Arti jha

Tragedy

4.0  

Arti jha

Tragedy

जनरल बॉगी

जनरल बॉगी

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इंटरव्यू देने के बाद मन बड़ा हल्का लग रहा था, सेलेक्शन होने के उम्मीद थे,फिर भी मन मे कहीं एक डर बैठा था क्या होगा?यह तो रिजल्ट आने पर ही पता चलेगा। मन की हलचल को विराम देने के लिए मैं यूँ ही घूमते घूमते इस्कॉन टेम्पल चला गया।मंदिर की हर मूर्ति के सामने नमन करने के बाद मैं बाहर आ गया,पर बाहर आने के बाद मुझे ध्यान आया मैंने कान्हा जी को तो नमन किया ही नही या किया?मैं भूल गया,मेरे दद्दा सच ही कहा करते थे "मन की आँखें बंद हो तो इन खुली आँखों का भी कोई फायदा नही"।उस समय हम उनकी बातों को मज़ाक में उड़ा देते पर जीवन मे कई बार लगा जैसे समय ने दद्दा की बातों पे मुहर लगा के लिख दिया हो प्रूफ्ड।

                                  किसी तरह दो दिन काटने के बाद मैने इंटरनेट पर अपना रिजल्ट देखा,मैं चयनित था।एक लंबी सुकून की साँस ली मैंने और खुशी के मारे जहां खड़ा था वही बैठ गया...अहा!...अब मैं जेनेरल मैनेजर बन गया। तनु को सरप्राइज दूंगा बहुत ताने मारा करती है और अंश वो क्या कम है ?हमेशा अपने दोस्तों के पापा से मेरी तुलना किया करता है वाकई मैं तंग आ गया था ऐसी ज़िन्दगी से...पर अब मेरी भी लाइफ़ स्मूथ चलेगी।

     सोच रहा था आज ही दिल्ली लौट जाऊँ।जैसे तैसे जेनेरल बॉगी की टिकट लेकर किसी तरह ट्रेन में चढ़ पाया, पर बैठने की कहीं गुंजाइश नही थी, हे भगवान तो क्या मुझे खड़े खड़े दिल्ली जाना पड़ेगा?इसी उधेड़बुन में खड़ा रहा कि किसी ने आवाज़ लगाई "भइया जी, इहाँ बैठ लो खिड़की के पास"।मैं बिना एक पल गंँवाए खिड़की के पास बैठ गया।

एक रूखा सा थैंक्स कहते हुए मैंने एक नज़र सबपे फिराई ,तनु सच ही कहती है आजकल लोगों की इज़्ज़त उसके पहनावे से ही तो होती है। मैं मन ही मन मुस्कुराने लगा,तनु की यादों में ही खोया रहा कि तभी किसी के प्रश्न से मेरी तंद्रा भंग हो गई।

"कोनो परीछा देने गए थे का?"

"हाँ, और पास भी कर गया"।मैं गर्वान्वित हो उठा।

"पास तो हमउ कर गए भइया जी"

आप,इस उम्र में? मैं चौंक गया।

"बिटिया का व्याह पक्की कर आये भइया जी"।

मेरी नज़रे अचानक उनके चेहरे पे जा टिकीं,शादी पक्की होने का सुकून उनके चेहरे पे साफ साफ झलक रहा था।अगले ही पल मैं फिर आंँखे बंद कर के तनु और अंश को याद करने लगा। हवा की थपेडों से मेरा पसीना सूखकर मुझे ठंडक का एहसास देने लगा,और मैं ऊँघने लगा तभी उन्होंने आवाज़ लगाई "भइया जी"

"ह्म्म्म" मैं आँखे बंद किये ही बोल पड़ा।

"अरे सुनो" उन्होंने मुझे झकझोड़ा।

"तुम्हार पैर के नीचे हमार बक्सा है,ज़रा ध्यान रखना" ।उन्होंने एक बाबा आदम जमाने का बक्सा दिखाते हुए बोला।

"ये बक्सा"? अरे ये कौन लेगा इतना पुराना सा........मैं झुंँझला पड़ा,

पर बोलने के तुरंत ही बाद मुझे एहसास हुआ कहीं अनजाने में मैने इनकी गरीबी का मज़ाक तो नही बनाया।मुझे अपने पे शर्म आ गई पर वो अभी भी बाहर शून्य में झांक रहे थे ,चेहरे पे कितनी शालीनता ....कितनी उदारता .......वरना इस भीड़ भाड़ में खिड़की वाली हवादार सीट ऐसे ही थोड़े न कोई दान दे देता है।हाँ उनमे कोई बात तो थी जो मुझे उनकी तरफ खींच रही थी ।मैं अपनी ग़लती सुधारने के लिए उनसे बातें करना चाह रहा था पर क्या बात करूं? देश दुनिया....राजनीति .....पर लग नही रहा था इन सबमे इनकी कोई दिलचस्पी होगी फिर?

"बाबा, लड़का क्या करता है"? मैंने सटीक प्रश्न दागा।

"कपड़ा मिल में है,भइया जी" कुछ पल चुप्पी छाई रही।फिर उन्होंने ही बोलना शुरू किया।

"लड़का तो भगवान है हमरी ख़ातिर ,नाम भी तो ईश्वर है बाबू"।

"अच्छा ऐसा क्या"? मेरी दिलचस्पी बढ़ने लगी थी।

"हम तो बस उसे देखने गए रहे,पर उ तो हमें खरीद लिए बाबूजी।"वो पहेलियां बुझाते रहे

"पर ऐसा क्या किया उसने" मेरी भी धैर्य की सीमा टूट गई थी

"का बताएं ? वो ठंडी आह भर के फिर चुप हो गए।

पर मेरी नज़रे लगातार उनकी ख़ामोशी को पढ़ने की कोशिश करती रही।बार बार होनेवाली खाँसी उनकी बात की गति को और धीमी करती रही और मेरी जिज्ञासा को तीव्र।अब उन्होंने बड़े आत्मीयता से मेरा हाथ अपने हाथों में ले लिया।

"बहुत दिनों से एक एक रुपिया जोड़ रहे थे,फिर भी ज्यादा न जोड़ पाए।गांव के खेत पथार सब बेच दिए ,बिटिया के व्याह के बाद कहीं तीरथ चले जाते ......कुछ तो दिन बचे है जीवन के .....कहीं काट लेते"।

मैं बड़ी उत्सुकता से उन्हें देखता रहा।

"शादी तो टुटई गई रही भइया जी,पर दामाद जी सब ठीक कर दिए।उसने हमें व्याह की ख़ातिर बीस हज़ार रुपए दिए.....बिटिया के वास्ते साड़ी ,उ भी जड़ी वाली.....और एक दो गहने भी" आजकल कोनो करता है का व्याह से पहले इतना कुछ। उनका स्वर टूटने लगा ......आंखे छलछला गईं।मैंने मौन सहमति जताई,वाकई आज के दुनिया मे इतना कौन करता है वो भी रिश्तेदारी से पहले।पर अब समझ में आ गया था कि इस बक्से की इतनी निगहबानी क्यूँ हो रही थी।

रात के दस बजने वाले थे,भूख बड़ी ज़ोरों की दस्तक देने लगी थी मैं नज़रे घुमाकर खाना बेचनेवाले को ढूंढ रहा था पर डर था ये सीट न छिन जाए।तभी वो पीठ थपथपाकर बोले "कुछ खाओगे का? जाओ खा लो कोई न लेवेगा तुम्हरी सीट"

मैंने उनकी आंँखों में देखा"कमाल है आपको मन भी पढ़ना आता है?"और मानो उनकी आंँखों ने जवाब दिया"यही अंतर है भइया जी तुम ए .सी और हम जेनेरल बॉगी वालों में,हम मन भी पढ़ लेते और तुम शब्दों को भी न पढ़ पाते।

मैं स्टेशन पे उतरकर पूरी सब्जी ले आया और अपनी जगह पे आकर जल्दी जल्दी खाने लगा।

"वाकई बाबा ,घर मे पत्नी कितना भी अच्छा खाना क्यूँ न बनाए पर स्टेशन की पूरी सब्जी की बात ही कुछ और है" हरी मिर्च काटते हुए मैंने बोला।

"भूख चीज़ ही ऐसी होवे, स्वाद का पता ही न लगने देवे "

निवाला मुँह में डालते डालते मेरा हाथ रुक गया,उनका हर जवाब मुझे निरुत्तर बना जाती।

"आप नही खाएंगे?"मेरे प्रश्न को अनसुना करते हुए उन्होंने अपने कमर से एक पोटली निकाली ,सबसे छुप के कुछ रुपये गिने और नाटकीय अंदाज़ में खाँसते खाँसते बोले "बुढ़ापे में भूख भी कहाँ लगती है ऊपर से ससुरी खाँसी.....कुछ खाने को जी ना कर रहा"।

आखरी निवाला किसी तरह आंँसुओ के साथ निगल गया।

जाने क्यूँ जितनी खुशी और उत्साह के साथ ट्रेन में चढ़ा था सब फीका फीका और अधूरा लगने लगा।मुझे बरबस ही तनु याद आने लगी बातें भले ही वो हाई फाई करे पर मैं जब भी बेचैन होता हूँ वो मुझे सम्भालती है।अब मैं जल्द से जल्द अपने घर पहुंँचना चाह रहा था।

      ट्रेन की रफ़्तार के साथ साथ मेरी नींद भी अपनी रफ्तार में आने लगी । मैं ऊंँघ के बाबा के कंधे पे गिरता रहा और वो मुझे सम्भालते रहे पर उन्होंने अपनी पलकें एक बार भी नहीं झपकी। मैं जाने कब नींद की आगोश में चला गया पर मेरी आँखे तब खुली जब वो मुझे झकझोर रहे थे।"भइया जी, हमार बक्सा? कब से ढूंढ रहे मिल ना रहा"।वो फफक के ऐसे रो पड़े मानो भीड़ में एक पिता से उसका बच्चा बिछड़ गया हो। " जाग ही रहे थे जाने कब मुई आँख लग गई" वो कातर दृष्टि से एक एक यात्री को देखने लगे।पूरे डब्बे में अफरा तफ़री मच गई किसी ने सहानुभूति जताई किसी ने मज़ाक उड़ाया और मैं बक्सा ढूंढने के बाद तटस्थ खड़ा रहा। वो अभी भी सबसे अनुरोध कर रहे थे हमार बक्सा दिला दो भइया जी......बिटिया के गहने हैं उसमें" वो स्टेशन पर ही उतर गए और मैं गेट पे आ के ठिठक गया।ट्रेन को हरी झंडी दिखा दी गई और ट्रेन मथुरा स्टेशन से सरकने लगी।आते जाते लोग उन्हें देख रहे थे.......वो मुझसे दूर जा रहे थे धीरे ....धीरे....धीरे।हिलती डुलती तस्वीरे अब धुंधली होने लगी थी पर अचानक लगा लोग दौड़ दौड़ के उनके पास जाने लगे।भीड़ इकट्ठी होने लगी ,दुर्बल शरीर बिल्कुल गठरी सी दिख रही थी।अचानक एक अज्ञात भय ने मुझे भयभीत कर दिया तो क्या वो सदमा नही झेल पाए और.......मैं बेसुध सा ट्रेन के गेट पे ही बैठ गया......   


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