बदलता दृष्टिकोण
बदलता दृष्टिकोण


वृद्धाश्रम में आकर रूद्राक्षी को दो साल हो गए थे। कभी उसे किसी ने दुखी नहीं देखा। वह जीवन से उकतायी हुई नहीं थी। बीच -बीच में दोनों बच्चे अपने परिवार के साथ मिलने आते थे। वह भी घर जाती थी एक -दो रात रहती थी पर फिर वापस वृद्धाश्रम लौट आती थी।वहाँ रहनेवाले लोगों को अचरज होता था कि जब इतना सुखी परिवार रुद्राक्षी के पास है तो फिर वह वृद्धाश्रम आई क्यों ?
वृद्धाश्रम में काम करने आती थी मंगला। बेचारी बड़ी परेशान थी उसकी बेटी 9वीं में पढ़ती थी
वह चाहती थी बेटी को ट्यूशन भेजे ताकि बिटिया का रेजल्ट अच्छा आए। पर गरीब के सपने ,सपने ही रह जाते हैं। रुद्राक्षी को जब पता चला तो अंजली को पढ़ाने उसकी बस्ती में भी पहुँच गई। कुछ और गरीब बच्चे भी पढ़ने आने लगे रुद्राक्षी ने अपना दोपहर उनके नाम कर दिया।
आज 10वी कक्षा का परिणाम आनेवाला था। जितने उतावले वे बच्चे थे उतने ही उतावले वृद्धाश्रमवाले थे और रुद्राक्षी का परिवार भी था।
सिर्फ रुद्राक्षी अपने कमरे में बैठकर सोच रही थी बरसों बीत गए जब कभी एक दिन रूद्राक्षी बहू बनकर अपने ससुराल आई थी । ओम को जिस दिन से उसने देखा था उसे अपना पति और उसके परिवार को अपना परिवार ही तो मान लिया था। भरापूरा परिवार था।रूद्राक्षी नौकरीपेशा थी लेकिन गृहस्थी और नौकरी के बीच सामंजस्य बिठाना ही है ये उसने खुद से वादा किया था। समय बितता गया और रूद्राक्षी दो प्यारे बच्चों की माँ भी बन गई। जीवन की आपाधापी बढ़ी मुश्किलात भी बढ़ने लगे ससुरालवालों का रंग भी धीरे-धीरे सामने आने लगा हालातों ने उसे समझाया कि कामकाजी औरतों को दोहरी मार झेलनी पड़ती है फिर भी बिना हिम्मत हारे गृहस्थी की गाड़ी तो चलानी ही पड़ती है पर गाड़ी सिर्फ गृहस्थी की ही चल रही थी दाम्पत्य की नहीं हर छोटी बात पर ओम के साथ झगड़ा होना आम बात हो गई थी लड़ने के बाद एक दूसरे को मना लेना भी फर्ज है ये दोनों ही भूल चुके थे। फिर एकदिन ये पता चला कि ओम के पिता जी के दोनों किडनी खराब हो चुके हैं डायलिसिस का ही सहारा बचा था। ओम के पिताजी सरकारी अफसर थे अच्छी खासी पेंशन थी जमापूँजी भी थी पर उन्होंने साफ कह दिया "उनके मरने के बाद सबकुछ ओम का ही है तो फिलहाल ये ओम का फर्ज है पिता की सेवा करना "।इस कर्तव्य का पालन उन्होंने भी किया है और उनके पिता के पिता ने भी आगे ओम की इच्छा ....
ओम और रुद्राक्षी दोनों प्राइवेट कंपनी में काम करते थे
घर का लोन ,बच्चों की पढ़ाई और भी न जाने क्या -क्या जिम्मेदारी ? अब बात संस्कार की थी तो फिर और क्या कहा जा सकता था ? यूँ ही इलाज चलाते चलाते ससुर जी गुज़र गए उनके जाने के बाद जो धन सम्पत्ति मिली वह उनके इलाज में हुए खर्च के मुकाबले ऊँट के मुँह में जीरा समान ही था। सिर्फ संतोष यही मिला कि संस्कारी बेटे -बहू का तमगा मिला इसके बदले न जाने कितनी छोटी छोटी खुशियों का गला घोंट देना पड़ा। बच्चे बड़े होकर अपने जीवन में व्यस्त हो चुके थे बच्चों की शादी हो गई तो दोनों ने सोचा अब साथ मिलकर बूढ़ापे का ही मज़ा उठाएंगे लेकिन एक अल्लसुबह ओम का अचानक उसे सदा के लिए संसार में अकेले छोड़कर चला जाना रुद्राक्षी सहन ही न कर सकी। हर दिन कोई एक नयी बीमारी उसे जकड़ लेता वह चाहती थी कि बहू बेटे पर बोझ न बने पर वह बोझ ही तो बनती जा रही थी एक दिन बहुत धीमी आवाज़ उसके कान में आ ही गई "माजी के दवाइयों के कारण देखो घर खर्च फिर इधर उधर हो ही गया। आप बड़े भाई साहब से बात करो न कि कुछ दिन माजी को अपने पास ले जाए।" बेटे ने तुरंत बहू को डपटकर चुप करा दिया। लेकिन रुद्राक्षी को लगा जैसे ओम ने उसे डाँटा हो जैसे उससे कह रहा हो "देखो हमारे बच्चें भी अब हमारी तरह पीस रहे हैं कोशिश कर रहे हैं संस्कृति और संबधों की दकियानुसी गाड़ी को खिंचने की। " क्या करे वह सोचने लगी। फिर उसके बीमारी के कारण बेटे -बहू का सिनेमा जाने का प्लैन फेल होते हुए देखा तो उससे न रहा गया दिल रो उठा उसका खुद को इतना कमज़ोर देखकर। बार-बार खुद को आईने में देखकर खुद से पुछने लगी," क्या मैं इतनी बीमार इतनी कमज़ोर हूँ ? जवाब शायद उसके भीतर समाया ओम दे रहा था "नहीं रुद्राक्षी तुम खुद को संभाल सकती हो ,मैं तुम्हारे साथ हूँ।मत बनो किसी पर बोझ। खुद जीओ ,दूसरों को भी जीने का रास्ता बताओ।"
बस ,रुद्राक्षी ने मन बना लिया अब और नहीं उसके और ओम के प्रेम की निशानी है ये बच्चे इनको ऐसे हैरान परेशान होते वह नहीं देख सकती। फिलहाल वह सबल भी है उसने मन बना लिया वृद्धाश्रम में चले आने का। बहू-बेटों के साथ उसने साफ-साफ बात की उसे वहाँ पहुँचा आने की जिम्मेदारी भी उसने उन्हीं पर छोड़ी पहले तो सबको लगा वह गुस्से में घर छोड़ रही है पर जब उसने स्वतंत्र होकर बाकी जीवन को बिताने की बात कही तो सबको उसकी बात माननी ही पड़ी।
और देखो आज उसके उसी आत्मविश्वास के कारण अंजली और दूसरे बच्चे 10 वी पास कर गए।