Ragini Pathak

Drama Inspirational

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Ragini Pathak

Drama Inspirational

प्रायश्चित

प्रायश्चित

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"रचना सुनो ! आज शाम लड़की वाले आएंगे, भाईसाहब (अमर) के रिश्ते की बात चल रही है तो तुम सब घर में चाय नाश्ता सम्भाल लेना" राहुल ने अपनी पत्नी से कहा।

"क्या? क्या बात कर रहे हो राहुल, अभी भाभी को गए पूरे एक महीने भी नहीं हुए और भाईसाहब की दूसरी शादी भी देखने लगे सभी" रचना ने आश्चर्य से पूछा।

"हाँ, तो क्या हुआ आज नहीं तो कल करना ही होगा ना वरना बच्चों की जिम्मेदारी कौन लेगा?"बेड पर बैठते हुए राहुल ने कहा।

रचना राहुल की बात सुनकर स्तब्ध रह गयी,और मन ही मन सोचने लगी मतलब एक औरत का वजूद सिर्फ बच्चे और घर सम्भालना ही है, क्या औरत का और कोई अस्तित्व नहीं,क्या अगर एक औरत ये करे तो समाज और परिवार को ये बात मंजूर होगी..आज रचना को पुरुषों से नफरत होने लगी थी और अपनी जेठानी के दर्द का एहसास भी भली भांति हो गया था कि क्यों उन्होंने भाईसाहब का आखिरी समय में त्याग किया। आज एक बार फिर वो सब कुछ याद आ गया जिन दुःख भरे लम्हों को वो भूलने की कोशिश कर रही थी उसके आंखों के आगे उसकी जेठानी की यादे पुनः ताजा हो गयी। रचना की जेठानी सीता से रचना की बहुत बनती थी,हर कोई उन्हें देवरानी जेठानी कम बहने ज्यादा कहता था दूर दूर से आये रिश्तेदार, आसपड़ोस जो भी दोनो को देखता सब यही कहते कि देवरानी जेठानी हो तो तुम्हारे जैसी... सीता सिर्फ नाम से ही नहीं व्यवहार से भी उतनी ही सौम्य और संस्कारी थी,परिवार को एकसूत्र में बांधकर रखना भली भांति जानती थी, चाहे उसके लिए उन्हें खुद जो भी सहना पड़े,सीता ने कभी किसी को अपने दर्द का एहसास नहीं होने दिया, जब तक सीता जिंदा थी रचना के लिए ढाल बनकर खड़ी थी और हमेशा एक बड़ी बहन की तरह प्यार किया।

जेठजी पूर्णतया माँ के भक्त जो वो कह दे, वो ही सही बाकी सब गलत,इस बात को लेकर अधिकतर ही दोनो लोगो में बहस हो जाती। लेकिन जेठजी कभी भी अपनी मां के दोहरे चरित्र को समझ नहीं पाए।जो बेटो के सामने तो बिलकुल सीधी साधी बनी फिरती लेकिन बहुओं के सामने कुछ और ही रूप होता।

तभी रचना ने अपने पास सोए हुए जेठानी के दोनों बच्चो को सीने से लगाते हुए मन ही मन कहा"चाहे कुछ भी हो जाये लेकिन मैं अपना किया वादा कभी नहीं तोड़ूंगी,मैं इन बच्चो की जिम्मेदारी किसी को नहीं दूँगी,भाभी से किया वादा पूरा करके रहूँगी"

सीता ने आखिरी वक्त में रचना का हांथ अपने हाँथ में लेकर कहा था कि "रचना वादा करो कि तुम अब इन बच्चो की सिर्फ चाची नहीं माँ बनकर भी जिम्मेदारी निभाओगी, अब तुम सिर्फ एक बच्चे की माँ नहीं बल्कि 3 बच्चो की माँ हो,मैं अपने बच्चो के लिए और किसी पर भरोसा नहीं कर सकती,खास तौर से अपनी बेटी के लिए, बोलो रचना"

"मैं वादा करती हूं भाभी की आप जैसा कहेंगी मैं वैसा ही करूँगी, लेकिन आपने मुझे कभी बताया क्यों नही, आप इतना कुछ सह रही थी और मैं कभी आपकी हँसी के पीछे छिपे दर्द को देख ही नहीं पायी मुझे माफ़ कर दीजिए,लेकिन भगवान के लिये आप ऐसा मत बोलिये, भाभी सब ठीक हो जाएगा, मैं आपके बिना कुछ नहीं कर सकती" रचना ने रोते हुए वेंटिलेटर पर पड़ी अपनी जेठानी सीता से कहा

लेकिन तब तक सीता ने दम तोड़ दिया था,सीता के हांथो की पकड़ ढीली पड़ी और रचना का हाँथ छूट गया,रचना जोर से चिल्ला पड़ी भाभी....

सीता को याद करते रचना की आंखे डबडबा गयी कि तभी राहूल ने कहा"कहाँ खो गयी,जरा एक ग्लास पानी देना।"

राहुल की बात से रचना की तन्द्रा टूटी"उसने कहा हाँ लाती हुँ।"

रसोई में पानी लेने गयी तो उसका सामना सामने खड़े जेठजी से हो गया, उनको देखकर आज रचना के मन में सम्मान की जगह घृणा और गुस्सा दोनो उत्पन्न हो गयी। जिनको वो बड़े भाई की तरह मानती थी उसे क्या पता था कि वो इतने स्वार्थी और मतलबी पुरूष थे। और सीता की मृत्यु के जिम्मेदार भी रचना की नजरों में उसके जेठजी ही थे उनके पुत्र के चाहत ने ही भाभी की जिंदगी छीन ली,आज एक बेटा, बेटी दोनो थे उनके पास लेकिन उनको जन्म देने वाली मां अब इस दुनिया में नहीं थी।

तभी अमर ने कहा"रचना, जरा पानी देना"

रचना ने पानी का गिलास पकड़ाया लेकिन अपने मन के गुस्से पर काबू नहीं हो पा रहा था उसने दबी जुबान में ही कहा" भैया दुसरो का तो पता नहीं लेकिन मेरे लिए इस घर में सीता भाभी की जगह कोई नहीं ले सकता, और भाभी से किया वादा भी मैं अपने आखिरी दम तक निभाऊंगी,मैं बच्चो की जिम्मेदारी किसी को भी नहीं दूँगी" एक सांस में कहते हुए रचना डबडबाई आंखों से वहाँ से तेजकदमो जाने लगी।

तभी अमर ने रचना को रोकना चाहा पलटकर आश्चर्यचकित हो उसने रचना से कहा"मतलब, रचना रूको"

तभी पीछे से राहुल ने कहा"भईया आप कही जा रहे है क्या, "

"हाँ बाहर जा रहा था कुछ काम से" अमर ने कहा

"वो भैया दरअसल माँ ने मना किया, कही जाने से आपको है आज कुछ मेहमान घर पर आने वाले आपसे मिलने है" राहुल ने कहा

रचना वहाँ से अपने कमरे में चली गयी,और दोनो भाइयों की बातो को कान लगाकर सुनने लगी।

"कैसे मेहमान राहुल" अमर ने कहा

तब तक(सास) उमा जी बोल पड़ी"अमर बेटा दरअसल आज एक लड़की वाले आएंगे तेरे रिश्ते के लिए,अब कब तक यूं अकेला जिंदगी बिताएगा, साथ में दो बच्चो की भी जिम्मेदारी, तूने तो सीता के जाते मुझसे मुँह मोड़ लिया लेकिन मैं तो माँ हुँ और एक माँ तो अपने बच्चो का भला ही चाहती है,और एक जीवनसाथी की जरूरत तुझे भी तो है जो तेरा ख्याल रखे, अपनी आंखें बंद होने से पहले बस तुम्हारा संसार बसा देना चाहती हूँ"

इतना सुनते अमर की आंखे गुस्से में लाल"जोर से चिल्ला कर बोल पड़े, कौन कहता है कि मैं अकेला हूं, मुझे किसी के सहारे की जरूरत है, मेरी सीता का अस्तित्व आज भी जिंदा है मुझमें और मेरे बच्चों में,वो कभी नहीं मर सकती,कभी नही।"

और पास पड़े कुर्सी पर धम्म से बैठ अपने चेहरे को ढक रो पड़े,अमर को आज अस्पताल का वो आखिरी लम्हा एक बार फिर याद आ गया

एक तरफ जहां घर में पुत्र जन्म की खुशियां मनाई जा रही थी तो वहीं दूसरी तरफ आई.सी.यू के बाहर अमर सीता के लिए मन ही मन प्रार्थना कर रहे थे कि तभी डॉक्टर ने बाहर आकर कहा कि"मिस्टर अमर आई.एम.सारी..बस कुछ समय ही है उनके पास,उनके बचने के अब कोई चांसेज नहीं "

अमर ने जैसे ही अंदर जाने की कोशिश की तो डॉक्टर ने उन्हें रोकते हुए कहा"रुकिये मिस्टर अमर!वो आपसे नही, सिर्फ रचना से मिलना चाहती है उनके सिवाय घर के किसी भी सदस्य से नहीं मिलना चाहती।"

इतना सुनते आश्चर्यचकित हो डॉक्टर की तरफ देखने लगे और वही घुटनो पर बैठ फुट फुटकर रो पड़े अमर और सन्न रहा गया पूरा परिवार, काँपते कदमो से रचना ने आई. सी.यु में प्रवेश किया,

पीछे पीछे अमर भी गए और कहा"सीता माफ कर दो मुझे, एक बार मेरी तरफ देख तो लो"

लेकिन सीता ने मुँह फेर लिया था और रचना से कहा"रचना अपने भाईसाहब को बोलो यहाँ से चले जाएं अब उनका और मेरा कोई रिश्ता नहीं,अपने शरीर के साथ साथ इनसे जुड़े रिश्ते भी मैं त्याग रही हूँ, जो इनको चाहिए था वो मैंने इनको दे दिया, अब ये अपने पुत्र और परिवार के साथ खुश रहे, मेरा आखिरी खत इनको देना बस।"

अमर ठगे से निरुत्तर देखते रह गए, ना होठों में शब्द बचे थे ना ही जिह्वां आज साथ दे रही थी मस्तिष्क शून्य हो चुका था रचना ने जैसे ही खत अमर की तरफ आगे बढ़ाया, अमर ने काँपते हांथो से उस खत को पकड़ा।

आखिरी खत में लिखा था

अमर

आपको मेरा आखिरी प्रणाम

ये खत मैं आपको जीवित अवस्था में लिख रही हूं लेकिन हो सकता है कि जब आप ये खत पढ़े तब मैं जीवित ना रहूँ क्योंकि मुझे लगता हैं कि मेरी जिंदगी अब पूरी हो चुकी हैं, पता नहीं कल क्या हो

अमर जब हम विवाह के बंधन में बंधे थे उसदिन उस पल से ही मैंने आपको अपना सब कुछ मान लिया था मेरी पूरी दुनिया सिर्फ आप थे, मेरी खुशी भी आपकी खुशी में मैं ढूंढ लेती थी, लेकिन अफसोस आपके लिए में सब कुछ क्या कुछ भी नहीं थी आप मुझसे सिर्फ सामाजिक रिश्ता निभा रहे थे और मैं पगली दिल से.....

मेरे लाख मिन्नत करने और समझाने पर भी आपने बेटा पैदा करने की चाह में माँजी का साथ दिया। ये जानते हुए भी की अगर दूसरी डिलीवरी हुई तो मेरी जान को खतरा है। लेकिन आपको ये डॉक्टरों के चोचले लग रहे थे,आपने कहा कि बिना बेटे के मैं अधूरा हो जाऊंगा,बुढ़ापे में बेटा ही सहारा होता है,बेटियां नही। मैं अपनी बेटी जिया को बहुत प्यार करती हूँ और उसकी जगह मेरे जीवन में कोई नहीं ले सकता,इसलिए उसकी जिम्मेदारी मैं रचना को देती हूं मेरे ना रहने के बाद वो ही उसकी चाची मां बनकर उसके साथ रहेगी।

आपसे आज मैं एक और बात कहना चाहती हूँ कि एक पुरूष कभी दूसरे पुरुष का सहारा नहीं होता। आपकी ये सोच गलत है। एक पुरुष को जन्म से लेकर आखिरी समय तक एक औरत के सहारे की जरूरत पड़ती है आप भूल गए कि एक बेटे को जन्म उसकी मां देती है,रातों की नींद से लेकर अपनी खुशी तक कुर्बान कर देती है, और फिर जुड़ती है जीवनसंगिनी यानी उसकी पत्नी जो आखिरी दम तक साथ देती है, उसके दुःख सुख की सहभागी बनती है स्त्री पुरूष एक दूसरे के पूरक होते है दोनो एक दूसरे के बिना अधूरे है

एक बेटी भी पिता का सहारा बन सकती है अगर उसे भी मौका दिया जाए तब। इस बात की क्या गारंटी होती है कि बेटा सहारा ही होगा। अगर हर बेटा अपने मातापिता का सहारा ही होता तो लोग बहु क्यों लाते, क्यों समाज में वृद्धाश्रम बने हैं। वहाँ बेटे ही छोड़कर जाते है अपने माता पिता को लेकिन बदनाम लोग बेटी बहु को करते हैं,वंश का नाम बेटियां भी बढ़ाती है,और कुछ नालायक बेटे वंश का नाम डूबा भी देते है।

खैर,अब दूसरी बात मेरे मरते ही आपकी दूसरी शादी की बात की जाएगी,जो स्वाभाविक है क्योंकि जिस घर में बहु की जान पर खेलकर लोग बेटा चाह सकते है,वहाँ बेटे की दूसरी शादी कोई बड़ी बात नही, गलत भी नहीं कहूंगी।

लेकिन सिर्फ एक गुजारिश है आपसे की शादी तभी करना जब एक पत्नी के पति बन पाओ सिर्फ नाम से नहीं अधिकार से भी सभी चीजें निभा पाओ। उस लड़की की खुशियां भी तुम्हारे लिए मायने रखती हो। म इसी बात के साथ मैं अपनी बात खत्म करती हूं।

सिर्फ सामाजिक तौर पर पत्नी

सीता

तुम्हारी पत्नी नहीं लिख सकती क्योंकि वो तो मैं कभी थी ही नही।

उमा जी की पोते की जिद अमर और सीता की जिंदगी पर भारी पड़ गयी थी। सीता बार बार समझाती की रचना का बेटा तो है ही वो भी तो हमारे लिए बेटे समान है। लेकिन किसी ने उसकी एक ना सुनी।

तभी उमा जी ने कहा"बेटा रोना बंद कर और तैयार हो जा वक्त के साथ साथ सब भूल जाएगा, लड़की वाले आते ही होंगे।

लेकिन आज अमर का फ़ैसला अडिग था अमर ने कहा "माँ ना का सिर्फ एक मतलब होता है, ना.... मेरी जिंदगी में सीता की जगह कोई नहीं ले सकता, एक गलती कर चुका हूं दूसरी नहीं करूँगा.....मैं अकेला नहीं हूँ, मैंने जो सीता के साथ किया उसका पश्चयताप तो करना ही होगा। आपको वारिस चाहिए था वो आपको मिल गया। अब आप मेरी चिंता ना करें, मैं अपने बच्चों के लिए काफी हूँ, वैसे भी सीता ने बच्चों को तो रचना के हाथ दिया है तो अब मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं। चलता हूं, आप उन लोगों को मना कर दीजिए।

रचना आज अपने जेठ की बातों से जहां एक तरफ खुश थी दो दूसरी तरफ दुःखी भी थी कि काश ये कदम जेठजी ने पहले ही उठाया होता तो आज भाभी जिंदा होती और शायद जिंदगी में ये दुःखद लम्हा आया ही ना होता।

उमा जी सन्न बेटे का चेहरा ही देखती रह गयी, क्योंकि आज अमर ने पहली बार उनके किसी फैसले को मानने से इनकार किया था।


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