"पति का बटुवा "
"पति का बटुवा "
पति का बटुवा, एक पुरानी कहावत है जो चली आ रही है और चलती रहेगी युग बदलते जावेगे पर "पति के बटुवे" के लिए जो पत्नी की प्रवृति है वो नहीं बदल पालेगी।
आज नारी बहुत प्रगतिशील हो गई। बहुत ऊंचाईयों को छू रही है,पर उसके दिल के किसी को कौने में "पति का बटुवा" आज भी जिंदा । भलेही नारी पति। के आश्रित ना हो ,वो पति को अपनी सारी कमाई अर्पित। कर दे पर उसके दिल की सुप्त इच्छा यही रहती है
की पति अपने बटुवे में से रुपए निकाल उसे दे यह कहकर कि " जाओ तुम्हारी जो इच्छा हो ले आओ ,पति द्धारा दिए गए 10 रु. भी उसे आत्मविभोर करदेते हैं। क्योंकि उसे इसमें पति का प्यार जो
झलकता दिखाई देता है।
आज की नारी आसमान छू रही है हर क्षेत्र में आगे। उसके लिए रुपया
महत्त्वपूर्ण नहीं है वह खुद इतनी सक्षम है की अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकती है। "पर पति का बटुवा " दोनों के बीच जरूर कहीं छुपा ही रहता।
आज हम यह सोचने को मज़बूर हैं कि पति पत्नियों के संबंधों के बीच इतनी दूरियां कर्मों ? कर्मों एक साथ रहने पर भी नदी के दो किनारों के समान हैं।
कहां करता ऐसा हुआ की आपसी रिश्तों में इतनी दूरी आ गई क्यों ? वो लगाव, खिंचाव,मार्धुय, जुड़ाव ,दिवानगी नहीं रही क्यों ? संबंधों में यह खोखलापन क्यूं ? आज घर घर में दोनों में नोक झोंक
क्यों ? तलाक समस्याएं बढ़ रही क्यों ?
पत्नि बागी होती जा रही क्यो ?
इन सबका कारण है अप्रत्यक्ष रुपसे " पति का बटुवा"
पति का कर्त्तव्य है कि वह कि वह समयमान व प्रेम से अपने बटुवे का भागीदार अपनी पत्नि को बनावे ,क्योंकि
उसकी यह भावना एक समर्पण होगा उसके लिए। उम्रभर निकलने के बाद
इस बात का अहसास क्योंकि यह दोनों के बीच एक तारतम्य बांधने का जरिया है जब "पति का बटुवा" पत्नि के लिए
रहेगा और यह एक "सेतु" है दोनों के रिश्तों को जोड़े रखने का, भावनाओं को आहत करने का नहीं। "पति का बटुवा"
कल भी महत्त्वपूर्ण था आज भी है कल भी रहेगा।
हां उस बटुवे पर पत्नि " दीमक"
बन ना खाने और पति" सांप" बन ना बैठै
तो पत्नि के लिये कोहिनूर होगा यह प्यारा- पति का बटुवा।