फांस
फांस
बहुराष्ट्रिय कंपनी के पदाधिकारी राज, पत्नी नीता के लिए विदेश से महँगी घड़ी ले आये तो वो बड़ी अनमयस्क हो उठी, "क्यों ले आये ? कहाँ जाऊँगी इसे पहन कर।"
"अरे, तुम्हारे पास होनी चाहिए, ठीक है, परेशान क्यों हो रही हो यार, आगे से कुछ नही लाऊँगा।" राज उकता कर बोले।
नीता सोचने लगी क्यों वो हमेशा ऐसे ही करती है ? राज कही जाने को बोले तो वो टालती रहती है फिर न जाने पर खीझी भी रहती है। क्यों उसे कुछ अपनी पसंद का लेने मे हमेशा ही सब से स्विकारोक्ती चाहिए होती हैं ?
राज और बच्चे तो चुटकियों में हजारों के ब्रान्डेड कपड़ें ले लेते हैं, नीता ही दिलवाती है पर खुद के लिए सोच कर ही चिड़चिड़ा जाती है, घबरा जाती है।
बच्चों की स्कूल-ट्यूशन की जिम्मेदारी खत्म होते ही नीता ने गाड़ी चलानी भी कम कर दी, "अब क्या करना है इसका, कहाँ जाना होता है मुझे, बेच ही दो ना इसे।"
आज भी तो यही हो रहा है, कितने अरमान थे उसके कि कभी राज उसके लिए अचानक से कुछ ले आये। वो आल्हादित होकर नाचती फिरे। जब आज ले आये तो वो खुश क्यों नहीं है ?
क्या सालों बाद भी उसके अंतर्मन में नौकरीपेशा सासू माँ के कटाक्ष चुभे हुये है, जो दिल-दिमाग पर आज तक हावी है ?
क्या इसीलिए उसका अवचेतन मन आज भी उसके हाथ बांधे हुये है ?
"अरे, अपने कपडे़ इस्त्री मे क्यों दे रही हो, तुम्हें कहाँ जाना होता है ?'
"नये पर्स या घड़ी का क्या करोगी, कौन "नौकरी" पर जाती हो।"
"अपनी पीहर से देन लेन में कैश ले आया करो, साड़ियां तो टंगी रह जाती है। तुम्हें कौन "नौकरी" पर जाना होता है।"
"नौकरी" तो करती नही, घर के काम खुद कर के ही पैसे बचा लिया करो।"
नहीं..यह सब और नही..अब से मैं आज में ही जीऊँगी। दृढसंकल्पित नीता के चेहरे पर शांति फैल गई।
