परित्यागित भार्या
परित्यागित भार्या
“नहीं सुमन तुम यह बहुत गलत कर रही हो हम तुम्हारे साथ नहीं खेलेंगे”, गीता ने खीज में आकर सुमन को कहा पर वह किसी की कहां सुनने वाली थी मुख पर चंचलता और जीत की खुशी लेकर वह वहां से दौड़ने लगी, भले ही वह जीत उसे थोड़ी बेईमानी ही करके क्यों ना मिली हो। सुमन और उसकी छोटी बहन दोनों अपने मां-बाप को अकेली थी। पूरे बीस वर्ष बाद ही वह पैदा हुई इसलिए माता-पिता का स्नेह उन्हें कुछ ज्यादा ही मिलता आज़ादी कुछ ज्यादा ही मिलती इसलिए बाकी रिश्तेदार थोड़े ज्यादा उनसे चिढ़ते सुमन और उसकी बहन का पालन पोषण उस समाज में हो रहा था जहां लड़कियों की पढ़ाई को लेकर कुछ जोर नहीं दिया जाता, पर फिर भी अपने माता-पिता के सहयोग से उन्होंने मैट्रिक तो पास कर ली। सुमन जितनी चंचल नटखट थी, उतनी ही भावुक भी थी किसी जानवर की मृत्यु हो जाने पर वह रो पड़ती इसी के अंतर्गत एक घटना गांव वालों को अभी भी याद थी, जब एक सांप के मर जाने पर वह घंटे रोती रही। सुमन के हृदय में जानवरों के लिए ही नहीं बल्कि दीन व्यक्तियों के लिए भी एक कोमल स्थान था, किसी के पूछने पर वह बहुत ही सरल सा तर्क देती “वह तो मूक है, अपना दर्द भी किसी को नहीं कह सकते है”, सवाल पूछने वालों को भी अपना जवाब मिल जाता। सुमन जिस स्कूल में पढ़ती उन्हीं के प्रधानाचार्य की बेटी सुमन की दोस्त थी परंतु वह बनारस में रहती और छुट्टियों में वह गांव घूमने आती तभी वह सुमन से भी मिलती इस बार भी वह गांव आई थी। एक दोपहर सुमन और उसके दोस्तों के साथ वह घूम रही थी की अचानक पूछ बैठी “बोलो सुमन तुम क्या बनोगी बड़ी होके?” यह सवाल जैसे सुमन और उसके दोस्तों के लिए नया ही था बल्कि अटपटा भी जो उनसे आज से पहले किसी ने भी नहीं पूछा था। इस अटपटे सवाल का जवाब भी उन्होंने अटपटा ही दिया “बनना क्या है? इंसान ही तो रहेंगे”, पर इस सवाल की चर्चा सुमन ने अपने पिता से की “पिताजी आज वह शीना मुझसे पूछ रही थी कि तुम बड़ी होकर क्या बनोगी? पागल है एकदम, बड़ा होकर भी भला कोई कुछ बनता है हम बदल थोड़े ही जायेंगे, आप क्या बने पिताजी?” कुछ नहीं उसके पिता उस सवाल को वही टाल दिया पर जवाब दिया “का करबू बिटिया ऊ तोहसे पूछत रही होइ की पढ़ लिख के का बनबू? चिट्ठी लिखे भर के पढ़ लिख ला ताकि ससुराल जाऊँ ता हम्मे अउर अपनी माई के चिट्ठी लिखिआ।” सुमन भी अपने पिता से सहमत थी। शांति का बचपन और किशोरावस्था अटूट प्रेम के बीच बीता जहां शायद उसे कभी यह पता भी नहीं चला किस सुख का विपरीत दुख का भी उसके जीवन में कोई अस्तित्व है। मैट्रिक पास करने के बाद अब वह घरेलू काम सीखने में व्यस्त हो गई सुमन ने अपने माता-पिता से पाई सीख में शिक्षा की सीख भले ही ना पाई हो पर अपने ससुराल में अपनी सास को मां और ससुर को पिता मानकर सेवा करने की सीख हमेशा से पाती रही। सुमन और उसकी बहन का कोई भाई नहीं था इसलिए उसके पिता हमेशा उनके भविष्य के लिए डरते रहते। विवाह के बाद उनके जीवन में कोई कष्ट ना आए इसीलिए उन्होंने यह निश्चय किया कि वह अपने दोनों खेत बेच कर उन दोनों का विवाह संपन्न करेंगे। एक रात खाना खाने के बाद सुमन की मां ने उसके पिता से कहा कि “सुना हो सुमन बदे अइसन घर ढूंढिये जहां केहू शराब ना पियत, बहुत छोट दिल बा ओकर दुःख न झेल पाइहं।” सुमन के पिता ने भी सहमति में सर हिलाया। कई घर में सुमन के लिए रिश्ते देखे गए पर हर जगह बात कटती जा रही थी कहीं बात अधिक दहेज़ के कारण टूट जाती तो कहीं लड़के या उसके घर वालों में कोई खोट निकल आता। मैट्रिक पास किये सुमन को डेढ़ वर्ष बीत गए। यह चिंता उसके पिता ने दिल्ली से आये बद्री के साथ साझा की, तभी बद्री ने उनको दिल्ली के रिश्ते के बारे में बताया जिन्हें बद्री करीब से जानता था। बेटी के भविष्य और बद्री पर भरोसा कर वह दिल्ली जा पहुंचे। सुमन के पिता जी को दिल्ली का यह रिश्ता बहुत ही अच्छा लगा जब वह गांव वापस आए तो उन्होंने बताया कि लड़का दिल्ली में कमाता है, घर में मां-बाप भाई-बहन सभी हैं पर वह 12वीं फेल है, इस बात से सुमन के पिता और मां को कोई आपत्ति ना थी पर सुमन इस रिश्ते से खुश ना थी इसलिए नहीं क्योंकि उसे इतनी दूर से दिल्ली जाना पड़ेगा बल्कि इसलिए कि वह बारहवीं फेल है। सुमन स्वयं भले ही ना पढ़ी हो पर उसको पढ़ाई से लगाव था। रिश्ता पक्का होने का एक कारण और भी था कि वहां कोई शराब नहीं पीता था। अब रिश्ता पक्का हो चुका था और दहेज़ की रकम भी तय हो चुकी थी, पर सुमन का यह मन बिल्कुल भी नहीं था कि उसका रिश्ता वहां हो इसलिए उसने अपनी छोटी बहन से ज़िद की कि वह जाकर पिताजी को उसकी तरफ से मना कर दे परंतु उसके पिताजी इसके लिए तैयार नहीं थे, पर वह सुमन से तब सहमत हुए जब उन्होंने अपने करीबी रिश्तेदारों से दिल्ली वाले उस रिश्ते के बारे में बुरा सुना इसलिए इस रिश्ते को टालने के लिए उन्होंने दिल्ली एक चिट्ठी लिखी कि वह दहेज़ की रकम बीस हज़ार से हटाकर केवल सात हज़ार ही दे पाएंगे। अब सुमन का मन सागर की तरह शांत था, पर सागर की यह शांति थोड़े समय के लिए ही थी। चिट्ठी का जवाब आया कि वह लोग सात हज़ार की रकम पर भी मान गए हैं शांति के पिता को यह रिश्ता टालना अब ठीक नहीं लग रहा था। वह मान गए सुमन नये बंधन में बंधने जा रही थी, अब नये जीवन में कदम रखने का उसके लिए समय आ गया था। अपने घर से जाते समय वह शांत थी ना आंखों में आँसू थे ना चेहरे पर कोई शिकन। वह कहां जा रही थी उसे कुछ सूझ नहीं रहा था, बस मन ही मन एक नए जीवन में कदम रखने को वह एक नाकाम कोशिश कर रही थी। अपनी सीख अपनी इच्छाएं लेकर दिल्ली आ चुकी थी। दिल्ली आने के दो दिन बाद से ही उसने पूरे घर का बीड़ा उठा लिया था। अपनी सास के कहने से पहले ही वह घर का सारा काम कर चुकी होती। सभी की ज़रूरतों का वह ख्याल रखती, इन कामों को करके वह प्रसन्न रहती। हफ्ते बीत गए सुमन को इसलिए जीवन में आने की उमंग ना थी और ना ही ज्यादा दुख एक दोपहर जब यह काम निपटा कर आराम करने जा रही थी तो उसने नीचे वाले कमरे में शोर सुना, यह शोर उसके ससुर शराब पीकर मचा रहे थे। यह देखते ही वह अचेत हो उठी उसे वह सारी बाते याद आने लगी जो उन्हें शादी से पहले बताई गई थी “तो वह सब झूठ था, अब मैं क्या करूँगी मेरे बूढ़े माँ बाप जब यह सुनेंगे तो क्या होगा, मेरा तो सारा जीवन बर्बाद हो गया।” उसका यह रोना सुनकर उसकी सास कमरे में आई उन्हें भी यह मालूम हो चुका था कि झूठ पर बनाया गया यह रिश्ता सुमन को पता चल गया पर उन्हें अभी भी कोई हैरानी नहीं थी, सुमन बस अपनी सास को शिकायत भरी निगाहों से देखती रही। धीरे धीरे सुमन को यह भी पता चल गया कि उसका पति केवल आठवीं पास है, परंतु इस बार उसे कोई हैरानी नहीं थी, वह अब यह सब स्वीकार कर चुकी थी। सब काम करने के बाद भी सुमन केवल डांट और ताने की ही हकदार होती, घर के सभी लोगों के खाने, घर सफाई, उनके कपड़े धोने का कार्यभार सुमन को मिला था। यह उन लोगों के लिए ऐसा था जैसे उन्होंने मुफ्त की कोई नौकरानी रखी हो, यहाँ सम्मान, प्यार, अधिकार सुमन के हिस्से में नहीं था। सुमन यह सब सहती क्योंकि अठारह सालों की उस सीख को वह नहीं भुला पा रही थी। सुमन अब आये दिन घरेलू हिंसा का शिकार होने लगी थी। दर्द भरी, सहायता भरी उन चीखों को पड़ोसियों द्वारा नज़रअंदाज़ किया जाता रहा। यह अत्याचार उसे गर्भावस्था में भी सहना पड़ रहा था, परंतु हिम्मत करके वह अपने गांव कुछ दिनों के लिए चली आयी। माँ के अनंत स्नेह की छाँव में आकर सुमन अपना सारा दर्द निकाल देना चाहती थी, उसने वही किया। “माई मैं अब वहां नहीं जाऊंगी, कहीं मेरी यह मुलाकात आखिरी न हो, अब मुझसे नहीं सहा जाता। अपनी बेटी की यह हालत देखकर उसकी माँ एक पल के लिए विचारहीन हो गई, पर उन्होंने सुमन को रोका “नाही बिटिया अइसन जिन करा हम तोहे लेकर कब तक रहिब, समाज का कही बिटिया, थोड़ा समय बदे झेल ला ई कुल ओकरे बाद सब ठीक हो जाई। अब सुमन कुछ और ना कह सकी, उसे अपने से ज्यादा उसे अपने माँ बाप पर तरस आया। छठे महीने में ही वह दिल्ली वापस आ गई। फिर कुछ दिनों बाद ज़बरदस्ती कही गयी गलती के लिये उसे दो दिन भूखा भी रहना पड़ा। अक्टूबर के महीने में उसने एक पुत्र को जन्म दिया। पुत्र जन्मने से अधिक उसे इस बात की खुशी होने लगी की कहीं अब उसे बहु का दर्जा दिया जाये, पर एक बार फिर वह गलत निकली। उसकी फिर से वही दिनचर्या शुरू हो गई। उसका बेटा भी अपनी माँ से ज्यादा बाकी लोगों को जानता, सुमन के लिए धीरे धीरे यह सब असहनीय होता जा रहा था। सुमन के जीवन का नया अध्याय इससे शुरू हुआ, “आखिर मेरी गलती क्या है”, इस शब्द को रूपांतरित कर उसके पति के सामने पेश किया गया, उस दिन सूरज थोड़ा बादलों के बीच था दिन नीरस से भरा था, सुमन ने डर के मारे अपने बच्चे को अपनी गोद में ले लिया पर फिर भी उसे लातों से मारा गया। बच्चा उसके हाथों से छीन लिया गया था। उसके मुंह से खून बह रहा था वह कुछ कहने की हालत में नहीं थी, बस उसने अपने उस पराये घर को छोड़ने का मन बना लिया था। वह दिल्ली की किसी भी सड़क से वाकिफ ना थी पर फिर भी वह निकली, उसका बेटा अब भी उसके पास ना था वह दहलीज़ पार कर चुकी थी, वह अब भी शांत थी, अब भी उसके चेहरे पर कोई शिकन ना थी, वह कहा जा रही थी उसे अब भी यह नहीं सूझ रहा था, अब वह केवल भार्या थी।
