पहली सुबह
पहली सुबह
दो साल हो गए इस शहर में आए। इन सब में पता ही नहीं चला कि मैं कब नैनीताल के रंग में घुल गया। न जाने कब यहां की हवा मुझे बीते दिनों की याद दिलाने लगी। शहर की सभी प्रसिद्ध जगहें देखीं पर इन दो साल में कभी यहां की सुबह नहीं देखी। अक्सर सुबह देर से सोकर उठता था। एक दिन हॉस्टल के बगल वाले रूम में सुबह शोर के चलते मैं जल्दी उठ गया। सोचा पास वाले माल रोड की चाय का ही आनंद ले लूं।
हल्की सी ओस के बीच लोग दुबके अपनी मंजिल की ओर आगे बढ़ रहे थे। तभी एक तस्वीर धीरे-धीरे बड़ी होती सी नजर आ रही थी। गीले बालों को सुलझाते हुए वह चौराहे की तरफ बढ़ रही थी। नीला कोट, सफेद शर्ट उसपर ब्लू और वाइट टाई। इंटर की स्टूडेंट लग रही थी। बार-बार अपने चेहरे पर आते बालों को हटाते हुए हर बार मेरे दिल पर कोई जादू सा कर रही थी। उसकी जुल्फों में मैं उलझ जाना चाहता था। कम से कम अपने बालों के बहाने मुझे सुलझाती।
सर्दी से नाक जरा लाल हो गई थी। उस लाल रंग से तो जैसे मेरी अलसाई आंखे पूरी तरह खुल चुकी थीं। उसका चेहरा तो जैसे मेरे दिल की हार्डडिस्क में हमेशा के लिए सेव हो गया था। कुछ और भी कहना चाहता था उससे। प्यार तो नहीं हुआ पर हां उसे यह जरूर बताना चाहता था कि जल्दी उठने का मॉर्निग ने बहुत अच्छा प्रजेंट दिया था। इससे पहले कुछ कहने की हिम्मत जुटा पाता उसकी बस आ गई और वह चल गई। अखों के सामने से वह सुदंर नजारा दूर जा रहा था वहीं मेरे चाय का गिलास भी अब खाली हो चुका था।
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बस यहीं से मेरे भीतर एक अजीब सी हलचल शुरू हुई। वह सुबह मेरी जिंदगी की सबसे खास सुबह बन गई। नैनीताल का जो सौंदर्य अब तक सिर्फ झील, पहाड़ और बाजार तक सीमित था, अचानक उसमें उस लड़की की मौजूदगी शामिल हो गई थी। माल रोड के किनारे खड़ा मैं दूर जाती उस बस को तब तक देखता रहा, जब तक वह धुंध में पूरी तरह गायब न हो गई।
मैंने गहरी सांस ली। चाय का खाली गिलास हाथ में था और दिल में एक अजीब सी अधूरी चाहत। मन में यह सवाल भी घूम रहा था कि कौन थी वह? कहां रहती होगी? रोज इसी रास्ते से गुजरती होगी या यह संयोग था?
उसके जाने के बाद भी वह सुबह मेरे चारों ओर बिखरी रही। सर्द हवा में उसकी जुल्फों का झोंका महसूस होता, और जब कोई राहगीर खांसता तो मुझे उसकी लाल नाक याद आ जाती। मैं सोचने लगा कि अगर मैं रोज़ सुबह यहां आता तो शायद उसे फिर देख पाता। यह विचार इतना प्रबल था कि मैंने वहीं तय कर लिया—कल से मैं जल्दी उठूँगा, चाहे हॉस्टल में रात कितनी भी देर तक जगना पड़े।
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उस दिन बाकी का वक्त अजीब बेचैनी में गुजरा। क्लास में प्रोफेसर इकोनॉमिक्स के ग्राफ समझा रहे थे, लेकिन मेरे दिमाग में सिर्फ वही तस्वीर घूम रही थी—नीला कोट, सफेद शर्ट, और चेहरा जिस पर सुबह की ओस जैसी ताजगी थी। किताब के पन्नों पर लिखे शब्द धुंधले से दिखते और बीच-बीच में उसकी मुस्कराहट उभर आती।
शाम को झील के किनारे दोस्तों के साथ बैठा भी रहा, मगर उनका हंसी-मजाक मुझे छू भी नहीं पाया। जब भी पानी पर हल्की-हल्की लहरें उठतीं, मुझे लगता जैसे उसके कदमों की आहट है। मेरे लिए नैनीताल की पूरी शाम उस सुबह की याद में कैद हो चुकी थी।
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अगली सुबह मैं अलार्म बजने से पहले ही उठ गया। नींद कम हुई थी लेकिन दिल में जो उत्सुकता थी उसने थकान को महसूस ही नहीं होने दिया। जल्दी-जल्दी तैयार होकर मैं उसी माल रोड की ओर निकल पड़ा। ठंडी हवा और हल्का कोहरा अब मेरे लिए मायने ही नहीं रखते थे। आंखें लगातार उसी दिशा में टिकी रहीं, जहां कल उसने कदम बढ़ाए थे।
कुछ ही देर बाद वही नीला रंग धुंध से उभरने लगा। मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगा। वह फिर से आई थी। आज उसके बाल खुले थे और वह उन्हें उंगलियों से संवार रही थी। वह बस स्टैंड की ओर बढ़ रही थी। मैं वहीं खड़ा बस देखता रह गया।
आज भी उसकी बस आ गई और वह उसमें बैठकर चली गई। मैं एक बार फिर खाली गिलास और भरे हुए दिल के साथ खड़ा रह गया।
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धीरे-धीरे यह एक आदत बन गई। हर सुबह मैं वहां खड़ा होता और उसे देखता। कभी वह जल्दी आती, कभी थोड़ी देर से। कभी उसके बाल गीले होते, कभी सूखे। कभी वह दोस्तों के साथ होती, कभी अकेली। मगर हर बार मेरे दिल में वही बेचैनी, वही तड़प जागती।
मैंने कभी उससे बात करने की हिम्मत नहीं जुटाई। बस चुपचाप देखता रहा। कई बार सोचा कि पास जाकर कह दूं—“हाय, मैं भी यहां पढ़ता हूं।” लेकिन फिर डर लगता कि कहीं वह बुरा न मान जाए। या शायद मुस्कराकर आगे बढ़ जाए और मेरी सुबहों का यह जादू टूट जाए।
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इन सुबहों ने मेरी जिंदगी की रफ्तार बदल दी। जहां पहले मैं देर तक सोता था, अब सूरज उगने से पहले ही माल रोड पर पहुंच जाता। चायवाले अंकल ने भी ध्यान देना शुरू कर दिया था। एक दिन उन्होंने हंसते हुए कहा, “बेटा, चाय का स्वाद बदल गया है क्या? रोज़-रोज़ इतनी सुबह?” मैं मुस्कराकर रह गया। क्या कहता उनसे कि चाय में अब एक चेहरा घुल चुका है, और वही मुझे खींच लाता है।
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धीरे-धीरे मैंने उसके बारे में जानने की कोशिश शुरू की। एक दिन देखा कि उसकी ड्रेस पर स्कूल का बैज था—“सेंट जोसेफ्स गर्ल्स इंटर कॉलेज।” यह जानकारी मेरे लिए बहुत बड़ी थी। कम से कम अब इतना तो पता चल गया कि वह कहां पढ़ती है।
हफ्तों बीतते गए। मैं उसे बस देखता और उसके जाने के बाद पूरे दिन उसी के बारे में सोचता। कभी कल्पना करता कि अगर उससे दोस्ती हो जाए तो हम साथ झील किनारे टहलें। कभी सोचता कि अगर वह मेरी क्लासमेट होती तो शायद मैं उसके बगल में बैठकर नोट्स लिखता।
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लेकिन हकीकत यह थी कि मैं सिर्फ एक अनजान चेहरा था, जो रोज़ सुबह उसकी झलक पाने माल रोड पर आ जाता था। वह शायद मुझे नोटिस भी न करती हो।
फिर भी, मुझे लगता था कि कभी-कभी उसकी आंखें मेरी ओर ठहर जाती हैं। जैसे वह भी जानती हो कि कोई है जो चुपचाप उसे देखता है।
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एक दिन अचानक मौसम ने करवट ली। ठंडी हवा के साथ बूंदाबांदी शुरू हो गई। मैं फिर भी माल रोड पर खड़ा रहा। भीगने की परवाह नहीं की। और तभी वह आई—छतरी हाथ में लिए, मुस्कराते हुए। उस दिन पहली बार उसने मेरी ओर सीधे देखा। उसकी आंखों में जैसे सवाल था—“तुम रोज़ यहां क्यों होते हो?” मैं कुछ कह नहीं पाया। बस मुस्कराकर नजरें झुका लीं।
उसके बाद वह हमेशा थोड़ी देर के लिए मेरी ओर देखने लगी। यह मेरी सुबहों का सबसे बड़ा इनाम था।
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समय बीतता गया। सर्दियां खत्म हुईं और वसंत आने लगा। झील के किनारे फूल खिलने लगे। लेकिन मेरी सुबहों की आदत वही रही। कभी-कभी दोस्तों को बहाना बनाकर बताता कि मैं वॉक पर जा रहा हूं, पर असल वजह वही थी।
अब मैं खुद को समझा चुका था कि शायद यही रिश्ता काफी है—दूर से देखना, मुस्कान बांटना, और फिर दिन भर उसी याद में खोए रहना।
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लेकिन दिल मानता कहां है। हर सुबह उम्मीद होती कि आज शायद कुछ होगा। शायद आज उससे बात हो जाएगी। शायद आज वह खुद कुछ पूछ लेगी।
कभी सोचता, अगर मैंने उस दिन चाय का गिलास खत्म होने से पहले हिम्मत जुटा ली होती, तो शायद कहानी कुछ और होती। लेकिन फिर लगता कि शायद यही अधूरापन सबसे सुंदर है।
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आज भी वही सिलसिला जारी है। दो साल पहले जिस नैनीताल में मैं अजनबी सा महसूस करता था, अब वह मेरी रगों में बहता है। यहां की झील, यहां का कोहरा, यहां की माल रोड—सब उस एक चेहरे से जुड़ गए हैं।
सुबह की चाय अब सिर्फ पेय नहीं रही, वह एक एहसास है। और वह एहसास मुझे याद दिलाता है कि जिंदगी की सबसे खूबसूरत बातें अक्सर अधूरी रह जाती हैं।

