पहचान
पहचान
अपनी तबियत से लाचार हुए चंद्रशेखर जी बेटे के फ्लैट की बालकनी से नीचे बाग में खेलते बच्चों को निहार रहे हैं, वो सरकारी स्कूल से प्रिंसिपल बनकर रिटायर हुए थे, जो भी पैसा मिला वो बेटे के फ्लैट के लिए लगा दिया और अब अपनी पत्नी के साथ सुख से उसी के पास रहते हैं। हालांकि बेटा बहू बहुत सेवा करते हैं दोनों की और जब भी उनका मन करता है कुछ दिनों के लिए उन्हें उनके गांव भी लेकर जाते हैं, पर चन्द्रशेखर जी हमेशा अपनी पहचान खो जाने की पीढ़ा से व्यथित रहते हैं। उनकी पत्नि उन्हें समझाती हैं कि अब बुढ़ापे में आपको क्या पहचान बनानी है, जवानी में जितना रौब था कम था क्या जो और चाह बची है?
पर एक आदमी जो जीवन भर निरन्तर चला हो भला वो खाली कैसे बैठ सकता है।सोचते सोचते रात हो गई, पूरा परिवार खाना खाने बैठा तो चद्रशेखर जी के बेटे ने उन्हें एक खुशखबरी दी
"पिताजी कल से ही आपकी हिंदी कक्षा शुरू होगी, पूरी तैयारी कर लीजिए, शहर के बच्चे बहुत नटखट होते हैं।"
" पर तूने कैसे जाना बेटा की मेरा दिल ऐसा ही कुछ चाहता था"
" पापा बचपन से आपको देखा समझा है मैं जानता हूं आपने भले शिक्षक की नौकरी छोड़ दी हो लेकिन शिक्षक आपको नहीं छोड़ सकता, और अपने बुज़ुर्ग पिता की पहचान की रक्षा बेटा नहीं करेगा तो और कौन करेगा पापा। अब आप वादा करिए हमेशा खुश रहेंगे"चंद्रशेखर जी ने मुस्कुराते हुए अपने दोनो हाथों से अपने बेटे को आशीर्वाद दिया।