पचास पैसा
पचास पैसा
"कल रविवार है और परसों जन्माष्ठमी की छुट्टी भी है। नमिता और मैं, मनिन्द्रगढ़ जायेंगे, आज ही रात दस बजे की ट्रेन है। हमारा सामान तैयार कर दीजियेगा। " आलोक प्रताप सिंह, अपनी पत्नी नंदिनी को निर्देशित करते हुए ऑफिस चले गए थे।
नमिता आश्चर्यचकित थी, न कोई रिश्तेदार, न कोई समारोह, न सेमिनार, कुछ भी नहीं आयोजित था मनिन्द्रगढ़ में, फिर पिताजी उसके साथ आज रात क्यों जा रहे हैं, मनिन्द्रगढ़?
12 साल की नमिता ने कौतूहल में पूरा दिन ही गुज़ार दिया था मगर शाम को पिताजी के घर आते ही प्रश्नों की फुलझड़ी लगाने से वो ख़ुद को बचा नहीं पायी थी।
"हम क्यों जा रहे हैं वहाँ, बोलो न पापा?माँ से पूछा तो माँ नाराज़ हो गयीं थी। "
खाने की मेज पर चाय पीते हुए पिताजी ने जिज्ञासु नमिता को अपने पास बिठाया और बोले, "छः माह पूर्व सब्जी बाज़ार में कल्लू नामक आलू वाले से हमने तीन किलो आलू लिए थे, डेढ़ रुपये के हिसाब में साढ़े चार रुपये होते थे। पाँच रुपये जब कल्लू को हमने दिए तो उसने हमें एक रुपया लौटाया था, चिल्हर नहीं है, अगली बार पचास पैसे दे दीजियेगा साहब। "
बिटिया रानी तब से हर सब्जी बाज़ार उसे ढूँढा, मगर कल मालूम हुआ कि वो परिवार सहित मनिन्द्रगढ़ लौट गया है और अब दोबारा नागपुर नहीं आएगा। उसी के पचास पैसे लौटाने जा रहे हैं हम मनिन्द्रगढ़, सोचा तुम्हारा भी घूमना हो जाएगा इसलिए साथ ले लिया तुम्हें भी। "
पचास पैसे के लिए 200 रुपये ख़र्च कर 400 किलोमीटर जाना, ये कौन सी बुद्धिमानी है, नंदिनी बीच में ही बोल पड़ीं थीं।
उधार चाहे पचास लाख का हो या पचास पैसे का, उधार तो उधार ही होता है न, क्यों बिटिया ?
नमिता ने हाँ में सिर हिलाया और एकटक अपने पिताजी को निहारती रही थी वो।