पाई पाई
पाई पाई
मुझे लगता है कि
रुपए की कीमत इतनी नहीं होनी चाहिए
कि ग़रीब इंसान को अपनी कमाई को खर्च करने में सोचना पड़े।
दिन दिन हम सब देख रहे हैं , महंगाई कितनी बढ़ रही है
रोजमर्रा के सामान की कीमतें आसमान छू रही है।
खाने का राशन , तेल , सब्जी , मसाले ये कितने महंगे हो गए हैं।
अर्थव्यवस्था को कायम रखने के लिए मैं मानती हूं कि ये सब जरूरी है
लेकिन उन लोगों का क्या जिनकी कमाई भी एक वक्त के खाने के लिए भी पूरी न हो?
उन लोगों का क्या जो एक वक्त अपना खाना छोड़ देता है?
उन लोगों की पाई पाई का हिसाब कौन देगा?
वो अपना पेट भरे या अपने बच्चों को पढ़ाए ?
इस बात का सवाल किसके पास है?
किसी की गलती हमेशा किसी और को भुगतनी पड़ती है।
मेरी बात के लोगों के पास तर्क हैं , ये मैं जानती हूं।
मगर क्या ये सही है?
जिनके पास पैसा है , उन्हें ये सब फिजूल लगता है
हर एक रणनीति में जिनका सुख चैन छीन लिया गया है वो हैं ये लोग
जो न तो इसके खिलाफ़ आवाज़ उठा सकते और न ही किसी से कुछ कह सकते।
इनकी बात किसी ने सुनी है?
जवाब होगा आपके पास, ज़रूर होगा ।
इन्हें नज़रंदाज़ किया जाता है
एक बार नहीं , बार बार , हज़ार बार
लेकिन उस समय का क्या जब हर बार नए नए वादें किए जाते हैं?
फिर क्यों ये लोग याद आने लगते हैं?
फिर क्यों ये उम्मीद की जाती है कि इन्हें झूठे दिलासे देकर हम जीत सकते हैं।
और ये लोग उन्हीं बातों को सच मानकर , उन्हीं दिलासों में फंस जाते हैं।
और ये कभी नहीं बदलता ।
हर बार ऐसा होता है।
इन्हें हर बार अपनी ज़िंदगी से , अपनी पाई पाई के लिए समझौता करना पड़ता है।
