मैंने उसे देखा था.....
मैंने उसे देखा था.....
अध्याय 1: पहली नज़र
चारबाग का बस स्टॉप हमेशा थोड़ा भीगा हुआ लगता था — चाहे बारिश हो या न हो। पक्की सड़क पर पानी की गहराई नहीं होती थी, मगर धूल और तेल का एक पतला-सा फिसलनभरा लेप ज़रूर होता था, जैसे कोई गुप्त परत हो जो हर सुबह उतरती हो और शाम को फिर जम जाती हो। उस स्टॉप पर हमेशा कोई न कोई भीड़ में किसी को ढूंढता रहता था।
अनय त्रिपाठी, एक 26 वर्षीय ग्राफिक डिज़ाइनर, लखनऊ के हजरतगंज इलाके में एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था। हर सुबह उसकी दिनचर्या में चारबाग से एक बस पकड़ना शामिल था, जिससे वह काम पर जाता था। लेकिन उसके जीवन में कोई खास उद्देश्य नहीं था — बस एक मशीन की तरह दिन काट रहा था।
उस दिन भी वह उसी तरह तैयार हुआ — हल्की सी प्रेस की हुई ग्रे शर्ट, काले ट्राउज़र, और कंधे पर झूलता हुआ एक पुराना सा लैपटॉप बैग। वह चुपचाप स्टॉप की ओर चला, रोज़ की तरह। जब वो स्टॉप पर पहुँचा तो वहाँ रोज़ की तरह भीड़ थी, सड़कों पर हॉर्न की आवाजें, चाय की गुमटी से उठती भाप, और ऑटो वालों की पुकारें।
तभी एक पुरानी नीली बस, चिर्र्र्र्र की आवाज़ के साथ रुकती है। बस की खिड़की पर बैठी एक लड़की उसकी नज़र में आ जाती है। उसके बाल खुले हैं, चेहरा खिड़की की ओर झुका हुआ, आँखें बाहर की भीड़ को पार देख रही थीं — जैसे कि वो लखनऊ की इस भीड़ में कहीं नहीं है, किसी और दुनिया में है। उसके हाथ में एक भीगी हुई नीली छतरी थी और उसके कानों में हेडफोन लगे थे।
अनय की साँस कुछ पल के लिए थम सी गई। वो बस खड़ा देखता रहा। उसके भीतर जैसे एक अनजाना सा कंपन हुआ — बिना किसी कारण के, बिना किसी शब्द के। लड़की ने न उसकी तरफ देखा, न कोई इशारा किया, बस बैठी रही — मगर वो दृश्य अनय के दिल में दर्ज हो गया।
बस चल दी। धुआँ उठा, आवाज़ें लौटीं। मगर अनय वहीं खड़ा रहा — ठगा सा। उसे नहीं पता चला कि वह कितनी देर तक बस को जाते हुए देखता रहा।
तभी किसी ने उसे हल्का धक्का दिया।
“भइया, हटिए न ज़रा, बस पकड़नी है!”
वो चौंककर पीछे हटा और चुपचाप दूसरी दिशा में चल दिया। पर उस दिन के बाद कुछ बदल गया था। अनकहा, अनजाना।
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अध्याय 2: आदत
अगले दिन सुबह अनय और जल्दी घर से निकला। घड़ी में देखा — समय अभी भी 15 मिनट बाकी था, मगर उसके कदम खुद-ब-खुद चारबाग की ओर बढ़ गए।
वो चाय की गुमटी के पास खड़ा रहा, जहाँ गुप्ता चाचा रोज़ चाय बनाते थे। आज उसने चाय नहीं ली। बस वहाँ खड़ा रहा, जैसे कुछ इंतज़ार कर रहा हो।
तभी वही नीली बस फिर आई। और हाँ — वो लड़की भी। आज भी खिड़की की उसी सीट पर बैठी थी। उसके बाल आज थोड़े बंधे हुए थे, मगर वही आँखें, वही नीली छतरी, और वही मौन मौजूद था।
अनय के होंठों पर अनजाने में एक मुस्कान आई। उसके मन में हलचल हुई — क्या वो मुझे पहचानती है? क्या उसने देखा कि मैं उसे देखता हूँ?
बस कुछ ही पल में चल दी। लेकिन उस चंद सेकंड की मुलाक़ात जैसे अनय के दिन का केंद्र बन गई।
अब ये रोज़ की आदत बन गई। वो उसी वक़्त आता, उसी जगह खड़ा होता, और उसी बस का इंतज़ार करता। कभी-कभी वो उसकी आँखों में झाँकता, कभी वो खिड़की के पार देखती रहती। लेकिन शब्द — वो कभी नहीं आए। न उस दिन, न अगले दिन।
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अध्याय 3: गुप्ता चाचा की दुकान
गुप्ता चाचा चारबाग के सबसे पुराने चाय वालों में से एक थे। उनकी चाय में मसाले कम और समझदारी ज़्यादा होती थी। उन्होंने शहर को बदलते देखा था — बसें बदलती रहीं, चेहरे आते-जाते रहे, मगर उनकी दुकान वहीं रही।
“कई दिनों से देख रहा हूँ बाबू, तुम उसी बस की ओर देखते हो।”
अनय चौंक गया। उसने पहली बार गुप्ता चाचा की ओर ध्यान दिया।
“पहले बस आती थी, अब तुम आने लगे हो। अजीब बात है न?”
अनय ने मुस्कराकर सिर हिला दिया। वो खुद नहीं समझ पा रहा था कि ये सब क्या था। बस एक आदत, या कुछ ज़्यादा?
गुप्ता चाचा ने उसे चाय थमाई और मुस्कराए, “देखते रहो। कभी-कभी देखने से ज़्यादा कुछ नहीं चाहिए होता।”
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अध्याय 4: बारिश
बारिशों का मौसम आ चुका था। लखनऊ की सड़कों पर पानी भरने लगा था, बस स्टॉप की छतें टपकने लगी थीं। मगर अनय की दिनचर्या अब भी वही थी।
उस दिन तेज़ बारिश हो रही थी। अनय पूरी तरह भीग चुका था, लेकिन फिर भी उसने छतरी नहीं खोली। उसकी नज़रें सड़क पर थीं, और मन किसी एक पल के इंतज़ार में।
बस आई। खिड़की पर पानी की धारें थीं, लेकिन फिर भी उसकी नज़र उस चेहरے को पहचान गई। श्रेया — अब उसे उस लड़की का नाम भी पता था। एक दिन उसने गुप्ता चाचा से पूछ ही लिया था।
उसकी गोदी में वही नीली छतरी थी — बंद, मगर अब भीगने से बेपरवाह। उसने पहली बार खिड़की से बाहर देखा।
सीधा अनय की आँखों में।
दोनों की नज़रें कुछ पल टकराईं। फिर वो मुस्कराई। हल्की-सी, जैसे किसी अनजाने रिश्ते की स्वीकृति हो।
अनय को लगा, ये सिर्फ़ एक शुरुआत है। शायद अब कुछ बदलने वाला है।
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अध्याय 5: मुस्कान
अब हर दिन दोनों की नज़रें मिलती थीं। कभी क्षण भर के लिए, कभी थोड़ी देर। मुस्कानें अब आदान-प्रदान होती थीं। शब्द अब भी नहीं थे, लेकिन मौन में भी एक संवाद था।
अनय अब उससे बात करने की सोचने लगा था। उसने तय किया — कल। कल कहूँगा, “मैं तुम्हें रोज़ देखता हूँ... बस इतना ही कहना था।”
वो घबराया हुआ था, मगर उत्साहित भी। शायद कल उसका मौन टूटेगा।
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अध्याय 6: वह दिन
उस दिन सुबह अनय ने नई शर्ट पहनी। बाल संवारे। थोड़ा परफ़्यूम लगाया। कुछ ज़्यादा ही तैयारी की।
गुप्ता चाचा ने उसे देखा और मुस्कराए, “आज कुछ खास है क्या?”
अनय ने सिर्फ़ सिर झुका लिया। वो जल्दी स्टॉप पहुँचा।
बस आई — मगर आज श्रेया खिड़की के पास नहीं थी। वो बस के अंदर खड़ी थी, टिकट पकड़ती हुई, भीड़ में फँसी हुई।
अनय ने पहली बार बस की ओर कदम बढ़ाए।
तभी तेज़ रफ्तार से एक स्कूटर आया। अनय नहीं — स्कूटर सीधे उस भीड़ की ओर गया जहाँ श्रेया खड़ी थी।
एक तेज़ चीख। एक धक्का। शरीर हवा में गया और ज़मीन से टकराया। भीड़ चिल्लाई। कोई भागा। कोई रुका।
अनय दौड़ा। भीड़ चीरता हुआ।
वो उसके पास पहुँचा — पहली बार। उसकी आँखें बंद थीं। मुँह से खून बह रहा था।
“ऐ, कोई है? ये श्रेया है!” किसी ने कहा।
वो नाम — जो अनय के मन में एक कविता की तरह बसा था — अब सड़क पर पड़ा हुआ था।
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अध्याय 7: मौन अंत
अस्पताल के बाहर की बेंच पर अनय बैठा था। उसकी शर्ट गीली थी, कीचड़ से सनी हुई। हाथों में अब भी खून की थोड़ी निशानियाँ थीं।
डॉक्टर बाहर आए, कुछ बोले नहीं। सिर्फ़ सिर हिलाया।
गुप्ता चाचा ने चुपचाप चाय का गिलास रखा और वापस दुकान पर चले गए।
श्रेया चली गई थी — बिना एक भी शब्द कहे, बिना एक बार मुस्कराए।
अब अनय रोज़ आता है। उसी स्टॉप पर खड़ा होता है। उसी बस को देखता है — जिसमें अब वो लड़की नहीं बैठती।
वो मुस्कराता है, लेकिन उसकी आँखें कुछ और कहती हैं।
गुप्ता चाचा कभी-कभी पूछते हैं, “आज भी देखोगे?”
अनय धीरे से जवाब देता है —
“हाँ... मैंने उसे देखा था।”

