फाइन
फाइन
"लता खड़ी हो जाओ !" मैडम की आवाज से लता का चौक गई।
"आज तुमने चित्र फिर बिना रंग करे बनाए हैं ....क्या तुम्हें समझ नहीं आता मैं तुम्हारी कॉपी इस प्रकार नहीं जाचुंगी।" मैडम की तेज आवाज में कहते ही कक्षा में खुसर पुसर होने लगी।
लता का तो जैसे सिर ही नहीं उठ रहा था।
मेधावी बच्चों के साथ यही तो समस्या होती है कि अपने गुरु की नजर में शाबाशी और कक्षा में अपनी साख इन्हीं अति प्रिय होती है।
लता के भी कुछ ऐसा ही था।
विलक्षण प्रतिभा की धनी लता के घर की आर्थिक स्थिति बहुत नाजुक थी ।
पिता एक छोटी फर्म में मजदूरी करते थे और मां तो बस घर को जैसे-तैसे संभालती थी।
उसका छोटा भाई अभी 2 वर्ष का था और बूढ़े दादा जी थे जो प्रायः बीमार रहते थे।
लता की बचपन से पढ़ने की ललक देखकर उसकी मां ने ठान लिया था कि उनकी स्थिति बेटी की शिक्षा में बाधक नहीं बनेगी।
अच्छे विद्यालय में जैसे तैसे प्रवेश तो दिला दिया था और लता बेहतर परिणाम भी दे रही थी पर कक्षा में आए दिन उसे इस तरह की स्थिति का सामना करना ही पड़ जाता था।
" तू मेरे रंग क्यों नहीं ले लेती काम पूरे करने को ?"
उसकी सहपाठी ज्योति ने जब कहा तो लता ने कहा नहीं आज वह रंग खरीदी लेगी।
उस रोज शाम मां से ₹20 लेकर जब वह रंग लेने दुकान पर पहुंची तो उसे याद आया कि कल गणित की भी नई कॉपी ले जानी है नहीं तो सजा मिलेगी और साथ में मां के शब्द भी याद आ रही थे," आज बस 20 ही रुपए हैं बेटा कल पिताजी से लेकर दे दूंगी।"
अगले दिन कक्षा में शांति थी। मैडम सब की कॉपी जांच रही थी।
लता की बारी आने पर फिर वही रंगहीन चित्र देखकर मैडम ने लता पर लगातार कहना ना मानने का ₹30 का फाइन ( दंड )लगा दिया। हमेशा शांत रहने वाली लता एकदम बिफर पड़ी पूरी ताकत लगा कर जोर से बोली ,"मैडम फाइन ही भर पाती तो रंग ना खरीद लाती।"
मैडम पर कोई उत्तर नहीं था। कक्षा में अब और ज्यादा शांति थी।