परिवर्तित सोच
परिवर्तित सोच


"शादी के दो महीने हो गये बहू को, लेकिन रोटी बनाना तक नहीं आया,
कुछ नही सिखाया माँ ने, बस भेज दिया ...सब्जी देखो पानी सी बनी है .. "
रोज की तरह आज भी रिया की सास रसोई में खाने को देख बड़बड़ा रही थी।
"तो आप सिखा दीजिये न,, माँ ने नहीं सिखाया तो .."
कहकर रिया चली गई !
शब्द ने रिया को समझाने की बहुत कोशिश की ..
"माँ की बातों का बुरा न माना करो ..क्या तुम्हारी माँ होती तो, नहीं डांटती क्या ?
"बिल्कुल डांटती लेकिन सिखाती भी ...और मेरी गलती भी बताती पर एक माँ ताने कभी नहीं देती है ...
वह तो जैसै..जैसे, मौका देखतीं हैं, मुझमें गलती ढूंढने का,,एक बार सास नही, माँ बनकर मेरी गलतियां भी तो अनदेखा करना सीखें या मुझे सिखाना सीखें तो, मैं भी कुछ सीखने की कोशिश करूं ..."
रिया ने अलमा
री से एक पत्र निकाला और कमरे के बाहर आ गई, जहाँ उसकी सास पहले से ही खड़ी थी शायद,,,बातें भी सुन ली थी बहू बेटे की ।
" माँजी ये मेरा काॅल लेटर है ....मुझे एक अच्छी जाॅब मिल गई है अब से हम अच्छा कुक रख लेंगे जो अच्छा खाना बनाना जानता हो ....या फिर प्रेम से आप मुझे सिखाइये..मर्जी आपकी "
कहकर शरारती हँसी हँस दी ..
" मेरी बहू तो बहुत तेज है ..."
" हां ...आपकी बहू बहुत तेज है जो, खुद के साथ कभी गलत नहीं होने देगी न करेगी ......और न आपके साथ गलत होने दूगीं, न करूंगी "
इतना कहकर रिया ने सास के पैर छूये और ऑफिस निकल गई ....जिसको हमेशा यही डर सताता रहता था कि कहीं औरों की तरह मेरे बेटे बहू भी आश्रम न भेज दें ,अब निकल गया वह डर !
और फिर बेड के नीचे पड़े वृद्धाश्रम के पम्पलेट फाड़ दिये।