पिता-राष्ट्रपिता
पिता-राष्ट्रपिता
इलाहाबाद तीसरी जगह थी जहाँ राकेश भाई ने मुझे बुलाया था बुलाया क्या था, बुलवाया था बाक़ायदा ए. सी. द्वितीय श्रेणी का रेल किराया और तीन हजार रुपये मान धन के साथा स्थानीय आतिथ्य की व्यवस्था तो आमन्त्रण भेजने वाली संस्था को करनी ही थी। राकेश भाई कम्युनिस्ट थे और फिलहाल सरकार द्वारा पोषित और संरक्षित एक गांधीवादी संस्था के निदेशक थे। मैं दलित था और अभी नया-नया एक कॉलेज में गाँधी विचार पढ़ाने के लिए व्याख्याता नियुक्त हुआ था।
साल भर पहले ही उनसे मेरी पहली मुलाकात हुई थी। हिन्द-स्वराज के शताब्दी वर्ष में मेरे कॉलेज ने यू.जी.सी. के अनुदान से एक सेमिनार आयोजित किया था। गांधीवादी संस्था के निदेशक होने के नाते राकेश भाई उसमें बतौर मुख्य अतिथि आमन्त्रित थे। गाँधी विचार का व्याख्याता होने के नाते मैंने भी उस सेमिनार में अपना परचा पढ़ा था। चूँकि वह मेरी कक्षा नहीं थी जहाँ पाठ्यक्रम की बारिश में गाँधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम का गुणगान मेरी मजबूरी हो। लिहाज़ा मैंने गाँधीजी के हरिजन उद्धार और अस्पृश्यता निवारण जैसे कार्यक्रमों का खूब मजाक उड़ाया। मेरी नियुक्ति के बाद यह मेरा पहला अवसर था जहाँ मैं खुलकर अपनी बात कह पा रहा था इसलिए मैंने बाबा साहेब के हवाले से गाँधीजी के तमाम ऐसे क्रियाकलापों को उनकी हिप्पोक्रेसी और यथास्थिति वाद के पोषक के तौर पर स्थापित किया। मेरे परचे में मेरी तमाम स्थापनाओं के समर्थन में सन्दर्भ थे। उन सन्दर्भों की एक संरचना थी, उनकी विश्वसनीयता थी, इसलिए मेरे विभागाध्यक्ष की रोष पूर्ण दृष्टि भी मेरे समर्थन में बजने वाली तालियों को रोक नहीं पायी।
अन्त तक आते-आते मैंने हिन्द स्वराज की प्रासंगिकता पर ही सवाल उठा दिया कि जिस किताब में ‘दलित-समस्या’ पर एक भी सवाल-जवाब नहीं हो, उस किताब को आखिर इतनी तवज्जो क्यों दी जा रही है\ क्यों इसे गाँधीजी के सपनों के भारत का घोषणापत्र कहा जा रहा है ! क्या गाँधीजी के सपनों के भारत में दलितों के लिए कोई जगह नहीं होनी थी।
अपना परचा समाप्त कर अपने विभागाध्यक्ष से नज़रें चुराता हुआ जब मैं अपनी सीट की तरफ़ बढ़ा रहा था, तो राकेश भाई ने मंच से उठकर मेरी पीठ थपथपाई, मुझसे हाथ मिलाया और हाथ छोड़ते हुए उन्होंने अपने शरीर को ऐसा लोच दिया, मानो मेरे गले लग रहे हों। फिर अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में उन्होंने अपनी बातचीत का अधिकांश हिस्सा मेरे परचे के ही इर्द-गिर्द रखा। उन्होंने मेरे नज़रिये की जोरदार तारीफ़ की और इस बात पर जोर दिया कि गाँधीजी को देवता मानकर उन्हें पूजने की जरूरत नहीं है बल्कि एक इंसान के तौर पर उनकी खामियों, कमजोरियों के साथ उनके मूल्यांकन की आवश्यकता है।
गाँधीजी की छठी औलाद मेरे विभागाध्यक्ष को यह सब कुछ नागवार लग रहा होगा, उनका वश चलता तो वे मुझे कब का बरखास्त कर चुके होते और राकेश भाई को धक्के मारकर मंच से उतार चुके होते लेकिन वे सरकार द्वारा पोषित और संरक्षित एक संस्था के निदेशक थे और चूँकि उन्होंने मेरी पुरज़ोर तारीफ़ की थी, इसलिए मजबूरन मेरे विभागाध्यक्ष को इस बात पर गर्वित होना पड़ा कि उनके विभाग में मेरे जैसे हीरा अस्तित्वमान है, लगे हाथों उन्होंने इसी त्वरा में राकेश भाई की भी तारीफ़ कर डाली कि आखिर हीरे की पहचान तो जौहरी को ही होती है।
कार्यक्रम खत्म होने के बाद राकेश भाई ने मुझसे बेतकल्लुफ होते हुए इस हीरे और जौहरी की जुगलबन्दी पर जोरदार ठहाका लगाया। मैं उन्हें ‘सर’ का सम्बोधन दे रहा था लेकिन उन्होंने फिर ठहाका लगाते हुए कहा कि वे सिर्फ़ अपने ‘सर’ और पैर से जाना नहीं चाहते। बल्कि उनके प्रति किये जा रहे सम्बोधन में उनका पूरा ‘वजूद’ दिखना चाहिए। उन्होंने बताया कि पहले ‘कॉमरेड’ कहने से उनका यह मक़सद हल हो जाता था लेकिन इस संस्था में नियुक्त होने के बाद से उनको खुद ही यह सम्बोधन अटपटा लगने लगा। थोड़ी देर रुककर खुद ही उन्होंने कहा- यदि कहना ही है तो उन्हें राकेश भाई कहा जाय, इससे उन्हें बेहतर महसूस होगा। मेरी और उनकी उम्र में तक़रीबन तीस-पैंतीस वर्ष का फ़ासला था। एक दो बार ‘भाई’ के सम्बोधन में मुझे थोड़ा अटपटा-सा लगा। लेकिन उनकी स्वाभाविकता से जल्द ही मैं इसका अभ्यस्त हो गया।
इसके बाद उन्होंने मेरे मराठी-भाषी होकर अच्छी हिन्दी बोलने पर आश्चर्य जताया, जिसके जवाब में मैंने उन्हें बताया कि ग़रीबी के कारण मेरी पढ़ाई-लिखाई एक राजस्थानी सेठ के खैराती स्कूल और कॉलेज में हुई है, जिसका माध्यम हिन्दी था। फिर उन्होंने मेरे टाइटल ‘सपकाले’ के बारे में जानना चाहा, जिसकी व्याख्या करते हुए मैं थोड़ा ‘स्याण’बन गया। मैंने उन्हें बताया कि दर असल यह मेरे कुल का नाम है और बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर का भी यही कुलनामा है।
ओहो........ तो ये बात है मैं डॉ. अम्बेडकर के किसी वंशज से मुखा़बित हूँ ! कहते हुए उन्होंने फिर एक जोरदार ठहाका लगाया। उन्होंने बताया कि इतना तो वे जानते थे कि ‘अम्बेडकर’ टाइटल बाबा साहेब को उनके एक ब्राम्हण अध्यापक ने दी थी लेकिन वे सपकाले नहीं होकर सलपाले थे, लेकिन बाबा साहेब का वंशज होने से जिस गर्व और विशिष्ट की अनुभूति मुझे हो रही थी, उसे मैं ‘सत्य’ और ज्ञान के दबाव से व्यर्थ ही खोना नहीं चाह रहा था।
उस कार्यक्रम के बाद तो जैसे हमारी जोड़ी ही बन गयी। हिन्द स्वराज के उस शताब्दी वर्ष में देश भर में कार्यक्रम होने थे और अधिकांश जगहों पर राकेश भाई को मुख्य अतिथि बनना था, अध्यक्षता करनी थी, और उन अधिकांश जगहों पर उन्होंने मुझे भी बुलाये जाने की सिफ़ारिश की। मैं भी न सिर्फ हिन्द स्वराज बल्कि गाँधीजी की लिखी तमाम किताबों, आलेखों भाषणों से छाँट-छाँट कर उनसे हिप्पोक्रेसी और वर्णाश्रम समर्थक वक्तव्य छाँटता रहा, और हर सेमिनार में पहले से ज्यादा आक्रामक और तल्ख होता गया। राकेश भाई को हर बार मेरी सिफ़ारिश पर गर्व होता था। गुजरात में तो जब मैंने गाँधीजी की आत्मकथा के हवाले से उनकी भोजन सम्बन्धी शुचिता और सब्र का मखौल उडा़या, और यह स्थापित किया कि जिस देश का इतना बड़ा भाग मरे हुए जानवर का मांस खाने को अभिशप्त था, वहाँ शाकाहार और अन्नागार का ऐसा सात्विक आग्रह एक क्रूर अभिजात्यता और अश्लील पाखंड के अलावा कुछ नहीं, तो राकेश भाई अश-अश कर उठे थे। मेरे यह कहने पर कि वास्तव में गाँधी जी की आत्मकथा का शीर्षक ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ न होकर ‘भोजन के साथ मेरे प्रयोग’ होना चाहिए था तो सेमिनार के बाद गहरे आवेश और आवेग में वे बहुत देर तक मेरा हाथ थामे रहे- ‘‘पार्टनर\ अब तो हमारी पार्टी’’ उस काबिल नहीं रही, लेकिन सोवियत संघ वाले ज़माने में यदि तुम मुझे मिलते तो ....... आज दुनिया देखती । एक हताश और आर्द्र-सी उनकी आवाज़ थी अभी तो पार्टी में जाना जैसे खुद को डम्प कर लेना। अब तो हम जैसे लोग भी अपने होने को यहीं भोजन के प्रयोगों में ही तलाशते हैं।’’ कहते हुए उन्होंने वही अपना पुराना लेकिन असर कारक जोरदार ठहाका लगाया जिसकी गर्मी में उनके अफ़सोस की आर्द्रता वाष्प बनकर उड़ गयी। और अब यह इलाहाबाद था जहाँ मैं गाँधी जी जैसे सनातनी हिन्दू के धर्मनिरपेक्ष और समता मूलक राष्ट्रपिता होने की अवधारणा पर सवाल उठाने आया था। मैंने फोन पर अपने भाषण की रूपरेखा राकेश भाई को समझा दी थी, और वे इस संगोष्ठी के हंगामेदार होने को लेकर आश्वस्त थे। जब मै फोन पर उनसे अपने पर्चे का यह अंश पढ़ कर सुनाया था कि यदि किसी दुरभिसन्धि के फलस्वरूप गाँधीजी को ‘राष्ट्रपिता’ कहना हमारी मजबूरी ही हो जाय तो मैं माँ के रूप में समादृत इस राष्ट्र की हत्या ही कर देना उपयुक्त समझूँगा। तो राकेश भाई की एक की एक चिहुँकती –सी आवाज आयी थी, ‘आग लगा दोगे! जल्दी आओ।’
मेरे इलाहाबाद पहुँचने से पहले ही राकेश भाई वहाँ मौजूद थे। बल्कि मैं ट्रेन के लेट हो जाने के कारण लगभग चार-साढ़े चार बजे सुबह गेस्ट हाउस पहुँचा और अब सोउुँ की उधेड़बुन में ही था कि राकेश भाई मेरे कमरे में थे। ‘‘अरे मैं तो डर ही गया था कि कहीं ट्रेन इतनी लेट न हो जाय कि .......’’
‘‘आग लगने से पहले ही बुझ जाय’’, कहकर मैंने कहकर मैंने उनकी ताल से ताल मिलायी और एक जोरदार ठहाके तथा एक जोरदार ठहाके तथा एक प्यारी धौल से लगभग अँकवार में भरकर उन्होंने मेरे स्वागत किया।
‘‘चलो, अब क्या सो पाओगे ....... चलकर कहीं चाय-वाय देखा जाय, फिर जल्दी से तैयार भी होना होगा। सेमिनार दस बजे से ही है।’’ कहकर उन्होंने घड़ी को ऐसे देखा, मानो न जाने वह अब दस बजा ही दे कमबख्त़।
वह नवम्बर की गुनगुनी-सी सुबह थी, इलाहाबाद की सड़कों पर अभी उजाला पूरी तरह पसरा नहीं था, और सिविल लाइंस के चायवालों की नींद अभी तक खुली नहीं थी, सिवा एक दुकान के जहाँ की अँगीठी से उठते धुएं से दुकान खुल चुकने का अन्दाजा लगाते हम वहाँ पहुँचे थे। वहाँ पचास-बावन साल का एक अनुभवी दस-बारह साल के बच्चे को अँगीठी में कोयला ठीक से डालने की नसीहत दे रहा था, और वह बच्चा उसकी सलाह से आजिज़-सा आकर ताबड़-तोड़ पंख झल रहा था। हमें दुकान में आया देख वह शख्स तपाक से खड़ा हो गया और ओस में भीगे बेंच को कपड़े से पोंछता हुआ बाला, ‘‘आइए साहब ! बस थोड़ी ही देर में चाय हुआ चाहती है।’’
चाय के साथ साथ ‘हुआ चाहती है’ के प्रयोग ने हम दोनों को जैसे ठिठका दिया। यह महसूस करते हुए भी कि अभी अँगीठी सुलगने में काफ़ी देर है, हम दोनों उसके अदब और लहजे के लिहाज़ में बेंच पर बैठ गये।
वातावरण में हल्की ठंड थी और चाय बनने में काफ़ी देर। यदि अँगीठी सुलग रही होती तो उसके पास थोड़ी देर बैठने में आनन्द आ जाता। हमें बेंच पर बैठाकर वह शख्स फिर से अँगीठी ठीक से कैसे सुलगाई जाती है, पर टिक गया और जवाब में वह बच्चा और जोर-जोर से पंखा झलने लगा।
हम उसकी ओर से ध्यान हटाकर फिर अपनी बातचीत का सिरा पकड़ने की कोशिश में लग गये। राकेश भाई के अनुसार इस संगोष्ठी में काफी सर फुटव्वल होने की सम्भावना थी क्योंकि इसमें गाँधी-गाँधी जपने वाले कई उद्भट किस्म के विद्वान आमंत्रित थे। उनमें एक की ख्याति तो ऐसी थी कि उसने एक सभा में गाँधी जी के खि़लाफ़ बोलने वाले का कान ही चबा डाला था और बाद में इस बात पर आश्वस्त भी था कि उसने हिंसा भी गांधीवादी तौर-तरीके से ही की थी !
‘‘देखना कहीं तुम उसकी बगल में ही नहीं बैठ जाना, नहीं तो इस बार वह तुम्हारी नाक पर हमला न कर बैठे।’’ राकेश भाई ने चिन्ता मिश्रित शरारत से कहा।
‘‘आप निश्चिन्त रहें।’’ कहते हुए मैंने एक सिगरेट सुलगा ली।। ‘‘जब उनकी ही नाक कट जाएगी, तो वे क्या खाकर नाक पर हमला करेंगे।’’ कुछ राकेश भाई की बेतकल्लुफी और कुछ मेरे भीतर पनप रहे नये आत्म विश्वास ने मुझे इतना बेपरवाह बना दिया था कि मैं गिरेट के धुएं की दिशा से लापरवाह रहूँ!
राकेश भाई बहुत संजीदगी से मेरे पर्चे के सन्दर्भों को समझना चाह रहे थे ताकि मेरा भाषण कोरी ल़फ्फाजी़ न रह जाय। वे बार-बार इस बात पर भी जोर दे रहे थे कि यह इलाहाबाद है और यहाँ से गुज़रते वक्त मिर्ज़ा गालिब को भी पसीने छूट गये थे। मैं बड़े आत्म विश्वास से धुआँ उड़ाता हुआ, सिगरेट की राख झाड़ता हुआ, उन्हें मुतमइन कर रहा था कि इस बार की हमारी जुगलबन्दी गाँधीवादियों की आत्मा तक को कँपा डालेगी।
अपनी धुनकी में हम उस अधेड़ से दिखने वाले चाय वाले और उसकी भाषा की नजाकत को लगभग भूल चुके थे। तभी लगभग ख़लल डालने के से अन्दाज़ में उसकी आवाज़ आयी – ‘‘भाई साहब ! बुरा न मानें तो एक बात कहूँ।’’
हम लोग जिस तरह की बातचीत में थे, उसमें इस तरह का सवाल बुरा मानने वाली ही बात थी, लेकिन राकेश भाई अपनी ट्रेनिंग के कारण अनायास बोल पड़े, ‘‘नहीं। बोलो भाई। बातों से क्या बुरा मानना।’’
मेरा ध्यान इस पर भी गया कि वह काफी देर से हमारे सर पर खड़ा होकर हमारी बातें सुन रहा था और यह तो निहायत बुरा मानने वाली बात थी। मैंने एक आजिज़ और उचटती-सी नज़र उस पर डाली। मैंने भरसक अपनी मुद्रा ऐसी रखने की कोशिश की कि उसे ख़ुद बुरा लग जाए। लेकिन राकेश भाई के हौसले से उसे राह मिल चुकी थी। वह इत्मीनान से हमारे सामने वाली बेंच को अपने अँगोछे से साफ़ करता हुआ राकेश भाई से मुखातिब हुआ, ‘‘भाई साहब! आजकल के लौंडे अपने पद और रुतबे के आगे बुज़ुर्गियत और अनुभव को कोई तरजीह ही नहीं देते।’’
मेरे लौ सुर्ख हो उठे। राकेश भाई भी ऐसी किसी टिप्पणी के लिए तैयार नहीं थे। लेकिन बुरा न मानने का यकीन वे पहले ही दिला चुके थे इसलिए मेरी तरफ़ एक लाचार मुस्कान उछालते हुए वे चुप ही रहे। मैंने गौर किया कि सिर्फ़ एक लौंडा शब्द ही भदेस था, नहीं तो भाषा की समूची संरचना परिष्कृत और तहजी़बियत लिये थी। शायद उसने मेरी नाराज़गी की भंगिमा भाँपते हुए जानबूझकर मुझे चोट पहुँचाने के लिए लौंडे शब्द का इस्तेमाल किया था। वह यह जान भी गया था शायद इसलिए चोट पर मरहम रखने की कोशिश सा करता बोला, ‘‘यह मैं आप लोगों के लिए नहीं कह रहा हूँ। अब देखिये न, मैं कई वर्षों से इस लौंडे को अँगीठी सही तरीके से सुलगाने की तरकीब सुझा रहा हूँ, लेकिन क्या मजाल कि वह कोयला ठीक तरीके से जमा ले। जवान को अपनी ही ताक़त पर यकीन है कि खूब जोर से पंखा झलेंगे तो जैसे अँगीठी अपने आप सही तरीक़े से सुलग जाएगी। उसने सायास उस पंखा झलते बच्चे को भी बातचीत की ज़द में लपेटना चाहा, लेकिन उसने एक उपेक्षित सी मुस्कान के अलावा उसे कोई तवज्जो नहीं दी, बल्कि हमने गौर किया कि उसकी बात सुनकर वह दुगने वेग से पंखा झलने लगा। उस लड़के की उपेक्षा का उस आदमी पर कुछ ख़ास असर नहीं हुआ,बल्कि जैसे वह उधर से निश्चित होकर पूरी तरह हमीं से मुखातिब हो गया- ‘‘सिर्फ़ इसी लड़के की बात क्यों !’’ जब हम भी गदहपचीसी में थे, तो कहाँ किसी को अपने आगे लगाते थे। किसी को क्यों हमने तो अपने बाप तक को कभी अपने पुट्ठे पर हाथ नहीं धरने दिया।’’
हम समझ गये कि यह अब अपनी राम कहानी सुनाने के मूड में आ चुका है, लेकिन हम उसे झेलने को तैयार नहीं थे। राकेश भाई ने उसे निरुत्साहित करते हुए और उसकी औकात की याद दिलाते हुए टोका, ‘‘देखना, जरा चाय जल्दी मिल जाय।’’
उसने इस टोकने का ज़रा भी नोटिस नहीं लिया, बल्कि धुआँती अँगीठी की ओर देखकर दार्शनिक भाव से मुस्कुराया, ‘‘जल्दी तो साहब, साहबजादो को रहती है। आप तो काफ़ी इल्मवान दिखाई देते हैं।’’
मुझे लगा कि वह जानबूझकर मुझे खिजा रहा है, नहीं तो फिर से वही राग छेड़ने की क्या जरूरत थी। शायद मेरे किसी ‘ओवर कांफीडेंट’ वाक्य ने उसे मुझसे रुष्ट कर दिया था। मैंने उसके आहत अहम को लगभग सहलाते हुए कहा – ‘‘कोई बात नहीं। हम आराम से हैं, आप इत्मीनान से चाय बनाइए।’’ लेकिन मेरी बात का जैसे उसपर उलटा असर हुआ, ‘‘वैसे बाबू ! आप इत्मीनान की बात कर रहे हैं, जरूर लेकिन वह चेहरे पर दिखाई नहीं दे रहा, बल्कि साहब जल्दी की बात किये जरूर लेकिन निश्चिंत है कि पहले अँगीठी सुलगेगी, तभी तो चाय बनेगी।’’
उसकी इस ढिठाई पर हमारी सुलग रही थी, लेकिन वह कोई ऐसी खुली बदतमीजी भी नहीं कर रहा था कि सीधे-सीधे वहाँ से उठ लिया जाय। हमारे सुलगने से बेपरवाह वह जारी था- ‘‘ये बात होती है, अनुभव की। अनुभव हमेशा जोश पर भारी पड़ता है। जैसे अब मेरा ही देखिए अपने अनुभव के दम पर मैं बता सकता हूँ कि बाबू आप कोई बडे़ अफ़सर होंगे।’’ उसने मुझे इंगित करते हुए कहा, ‘‘और साहब आप इनके मातहत तो नहीं लेकिन ओहदे में छोटे होंगे।’’ राकेश भाई को देखते हुए उसने मंतव्य दिया।
पहले ही वाक्य से उसके अनुभव की पोल खुल गयी थी। उसका सारा अनुमान सम्भवतः हमारे पहने हुए कपडों से संचालित था। मैं ट्रेन से सीधे चाय दुकान पर था। इसलिए यात्रा के तैयार कपडों में अपटुडेट। जबकि राकेश भाई अपने रात के कपडों में पाजामा कमीज़ पहने थे। उसके अललटप्पू अनुमान और अनुभवी होने के दावे पर हम दोनों ज़रा खुलकर हँसे। और शायद राकेश भाई को अपने छोटे ओहदे वाली बात सुनकर मजा भी आ गया था। इस सस्पेंस को बाद में खोलने के इरादे से उन्होंने जैसे उसे चढ़ाया ‘‘बहुत ठीक अनुमान लगाये हो। और क्या बताता है तुम्हारा अनुभव। वैसे हमारा अनुभव कहता है कि तुम इधर के हो नहीं और वे धन्धा भी तुम्हारा बहुत पुराना नहीं है।’’
‘‘अरे! क्या बात पकड़ी है साहब, आपने। आखिर इसी को तो अनुभव कहते हैं। बाबू तो हमको निरा चाय वाला ही समझ रहे होंगे।’’ मुझ पर अपने हमले में वह कोई कमी नहीं होने दे रहा था। मैं समझ गया कि मेरे कुछ और बोलने पर वह कुछ ज्यादा ही तल्ख टिप्पणी करेगा इसलिए इस बार केवल मुस्कराकर रह गया।
मेरे मुस्कुराने को जैसे उसने अपनी हेठी समझा। एकदम अकड़कर बोला, ‘‘हम फौज में थे साहब। असम राइफल्स। 36 बटालियन।’’
‘‘उत्तर प्रदेश का आदमी, असम राइफल्स में। अच्छा।’’ मेरे मुँह से अनायास निकल गया।
‘‘वही तो आप तुरन्त शक कर रहे होंगे कि मैं यूँ ही हाँक रहा हूँ। लेकिन बाबू वह ज़माना दूसरा था, उस समय ऐसी कोई बात नहीं थी कि कोई दूसरे राज्य की यूनिट में भरती नहीं हो सकता।’’
‘‘अब भी ऐसी कोई बात नहीं है। भारत का कोई भी नागरिक किसी भी रेजिडेंट या बटालियन में जा सकता है।’’ राकेश भाई ने अपने ज्ञान से उसे दुरुस्त किया।
तब उसने मेरी तरफ़ ऐसे देखा जैसे मेरे अनुभवहीन होने की बात उसने कितनी सटीक कही थी
‘‘तो साहब, जैसे कि मैंने पहले बताया था, अपने बाप तक को कभी अपने आगे नहीं लगाया था, तो बाप से मेरी बनती नहीं थी! वो पक्का बनिया आदमी था साहब! यहीं इलाहाबाद में, कर्नलगंज में उसकी किराने की बड़ी-सी दुकान थी। तेल का भी अच्छा कारोबार था, आज भी आप कर्नलगंज में ‘पीपा सेठ’ के बारे में पूछेंगे, तो लोग उनकी कंजूसी और काइयाँगिरी के किस्से सुनाने लगेंगे।’’ बाप का ज़िक्र करते हुए उसका चेहरा वाक़ई कसैला हो गया था।
‘‘तो साहब, अम्मा तो थीं नहीं और बाप थे कसाई, हमें भी अपने जैसा बनाना चाहते थे कसाई, हमें भी अपने जैसा बनाना चाहते थे, तो एक दिन हमने भी बता दिया कि हम भी उन्हीं के लड़के हैं। गल्ले से सारा रुपया उठाया और स्टेशन पर पहली गाड़ी जहाँ की मिली, वहाँ नौ दो ग्यारह।’’
तो कहाँ की थी, पहली गाडी़।’’ उसके बताने के अन्दाज़ में मुझे भी रस आने लगा था । पहली बार उसने मेरे टोकने का कोई बुरा नहीं माना।
‘‘कलकत्ता की थी बाबू। और यदि जेब में पैसा हो तो कलकते का मजा तो पूछिये ही मत! और यदि जेब में पैसा हो तो कलकते की रौनक कुछ कम नहीं थी। वहीं एक होटल में बैरे का काम पकड़ लिया,और अपनी जिन्दगी अपने हाथ से लुटाने लायक़ बने रहे।’’
‘‘लेकिन फिर फौज में।’’ मेरी जिज्ञासा बढ़ गयी थी। लेकिन इस बार मेरी बेसब्री उसे थोड़ी खल गयी। उसने फिर मेरे युवा होने को मेरी बेसब्री का मूल माना, और छोटे-से क्षेपक के बाद फिर जैसे मेरी जिज्ञासा शान्त करते हुए बोला- ‘‘उस समय बाबू, नौकरी की ऐसी मारा-मारी नहीं थी। भगवान की दया से मेरा अभी का शरीर तो आप देख ही रहे हैं, उस समय तो, माशा अल्लाह हम फूटते हुए गबरू जवान थे। खड़े हुए, दौडे़ और जैसे ही सीना फुलाकर माप देने लगे कि अफसर ने लपककर सीने से भींच लिया – ‘स्साले ....। क्या खाकर सीना बनाया है तूने, 36 चाहिए, 56 है स्साले।’
‘‘तो साहब! पता चला कि हम तो आ गये, असम राइफल्स में, रातों रात।’’
‘‘वाह गुरु! ये तो रातों-रात किस्मत पलटने वाली बात हुई।’’ मेरी इस बात पर उसने मुझे ऐसे देखा जैसे मैंने कितनी ओछी बात कह दी हो।
‘‘किस्मत बाबू मेरी कब खराब थी। होटल में बैरा मैं अपनी मर्जी से था। और फौज में भी अपनी मर्जी से ही गया था। इसमें किस्मत को क्यों घसीट रहे हो।’’ उसने लगभग डाँटते हुए मुझे कहा।
राकेश भाई को उसका यूँ तैश में आना कुछ अच्छा नहीं लगा, उन्होंने लगभग टालते हुए कहा, ‘‘चलो ठीक है, तो तुम फ़ौज से रिटायर होकर इस ठिकाने पर हो, तभी तुम्हारी भाषा इधर की नहीं लगती।’’
‘‘भाषा तो साहब! मेरी किधर की भी नहीं लगेगी आपको। फ़ौज में तरह-तरह के लोग, तरह-तरह के लोग, तरह-तरह की उनकी बोली, तरह-तरह की उनकी आदतें ! अब जैसे मेरी आदत को ही लीजिए। इतना कडा़ अनुशासन या वहाँ सुबह-शाह परेड, फिजिकल, ड्रिल, लेकिन एक आदत हमारी छुटाये न छुटे-बीड़ी की आदत।’’
‘‘बीड़ी, बीड़ी तो छुपकर पीने में बहुत मुश्किल होती होगी।’’ मैंने एक नयी सिगरेट सुलगाते हुए पूछा।
‘‘मुश्किल किस बात में नहीं होती है बाबू, ग़रीब आदमी को तो हर बात में मुश्किल है।’’ वह अनायास दार्शनिक हो उठा। ‘‘ऐश तो बड़े आदमियों की ही है, आप जैसे बड़े अफ़सरों की है।’’
मेरे बारे में किसी ख़ास सूचना के बिना ही वह मुझ पर हमलावर था।’’ अब आप कितने आराम से सिगरेट फूँक रहे हैं जबकि साहब आपके पिता के उम्र के होंगे, लेकिन ये आपको कुछ नहीं कह सकते, क्योंकि आप अफ़सर हैं।’’
उसका यह हमला इतना बेलौस और अचानक था कि मैं पल भर में ही एक अयाचित झेंपूँ स्थिति में पहुँच गया था। अपने हाथ में सिगरेट थामें मैंने एक लाचार और लगभग कातर दृष्टि से राकेश भाई को देखा। राकेश भाई को लगा कि कहीं मैं उसके नैतिक हमले के दबाव में सिगरेट कुचल ही न दूँ, इसलिए उन्होंने हाथ बढ़ाकर मेरी उँगलियों से सिगरेट निकाल ली और मुट्ठी बन्द कर एक जोर का सुट्टा खींचकर फिर मेरी ओर बढ़ा दी। मैंने कभी उनको सिगरेट पीते नहीं देखा था, लेकिन अपने अनुभव से उन्होंने एक झटके में मुझे दुविधा से उबार लिया था। उनकी इस त्वरित कार्रवाई पर वह धीमे से मुस्कुरा उठा- ‘‘ग़जब साहब। आपने यूँ ही धूप में बाल नहीं पकाये हैं। नहीं तो बाबू तो अभी शर्मिन्दा हो ही गये थे।’’ वह खुलकर हँसा। उसकी हँसी मेरे गले में ख़राश बनकर उतर गयी।
‘‘तो साहब, परेशानी तो थी ही छुपकर बीड़ी पीने में, आखिर मैं कोई अफ़सर तो था नहीं.... लेकिन जहाँ चाह-वहाँ राह। ड्यूटी बाँटने वाला सुबेदार भी अपनी ही तरफ का था। बिहार का, गया जि़ले का।’’
‘‘अच्छा, गया तो बहुत फेमस है बिहार में।’’ राकेश भाई ने केवल बात पर एक ताल दी। लेकिन उसने उस ताल को अपनी बात में बात के लय में डुबो दिया।
‘‘तो बाबू हमने उससे कह सुनकर अपनी ड्यूटी लगवा ली थी गारद में! गारद समझते हैं आप लोग।’’
‘‘अरे हाँ भाई! खूब समझते हैं, गारद मतलब शस्त्रागार, जहाँ हथियार वगैरह रखे जाते हैं।’’ राकेश भाई ने कहकर उसे विजेता के से अन्दाज़ में देखा। लेकिन वह तो जैसे उनसे पहले से ही पराजित था – ‘‘ सही, एकदम सही साहब ! वही गारद होता है, और वहाँ चौबीस घंटे की पहरेदारी होती है। एकदम अटूट पहरेदारी, आठ-आठ घंटे की शिफ्ट में, क्या मजाल कि पहरे पर कोई पलक भी झपका ले जाय।’’ गारद की पहरेदारी के बयान से जैसे उसका सीना फूलने लगा था।
‘‘तो उसी गारद में अपनी ड्यूटी लगवा ली थी मैंने। रात की शिप्टवाली। आराम से खाना-वाना खाकर दस बजे गारद ड्यूटी पर चले जाओ, और नींद तो हमको वैसे भी नहीं आ सकती थी।’’
‘‘क्यों, नींद से क्या बैर था भाई।’’ राकेश भाई अब तक उसकी बात में गालिब हो चुके थे।
‘‘बैर-भाव कुछ नहीं, साहब। वैसे गारद की ड्यूटी का भौंकाल ही बड़ा होता है। एक –दो घंटे चुस्ती से खड़े रहिए, फिर आराम से बारह-एक बजे के बाद बैठकर हम्लोग तोश खेलते थे। और फिर मेरी वो आदत-बीड़ी पीने की। तो आराम से वहाँ बीड़ी पीजिए। रात में गारद की तरफ़ कौन आता है।’’
‘‘तब तो खूब मजे़ में कटी होगी तुम्हारी ....’’ ‘‘हाँ, कट ही रही थी, मजे़ में लेकिन कहते हैं न कि बहुत अधिक निश्चिन्त ता कभी-कभी प्राण घातक हो जाती है।’’
प्राण घातक कहने से जैसे उसकी कहानी में अचानक वीर रस का संचार हो गया। हमारे भी कान किसी अनहोनी को सुनने लिए खड़े हो गये !
‘‘तो क्या, कभी गारद पर हमला हो गया था। असम में उग्रवादी भी तो बहुत होंगे उस समय।’’ राकेश भाई ने अपने जानते सटीक रिजनिंग लगायी।
‘‘नहीं साहब। उग्रवादी तो थे ही, लेकिन वे सेना की टुकड़ी पर हमला करने की हिम्मत नहीं कर सकते। वो तो ज्या़दा-से-ज्या़दा सी.आर.पी.एफ. तक को अटैक कर सकते हैं ! हम भारतीय फौज थे, इंडियन आर्मी। हम पर कौन अटैक कर सकता है।’’ कहते-कहते वह खड़ा हो गया और हाथ-पैरों को ‘वार्मअप होने के स्टाइल में हिलाने लगा।
‘‘तो, प्राणघात क्या हुआ था,’’ राकेश भाई उने अनुमान के ग़लत हो जाने से शायद खीझ से गये थे।
‘‘साहब! आर्मी में सबसे जानलेवा होता है, अनुशासन। जब तक आप पर कोई ध्यान नहीं दे रहा, तब तक तो आप मजे़ में हैं। लेकिन यदि आप किसी अफ़सर की नज़र में चले गये तो फिर गये आप से आप ! अनुशासन मतलब अफसर की नज़र में ऑल राइट।’’
‘‘अच्छा,’’ तो पकड़े गये तुम बीड़ी पीते हुए ...’’ राकेश भाई ने बात को जैसे गति देने की कोशिश की। नहीं तो उसकी सुई अनुशासन और अफ़सर पर ही अटक जाती।
‘‘हा .... हा.....हा... ’’ उसने जोर का ठहाका लगाया। ‘‘यही तो बात है, साहब असली कहानी तो यही है ....’’ पक्के कहानीबाज़ की तरह उसने अपनी बात अधूरी छोड़ी।
‘‘पकड़ा नहीं गया था ...... देखा गया था ....... बीड़ी पीते हुए।’’ ‘‘अरे देखे गये थे, मतलब पकड़े ही तो गये होंगे।’’ मैंने बहुत देर बाद उसकी बात में दख़ल दिया !
‘‘यही तो बात है। देखा था अफ़सर ने मुझे बीड़ी पीते हुए, लेकिन पकड़ नहीं पाया।’’ अपने मूँछों को सहलाते हुए उसने कहा। ‘‘दर असल उस दिन ठंड कुछ ज्या़दा ही थी। दस बजे हैं ड्यूटी पर गया और थोड़ी देर बाद ही मुझे जा़रों की तलब लगी। बन्दूक को कमर से टिकाये जैसे ही मैंने बीड़ी जलाने के लिए तीली जलाई, वैसे ही गाड़ी की एक तेज़ हैडलाइट मेरे चेहरे को छूती-सी गुज़र गयी। कर्नल साहब उस दिन क्लब से शायद देर से लौट रहे थे, और हमें पता ही नहीं था।
‘‘अच्छा, फिर ...’’
‘‘हैडलाइट इतनी साफ़ पडी थी मेरे चेहरे पर कि मेरा कलेजा तो धक्क रह गया, कर्नल साहब यदि गाड़ी चला रहे थे तो उन्होंने जलती तीली जरूर देख ली होगी। और वह कर्नल था भी बड़ खब्ती! नयी उम्र का था, नया-नया अफ़सर। गुस्सा तो जैसे साले की नाक पर ही बैठा रहता था। और यदि उसने देख था मुझे इस हालत में तो उसे मेरे पास आना ही था।
‘‘और साहब! मेरा अन्दाजा एकदम सही था। थोड़ी ही देर में सायरन बजने लगा। सावधान, होशियार की आवाजें आने लगीं। मैं समझ गया कि आज तो मेरा खुद ही मालिक है। दस मिनट के अन्दर कर्नल की कार मेरे आगे। मैं दम साधे खड़ा रहा ! कर्नल गाड़ी से उतरा। नशे में धुत्त! मैंने भी एड़ी पटककर जोरदार सैल्यूट ठोका – जय हिन्द सर!
‘‘उसने सैल्यूट की कोई नोटिस नहीं ली। सीधा मेरे आगे खड़ा हो गया-तुम बीड़ी जला रहे थे, नशे की लरज के बावजूद उसकी आवाज़ ऐसी कड़क थी कि मेरे होश फ़ना हो गये।
‘‘लेकिन मैं भी साहब, जान का सवाल था, फिर एड़ी पटकी और कहा – नहीं सर! ऐसा कुछ नहीं था।
‘‘अच्छा, हम दोनों के मुँह से एक साथ निकला।’’
‘‘हाँ साहब! लेकिन कर्नल तो कर्नल, उसने तीली जलाते हुए मुझे साफ़ देखा था। एक क्षण के लिए उसे लगा कि कहीं नशे में होने के कारण उसे मतिभ्रम तो नहीं हो गया था। लेकिन वह कर्नल था, फौज का कर्नल। यदि उसे ही मतिभ्रम होने लगे वो भी नशे में, तो यह उसके लिए जैसे डूब मरने की बात थी। वह मान ही नहीं सकता था कि उसे कुछ धोखा भी हो सकता है।
‘‘उसने कहा कुछ नहीं। केवल अपने साथ के कमांडेंट को मेरी तलाशी लेने को कहा। मैं चुपचाप खड़ा रहा। तलाशी पूरी हुई लेकिन मिला कुछ नहीं, मैं एकदम सावधान की मुद्रा में डटा रहा।
‘‘कर्नल का मिजाज भन्ना रहा था। उसने मुझे साफ़ तौर पर तीली जलाते हुए देखा था, और तलाशी में कुछ भी बरामद नहीं!
‘‘उसका वश चलता तो वहीं वह खड़े-खड़े मेरा कोर्टमार्शल कर देता, लेकिन उसके लिए पहले सबूत तो हो।’’
‘‘तो कहाँ छुपा दी थी, तुमने तीली और बीड़ी,’’ राकेश भाई ने हँसते हुए पूछा।
‘‘यही तो साहब, कर्नल भी जानना रहा था। आखिर उसने अपनी आँखों से देखा था।’’
‘‘उसका चेहरा क्रोध से तमतमा रहा था। उसने कमांडेंट के कान में कुछ कहा, और वापस चला गया। मैं जानता था कि वह यूँ ही वापस जानेवालों में नहीं था। आखिर अफ़सर था, युवा था बाबू की तरह क्यों बाबू।’’ वह मेरी तरफ़ मुखातिब हुआ।
मैं जैसे नींद से जागा हाँ तो फिर क्या किया उसने। मेरी भी उत्सुकता बढ़ गयी थी।
‘‘करना क्या था, वापस आया वह, पूरे दल-बल के साथ। सर्चलाइट लिए हुए! और लगभग आधे घंटे तक मेरे आसपास के आधे किलोमीटर के एरिया तक का एक-एक तिनका छान मारा उसने। लेकिन साहब, न तो वह बीड़ी हाथ आयी और नहीं वह जली हुई तीली।’’
‘‘अच्छा कहाँ फेंक आये थे तुम,’’ राकेश भाई की आवाज़ में भी परम जिज्ञासा थी।
‘‘वही तो!’’ वह भी आसानी से कहानी के रोमांच को तोड़ना नहीं चाह रहा था।
‘‘कर्नल परेशान, उसके लगुए- परेशान। एकदम से हकीकत में जिसे कहते हैं, चप्पा-चप्पा छान मारना, वैसी तलाशी हुई उस दिन, लेकिन सबूत को नहीं मिलना था, नहीं मिला।
‘‘लाचार होकर कर्नल लौटा, जैसे अपनी कोई पोस्ट हार गया था वह! वहाँ से गया, और कमरे में बन्द। एकदम से तीन दिन तक बाहर नहीं निकला।’’
‘‘अच्छा! क्या करता रहा तीन दिन कमरे में।’’
करता क्या रहा, बाल नोचता रहा। शराब पीता रहा। आखिर उसने अपनी आँख से देखा था, साहब। वह कैसे मान ले कि यह केवल नज़र का धोखा था। और बात सच भी थी तीली तो जलाई थी ही मैंने और उसने देखा तो सही ही था।
‘‘तीन दिन बाद वह अपने कमरे से निकला। लोग उसकी हालत देखकर डरे हुए थे। आँखें लाल-लाल, बाल बिखरे हुए, पपोटे सूजे हुए।
‘‘उसने सारे ऑफिसर्स को तलब किया और बोला, - यह हो नहीं सकता कि मेरी नज़र ने धोखा खाया हो, तीली उस जवान ने जलायी थी और यह मैंने अपनी आँखों से देखा था। लेकिन यह भी सच है कि इस बात का कोई सबूत मेरे पास नहीं है। यदि मुझे सबूत नहीं मिला तो मुझे सेवा में रहने का कोई हक नहीं। मैं रिजाइन कर दूँगा। उसने सारे ऑफिसर्स से राय माँगी कि वे किसी भी तरह उसके देखे हुए सच को सच साबित करें।’’
‘‘अच्छा, बात इतनी बढ़ गयी, अरे एक बीड़ी के लिए.......’’ राकेश भाई ने उसे टोका।
‘‘बात अब बीड़ी कहाँ रह गयी थी साहब! बात तो उस कर्नल की काबिलीयत तक चली गयी थी। उसकी जिद के लिए एक-एक तिनके को खोद डाला गया था और पूरी यूनिट इसकी गवाह थी।
‘‘यदि सबूत नहीं मिला तो समूचे यूनिट में कर्नल की क्या इज्ज़त रह जाती। एक शराबी की। जो कुछ भी धोखे से देख सकता है।
‘‘तो साहब! मीटिंग में जितने लोग, उतने सुझाव। किसी ने कहा दो झापड़ लगाकर सच उगलवा लेते हैं, कोई तो थर्ड डिग्री तक उतर आया था।’’
‘‘लेकिन वह कर्नल था, कोई ऐसी-वैसी बात जो कानून सही न हो उसकी इमेज को और गिरा सकती थी।’’
‘‘हाँ सही बात है।’’ मैंने एकदम से कहा। ‘‘आखिर जब सबूत ही नहीं है तो सजा किस बात की।’’
‘‘वही, वही बात थी।’’ पहली बार वह मेरी प्रतिक्रिया के प्रति इतना उदार और सकारात्मक था।
‘‘लेकिन उस मीटिंग में एक अनुभवी आदमी भी था साहब। आपकी ही उमर का रहा होगा, वह उस समय। वह राकेश भाई से मुखातिब था। सूबेदार था और दूसरे ही दिन रिटायर होने वाला था।’’
‘‘अच्छा।’’ राकेश भाई ने मुस्कुराते हुए मेरी तरफ़ देखा।
‘‘हाँ साहब! जब सब बोल चुके, तो उसने कहा, --सर ! वैसे तो मैं ओहदे में आप सबसे नीचे हूँ। लेकिन इजाज़त हो तो मुझे एक मौका आजमाने दिया जाय।
‘‘कोई और समय होता तो लोग उसे आँखों से ही चुप करा देते, लेकिन उसकी इस बात से कर्नल को जैसे कोई उम्मीद- सी जगती दिखी।
‘‘उसने कहा, -बिल्कुल इजाज़त है, कुछ भी करो, लेकिन किसी भी तरह सबूत लाओ।
- सर लेकिन वचन देना होगा कि यदि जवान ने सच क़बूल लिया तो आप फिर उसे कोई सजा नहीं देंगे। सुबेदार जैसे अपनी तरकीब पर आश्वस्त था।
‘‘साहब, कर्नल को उसे वचन देना पड़ा। आखिर अब क्रोध और अनुशासन से मामला बन्द कर खुद कर्नल के यकीन और भ्रम का हो गया था।
‘‘आखिर सूबेदार के कहने पर मुझे बुलवाया गया।
‘‘मैं बागवानी की अपनी ड्यूटी पर था। मैं समझ गया था कि उसी मामले में मेरी पेशी है, लेकिन जब कुछ मिला ही नहीं, तो मुझे डरने की कोई जरूरत भी नहीं थी।
‘‘मैं सीधे मीटिंग रम में ही लाया गया। यूनिट के तमाम ऑफिसर्स को एक साथ देखकर मैं भी थोड़ी देर के लिए दहल गया। लेकिन चुपचाप सैल्यूट मारकर तनकर खड़ा रहा।’’
‘‘फिर,’’ हमारा तनाव भी चरम पर था। मैंने एक और सिगरेट सुलगा ली।
‘‘फिर क्या साहब, उस अनुभवी सूबेदार ने सीधे मेरे कन्धे पर हाथ रखा और मेरी आँख में आँख डालकर बोला, -- देखो बेटा, बात अब सजा़ और अनुशासन से बहुत ऊपर उठ चुकी है। बात अब कर्नल साहब के देखे हुए सच के यकीन का है। मैं सारी बातों को हटाकर, सिर्फ़ एक बाप होकर अपने बेटे से पूछता हूँ कि आखिर सच क्या था।
‘‘साहब! काश,उस सूबेदार को मेरे और मेरे बाप के रिश्ते के बारे में थोड़ा भी पता होता। बाप से मेरा क्या मतलब। उस बाप से जिससे मैंने कभी कोई मतलब रखा ही नहीं।
‘‘लेकिन साहब। उस सूबेदार आँख में जाने क्या था, और उसकी पकड़ में क्या जादू था कि मुझे मेरे बाप की बेतरह याद आने लगी। उसकी याद से ज्यादा, मेरा करम मुझे याद आने लगा, मेरी ज्या़दातियाँ जो मैंने उससे की थीं। आखिर एक ही बेटा था मैं उसका और एक पल के लिए लगा कि जैसे मेरा बाप ही मेरे आगे गिड़गिड़ा रहा हो।
‘‘और साहब! बाप का वास्ता,ऐसा लगा मुझे कि मैंने भी सोच लिया, जो होगा देखा जाएगा। सच बता ही देता हूँ। जब बाप ही इस हाल में सच की दुहाई दे रहा है तो मैं भी इसी बाप का बेटा हूँ।
‘‘मैंने भी तनकर कहा - चाचा! आप बाप बनकर ही पूछ रहे हैं, तो सच वही है जो कर्नल साहब ने देखा था। तीली जलाई थी मैंने।
‘‘सारे अफ़सर आवक। कर्नल का चेहरा जैसा पिघल रहा था, उसकी काँपती-सी आवाज़ निकली लेकिन वो तीली....... वो बीड़ी .......।
‘‘साहब, आज भी है, राइफल नं. 292 के बैर में, वह तीली और बीड़ी अभी भी मौजूद है। मैंने भी जान पर खेलकर सैल्यूट ठोकते हुए जवाब दिया। अब मुझे किसी बात की परवाह नहीं थी। बाप का हक़ अदा कर दिया था मैंने।
कहकर वह तनकर खड़ा हो गया और हम दोनों ने लक्ष्य किया कि आखिरी वाक्य बोलते हुए उसकी आवाज़ भर्रा गयी थी।
‘‘फिर ......। फिर क्या हुआ ...... मैं और आगे जानना चाह रहा था।’’
‘‘फिर क्या होना था इनाम –इकराम पार्टी-शार्टी और क्या।’’ कहता हुआ वह आगे बढ़ गया। तभी वह बच्चा चाय लेकर आ गया। हम तो जैसे चाय को भूल ही गये थे। हम चुपचाप चाय पीकर वापस हो लिये।
सेमिनार जब शुरू हुआ तो मैंने गाँधीजी पर बहुत साधारण-सी ही बातें कहीं। कहीं तो उनके त्याग और उपवास के प्रसंग पर मैं भावुक भी हो गया। राकेश भाई अवाक थे कि यह अचानक मुझे क्या हो गया था। इस बात पर तो उन्होंने मुझे आँख तरेर कर भी देखा कि वे राष्ट्रपिता के तौर पर हमेशा हमारे भीतर एक सातत्व की तरह जीवित रहेंगे। लेकिन मैं इतने रौ और उत्साह में था कि राकेश भाई की तरफ़ से आँख फेर लेने में मुझे कोई झिझक या शर्म नहीं महसूस हुई।