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Suparna Mukherjee

Abstract

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Suparna Mukherjee

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पहला बसंत

पहला बसंत

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380

16 साल की सुंदर ,सुशील सुमन जा तो रही थी पढ़ाई के कमरे में पर पीछे से आई खाँसी की आवाज़ ने उसके पैरों को रोक दिया घूमकर देखा तो वही खड़ा था जिसे दो चार दिन से वह देख रही थी लुकछिप कर और वो भी उसे ही देखने के मौके तलाश रहा था। पर ऐसे उसे अपने इतने करीब पाकर सुमन को समझ ही नहीं आ रहा था खड़ी रहे या अपने काम पर चली जाए । सुमन असंमजस में ही थी कि वो ही करीब आया कुछ और करीब हाथ में पैकेट से एक चुटकी गुलाल निकालकर सुमन के माथे लगा दिया और हौले से कान के पास आकर बुदबुदाया "हैप्पी होली इन इडवांस" आज तो रंगभरी एकादशी है आज कोई पढ़ता है भला ?

सवाल पुछते-पुछते वो आगे निकल गया और सुमन अवाक उसे जाते हुए देखती रही तब तक जब तक वह दरवाजा पार नहीं कर गया।

अंतराल, अंतराल, अंतराल

और आज इतने सालों के बाद होटल के कैफेटेरिया में बैठकर उसका ये पुछना "होली खेलती हो अब" ? सुमन को समझ नहीं आ रहा था क्या जवाब दे । क्या ये कह दे उस एक चुटकी गुलाल का रंग इतना गाढ़ा था कि मधुमास से ही उसे प्रेम हो गया या ये कह दे नहीं रंग तो बहुत गीरे शरीर पर लेकिन मन रीता रह गया।


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