पराई खुशियाँ
पराई खुशियाँ
"हमने तो आप सबको अपनी ख़ुशी बाँटने के लिए बुलाया है" अनिमेष और दीपाली ने बहुत उदास होकर बुआजी से कहा तो बुआजी सीधे सर्वदा की ओर मुख़ातिब हुई, "और भाभी, ये दोनों तो बच्चे हैं आपको बुढ़ापे में ये क्या सूझी। कुछ समाज का तो सोचा होता, नाते रिश्तेदार को क्या कहेंगे। कुछ सोचा भी है?" तभी दीपाली ने सामने आकर कहा, "बुआजी, इसमें मम्मीजी की कोई गलती नहीं। ये निर्णय हम सबने मिलकर लिया है। "उसकी बात ठीक से पूरी भी नहीं हुई थी कि अनिमेष ने मोर्चा संभाल लिया,"बुआजी, इस उम्र में जब जीवनसाथी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, तब पिताजी का साथ छोड़ जाना माँ के लिए कितना दुखदाई रहा होगा, क्या कभी ये सोचा आपने?" अब जबकि माँ के साथ सुबह पार्क में वॉक करते करते रंजीतजी और माँ अच्छे दोस्त बन गए, हमने गौर किया तब से माँ बहुत ख़ुश रहने लगी थी। फिर पिछले दिनों एक बार रंजीतजी का बड़ा बेटा और फिर दूसरी बार खुद रंजीतजी ये रिश्ता लेकर आ चुके हैं। तभी हमने इस रिश्ते को सोचा। क्यूँकि माँ तो कभी अपने मुँह से कहती नहीं और वो तो अब भी मना करती पर उनके अकेलेपन के दंश को देखते हुए हमने ये निर्णय लिया और सगाई की तारीख पक्की कर दी। अब आप लोग ज़्यादा बोलोगे तो माँ कहीं अपने कदम ना पीछे कर ले। इसलिए कृपया आप सब चुप हो जाए।"
तब तक भरी भरी आँखों से माँ वहाँ पहुँच गई और अनिमेष की तरफ लगभग हाथ जोड़ती हुई बोली, "बस कर बेटा, रहने दे! बुआजी को बोलकर या किसी को कुछ भी समझाने की कोई ज़रूरत नहीं है। तुम्हारे पापा के जाने के बाद पूरे बारह साल मैंने जिस अकेलेपन और उदास दिन बिताए हैं इसका अंदाजा बहुत कम लोगों को है। वो तो मेरी किस्मत अच्छी है कि, ज़िन्दगी मुझे दुबारा मौका दे रही है और रंजीतजी जैसे हमसफ़र ज़िन्दगी के अगले सफऱ में मेरा साथ देने को तैयार हैं, और तुम्हारे जैसा बेटा और रुपाली जैसी बहू पाकर तो मैं धन्य हो गई। वरना कौन सी बहू इस उम्र में अपनी सास का घर बसाने के लिए यूँ कृत संकल्प होती है। "बोलते बोलते भावावेश में जैसे सर्वदा की आवाज़ लड़खड़ा गई। आँखें अलग से भर आईं थी। अब तक काँताजी को कुछ कुछ अपनी गलती का एहसास हो गया था, पर मारे ऐंठ के वो झुकने को बिल्कुल तैयार नहीं थी। मन ही मन में सोचा, सगाई तक रुक जाती हूँ, उसमें जब सब भाभी की इस उम्र में शादी की भर्त्सना करेंगे तब मैं भी सारा कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दूँगी कि..... ये आशिकी पुरानी है। पर उनकी मंशा सफल नहीं हो पाई क्यूँकि सुशांतजी के गरिमामयी व्यक्तित्व और सर्वदा की ग्रेसफुल जोड़ी की सभी तारीफ कर रहे थे और अनिमेष और दीपाली को सब पीठ थपथपा रहे थे कि उन्होंने बिल्कुल सही निर्णय लिया है और उनके इस कदम से औरों को भी प्रेरणा मिलेगी। सगाई के बाद सर्वदा सोच रही थी, कितना मुश्किल सफर था। उनके लिए भी अपने पति अनिरुद्ध को भूलना कहाँ आसान था। बड़ी मुश्किलों से अब अकेले रहने की आदत से छुटकारा मिला था। वो अब पीछे नहीं हटेंगी। बाद में बुआ जी भी ऊपरी तौर पर मान गई। पर बोलतीं रहीं कि सब मेरे भाई को इतनी जल्दी भूल गए। आखिर तो ऐसी खुशियाँ पराए आँगन के धूप की तरह होती हैं। पर उनकी आवाज़ दब कर रह गई क्यूँकि अधिकांश लोग इस शादी की बहुत तारीफ कर रहे थे। ये एक अनोखी शादी थी, जिसमें बेटा बहू मिलकर अपनी माँ का कन्यादान कर रहे थे। (समाप्त )
