archana nema

Drama Inspirational

4.0  

archana nema

Drama Inspirational

पढ़ने वाली मेज

पढ़ने वाली मेज

9 mins
1.9K


धूल रहित पारदर्शी साफ सुथरा नीला आकाश लुभावना लग रहा था। गुलाबी, नारंगी पूर्व दिशा अभी चटकीली धूप से सजी नहीं थी। नर्मदा के दक्षिण में बसा एक छोटा सा गांव, नित्य कर्मों की हलचल के साथ जाग गया था।

मिट्टी के चौड़े दालान को पार करते हुए, दातुन चबाते सिद्धेश्वर ने कुठरिया में खटिया पर अलमस्त सोती अपनी बारह वर्षीय मुनिया के चेहरे से गुदड़ी का सिरा खींच दिया और एक हुंकार सी भर कर कहा- "उठ बिटिया पाठशाला नहीं जाना है क्या ?" अपनी सपनीली आँखे मलती मुनिया अपने पिता की पुकार पर अलसाती सी उठ खड़ी हुई। नहा धो, रात की रोटी का कलेवा बांध, ताख में रखे गणपति बब्बा को सिर नवा मुनिया पाठशाला की ओर निकल पड़ी।

खेतों की मेड़ों के बीच से निकली पगडंडी पर, स्याह रंग के गणवेश में पीठ पर बस्ता टाँगे छुटकी मुनिया,आँखों में सपना लिए चली जा रही थी। मुनिया का सपना उसी की तरह छुटका सा था। सपना था, एक छोटी सी 'पढ़ने वाली मेज ' का। कुशाग्र, मेधावी, मुनिया अपने पिता की सीमित आमदनी को जानती थी लेकिन अब सपना तो सपना ही था। गहरी भूरी चमकती लकड़ी से बनी नन्ही सी मेज, जिसमें दाएं और खींचने वाली छोटी सी दराज हो, जिसमें वह अपनी स्लेट, बत्ती, स्केल, पेन पेंसिल स्याही और कभी-कभी चुटिया के रंग बिरंगे रबर बैंड भी रख सके।

स्वप्न में खोई, पाँव में पहनी स्लीपर से लंबे लंबे डग भरती मुनिया पाठशाला की राह चली जा रही थी। पढ़ने की मेज का यह स्वप्न पाठशाला आते जाते समय, सोते समय या दिन के किसी भी प्रहर में, एक रोजमर्रा के नियम सा मुनिया के जीवन में दाखिल हो गया था। आज पाठशाला में जब अवकाश की घंटी बजी तब मुनिया ने मन बनाया कि आज अपने प्यारे बाबा से पढ़ने वाली मेज की बात करेगी।

रात में जब चौथ का तिहाई चाँद बिसरने लगा तब मुनिया चटाई पर बिखरी अपनी कॉपी किताबें समेट, बब्बा की गलबहियाँ डाल झूलने लगी। छप्पर के बास पर लटकती लालटेन के साथ शीशे से आती मध्यम रोशनी, मुनिया की सपनीली आँखों से परावर्तित हो और तेज हो गई। मुनिया बोली- "बब्बा !"

बब्बा का- "हूं !" में प्रत्युत्तर था। मुनिया कुछ सकुचा कर लरजने लगी।

बब्बा हँसते हुए बोले- "अरी लाडो ! बोल ना ! क्या सोचती है ?"

पीठ पर झूलती मुनिया घूमकर बब्बा की गोद में जा बैठी और उनकी तीखी मूछें सहलाती बोली-

"जानते हो बब्बा ! हमारे स्कूल में ना ! हमारे हेड मास्टरनी जी के पास एक ये बड़ी पढ़ने की मेज है जिस पर हमारी हेड मास्टरनी जी सब कागज पत्तर फैला कर, उसमें पढ़ने लिखने का काम करती है।" चिहुकती सी मुनिया पुनः कहने लगी।

"हेड मास्टरनी जी उस पर अपना ये बड़ा बस्ता रख देती है और जानते हो बाबा ! जब काम करते करते थक जाती हैं न ! तो मेज पर रखा पानी का गिलास गट गट पी जाती है। मुनिया ने हवा में पानी पीने का अभिनय किया और फिर कहने लगी- "मेज पर अपनी ऐनक पलट के रख देतीं हैं और और---------!"

पढ़ने वाली मेज का वर्णन करते करते मुनिया की छोटी-छोटी आँखों से आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता किसी रस की भांति टपक रही थी। मुनिया के बब्बा उसका वर्णन वृतांत शांति से ध्यान से सुनते रहे, मुनिया का जब पढ़ने की मेज का विवरण समाप्त हुआ तब तक बब्बा मुनिया के उस सपने से अवगत हो चुके थे। मुनिया की ठोडी को छूते हुए बब्बा बोले- "तो यानी हमारी छुटकी को अब हेडमास्टरनी वाली मेज चाहिए।"

छुटकी ने जब बाबा के मुँह से अपना अनकहा सुना दो मचल उठी, "बब्बा ले देना ना मुझे हेड मास्टरनी जी वाली मेज, इत्ती बड़ी नहीं ;बस छोटी सी; इत्ती सी।"

अपने नन्हे-नन्हे हाथों से एक छोटा सा माप हवा में बनाती हुई छुटकी बोली।

"अच्छा अच्छा अब सो जा ! रात बहुत हो गई है।"

बाबा ने प्रकरण समाप्त करना चाहा पर मुनिया की आँखों में नींद कहाँ ? आज मुनिया का स्वप्न अपनी पर उतर आया था, मचलती हुई मुनिया बोली- "बब्बा उस पर बैठकर मैं खूब जी लगाकर पढ़ाई करूँगी।"

मुनिया ने शब्दों पर दबाव बनाते हुए कहा- " बब्बा मैं पहला नंबर लाऊँगी देखना ! ला दोगे ना ! एक छोटी सी, दराज वाली मेज; मैं उसमें अपना सब सामान व्यवस्थित रखूँगी, कुछ नहीं फैलाऊँगी कसम से !"

यह कहते-कहते मासूम आँखें नचाती छुटकी ने गले की चिकोटि भरते हुए कसम खा ली। बब्बा उसकी मासूमियत से विभोर हो गए और बोले-

"अच्छा अच्छा अभी तो सो जा मेरी माँ ! चुटकी के पैरों पर गुदड़ी खींच बाबा उसे थपियाने लगे और कुछ ही देर में खुद ही सो गए। यहाँ मुनिया की आँखों में नींद नहीं मेज नाच रही थी, कुठरिया के कोने में रोशनदान के पास छुटकी के हाथों के बित्ते हवा में ही नाप जोख करने लगे। मेज के रखने के उपयुक्त स्थान की कल्पना करते करते मुनिया की आँखों में नींद आ बसी।

ओस की बूंदे जब नन्हीं मुनिया की पलकें भिगोने लगी तो नींद टूट कर अंगड़ाई में बदल गयी। गई रात का स्वप्न उनींदे नेत्रों में दिप-दिप कर रहा था। स्वप्न जैसे रोज एक दिन फर्लांग कर आगे बढ़ जाता। रोज ही अँखियों से गुजरने से पूर्व उसमें कोई सजावट बढ़ जाती मसलन मेज पर रंगीन चमकीले कागजों की कशीदाकारी फूल बनकर चिपक जाती। कई बार मेज पर सुंदर क्रोशिए का सफेद झक्क कढ़ाई वाला मेजपोश बिछ जाता। कभी मेज के कोने पर रखे काँच के रंगीन गुलदान में फूलों की खुशबू से मुनिया का स्वप्न महक जाता। मुनिया जब जमीन पर चूना से गुदे चौरस खानों पर पत्थर डालकर अड़न धप्पा या लगड़ी का खेल खेलती तो वहीं कहीं मेज वाला स्वप्न उसकी घेरदार फ्रॉक में उलझा नाचता रहता। वह अपनी सखी पुन्नू के कान में फुसफुसा कर पढ़ने की मेज वाले स्वप्न को साझा करती और पुन्नू की घनी बरौनीओं वाली मासूम आँखें विस्तृत सी आश्चर्य में फैल जाती। स्वप्न दिन में बीत कर आगे सरकता रहा।

मुनिया का इंतजार सहनशीलता की परिधि के परे का विषय हो चला था। वह हर शाम खाना खाते समय बाबा का चेहरा ध्यान से निरखती की मेज की कोई बात शायद बाबा करने वाले हैं लेकिन खोया खोया सा बाबा का चेहरा मुनिया के स्वप्न से अनभिज्ञ किसी और दुनिया के ताने-बाने में उलझा रहता। रोज रात में तीव्र उच्छ्वास की स्वर लहरियों के बीच बाबा के आरोह अवरोह करते पेट पर हाथ रखी मुनिया प्रतीक्षा करती की पढ़ने वाली मेज के संदर्भ में बाबा शायद अब कुछ कहेंगे लेकिन मुनिया बाबा के गहन विश्राम की समाधि को तोड़ने का साहस नहीं कर पाती और फिर एक और तारों से टिमटिमाती रात सीजती सी बीत जाती।

अचानक से एक रात उसे याद आया कि आती कार्तिक पूर्णिमा को तो उसका जन्मदिन है; जब अम्मा थी तब कैसे सुबह से नहला धुला कर, नई फ्रॉक पहना कर, गणपति बब्बा के मस्तक पर लगा सिंदूर उसके मस्तक पर लगा देती थी। मुँह में गुड़ की भेली डाल उपहार में दस रुपये का नोट भी पकड़ा देती थी अम्मा। मुनिया की आँखों में मानो अपनी संभावित अभिलाषा की पूर्ति के जुगनू चमक पड़े, मन ही मन बोली अच्छा तो बाबा मेरे जन्मदिन की रास्ता देख रहे हैं। मुनिया की आँखों में एक प्रसन्नता की लहर लहक उठी।

"तो यानी पढ़ने वाली मेज बाबा मेरे जन्मदिन पर लेकर आएंगे।" मुनिया के आने वाले जन्मदिन का गणित मुनिया की उंगलियों की पोरों पर नाच उठा। जन्मदिन के आगामी दिनों की गणना कर मुनिया आश्वस्त हो गई कि बाबा पढ़ने वाली मेज मेरे जन्मदिन पर ही लाएंगे। मुनिया के जन्मदिन में अभी तीन दिन शेष थे। मुनिया का इंतजार मानो तीन पहाड़ों पर चढ़ने लगा और अंततः कार्तिक पूनम का; मुनिया के जन्मदिन का; पढ़ने वाली मेज के आने का; समय आ ही गया। माँ की तरह बाबा ने भी मुनिया को स्नान करा कर नए कपड़े पहना दिए, मुँह में मीठा डाल गणपति बप्पा का टीका मुनिया के मस्तक पर लगा दिया। बाबा ने एक डिब्बे में थोड़ा सा मीठा, स्कूल में मास्टरनी जी व मुनिया की अन्य सखियों के लिए भी दिया। कमर पर बस्ता मटकाती मुनिया स्कूल के लिए रवाना हो गई, यह सोच कर की पढ़ने वाली मेज बाबा शाम को लाएंगे। शाम को विद्यालय से लौटते समय मुनिया का ह्रदय अपेक्षाकृत अधिक गति से धड़क रहा था। घर के कोने में रखी गहरी लाल, भूरी, सुचिक्कड़ मेज मुनिया के अचेतन मन में प्रवाह मान थी। घर पहुँची तो देखा बाबा नहीं थे, बस्ता एक और रख मुनिया ने घर का एक एक कोना छान मारा लेकिन पढ़ने वाली मेज उसे कहीं नहीं दिखी।

देखते देखते साँझ गहरा गई बाबा जब घर लौटे तो देखा घर में अंधेरा पसरा था। बाबा ने आवाज दी- "मुनिया ! रे मुनिया ! कहाँ है बेटा ? आज घर में कितना अंधेरा है, आज दीया बत्ती नहीं की तूने।"

बाबा ने प्रश्नों के तारतम्य में देखा मुनिया एक कोने में घुटने पकड़े बैठी थी। "अरे क्या हुआ बिटिया ?

यह पूछते पूछते बाबा ने दीया लिसा दिया। दीए के मध्यम प्रकाश में भी बाबा ने अपनी पुत्री के सजल नेत्रों को देख लिया। सिर पर हाथ फेरते फेरते बाबा ने पुनः प्रश्न दोहराया।

"अरे क्या हुआ बिटिया रानी ?"

बाबा के लाड़ दुलार भरे प्रश्न से मुनिया दौड़ कर बाबा से लिपट कर रोने लगी। बाबा घबरा गए-

"अरे क्या हुआ बताती क्यों नहीं, तबीयत खराब है क्या ? मूढ़ पिरा रहा है या पेट में दर्द है ?"

यह पूछते पूछते बाबा ने मूढ़ से लेकर पेट तक सब कुछ टटोल लिया।

"नहीं बाबा मैं अच्छी हूँ।" मुनिया हिचकियां बांधती बोली।

"अरे तो फिर रोती क्यों है ?

"बाबा वो ------------?

"अरे वो क्या ?"

"बाबा वो पढ़ने वाली मेज..."

"पढ़ने वाली मेज ?" बाबा का आश्चर्य से भरा प्रश्न था।

"आपने ही तो कहा था ला कर दूँगा" मुनिया के शब्दों में कातरता थी।

ओ हो, तो गुड्डो रानी इसलिए दुखी है।" बाबा मुनिया के दुख का कारण बूझते से बोले और फिर कुछ सोचने लगे, सोचते-सोचते बोले- "अरे चल मेरी लाडो रानी पहले चूल्हे पर आलू टमाटर की तरकारी तो चढ़ा दे।"

आज अंगनाई में मुनिया गहरी नींद में सो रही थी और बाबा की आँखों में नींद नहीं थी। पढ़ने वाली मेज की राशि का जोड़ तोड़ उनके जीवन के गणित का प्रश्न सा बन गया था। बाबा जब सब जगह की जुगाड़ को खंगाल चुके तब एक विचार उनके मस्तिष्क में कौंधा।

बक्से में डले छैनी, हथोड़ा आरी और अन्य औजार लेकर पीछे के औसारे में पड़ी लकड़ी और लकड़ी के तख्तों को नापने लगे। रात भर लकड़ी चीरने और ठोक पीठ की आवाजें रात्रि की नीरवता को भंग करती रही। अगले दिन जब समूची निशा, उषाकाल के आँचल में छिपी तब नन्हीं मुनिया ने अपनी आँखें खोली। आँखें खोलते ही देखा, सामने आँगन में रखी लाल भूरी, चमकीली पढ़ने की मेज पर सूर्य रश्मियाँ परावर्तित हो और चमकीली हो उठी थी।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama