Arti jha

Romance Tragedy

4.3  

Arti jha

Romance Tragedy

परित्याग

परित्याग

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                                   कानपुर के एक छोटे से गाँव में, अपने घर की छत पे बैठा वो चंद्रमा को निहारने में लीन था जाने किन विचारों में खोया वह पिछले आधे घंटे से चंद्रमा को अपलक देख रहा था। सहसा ही उनके मोबाइल की घंटी बजने लगी नम्बर कुछ जाना 

पहचाना लगा पर याद नहीं आ रहा था ये किसका नंबर है।

"हैलो"।

"शरद सक्सेना?"

"जी, मैं बोल रहा हूँ।"

"ज़िन्दगी तो आराम से कट रही है न?" बहुत ही मद्धिम स्वर था।

किसी ने प्रश्न पूछा है या व्यंग्य के बाण छोड़े है, समझ ही नहीं आया।

"कौन?"

"बैड मैनर्स, एक सवाल के जवाब में दूसरा सवाल नहीं पूछा करते, मिस्टर सक्सेना।"

"पर आप बोल कौन रही हैं?"

"आपका कुछ सामान पड़ा था, सोचा कुरियर कर दूँ, क्योंकि आप तो अब इधर का रास्ता भी भूल गए होंगे।"

"कैसा सामान?...कौन सा सामान? आप बोल कौन रहीं हैं यूँ पहेलियाँ तो न बुझाइए।"

"मुझे तो पहेलियाँ बुझाना आता ही नहीं मि. सक्सेना पहेलियाँ तो ज़िन्दगी बुझाती है, वो भी ऐसे ऐसे कि हम सारी उम्र उसका हल ढूंढने में लगे रह जाते हैं। वैसे मैं शीतल की रूममेट बोल रही हूँ निशी, अब तो याद आया न?"

वह जवाब सुने बिना फ़ोन कट कर चुकी थी।

अचानक ही मि. सक्सेना के आगे पूरी दुनिया लड़खड़ाती नज़र आने लगी। सामने अँधेरा छाने लगा, क्षण भर पहले चाँद से अपार शीतलता समेट के लाने वाले मि. सक्सेना उदासीनता के अतल सागर में डूबे जा रहे थे।पास ही पड़े आराम कुर्सी पे बैठकर आँखें बंद कर ली पर नींद थी कि आँखों से कोसो दूर थी, जाने कैसी कैसी आकृतियाँ उभर के आने लगती है धड़कनें तेज़ हो रही है, उन्होंने दोनों हथेली से अपने चेहरे को ढँक लिया ,और फिर यादों की एक एक परत उनके सामने खुलने लगी।

"शीतु"......

"लो, तुमने आवाज़ दी क्या?" शीतल का वही हँसता खिलखिलाता चेहरा

"हूँ।" शरद आँखें बंद किये ही बोल पड़े।

"देखो तुम्हारे लिए लंच लेकर आई हूँ, अब ये न कहना ये सब नहीं खाऊंगा ....खाना तो तुम्हें यही पड़ेगा अगर जल्दी से ठीक होना है तो और फिर पापा से बात करके शादी की नई तारीख़ भी तो निकलवानी है न" शर्म से शीतल का चेहरा गुलाबी हुआ जा रहा था।

दलिया खिलाने के बाद शीतल ने शरद को दवाई खिलाई।

वैसे तो पीलिया आजकल के समय में बिल्कुल भी खतरनाक नहीं है पर अगर ज़रूरत से ज़्यादा छूट दे दी जाए तो वो इंसान हो या बीमारी सर चढ़ने में वक़्त नही लगाती। बस यही हुआ मि.सक्सेना के साथ छोटी छोटी लापरवाहियां उन्हें मौत के बिल्कुल क़रीब ला के खड़ी कर गई। पंद्रह दिनों तक हॉस्पिटल में एडमिट रहने के बाद घर आए थे लेकिन खान पान लेकर बहुत सारी हिदायतों के बाद। उनके खानपान और दवाइयों की सारी जिम्मेदारी शीतल ने उठा रखी थी। शीतल......वही शीतल जिसके हृदय में दो वर्ष पहले ही मि.सक्सेना के लिए प्रेम का अंकुर फूटा और इन दो सालों में प्रेम की जड़ें इतनी मजबूत और गहरी होती गई कि मानो मि. सक्सेना में ही शीतल के प्राण बसे हो।

शीतल कानून की पढ़ाई के बाद बनारस में ही प्रैक्टिस करने लगी थी पर अभी सब कुछ छोड़ छाड़ के बस शरद की सेवा में व्यस्त है और एक शरद है जो उसके प्रैक्टिस छोड़ने से काफी नाराज़ है।

 "प्रैक्टिस छोड़ने की क्या ज़रूरत थी शीतु ,तुम्हें पता है न इस फील्ड में कितना स्ट्रगल है, फिर ये बचकानी हरकतें क्यूँ?"

"ज़रूरत थी न, तुम्हारा ख्याल रखने के लिए।"

"पर मैं कौन सा मरा जा रहा हूँ, ठीक हूँ न अब।"

"ओह्ह ...कैसी अपशगुन की बातें करते हो , मरें तुम्हारे दुश्मन। अच्छा.... देखो न आज मैं ग़ज़ल की दो नई सीडी लेकर आई हूँ, मैं जब न रहूँ तो सुन लिया करना ..ये मेरी मौजुदगी का एहसास दिलाते रहेंगे।" शीतल छेड़खानी करते हुए बोलती है।

"तो अब क्या करोगी?" शरद अभी भी गंभीर थे।

"क्या करूँगी...कुछ होम ट्यूशन या पार्ट टाइम देख लूँगी... और वैसे भी शादी के बाद मैं नौकरी -वौकरी नहीं करने वाली

तुम कमा के लाओगे और मैं तो बस घर मे आराम से रहूँगी.... अब छोड़ो न.. नाराज़ मत हो न।"

"पर तुम हमेशा बच्चों सी क़दम उठा लेती हो, बिना सोचे समझे कब बड़ी बनोगी शीतल?"

"हाँ तो इसमें सोचना क्या है शरद, तुम्हारे और किसी और के बीच चुनाव की बात हो तो मैं सिर्फ़ तुम्हें चुनती हूँ और चुनती रहूँगी वो चाहे मेरा करियर ही क्यों न हो।" शीतल खीझ पड़ती है।

"हाँ... अच्छी बात है करो.. जो मन आए करो, पर एक बात याद रखो प्यार से कभी पेट नहीं भरता, पेट भरने के लिए पैसे चाहिए और सम्मान पाने के लिए आत्मनिर्भरता। मौका बार बार दरवाज़ा नहीं खटखटाती बाद में केस न मिले तो मुझसे मत कहना और ये तो बिल्कुल भी नहीं कि मेरे कारण तुमने अपना करियर फूँका है।"

इन दो सालों में शरद ने कई बार अपनी कड़वाहट निकाली थी, हर बार शीतल उन्हें धुंए में उड़ा देती पर आज जाने क्यों शरद की बाते चुभ जातीं हैं।

"तुम हमेशा अपने दिमाग़ की सुनते हो शरद और मैं अपने दिल की, यही फ़र्क है हम दोनों के प्यार में, कैसे समझाऊँ तुम्हें.....बाकी के शब्द भर्राए स्वर में कहीं खो जाते हैं।

वैसे शरद ने ग़लत भी क्या कहा था, सच ही तो है आजकल

एक सम्मानित जीवन जीने के लिए नौकरी और पैसे दोनों ही चाहिये बस उसके कहने का तरीक़ा ग़लत था।

सूरज की पहली किरण जब मि.सक्सेना के चेहरे पे पड़ने लगी तो हड़बड़ा के यादों की दुनिया से वर्तमान में लौट आते हैं ,पर यादें हैं कि उनका पीछा छोड़ने का नाम ही नहीं ले रही।

कहाँ होगी शीतु ...कैसी होगी.... सवालों के भ्रमजाल ने अजीब तरह से जकड़ रखा है और फिर अपने आप को समझाने का एक असफल प्रयास करते रहे .... कहाँ क्या होगी उसने भी मेरी तरह अपना घर बसा लिया होगा, आख़िर इतनी होनहार थी और कई लड़कों की धड़कनें तेज़ होते तो मि.सक्सेना ख़ुद महसूस करते शीतु के लिए।

कई बार तो शीतु से दिल्लगी भी कर बैठते " देखो, मैं न रहूँ तो ये सारे लाइन में लगे हैं किसी का हाथ थाम लेना।"

"अच्छा.. तुम कहाँ जाओगे?" शीतु ग़ुस्से में तिलमिला उठती।

"क्या पता, मेरा मन ही बदल जाए कोई तुमसे भी सुंदर दिख जाए।" मि.सक्सेना छेड़ने के लहजे में कहते।

शीतु यह सुन के हमेशा जल-भुन जाती " किसी के मन से प्रेम करना सीखो शरद, सुंदरता का क्या है एक दिन तो ढल ही जाना है पर मन की सुंदरता ज़िन्दगी भर साथ निभाएगी।"

"अरे....अरे तो इसमें ग़लत क्या है, जहाँ फूल खिलेंगे भँवरे तो जाएंगे ही न?"

"अब बहुत हो गया शरद....यूँ सताओगे तो जान दे दूँगी, मेरी ज़िंदगी की शुरुआत भी तुम हो और अंत भी .. चाहो तो आजमा लेना, और वो दौड़कर शरद से लिपट जाती।

शरद उसे बाँहो में भरकर कहता" तुम पागल हो.. बिल्कुल पागल।"

अचानक डोरबेल बजते ही मि.सक्सेना की खोई हुई चेतना लौटती है।समय का पता ही न चला, सामने की दीवार से धूप सिमटकर जाने को तैयार थी मतलब शाम के लगभग पाँच बजने वाले होंगे। दरवाज़े पे डाकिया खड़ा था हाथ मे वही कुरियर, जिसका उन्हें बेसब्री से इंतज़ार था। बिना हस्ताक्षर किए ही हाथ से कुरियर झपट लेते हैं , डाकिए ने यूँ घूरा मानो बिना मूल्य चुकाए कोई क़ीमती वस्तु चुरा ली हो।

बनारस के पते को बार बार छूकर शीतु को महसूस करना चाह रहे थे, वर्ष बीत गया मुड़ के बनारस नहीं गए पर आज वहाँ से आए कुरियर को देखते ही गंगा घाट की यादें मन गुदगुदाने लगतीं हैं। नदी की कल कल करती लहरें और मंदिर की घंटियों से अभी भी मन मस्तिष्क में मयूर नाच उठते हैं वो तीन साल की अवधि को पीछे छोड़ उस पल में पहुँच जाते हैं जहाँ उनकी पहली मुलाक़ात शीतल से होती है।

बनारस के घाट पर जब गंगा नदी में चप्पल पहन के जाते देख एक नाविक चिल्ला पड़ता है "अरे....अरे का करत हउअ?

बउरा गईल बार का? चप्पल खोल के आबs तभई स्पर्श कर गंगा मैया के।"

जब तक मि.सक्सेना कुछ बोल पाते पीछे से किसी के हँसने की आवाज़ आई" ओय घोंचू.... क्या कर रहे हो पागल हो क्या ?पहले चप्पल खोल के आओ फिर स्पर्श करो गंगा मैया का " ये नाविक भैया बोल रहे हैं। और फिर वो पहली ही हँसी के साथ दिल में उतरती चली गई, अब मि.सक्सेना रोज गंगा घाट पे उसका इंतजार करते और बहुत हिम्मत जुटाकर एक दिन पूछ ही लिया " आप प्रतिदिन आती हैं यहाँ?"

"कहाँ....इस घाट पे? हाँ, ये घाट, पानी की लहरें यहां की सतरंगी रोशनी ये सब सखियाँ हैं मेरी , इनसे एक दिन न मिलूँ जी नही लगता मेरा।"

"मतलब आप इसी शहर में रहतीं हैं।"

"जी, और आप?"

"मैं तो पिछले सप्ताह ही कानपुर से आया हूँ, पापा को बिज़नेस के सिलसिले में हमेशा आना पड़ता था तो अभी यही शिफ्ट हो गए हमलोग।"

"वैसे आप करते क्या हैं?"

"कुछ नहीं ....अभी तो खाली ही बैठा हूँ, सोचा आपसे प्रेम ही कर लूँ" शरद शीतु की आँखों मे देखते हुए हाहाहा कर हँसने लगे।

शीतल ने पहली बार किसी के लिए अपने हृदय को धड़कते देखा, शरद के प्रेम निमंत्रण के जवाब में आज तो वो बिना कुछ बोले चली गई पर ये भी सच है,हज़ार शब्द कम पड़ जाते हैं एक लजाई मौन बहुत कुछ बता जाती है।

अब तो रोज़ का मिलना मिलाना.....गंगा घाट पर घंटों बैठकर बतियाना उनके दिनचर्या का एक अहम हिस्सा बन गया था।

समय बीतता गया और उनका प्रेम इतना प्रगाढ़ हो गया कि शरद के पापा को इस अंतर्जातीय विवाह की स्वीकृति देनी पड़ी, पर शीतल के पिता ने उससे सारे रिश्ते तोड़ लिए। माँ बस मौन खड़ी रही। तुला के एक पलड़े में पति और दूसरे में संतान हो तो एक औरत के लिए चुनाव बड़ा दुष्कर हो जाता है फिर भी वह सदेह अपने पति के साथ खड़ी रही। बात इतनी बिगड़ गई कि शीतल को अपना घर छोड़कर अलग कमरा लेकर रहना पड़ा....वैसे कुछ ही दिनों की बात थी, शादी की तारीख़ पक्की हो गई थी पर कहते है न "मैन प्रोपोजेज़, गॉड डिस्पोज़ेज।बस यही हुआ। शरद भयंकर पीलिया के चपेट में आ गए, तारीख़ टालनी पड़ी। और जब वो ठीक हुए तो, उनका प्रेम आख़री पड़ाव पे पहुंच चुका था।

                         कई दिन हो गए थे शीतल न ही गंगा घाट पे आई न कोई कॉल किया, फ़ोन भी स्विच्ड ऑफ आ रहा था आख़िर क्या हुआ होगा??? मन मे कई तरह की आशंकाएं घर करने लगी, वो तो रोज़ गंगा घाट पे आती है ख़ुद ही कहती है ये सब मेरी सखियाँ हैं फिर ? अब क्या हुआ? बहुत प्रतीक्षा के बाद शरद ही उससे मिलने चले गए पर आज वो हंसती खिलखिलाती शीतु नहीं बल्कि मुरझाया हुआ चेहरा लिए कोई और शीतु खड़ी थी। शरद को देखते ही वो उससे लिपट जाती है और फिर एक विचित्र प्रश्न पूछ लिया " शरद कुछ भी हो ,मेरा साथ तो नहीं छोड़ोगे न?"वह आशंकित नज़रें शरद के चेहरे पे टिका देती है और सुबकने लगती है।

" क्या हुआ? ये तो बताओ, एक कॉल भी नहीं किया तुमने मैं कितना परेशान था" शरद का बेहद घबराया स्वर यह प्रमाणित करने के लिए काफी था कि उनका संग ऐसा नहीं, जो हवा के एक झोंके से बिखरने लगे।

शीतु एक रिपोर्ट लाकर शरद को दिखाने लगती है।

" शरद, मेरे ओवरी में सिस्ट हो गया है, डॉक्टर ने एक महीने की दवाई दी है, कहा है साइज कांस्टेन्ट रहा तो दवाई कंटिन्यू करेंगे नहीं तो......

" नहीं तो, क्या शीतु?"

"सर्जरी करनी पड़ेगी।"

" अरे तुम चिंता मत करो आजकल ये सब परेशानियां तो आम हो गईं हैं, साइंस टेक्नोलॉजी इतना आगे बढ़ गया है कि कोई बीमारी अब रहस्य कहाँ रह गई है, सब ठीक हो जाएगा और फिर डॉक्टर होते किस लिए हैं।"

शरद का ये वाक्य शीतल के लिए मरहम का काम ज़रूर किया।

एक महीने बाद फिर अल्ट्रासाउंड हुआ पर कोई फायदा नही

सिस्ट के साथ पूरे गर्भाशय में संक्रमण अपना पाँव पसारने लगा था, गर्भाशय हटाना एक मात्र विकल्प था। शीतल की रूममेट निशी ने ही माँ को ख़बर दी, बेटी की बीमारी सुन के पिता इतने ज़रूर पिघल गए कि माँ को आने की अनुमति मिल गई और उपचार के लिए ख़र्चा पर वो स्वयं आज भी नहीं आए। ऑपेरशन हो गया, उसके शरीर का एक अभिन्न अंग काट के फेंक दिया गया, जिसके बिना स्त्री को सम्पूर्ण नही माना जाता ।अब उसे इसी कटु सत्य के साथ जीना था कि वो कभी माँ नही बन सकती।

शरद हॉस्पिटल के कमरा नंबर 8 के गेट पर ठिठक जाते हैं, फिर किसी तरह स्टूल पर आ के बैठते हैं। पर आज ऐसा कोई शब्द नहीं जिससे शीतु को संबल मिले। शरद को देखते ही

अधमरी सी पड़ी शीतु के आँखों मे चमक आ जाती है।

यूँ मुस्कुराने का झूठा उपक्रम क्यों ?और कब तक? क्या उसे पता नहीं अब वो कभी माँ नहीं बन सकती? पहले उसकी इन्हीं आदतों पर निहाल हुआ करता था शरद, वह बड़ी से बड़ी समस्या को मुस्कुराहट के आवरण में यूँ छुपा लेती मानो कुछ हुआ ही न हो.... पर आज न तो उसे बाँहों में भरकर प्यार करने का मन किया और न ढाँढस के कोई शब्द।

बस निरुद्देश्य ही बैठे रहे फिर औपचारिकतावश पूछ लिया "कैसी हो ?"

" कह दूँ, ठीक हूँ तो मान लोगे?"

शरद को यूँ उदासीन देखकर दबा हुआ दर्द जैसे उभर आया।

शीतल शरद की आँखों में झाँकती रही "काश! एक बार शरद कहते, सब ठीक हो जाएगा शीतु...तुम गिरी तो क्या ,मैं हूँ न सम्भालने के लिए.... भाग्य रूठा तो क्या, मैं हूँ न मनाने के लिए। पर नही ....उसने जैसे जुबान सिल लिए थे।

कई दिनों तक शरद हॉस्पिटल आने की बस खानापूर्ति करते रहे।

डिस्चार्ज हो के शीतु रूम पे आ गई थी, शरद दो दिनों बाद मिलने आए और बिल्कुल मौन! पता ही नहीं चल रहा था ये शीतल के लिए मन मे पीरा थी या कुछ और?

शीतल ने ही बोलना शुरू किया " शरद मुझे पता है तुम क्या सोचते रहते हो पर सोचो तो हर समस्या का हल है।

अच्छा.... हम न एक काम करेंगे ,हम बच्चा गोद ले लेंगे। जुड़वा बच्चा मैंने तो नाम तक सोच लिया है बेटी का सृष्टि और बेटे का सृजन, अच्छा है न? उसके चेहरे पर मातृत्व का भाव उभर आता है। वह खींचकर शरद को अपने पास बिठाना चाहती हैं, पर शरद शीतु का हाथ झटक के दूर जा के खड़े हो जाते है "ओह्ह.....सपनों की दुनिया से निकलो और वास्तविकता में जीना सीखो....तुम्हारी बकवास सुन सुन के मैं पक गया हूँ ऐसा नहीं होगा तो वैसा करेंगे.... वैसा नहीं होगा तो ..वैसा करेंगे ऐसा नहीं हो सकता शीतल...सच का सामना करना सीखो।" तमतमाया हुआ चेहरा और खीझ के निकले शब्द उनके प्रेम को धराशायी कर गया।

प्रत्युत्तर में शीतु कुछ न बोल सकी बस चुपचाप इस नए शरद में अपने पुराने शरद को ढूँढती रही। 

अगले दिन शरद एक प्रस्ताव लेकर आया। 

"शीतु, मेरे पापा चाहते हैं मैं अपने पैतृक शहर कानपुर चला जाऊँ और उनके बिज़नेस को आगे बढ़ाने में हेल्प करूँ, सही है न? सही वक्त देखकर पापा से बात कर लूँगा फिर देखता हूँ।"

'देखता हूँ ' कहकर उसने जाने क्या सरकाना चाहा, जाते जाते कानपुर का पता और फ़ोन नंबर दे गया।

शीतल रोज उसकी प्रतीक्षा करती रही। उसके प्रतीक्षा की अवधि लम्बी होती गई और साँसों की अवधि छोटी और ...बहुत छोटी। हँसती खिलखिलाती शीतल अब बिल्कुल ही बदल गई थी ।माँ समझ गई थी। बीमार शरीर नहीं ,आत्मा है जिसका उपचार सिर्फ और सिर्फ शरद के पास था वो शरद जो किनारा कर के जा चुका था। 

  बोझिल मन से मि. सक्सेना कुरियर देखते हैं उनके सामने शीतु का मुरझाया चेहरा घूम आया। एक लंबा निःश्वास निकल आता है आई एम वेरी सॉरी शीतु, क्या करता पापा के विरोध का विरोध न कर पाया। और धीरे धीरे कुरियर से आया पत्र पढ़ना शुरू करते हैं।

प्रिय शरद,

        यह पत्र जब मिले, शायद मैं इस दुनिया में न होऊँ। तुम तो चले गए, पर तुम क्या गए मेरी तो दुनिया ही ठहर गई। कई बार निशी ने बोला मैं तुम्हे कॉल कर के बुलाऊँ 

पागल है वो तो, कुछ भी कहती है बुलाया तो उसे जाता है जो गया हो ,पर तुमने तो मेरा परित्याग किया था और जो एक बार परित्याग कर दे उसे बुला के भी क्या फ़ायदा? पर तुम भी ग़लत कहाँ थे.... पत्ते पीले पड़ जाएं तो टहनियाँ भी उनका परित्याग कर देतीं है तुम तो इंसान हो तुम्हारी भी अपनी आकांक्षाएँ रही होंगी जिस पे मैं खरी नहीं उतरती।

सही किया, एक बार फिर तुमने दिमाग़ की सुनी पर मैं हमेशा 

अपने दिल की सुनती रही और देखो न...दिल कह रहा नही जीना तुम्हारे बिना। बहुत निकलना चाही तुम्हारी यादों की क़ैद से पर हार गई। पत्र समाप्त करती हूँ, हाँ एक शिकायत ज़रूर करूँगी ख़ाली समय में खेलते तो सभी हैं बस अंतर यही है बच्चे खिलौनों से खेलते हैं और हम बड़े एक दूसरे की भावनाओं से.....ख़ुश रहो।    

                     तुम्हारी,

                       शीतल।

शीतु अब इस दुनिया में नहीं थी पर कभी न सूखने वाला पश्चाताप के आँसू और एक प्रश्न मि. सक्सेना के लिए छोड़ गई थी ' क्या एक स्त्री तब तक ही प्रेम के योग्य है जब तक वो किसी के वंश को आगे बढ़ाने में सक्षम है और नहीं तो वो परित्याग के लायक है? क्या एक स्त्री सिर्फ़ और सिर्फ़ मन बहलाने का साधन मात्र है? जिसे जब तक मन किया खेला, मन बहलाया और फिर एक दिन मन भर गया तो छोड़ दिया

क्या उसकी कोई अस्मिता नहीं ,कोई अस्तित्व नहीं??


        


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