Rati Choubey

Inspirational

1.0  

Rati Choubey

Inspirational

सुबह का भुला

सुबह का भुला

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आज से 10 साल पहले अचानक मेरी प्रिय सखी गीता मुझे बाज़ार में मिली। मेरे गले लग गई कहने लगी

" अरे रति मुझे नहीं पहिचान रही कब से आवाज़ लगा रही हूं ?

ओफ्हो सच में नहीं पहिचानी माफ करना पर तुम यह बताओ इतनी कैसै बदल गई तुम ? तुम्हारा वो दमकता रुप कहां गया क्या हुआ है सुनकर वो

उदास हो गई उसकी आंखें भर आईं।

उसको उदास देख मैनै बातों का रुख बदला और कहा चलो पहले हम "करले" ले लें कल "करवाचौथ" है न , पर एक दर्दीली मुस्कान के साथ उसने कहा "नहीं रति तुम खरींदो हां तुम मुझे अपना फ़ोन न. दो फिर मिलूंगी।

‌‌‌ मैंने अपना नम्बर उसे दिया उसका लिया वह चली गई पर उसका दर्द भी मुझसे छुपा नहीं। अनकहे वो मुझे बैचेन कर गई थी।

जल्दी जल्दी मैं घर आई सामान रखा और गीता को फोन किया गीता मैं तुझसे अभी इसी वक्त मिलना चाहती हूं तू आजा प्लीज

‌‌‌‌‌‌ थोड़ी ही देर में गीता आ गई मेरे सीने से लग वह बहुत रोई जैसे बरसों की घुटन आज निकाल लेगी , बड़ी देर बाद चुप हुई।

वो बोलती रही मैं सुनती रही रति तुमने मुझे "करले" लेने को कहा पर मेरे पति ने इसकी कीमत नहीं समझी,ना मेरे त्याग,प्रेम की अब गगन मेरे पास नहीं रहते हैं किसी और के साथ दुनिया

बसा‌ ली है। क्या ?

हां सच में रति मैं अवाक थी गीता बोले जा रही और मैं सुने जा रही थी।

"सीता अपमान सहन ना कर पाई भले ही राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते और

वह "धरती" में समा गई , मंदोदरी "रावण" के कुकृत्य देख खामोश रही

आज भी रावण के रुप में की" गगन " घूम रहे है अपनी पत्नियों को प्रताड़ित करते और कई पत्नियां पत्थर बनी

अहिल्यायें, मंदोदरियां, सीमाएं सिसक रही है।

करता करूंगी "करवाचौथ" कर इधर में पति की मंगल कामनाएं कर "चांद"

देख व्यर्थ तोडूं उधर वो पराई स्त्री को देख मसरत है।

मैंने कहा गीता तुम सही कह रही हो पर देखना एक दिन गगन अपने किए पर पछतावेगा वह भटक गया है उसे जिस दिन "सत्य ,फरेब" का

फर्क समझ आयेगा तो लौटकर आवेगा।

खैर गीता मुझे उदिग्न कर चली गई।

आज दो साल बाद

अचानक गीता मेरे दरवाजे पर अपने बेटे,बेटी,और गगन के साथ खड़ी थी ,बड़ी खूबसूरत लग‌‌ रही थी। मैं भी

भौचक्की सी रह गई , अचानक गगन मेरे पैर "छू" कर बोला आप भी मुझे माफ़ कर दें ,मेरे से अपराध हुआ,मै 'भटक' गया था,अपने आप को कभी क्षमा नहीं कर पाऊंगा, मैं परिवार ,प्यार, कर्तव्य भी

अपना भूल गया हीरे और पत्थर का अन्यत्र देर से समझा ,सत्य से विमुख मैं

"मृगतृष्णा" के पीछे भाग रहा था। मैं अब लौट आया अपनी "कस्तूरी " के पास कभी ना जाने के लिए

"प्रायश्चित" ही अब मेरा मुझे सही मार्ग गीता के रुप में दिखावेगा। मुझे जो दण्ड देना चाहें मंजूर है। उसकी आंखों से निरंतर आंसू बह रहे थे।

" गगन" की दशा देख मेरे मुंह से निकल ही पड़ा

"सुबह का भूला शाम को घर लौट आवे तो वह भूला" नहीं कहलाता गगन।


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