश ने नोट्स लेने में मेरी मदद की। मैंने ‘‘थैंक्यू!’’ कहा। वु‍थिपोंग से मैंने ज्‍यादा बात नहीं की क्‍योंकि वह बुरे मूड में था। जब मैं महेश के साथ नोट्स ले रहा था तो वुथिपोंग महेश के कमरेमें टी०वी० देखते हुए आराम फरमा रहा था। यही एक तरीका है दिल बहलाने का उसके पास। मैं वाकई में उसकी कोई मदद नहीं कर सकता। मैंने 9.30 बजे अपने नोट्स पूरे किये और महेश को और उसे ‘गुडबाय’ कहा। सोम्‍मार्ट मोमबत्‍ती–जुलूस से वापस लौट आया था। उसने आश्‍चर्य से मुझे बताया :


‘‘सैकडो़ लोग थे मोमबत्‍ती-जुलूस में’’।

‘‘कौन थे वे?’’ मैंने पूछा।

‘‘राजदूत,राजनयिक और विद्यार्थी’’ उसने जवाब दिया। मैंने उससे आगे कुछ नहीं पूछा क्‍योंकि मैं थका हुआ था। मैंने भारी दिमाग से डायरी लिखना शुरू किया और अब मैं इसे पूरा कर रहा हूँ। अन्‍त हल्‍के दिमाग से कर रहा हूँ। परेशान न हो। दवा लेकर सोऊँगा। कल मैं ठीक हो जाऊँगा। अच्‍छा, गुड नाइट, मेरी प्‍यारी।



*Et taedat Veneris statim peractae (Latin): लैंगिक संबंधो का आनन्द अल्‍प है, बाद में आती है थकान और ऊब – पेट्रोनियस आर्बिटर D.A.D 65


तीसवाँ दिन

फरवरी ९, १९८२


आज मेरी जिन्‍दगी का सबसे दुःखद दिन है, क्‍योंकि आज मुझे घर से पत्र मिला है कि मेरी दादी-माँ की मृत्‍यु हो गई है और उनका अंतिम संस्‍कार कर दिया गया है। इस दुख को बढा़ने वाली यह खबर और भी है कि मेरे मृत पिता अब तक अपने मकबरे में मेरा इंतजार कर रहे है, जिससे उनका अंतिम संस्‍कार कर दिया जाए। मेरे रिश्‍तेदार चाहते थे कि मैं घर वापस जाऊँ, वर्ना मेरे पिता के मृत शरीर को दफना देंगे। मुझ पर यह दोष लगाया जा रहा है कि मैंने पिता के प्रति अपने ऋण को नहीं चुकाया। हर कोई, मेरी प्‍यारी माँ को छोड़कर, मुझे ‘कुल-कलंक’ कह रहा है, जो एक डूबती हुई नाव को छोड़कर भाग गया है। मैं इनकार नहीं करता क्‍योंकि मैं उनसे बहुत दूर रहता हूँ, और वे मेरी परिस्थिति को और मुझे समझ नहीं पायेंगे। अगर मुझे कोई बहाना बनाना होता, मैं कोई ‘सस्‍ता-सा बहाना’ नहीं बनाऊँगा। बहाने बनाने से यहाँ कोई फायदा नहीं होगा। चाहे कुछ भी हो जाए मैं वही रहूँगा। जो मैं हूँ।


‘‘मेरे पिता, मैं घुटने टेक कर तुम्‍हारे सामने बैठा हूँ, कृपया उन्‍हें मेरी परिस्थिति समझने दो। मैं तुम्‍हें नहीं भूला हूँ। तुम तो हमेशा मेरी आत्‍मा में और मेरे खून में हो। मैं जल्‍द ही तुम्‍हारे पास आऊँगा। मेरा इंतजार करना, प्‍लीज’’


मेरी प्‍यारी, आज मैं और ज्‍यादा नहीं लिख सकता। मैं दादी माँ की मृत्‍यु पर हार्दिक शोक प्रकट करना चाहता हूँ, जो मेरे लिये वापस न लौटने वाली नदी बन गई है। दादी माँ, तुम्‍हारा शरीर गल गया होगा, मगर तुम्‍हारी अच्‍छाईयाँ हमेशा याद की जाएँगी और वे हमेशा शाश्‍वत रहेंगी। ईश्‍वर तुम्‍हे शांति दे। मैं तुम्‍हे हमेशा याद रखूँगा।


*Odi et amo; quare id faciam, fortasse requires. Nescio, sed fierisentio et excrucios (Latin): मैं नफरत करता हूँ और मैं प्‍यार करता हूँ। तुम जानना चाहोगी क्‍यों। मुझे मालूम नहीं – मगर मैं ऐसा ही महसूस करता हूँ और यह जहन्‍नुम है – केटुल्‍लुस C 84 – 54 BC


इकतीसवाँ दिन

फरवरी १०, १९८२


सबसे पहले मैं इन्‍दौर के डा. लल्लू सिंग की तारीफ करना चाहता हूँ उनके कठोर परिश्रम के लिये और उन्‍हें उनकी लाजवाब सफलता पर बधाई देता हूँ। नीचे दी गई खबर पढो़ तो तुम्‍हें पता चल जायेगा कि उन्‍हे कैसी सफलता मिली है।


(स्‍टेट्समन, फरवरी १०, १९८२)

भारतीय वैज्ञानिक ने फेर्माट के अंतिम प्रमेय को हल कर दिया

इन्‍दौर, फरवरी १ – गणितज्ञ डा. लल्‍लू सिंग को ४५ वर्ष लगे ‘‘फेर्माट की अंतिम प्रमेय’’ का हल ढूँढने में, यू एन आई की रिपोर्ट।

जब से डा. सिंग ने ब्रिटानिका विश्‍वकोष में सन् १९३५ में उस सुप्रसिद्ध प्रमेय के बारे में पढा़, जिसका प्रतिपादन फ्रेंच गणितज्ञ पीयरे दे फेर्माट ने सन् १६३७ में किया था, वे प्रतिदिन तीन घंटे उसका हल ढूॅंढने में लगाते रहे, यह जानकारी उन्‍होंने दी।


‘फेर्माट का अंतिम प्रमेय एक संक्षिप्त कथन है धनांकित या ऋणांकित पूर्णांकों के बारे में, जिसे गणितज्ञ इंटेजर्स (पूर्ण संख्‍या) कहते हैं।’

प्रमेय के अनुसारः ऐसी कोई पूर्ण संख्‍या X, Y और Z अस्तित्‍व में नहीं है, और इसके O होने की संभावना भी, जो संबंध (X)N + (Y)N = (Z)N को संतुष्‍ट करती हे (N परिवर्तनीय पूर्णांको X, Y तथा Z की घात है)।


तीन शताब्दियों से अधिक समय से यूरोपिय एवम् अमेरिकन गणितज्ञ अपने दिमागों पर जोर डालते रहे है। पीयरे दे फेर्माट के प्रमेय पर (1601-1655)।

मगर डा. सिंग के अनुसार, उनमें से कोई भी इस प्रमेय का सम्‍पूर्ण हल प्रस्‍तुत करने में सफल नहीं हुआ।

प्रमेय को उसके प्रतिपादक, फेर्माट, भी हल नहीं कर पाये, डा. सिंग ने बताया। फेर्माट अपनी अंतिम प्रमेय के हल को ढूँढने में २८ वर्षो तक लगे रहे।


फेर्माट के प्रमेय के हल से संबंधित डा. सिंग का शोध-प्रपत्र पहले इंडियन एकाडमी ऑफ मेथेमेटिक्‍स की पत्रिका में, इन्‍दौर में सन १९८० में प्रकाशित हुआ। सिर्फ आठ पृष्‍ठों में। इसमें प्रमेय से संबंधित सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है।

आम लोगों के लिये और गणित के विद्यार्थियों के लिये, या विशेषकर गणितज्ञों के लिये यह बड़ी अच्‍छी खबर है। हम उनका अभिनन्‍दन करें!


मेरी जिन्‍दगी आज कम उत्‍पादक एवम् कम सक्रिय रही आत्‍म-विश्‍वास की कमी के कारण। मैं पूरे दिन होस्‍टेल से बाहर नहीं निकला। खुद लाइब्रेरी जाने के बदले मैंने सोम्‍मार्ट से कहा कि मेरी पुस्‍तक लौटा दे। सुबह में कुछ देर पढ़ता रहा, मगर ध्‍यान नहीं लग रहा था, और पढ़ने का कोई फायदा नहीं हुआ। पढा़ई की किताबें पढ़ने के बदले मैं रेडियो एवम् कुछ पुरानी पत्रिकाओं की ओर मुडा (कॉम्‍पीटीशन सक्‍सेस, कॉम्‍पीटीशन मास्‍टर, करियर इवेन्‍ट इत्यादि)। मुझे तुम्‍हारा खत पाने की उम्‍मीद थी, मगर वह पूरी न हुई। शायद अगले कुछ दिनों में मिल जाये। अखबार वाला अखबार के पैसे माँगने आया था। मेरा हाथ बहुत तंग है इसलिये मुझे यह काम स्‍थगित करना पडा़।

‘‘कल, फिर आना, प्‍लीज!” सच कहूँ तो मुझे कठिन समय के लिये पैसे बचाने है। और यह पैसा मुझे कल प्राचक ने दिया था। उसने मुझसे पूछा, ‘‘तुम्‍हारे पास पैसे-वैसे तो हैं ना?’’


उसने मेरे जवाब का इंतजार भी नहीं किया और पैसे निकाल कर मेरे हाथ में थमा दिये, जैसे उसे मेरी स्थिति का पता हो। मैंने बडी कृतज्ञता की भावना से उससे पैसे लिये। उस जैसा आदमी आज की गला-काट प्रतियोगिता की दुनिया में आसानी से नहीं मिलता। ये, बेशक, पहली बार नहीं है जब उसने मेरे प्रति विश्‍वास और दयालुपन दिखाया था। ऐसे कई मौके आए जब मुझे मदद की जरूरत थी, वह मौके पर पहुँच कर मेरी मदद करता रहा। मैं उसके सामने सिर झुकाकर बार बार उसे ‘धन्‍यवाद’ कहूँगा।


लंच से पहले सोम्रांग मुझे एक लाइब्रेरी कार्ड देने आया। वह थका हुआ लग रहा था और थोड़ी-सी नींद लेना चाहता था। उसने मुझसे कहा कि लंच-टाइम पर उसे जगा दूँ। मगर, हुआ ऐसा कि उसीने मुझे उठाया। कितना मजा आया!

दोपहर को दो मित्र मेरे पास आये (थाई और लाओ)। वे बस आए और उसी दिन मेरठ वापस चले गए। शाम को मुझे भूख लगी। मैंने आठ रू. में ऑम्‍लेट और चाय ली। कैन्‍टीन में एक भारतीय लड़का मुझे देखकर हँस रहा था क्‍योंकि मैंने उल्‍टी हैट पहन रखी थी। मुझे अच्‍छा लगा कि मैं देखने में मजाकिया लगता हूँ।

दूसरों को खुशी देना हरेक का कर्त्‍तव्‍य है, ऐसा मेरा विश्‍वास है।


फिर मैं सोम्रांग के कमरे में गया। वह शेविंग मशीन सुधार रहा था। मैंने उसके काम में खलल नहीं डाला बल्कि मैं कुछ और करता रहा (पढ़ता रहा)। माम्नियेंग उसके पास टाइपराइटर माँगने आया। उसने मुझसे पूछा कि वह एम. एल. मानिच जुम्साई से कहाँ मिल सकता है। मैंने कहा कि शायद एम. एल. मानिच जुम्‍साई थाईलैण्‍ड वापस चले गए हो। मगर फिर भी मैंने उसे सलाह दी कि विक्रम होटल में फोन करके, जहाँ एम. एल. मानिच रूके थे, पूछ ले कि वे अभी भी वहाँ हैं या नहीं। मैं उसे समझा नहीं पाया कि क्‍या एम. एल. मानिच जुम्‍साई अभी तक दिल्‍ली में है।


डिनर के बाद, आज रात को, बिजली आती रही, जाती रही, 10.30 बजे तक। फिर ठीक हो गई।

आज मेरी एक महीने की डायरी का अंतिम दिन है, जिस पर तुम्‍हारे जाने के बाद मैंने ध्‍यान केन्द्रित किया था। उद्देश्य यह था कि अपने अंग्रेजी ज्ञान का अभ्‍यास करुँ, जिसके बारे में, मैं स्‍वीकार करता हूँ कि मैं संतुष्‍ट नहीं हूँ। दूसरी बात यह कि मैं तुम्‍हारी अनुपस्थिति में, तुम्‍हारे लिये भारत में, खासकर दिल्‍ली में घटित घटनाओं को दर्ज कर सकूं। और अंतिम कारण यह कि मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे दिल की गहराई में जाकर मेरी उन भावनाओं को समझो जो तुम्‍हारे मुझ से दूर रहने पर दिल में रहती है।


ओह, कितनी पीडा़ से गुजरा हूँ मैं!

अगर वाकई में तुम मेरी खुशी और गम को बाँटना चाहती हो, तुम मेरी डायरी से मेरे साथ बाँट सकती हो। जो भी मेरे मन में था, सब मैंने उँडेल दिया चाहे तुम्‍हे पसन्‍द आए या न आए। मेरी डायरी के दो पहलू तुम देखोगीः अच्‍छा और बुरा। अब यह तुम पर है कि तुम किसे चुनती हो। जो तुम्हें पसन्‍द न हो उसे स्‍वीकार करने का हठ मैं नहीं करुँगा। एक इन्‍सान होने के नाते तुम्‍हे पूरी आजादी और सम्‍मान प्राप्‍त है। मुझे इस बात पर गर्व है कि मैंने जिन्‍दगी में ‘कुछ’ तो किया, खास तौर से उसके लिये जिसके लिये कोमल एवम् स्‍नेहपूर्ण भावनाएं मेरे मन में है। समय ही पुरस्‍कार निश्चित करेगा। मुझे तो उम्‍मीद नहीं।


कल, जो कुछ भी मैंने इस एक महीने की डायरी में लिखा है उसका समापन करुँगा। यह एक पर्दा होगा, जो पिछले तीस दिनों की जिन्‍दगी को ढाँक देगा। गुड नाइट, गुड बाय। तुमसे फिर मिलने तक।


जैसा कि मैंने वादा किया था, उसे पूरा कर रहा हूँ। जो कुछ भी मैंने पिछले ३० दिनों की डायरी में लिखा है उसे सिर्फ एक वाक्‍य में समाप्‍त किया जा सकता हैः मैं तुमसे प्‍यार करता हूँ।


मैं अपनी डायरी इस कविता से पूरी करता हूँ -  


कोई हमें एक दूजे से न करेगा जुदा,

जीवन में और मृत्‍यु में

एक दूसरे के लिये सब कुछ

मैं तुम्‍हारे लिये, तुम मेरे लिये!

तुम वृक्ष और मैं फूल

तुम प्रतिमा; मैं जमघट

तुम दिन; मैं समय

तुम गायक; मैं गान!

(सर विलियम श्‍वेन्‍स्‍क गिलबर्ट)


मेरी संवेदना की पागल धाराएँ जहाँ खत्‍म होती है और जीवन की वास्‍तविकताएँ नये क्षितिज पर आरंभ होती है। दुनिया चलती रहती है, जिन्‍दगी गुजरती रहती है... तुम्‍हारे बिना सदा... मैं सिर्फ इतना कह सकता हूँ, ‘‘अगर तुम मुझ से प्‍यार करती हो, तो मेरे किसी और का होने पर दुखी न होना।’’


Amans, amens! Lover, Lunatic

तथास्तु! प्रेमी, पागल! - प्‍लॉटस C 250-184 BC


मुझे अभी भी तुम्‍हारी याद आती है, प्रिये!


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