shaily tripathi

Tragedy Action Inspirational

4.9  

shaily tripathi

Tragedy Action Inspirational

असाध्य रोग से लड़ती नम्रता की जीवनी

असाध्य रोग से लड़ती नम्रता की जीवनी

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 हीरो या नायक की खोज ज़्यादातर हम क्रिकेट के मैदानों या खेल जगत में, राजनीति में, फ़िल्मी संसार में, गायन-वादन में, इतिहास और धार्मिक ग्रंथों में या फिर सेना में करते हैं। लेकिन हम अपने दैनिक जीवन में आसपास रहने वालों में हीरो की कल्पना भी नहीं करते, खोज तो दूर की बात है। यथार्थ यह है कि हमारे चारों ओर, परिचित, मित्र और रिश्तेदारों के बीच बहुत से हीरो रहते हैं, जिन्हें हमारी आँखें अनदेखा कर जाती हैं। ऐसी ही एक हीरोइन, नायिका या वास्तविक योद्धा की जीवनी लिखी है आपके लिये, पढ़ने के बाद निर्णय आपका… 

   

तो आइये आज आपका परिचय कराती हूँ इस मुस्कुराती हुई, जिन्दगी से लबरेज़, खूबसूरत महिला से, नाम है 'श्रीमती नम्रता पाण्डेय' । इन चमकते काले बालों और दमकती बेदाग़ त्वचा पर गौर फ़रमाएं। अंदाज़ा लगायें इनकी उम्र का….,क्या कहा? यही कोई 48-50 साल? आप भी दूसरों की तरह गच्चा खा गये… नहीं जनाब! यह जीवन के 59 बसन्त देख चुकी हैं। लेकिन इनको देख कर कोई भी इनकी उम्र के बारे में सही अंदाज़ नहीं लगा पाता है, आपकी कोई ग़लती नहीं। अब मिलिये इनके स्वस्थ प्रसन्न पति, नरेंद्र कुमार पाण्डेय और इस गबरू जवान बेटे नीलाभ से। साथ में शर्माती हुई युवती अविषिक्ता है। नीलाभ की पत्नी और नम्रता - नरेंद्र की पुत्रवधू। इस हँसते-खिलखिलते परिवार को देखिये। क्या कहीं कोई भी कमी या दुःख दिखायी दे रहा है? 

अरे! आप इतने ध्यान से क्या देख रहे हैं??? नहीं, मैं नहीं चाहती थी कि आपकी नज़र इस व्हीलचेयर पर जाये। लेकिन अब आपने देख ही लिया है तो, छिपाने का कोई फ़ायदा भी नहीं…, बताती हूँ, ध्यान से सुनियेगा। नम्रता पिछले 22 सालों से अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकीं । सिर्फ़ पैर ही नहीं हाथ पर भी कोई नियन्त्रण नहीं है। शरीर, गले तक लगभग निष्क्रिय है। अपना सिर भी बहुत मुश्किल से हिलाती हैं । नित्यप्रति की क्रियाओं से लेकर भोजन करने, कपड़े पहनने, बदन खुजाने आदि, सभी कार्यों के लिए दूसरों पर आश्रित रहना मजबूरी है। यह विगत 34 वर्षों से 'मल्टीपल स्क्लेरोसिस' या 'एम.एस.' नामक बीमारी से पीड़ित हैं। 'नीलाभ' इनकी इकलौती सन्तान है। वर्ष 2004 में इसे 'ल्यूकेमिया' यानी ब्लड कैंसर हुआ था। जुलाई 2022 में, मैं इन्हें आपसे मिलवा रही हूँ। नीलाभ इस समय आइ. एस. एस. कंपनी में 'सीनियर लीगल मैनेजर' है। नरेंद्र पश्चिमी बंगाल के 'प्रिंसिपल चीफ़ कन्ज़र्वेटर ऑफ फॉरेस्ट' के पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। इस समय गोमती नगर लखनऊ में सपरिवार रह रहे हैं। पत्नी, नम्रता की बीमारी 'मल्टीपल स्क्लेरोसिस', विश्व के असाध्य रोगों में से एक है। आज तक इस रोग की कोई भी दवा नहीं बनी है। विश्व के लगभग सभी देशों में ऐसे मरीज़ हैं। यद्यपि संख्या काफ़ी कम, फिर भी 2.8 मिलियन रोगी हैं।* यानी हर एक लाख की आबादी में 35.9 व्यक्ति इस बीमारी से ग्रस्त हैं। सभी जानते हैं कि यह ला-इलाज रोग।

यह बात नम्रता को, आज से नहीं पिछले 32 सालों से पता है। 

   आपको लगता होगा कि ऐसा व्यक्ति, जीवन से दुःखी, डिप्रेस्ड, चिड़चिड़ा, बिस्तर पर पड़ा अपने भाग्य को कोसता और रोता होगा। पूरा परिवार दुःखी और विह्वल होगा। ज़्यादातर ऐसा ही होता है। लेकिन यहाँ स्थिति बिल्कुल जुदा है। यह कहानी, जीवनी या बायोग्राफ़ी मैंने इसी लिये लिखी कि नम्रता इसका अपवाद हैं। प्रसन्नता से जीवन जीने वाली नम्रता अपने को भाग्यशाली मानती हैं। क्यों और कैसे? यह आपको आगे पढ़ने पर ही पता चलेगा… 


मेरे बड़े भाई हैं, वन विभाग के रिटायर्ड अधिकारी हैं। IFS (नरेंद्र कुमार पाण्डेय सन् 1982 - 2019)। नम्रता इनकी पत्नी और मेरी भाभी हैं। अब शुरू से बताती हूँ यह किस्सा। आइ. एफ़. एस. में चुने जाने के बाद चुने हुए अधिकारियों की F.R.I.(Forest Research Institute, dehradun) में 2 साल की ट्रेनिंग होती है। उसके बाद भी प्रशिक्षण का सिलसिला चलता रहता है। पहली पोस्टिंग 'रेंज ऑफिसर' की मिलती है। नरेंद्र को जलपाईगुड़ी के 'गैरकाटा' रेंज में जगह मिली थी। रहने के लिए जंगल विभाग का बंगला मिला था, जो हमारे हिसाब से अंग्रेजों के जमाने में बना होगा। ये घर लकड़ी के पाॅंवों पर खड़ा था, जैसा कि भूगोल की कक्षा 6-7 की पुरानी किताबों में विषुवत रेखीय तुल्य प्रदेश के श्वेत-श्याम चित्रों में छपा रहता था। लकड़ी के पायों पर घर बनाने का कारण होता था, इसे ज़मीन से ऊपर रखना, जिससे कीचड़, पानी से बचाव रहे और साँप, बिच्छू जैसे रेंगने वाले कीड़ों से भी। नीचे लकड़ी वगैरह रखने की जगह थी (ग़ैर कानूनी लकड़ी जो जंगल विभाग छापे में ज़ब्त करता था), और ऊपर दो बेड रूम का घर। एक बैठक, रसोई और पीछे बहुत बड़ा अहाता। बंगाल कम्युनिस्ट शासन में था तो सरकारी अर्दली वगैरह घर के काम-काज नहीं करते थे। ऐसे में अपना घरेलू काम करने के लिए सभी अधिकारी अपना निजी नौकर रखते थे। नरेंद्र को एक बंगाली लड़का मिल गया था, जो वहाँ के डी एफ़ ओ. के नौकर का परिचित था, उसके गाँव का रहने वाला खालिस बंगाली मोशाय, नाम था 'बबलू'। तो श्री नरेंद्र जी उस ऐतिहासिक से घर में बहुत अकेला महसूस करने लगे थे। नौकर बब्लू भी बंगाली में बोलता था, बांग्ला अभी अधिक समझ में नहीं आती थी। बबलू की अक्ल भी ऐसी थी कि नरेंद्र के जान पर बन आयी थी… 

हुआ यूँ कि, गाँव के रहने वाले बब्लू ने चूल्हा और स्टोव तो देखा था। लेकिन गैस स्टोव और एल. पी. जी. उसके लिए निरे अनजाने और दुरूह थे। उसे गैस जलाने धीमा करने - वरने की जानकारी उसके साथी ने दे दी थी। घर का राशन, पानी बर्तन-चौका सभी दिखा समझा दिया। उस पर खाना चाय बनाने घर सम्हालने की जिम्मेदारी सौंप कर पाण्डेय जी निश्चिंत हो गये। लेकिन दूसरे दिन सुबह चाय बनाने के वक़्त पता चला कि, गैस सिलेंडर ख़त्म हो गया है। हैरानी हुई कि हफ़्ते भर में ऐसा क्या हुआ कि सारी गैस खत्म हो गयी? जब खोज की गयी तो पता चला कि, बब्लू जी ने काम ख़तम होने पर चूल्हे की तरह ही गैस को फूँक मार कर बुझा दिया था। स्टोव की नॉब खुली हुई थी, इसलिए सारी गैस रात भर में उड़ गयी थी…

गनीमत थी कि लकड़ी का घर, जिसके नीचे क्विंटलों लकड़ी रखी थी, आग लगने और जलने से बच गया था। 

  अकेलापन और इस तरह के हादसों से तंग हो कर, पाण्डेयजी ने शादी करने का मन बना लिया। इस बात को बताते हुए पिता जी को ख़त भी भेज दिया (उस ज़माने में मोबाइल था नहीं लैंड लाइन फोन भी कम ही थे)। 

  

 पिता (श्री चन्द्र शेखर पाण्डेय), उन दिनों यू.पी. के मिर्जापुर जिले के सिविल लाइन्स में एक किराये के घर में रहते थे। 38 साला जिला पंचायत अधिकारी की नौकरी से यहीं रिटायर हुए थे इसलिए वहीं रह रहे थे । नरेंद्र ने पिता से कहा कि, अब वो शादी के लिये तैयार है… कि आप ही कोई सुघड़ सलोनी लड़की देख दें, - कि "जवानी में गधी भी परी सी लगे है", ख़ुद देखेंगे तो कुछ सही - गलत ब्याह लायेंगे…। बहुत से रिश्ते आये, बिहार, बंगाल, बम्बई, दिल्ली तो कौन-कौन सी जगह से, पर कोई पसंद नहीं आ रहा था। तब एक रिश्ता आया बेतियाहाता गोरखपुर, उत्तर प्रदेश, के दुबे जी (श्री आर0 सी0 दूबे, एडवोकेट) का। कन्या दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय-गोरखपुर, से एम. एस. सी. (वनस्पति विज्ञान, वर्ष -1982-84) थी, नाम था - नम्रता दूबे ( 17 जनवरी 1963),माता का नाम श्रीमती कमला दुबे, पाँच साल बड़े भाई राकेश चन्द्र दुबे, तीन साल बड़े भाई राजेश चन्द्र दुबे की छोटी लाड़ली बेटी और बहिन। यही छोटा सा परिवार था, जहाँ से रिश्ता आया था नरेंद्र के लिए। 


   शादी ब्याह की बातें एकाध दिन में तो पूरी नहीं होतीं, कुछ महीनों तक पूछताछ जारी रही। दोनों पक्ष एक दूसरे की थाह लेते, तौल रहे थे… जैसे- कौन से ब्राह्मण हैं? गाँव-घर कहाँ है? नात-बाॅंत कैसे हैं आदि-इत्यादि। बात थोड़ी अटक रही थी कि, नरेंद्र जी सरयूपारी बाभन ठहरे और दुबे जी मालवीय, कुछ पट्टीदारी के लोगों ने ऊँच और नीचे बाभन का टंटा उठाया, पर बाकी बातें सही रहने से, यह मुद्दा खारिज कर दिया गया। फिर कन्या की फोटो आयी जो सभी को सुहाई, तो दिन तारीख तय हो गयी, कन्या के दिखायी की। 


   मिर्जापुर से विन्ध्याचल जाने के रास्ते में, गंगा जी के किनारे बिड़ला का रेस्ट हाउस है, नाम रखा गया था सिद्धपीठ। घनश्याम दास बिड़ला जी ने, यहीं गंगा के तीर पर, इसी घर में रहने की योजना बनायी थी, लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं। अधिकतर यह खाली ही रहता था। जब कभी रेणुकूट के हिंडाल्को और रेणुसागर के पावर प्लांट को देखने बिड़ला परिवार के सदस्य आते हैं तो यहाँ रुकते हैं। कभी-कभी इसे किराये पर भी आने-जाने वालों को दे दिया जाता है। इसी सिद्धपीठ में दुबे जी का परिवार गोरखपुर से आकर रुका हुआ था। 


  नरेंद्र के माता-पिता और दो बहनें, कन्या का साक्षात्कार लेने को बिड़ला रेस्ट हाउस पहुॅंच गये। पहली दिसंबर 1983 के दिन का तीसरा पहर था, दुबे जी और उनकी पत्नी ने सभी का स्वागत किया और चाय नाश्ते से आवभगत की। आशा थी कि चाय की ट्रे लेकर कन्या आयेगी (बॉलीवुड इश्टाइल में), परन्तु सभी इन्तजार ही करते रहे। रेस्ट हाउस के कारिंदे मेज पर नाश्ता चाय सजा कर चले गये। कुछ देर बाद दुबे जी के दोनों पुत्र राजेश, राकेश जी आये। परिचय के बाद बैठ गये। कन्या अभी तक नदारद ही थी। यहाँ एक बात बतानी ज़रूरी सी लगती है- दोनों दुबे भाई का डील-डौल, सूरत शक़्ल कुछ ऐसी थी कि शक होने लगा था कि कन्या भी यदि ऐसी हुई तो उसे सुन्दर या सुगठित नहीं कहा जा सकेगा। प्रतीक्षा भी काफ़ी हो चुकी थी, तो नरेन्द्र जी की माँ ने पुत्र-पुत्रियों से खूसपुसा कर कहा - "दुल्हिन देखो साले से, घर देखो ओसारे से"... जब साले यानी कन्या के भाई ऐसे हैं तो कन्या के बारे में यह कयास स्वाभाविक है कि वह भी कमोबेश ऐसी ही होगी। फलतः कन्या को देखने का कोई कारण नहीं रह जाता। समय भी काफी बीत चुका था, सभी का धैर्य चुक गया था। तब नरेन्द्र जी के पिता ने चलने का प्रस्ताव रखा। यानी की सभी कन्या को देखे बिना ही प्रस्थान करना चाहते थे।

  

पाण्डेय जी के इस प्रस्ताव पर, श्री दुबे ने हम लोगों को चलने का संकेत किया। सभी उठ कर प्रस्थान के उद्देश्य से चल दिये। रास्ता दिखाते हुए दुबे जी आगे चले, सभी पीछे चले। आगे चलकर एक कमरे में जब पहुँचे, तो कमरे के लटकते हुए खूबसूरत लैंप के नीचे एक गोरी चिट्टी लड़की, कुछ कत्थयी- लाल सिल्क की साड़ी में लिपटी खड़ी थी। चमकते, घुंघराले, काले- बाल जो फैशनेबल स्टाइल में कटे थे- गोरे चेहरे को और भी गोरा बनाते हुए कन्धे पर फैले हुए थे। पाँच फ़िट चार इंच के लगभग की सुडौल काया वाली वह कन्या किसी का भी मन मोह सकती थी। निराशा में लौटाते हुए नरेन्द्र जी तो ठिठक कर रह गये। ऐसा ही हाल परिवार के अन्य सदस्यों का भी था। दुबे जी ने अपनी कन्या का परिचय कराया। सभी वहाँ बैठे, कुछ देर बातचीत हुई। फिर अपना निर्णय सूचित करने के आश्वासन के बाद पाण्डेय परिवार विदा हुआ। 

   

   मिर्ज़ापुर के घर पहुँच कर नरेन्द्र ने कन्या को पसन्द करने की घोषणा की और छोटी बहिन से, अपनी भावी पत्नी की आयी हुई फोटो, चुपके से माँग कर अपने सूटकेस में रख ली और दूसरे दिन अपनी पोस्टिंग की जगह, गैरकाटा के लिए निकल गये। बेटे की रज़ामंदी के बाद दोनों परिवारों में विस्तार से विवाह संबंधित अन्य बातें हुईं। आने वाले वर्ष के 4 जून को विवाह होना निश्चित हुआ। घर में शादी की तैयारियाँ शुरू हो गयीं। 4 जून 1984 को गोरखपुर के कमला सदन में धूमधाम से नम्रता दुबे और नरेन्द्र पाण्डेय का ब्याह हो गया। विवाह के दूसरे दिन भात की रस्म के बाद बारात वापस आ गयी। कन्या की विदाई, उस दिन नहीं हुई, कुछ तिथि नक्षत्रों का चक्कर था। नरेंद्र और दो बहिनें गोरखपुर में ही ठहरे वधू को अगले दिन विदा कराने के लिए। 6 जून की दोपहर में, वधू की विदाई होनी थी… 


 विदा का दृश्य देखने लायक था। माँ-बाप और दो बड़े भाइयों की प्यारी दुलारी बेटी-बहिन की विदाई का दृश्य बेहद हृदय विदारक था। समझ में नहीं आ रहा था कि यह ससुराल के लिए विदाई है या सिर गिलोटिन पर रखे जाने का फ़रमान है…, माँ रह-रह कर बेसुध हो रही थी, घर और मोहल्ले की महिलाएं उन्हें सम्हाल रही थीं। दोनों भाई फूट-फ़ूट कर रो रहे थे और कन्या कार की खिड़की से कमर तक बाहर झूल-झूल कर क्रंदन कर रही थी। नरेन्द्र हतप्रभ हो रहे थे कि अपनी ब्याहता को विदा करायें या वहीं छोड़ जायें…!, राम - राम करके, किसी तरह से विदाई हुई, रोती-बिलखती, बेहाल वधू, नम्रता, जो कि मायके में गुड्डी कहलाती थीं, किसी तरह पति के बगल बैठ कर कमला निकेतन से विदा हुईं।


   सद्यः विदा हुई बहू, के सामने, अपने बचपन के दृश्य तैर गये… उसे याद आया अलीनगर का वो घर, जहाँ माँ - बाप किराये के मकान में रहते थे। दूसरे पुत्र के जन्म के तीन साल बाद यह कन्या जन्मी थी। मैदे की लोई सी सुन्दर गोल-मटोल कन्या को देख फूली नहीं समाती थी माँ। धन-वैभव की कमी नहीं थी। दो पुत्र पहले थे, ऐसे में एक सुन्दर, प्यारी सी बच्ची जीवन में मधुर बयार जैसी आयी थी। पिता तो प्रसन्न थे ही, दोनों बड़े भाई भी नन्हीं सी, प्यारी गुड़िया देख कर ऐसे खुश थे कि, जीता-जागता खिलौना मिल गया हो। प्रसव समान्य था, इसलिये तीसरे दिन अस्पताल से छुट्टी मिल गयी थी। नन्हीं सी बच्ची को लेकर प्रमुदित माँ-बाप घर आ गये थे। लाड़ - प्यार से नन्हीं बेटी नम्रता या गुड्डी हँसी-खुशी बढ़ रही थी। जन्म से स्वस्थ थी बच्ची, 3 किलो वज़न भारतीय मानकों से बहुत अच्छा था। बचपन भी स्वस्थ प्रसन्न बीत रहा था, गुड्डी चण्द्रमा की कलाओं की तरह बढ़ रही थी। घर में हर सदस्य की आँखों की तारा बनी, गुड्डी बड़ी हो रही थी। उसकी बाल-सुलभ क्रीडायें, उसका सुन्दर चेहरा सभी को मुग्ध करता था। बेटी भाग्यशाली थी, तीन साल बीतते- बीतते 1967 में दुबे परिवार, गोरखपुर के पॉश इलाके, बेतियाहाता में अपने निजी मकान में आ गये। 


आगे बड़ा सा सुन्दर लॉन, किनारे फूलों की क्यारियाँ। कोने में तुलसी का चौरा, गृहस्वामी के धार्मिक विश्वास को बताता स्थित था। लॉन के बगल से ड्राइव वे। आगे गाड़ी का गैराज जिसमें सफेद एंबेसडर कार खड़ी हुई थी। इसी रास्ते से लॉन के बाद, घर के बरामदे में जाने का रास्ता। आगे सजा हुआ बड़ा ड्रॉइंग रूम, उसके बगल में गेस्ट रुम, फिर अंदर का बरामदा। बरामदे के आजू-बाजू चार बेड रुम, बाथरुम के साथ। बीच में खुला आँगन, उसके दूसरे छोर पर रसोई और भंडार गृह।


ऊपर की मंजिल पर जो सीढ़ियां जाती थी वो आपको खुली छत पर पहुँचाती थीं। ऊपर भी कुछ बेड रुम बने थे। नौकर-चाकर, ड्राइवर आदि की सुख-सुविधाओं से लैस घर में, गुड्डी (नम्रता) खेल कूद कर बड़ी हो रही थी। जो भी देखता इस सुन्दर बच्ची को तो देखता ही रहता। साथ के बच्चों के बीच दबदबा बना कर रहना गुड्डी की आदत थी। मज़ाल है कि कोई बच्चा गुड्डी को चिढ़ाये या तंग कर ले… अपनी अगर नहीं चली तो दो बड़े भाई तो थे ही। हुआ यूँ कि एक दिन कोई बारात जा रही थी, सामने सड़क पर से। बारात किसी की भी हो, लोगों में बारात देखने की उत्सुकता तो होती ही है। बड़ी से बड़ी उम्र के लोग तक बारात देखने का लोभ-संवरण नहीं कर पाते तो बच्चों की बात ही क्या है। गुड्डी और दोनों भाई भी बारात देखने दौड़ पड़े। अपने गेट के सामने के रैम्प पर खड़े थे सभी, बगल में नाली थी (उस समय सीवर सिस्टम नहीं था गोरखपुर में), ज़्यादा गहरी तो नहीं थी, फिर भी पानी तो था ही। गुड्डी के सामने एक लंबा सा, दुबला पतला बच्चा बार - बार आ रहा था। जिस के कारण गुड्डी बारात देखने से वंचित हुई जा रही थी। थोड़ी देर इधर-उधर से जुगाड़ लगाने की कोशिश की, पर अन्त में धैर्य और संयम ने साथ छोड़ दिया, और गुड्डी ने एक जोरदार कोहनी उस बच्चे को लगायी। इस अचानक प्रहार से अनभिज्ञ बेचारा बच्चा बगल की नाली में जा गिरा… 

गुड्डी उस बात से अंजान बनी, आराम से बारात देखती रही, पूरी बारात देख कर ही वापस घर लौटी। 


गुड्डी की पढ़ाई भी शुरू हो गई थी, 'सेन्ट मेरीज़ स्कूल' में। को-एजुकेशन स्कूल था। दोनों भाई भी यहीं पढ़ते थे, इसलिए यहाँ भी गुड्डी रौब-दाब से रहती। पढ़ने में अच्छी थी इसलिए दोस्तों और टीचरों के बीच जानी पहचानी जाती थी। 

     

हँसती खेलती गुड्डी जब कक्षा 2 में आयी तो उसका जन्मदिन भी मनाया गया। स्कूल जाने के बाद से उसके अपने दोस्त और मित्र थे। पार्टी सिर्फ़ माँ-बाप और रिश्तेदारों से आगे आ गयी थी। इस आयोजन में गुड्डी के अपने आमंत्रित अतिथि थे, जिनके बीच उसकी अपनी पहचान थी। सफ़ेद ग़रारा और रंगीन कसीदाकारी से सजी सफ़ेद कुर्ती, जालीदार दुपट्टे में गोरी-गुलाबी गुड्डी बहुत प्यारी लग रही थी। साथियों के साथ खूब धमाचौकड़ी मचा कर मनाये हुए इस जन्मदिन की याद, आज तक नम्रता के मन में वैसी ही ताज़ा है। 

     

इस जन्मदिन के बाद कुछ ही समय बीता होगा कि स्वस्थ-प्रसन्न गुड्डी को चिकन-पॉक्स हो गये। बुखार से शुरू हुई ये बीमारी बढ़ती चली गयी। दवा, देखरेख, सभी किस्म की सावधानियों के बाद भी चेहरे और बदन पर दाने होते चले गये, जो नन्ही सी बच्ची को पीड़ित और पीड़ित करते गये। क़रीब पंद्रह-बीस दिनों के बाद दाने सूखे और बुखार उतरा। लेकिन बेहद कमजोर हो गयी गुड्डी, अब पहचान में नहीं आ रही थी। उसका उजला रंग जैसे स्याह पड़ गया था। चेहरे और हाथ-पाँव सभी पर दानों के दाग पड़े हुए थे। गोरी, गदबदी, सुन्दर गुड़िया सी गुड्डी, एकदम बदल गयी थी। इस ज़माने में सिर्फ़ चिकन पॉक्स से शरीर, रंग और शक़्ल ऐसी बदल जायेगी किसी ने सोचा भी नहीं था।

    

नन्हीं सी नाज़ुक सी गुड्डी पर इसका असर बहुत गहरा हुआ। वह चुप-चुप सी रहने लगी। उसे हैरानी होती कि अब उसे देख कर लोग अपने पास खींच कर प्यार नहीं करते, कितने तो उसे पहचान भी नहीं पाते थे। स्कूल के दोस्त भी थोड़ा कटे-कटे रहते। कमजोरी काफ़ी थी, इसलिये खेल-कूद से भी दूर रहना पड़ता था। लोगों की नज़रों में कुछ अलग सा भाव दिखायी देता था। गुड्डी सोचती कि, क्या गोरा रंग और सुन्दर शक़्ल ही इन्सान को सब कुछ बनाता है? क्या बुरे दिखने वाले को, दोस्त भी छोड़ देते हैं? क्या सब कुछ शक़्ल ही है? प्यार, पहचान, दोस्ती वगैरह सभी क्या ख़ूबसूरती पर ही निर्भर होती है? ऐसी परिस्थितियों ने गुड्डी के व्यक्तित्व को ही परिवर्तित कर दिया। अब उसकी दबंग छवि बदल गयी, वो शान्त सी अपने में सिमट कर रह गयी। पढ़ने में हमेशा ही अच्छी रही थी, अगर अव्वल नहीं भी आती थी, तो भी प्रथम पाँच में उसका स्थान हमेशा रहता था। कक्षा की पहली पंक्ति में बैठने वाली गुड्डी पीछे बैठने लगी। टीचर और साथियों के नज़रों से बचने लगी। 

     

 गुड्डी और बड़े भाई राकेश, जिन्हें गुड्डी, 'रक्कू भइया' कहती थी, पढ़ाई-लिखाई में अच्छे थे, मिजाज़ से भी तेज थे, दूसरे राजेश भइया जो, 'रज्जू भइया' कहलाते थे, पढ़ाई में उतने प्रखर नहीं थे। स्वभाव से शान्त थे। अपने दोस्तों के बीच वह इसलिये लोकप्रिय थे, क्योंकि उनमें उदारता बहुत अधिक थी। जैसे- किसी को पेंसिल की ज़रूरत हुई तो उसे पेन्सिल दे देते थे, वापस नहीं माँगते थे। अपना पेन्सिल बॉक्स, टिफिन का खाना वगैरह भी बड़ी उदारता से अपने साथियों में बाँट देते थे। यही हाल कभी कभार मिलने वाले बिस्कुट और टॉफ़ी का भी होता था। साथ के बच्चे इन सभी चीज़ों पर हाथ फेरते थे। नतीजतन रज्जू भइया के लिए कभी एक तो कभी एक भी टॉफ़ी या बिस्कुट नहीं बचता था। ऐसे रज्जू भइया, गुड्डी को भी उदारता सिखाते रहते थे। 

      

 दोस्तों के बदले व्यवहार से दुःखी, अपने टूटते आत्मविश्वास को समेटती गुड्डी अपने भाइयों के साथ ज़्यादा खुश रहती। स्कूल जाते-आते रास्ते में लगे पिक्चर के पोस्टर और दुकानों के नाम, उसमें लिखे अंग्रेज़ी के शब्दों की स्पेलिंग याद करती गुड्डी ख़ुद को व्यस्त रखती। वह घर में बहुत सी बातों में रुचि लेने लगी थी। उसकी माँ, हाथ की सिलाई मशीन पर कपड़े सिलती थीं। अब गुड्डी भी उनके साथ बैठ कर मशीन चलाना सीखने लगी थी। माँ ने उसे कपड़ों पर कच्ची बखिया, तुरपन और पक्की बखिया करना सिखाया। कशीदाकारी के भी कुछ टॉंकों से परिचित कराया। मेधावी गुड्डी ने बहुत कम समय में, यह सब सीख लिया और कुछ रुमाल माँ को बिना बताये, चुपके से बना डाले। छोटी सी बच्ची की ऐसी प्रतिभा देख कर माँ और पिता जी बहुत खुश हुए। भाइयों ने तो गुड्डी को गोद में लेकर हवा में उछाल दिया। सभी ने जमकर गुड्डी की तारीफ़ की। 

     

उसकी बीमारी के बाद से ही, माँ यह अनुभव कर रही थीं कि बेटी कुछ उदास सी रहती है। बेटी की उदासी देख कर, उसे व्यस्त रखने के लिए संगीत सिखाने का विचार आया। क्योंकि छुटपन से उसे गाने का शौक था। गाने की विधिवत शिक्षा होनी चाहिए। अतः शास्त्रीय संगीत सिखाने का निर्णय हुआ। किसी अच्छे शास्त्रीय संगीतज्ञ गुरू की तलाश शुरू हुई। उत्तर-प्रदेश में शास्त्रीय संगीत बेचारा, फ़िल्मी संगीत की मार का मारा, कहीं किसी अँधेरी गुफा में दुबका सा पड़ा रहता है। इसलिये आसानी से कोई अच्छा संगीत का शिक्षक मिल नहीं रहा था । एकाध जो मिले, वह घर आकर बच्ची को सिखाने के लिए तैयार नहीं थे। समस्या मुश्किल से और मुश्किल हो रही थी। लेकिन कहते हैं कि - "जिन ढूँढा तिन पाइयाँ "-, तो एक गुरू जी मिल ही गये। गुरु जी आँखों से सूर थे, परन्तु संगीत का गहरा ज्ञान था। अधेड़ उम्र के गुरू जी ने गुड्डी को शिष्या बनाना स्वीकार कर लिया। शाम के समय गुड्डी के स्कूल का होम-वर्क पूरा करने के बाद का समय संगीत के लिए निर्धारित था। गुरू जी आँखों से देख नहीं सकते थे, इसलिए उनको रास्ता दिखाने के लिए कई बार उनका भतीजा या कोई अन्य परिचित उनके साथ आता था। कुछ दिनों बाद गुरू जी को रास्ते का अभ्यास हो गया तो अकेले भी रिक्शा करके आ जाते। इस तरह गुड्डी के जीवन में एक नये अध्याय की शुरुआत हुई और वह शुद्ध, कोमल और तीव्र स्वरों और मंद्र, मध्य, तार सप्तकों को समझने लगी। संगीत में रूचि आयी तो मन भी बदला। ख़ुद से परेशान, दुःखी बच्ची अब समान्य सी होने लगी थी। इसी वर्ष गुड्डी ने कक्षा पाँच का पड़ाव पूरा किया। आगे की पढ़ाई 'कारमेल कॉन्वेंट' में शुरू हुई। कारमेल कॉन्वेंट की गोरखपुर में बहुत प्रतिष्ठा थी, शहर का यह ल़डकियों के लिए, अकेला अंग्रेजी माध्यम इंटर कॉलेज था। लोगों के बीच यह राय आम थी कि कारमेल कॉन्वेंट में पढ़ने वाली लड़कियाँ बुद्धिमान, स्मार्ट और सुन्दर होती हैं। 

   

स्कूल बदलने से कोई ख़ास बदलाव नहीं हुआ था। क्योंकि सेन्ट मेरीज़, और कारमेल कॉन्वेंट एक ही मिशनरी के जूनियर और सीनियर सेक्शन थे, ऐसे में साथी सहपाठी वही थे, जो आरम्भ से साथ पढ़ रहे थे। स्कूल में कुछ नये विद्यार्थी भी थे, लेकिन जल्द ही हमारी गुड्डी सभी से घुल मिल गयी और पढ़ाई लिखाई के साथ खेल कूद और मस्ती चल निकली।


  एक चिन्ता की बात अभी तक बनी हुई थी। गुड्डी की मानसिक और शारीरिक स्थित वैसी नहीं हो सकी थी जैसी बीमारी से पहले की हुआ करती थी। शारीरिक रूप से कुछ दुर्बलता बनी ही रही, इसका मानसिक कारण भी हो सकता था, वस्तुस्थिति यही थी कि कुछ समस्याएं तो थीं … जिसके कारण गुड्डी अधिक परिश्रम के काम या अधिक समय तक खेल कूद नहीं सकती थी। धीरे-धीरे उसका रंग-रूप ठीक हो रहा था। चेचक के निशान भी धुँधले हो गये थे। लेकिन कुछ तो ऐसा था जो पूर्ववत नहीं हुआ था। समान्य बच्चों में ऐसी सम्वेदनशीलता कम ही दिखती है, पर हमारी गुड्डी कुछ अलग ही रही है, बचपन से। शायद इसीलिये ईश्वर ने आजीवन उसे कठिन से कठिन परीक्षाओं में डाले रखा। 

  

गुड्डी का सिलाई और खाना बनाने का जुनून अभी भी बचपन जैसा ही था। मशीन पर अब सीधी सिलाई चलाना सीख गयी थी, तो अगला पड़ाव पेटीकोट बनाने का था। बड़ी लगन से माँ की देख-रेख में गुड्डी ने चारकली का पेटीकोट सिला जो माँ की नाप से बनाया था। उसे पहन कर माँ ने बिटिया को गले लगा लिया और दिल की गहराइयों से आशीष दिये। 

रसोई भी अब गुड्डी का कर्म क्षेत्र बन गया था। आटा गूँथना, टेढ़ी-मेढ़ी ही सही, रोटी बेलना, सब्जी छीलना काटना अब आसान हो गया था। उस दिन तो कमाल ही हो गया था, जब गुड्डी ने तरोई की सूखी सब्जी, रोटी और दाल, ख़ुद बिना किसी और की सहायता के बनाया था। इस उपलब्धि से उसमें खोया हुआ आत्मविश्वास कुछ वापस सा आने लगा था, गुड्डी और उसका परिवार खुश था। 

   

समय के साथ गुड्डी छोटी गुड़िया नहीं रही, बड़ी होने लगी थी। इसीलिए स्कूल के डिब्बेनुमा रिक्शे से स्कूल नहीं जाती थी। अधिकतर तो ड्राइवर, कार से स्कूल छोड़ता और ले आता था। लेकिन कभी-कभी कार नहीं रहती थी, तब रिक्शे से जाना पड़ता था, ऐसे में कोई नौकर साथ-साथ सायकिल से गुड्डी को स्कूल और स्कूल से घर पहुंचाता था। इसीलिए गुड्डी निश्चिंतता और सुरक्षा से घर से स्कूल और स्कूल से घर पहुँचती थी। परन्तु ऐसी सुविधा सभी ल़डकियों को कहाँ उपलब्ध थी। स्कूल बस, बहुत दूर के बच्चों के लिए ही जाती थीं, अन्यथा लड़कियां या लड़के पैदल या सायकिल से स्कूल जाते थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश का जिला गोरखपुर एक पिछड़ा सा इलाक़ा था। शहरी स्कूलों में, आसपास के गांवों और कस्बों के बच्चे (अधिकतर लड़के) भी पढ़ने आते थे। शहरी माहौल उनके लिए नया और मनोरंजक होता था। कारमेल कॉन्वेंट की लड़कियाँ उनके लिए आकर्षण का केंद्र होती थीं, क्योंकि वहाँ की यूनीफॉर्म स्कर्ट-ब्लाउज थी। जबकि अधिकांश कन्या विद्यालय में सलवार-कुर्ते का चलन था। ऐसे में आकर्षण स्वाभाविक था। हमारी नायिका यूँ ही देखने में सुन्दर, छरहरी, गोरे रंग पर काले चमकते बाल वो भी अंग्रेजी स्टाइल में कटे, तो ऐसी कन्या मनचलों की नज़र में कैसे न चढ़े? चढ़े तो बन्दा जुमले फेंके बिना कैसे रह सके? 

यूँ तो गुड्डी पर नज़र पड़ने की ज़्यादा गुंजाइश थी नहीं, फिर भी गाड़ी से उतर कर कॉलेज के गेट तक जाने में , या किसी दोस्त के मिल जाने पर थोड़ी देर बात करने के समय में ही मनचले छोकरे अपना शिकार खोज ही लेते थे। कुछ यहाँ तक ढीठ होते थे कि अगर गुड्डी रिक्शे से जा रही है तो पीछे सायकिल लगा देते और पीछे-पीछे चलते हुए घर तक पहुँच जाते थे। वो ज़माना फर्क़ था, लोग दूर से ही देख कर खुश हो जाते थे। तो कहानी यूँ हुई कि एक मनचला, बरसात के मौसम में गुड्डी के पीछे चल दिया। अब तो सड़कें अच्छी बन गयी हैं, लेकिन उस समय सड़कों का हाल, बेहाल रहता था, जगह-जगह गड्ढे होते थे जिनमें बरसाती पानी भर जाता था। वह मनचला बन्दा पीछे चल रहा था, आगे एक ऐसा ही पानी का चहबच्चा था। उस समय देवानंद की "जॉनी मेरा नाम", फिल्म आयी थी। फ़िल्म हिट भी खूब थी। उसका गाना - "नफ़रत करने वालों के सीने में प्यार भर दूँ, 

मैं वो दिवाना हूँ, पत्थर को मोम कर दूँ" -, लोगों के बीच काफ़ी लोकप्रिय था। उस मनचले ने अपनी सृजनात्मकता का परिचय देते हुए हुए गाना शुरू किया -" नफ़रत करने वालों को कीचड़ में फंसा दूँ" - और ये कहते-कहते बन्दा ख़ुद ही एक गड्ढे में फंसा और सायकिल सहित गिर पड़ा। बहुत देर से तंग गुड्डी ने चैन की साँस ली, और कहा "अन्धे की तरह चलता है, अंधा राम"..., फिर तो उसका नामकरण हो गया - अन्धे राम-। उस घटना के बाद गुड्डी को लगा था कि, वह बन्दा पीछा छोड़ देगा, पर नहीं। अब तो घर देख लिया था, तो घर के आसपास चक्कर लगाने लगा। अगर कहीं गुड्डी दिख जाए तो, सायकिल रोक कर उसकी चेन ठीक करने का बहाना करता हुआ वहीं टिक कर, कनखियों से गुड्डी को देखता रहता। यह सिलसिला छुट्टियों के दिन और रविवार को भी चलने लगा। गुड्डी का घर के लॉन में निकलना, छत पर जाना या अड़ोसी- पड़ोसी के घर जाना भी मुश्किल हो गया था। ऊब कर गुड्डी ने ये बातें घर में अन्य सदस्यों को बतायीं। बहिन को जान से बढ़ कर मनाने वाले दोनों भाइयों को गुस्सा आ गया। एक बार जब अन्धे-राम चक्कर लगा रहे थे, गुड्डी ने उसे अपने भाइयों को पहचनवा दिया। फिर तो दोनों भाइयों ने उसे सबक सिखाने की ठान ली। अपने कुछ दोस्तों के साथ हॉकी स्टिक्स ले कर उसका पीछा किया, और मोहल्ले से कुछ दूर, एक खुली जगह पर, प्यार से समझा दिया। उस दिन के बाद अन्धेराम की कथा समाप्त हुई, और गुड्डी ने चैन की साँस ली। 


 धीरे-धीरे समान्य हो रही नम्रता की सूरत-शक़्ल पर चेचक का असर ख़तम हो गया था, किशोरावस्था का रूप निखर आया था। फिर उसमें आत्मविश्वास भी लौटा था। पढ़ाई के साथ, सिलाई, कढ़ाई और संगीत भी चल रहा था। स्कूल में सबसे अधिक आनंद आता था सहेली शोभिता के साथ, जिसको फ़िल्म देखने का बहुत शौक था। उस समय नेट-फ्लिक्स, यू ट्यूब, प्राइम वीडियो आदि जैसे ओ. टी. टी प्लेटफॉर्म तो थे नहीं, फ़िल्म देखना बहुत से घरों में अच्छा नहीं माना जाता था। ऐसे में यदि कोई भी फ़िल्म देख कर आता तो फ़िल्म की कहानी सुनना, उस समय का बहुत बड़ा मनोरंजन होता था। शोभिता फ़िल्म ख़ूब देखती थी तो गुड्डी उसके साथ बैठ कर फ़िल्मों की स्टोरी सुनती थी। फ़िल्मी गाने सुनना भी गुड्डी को बहुत पसंद था। साइंस इतनी उन्नति कर चुका था कि छोटे-छोटे ट्रांजिस्टर आने लगे थे जो बैट्री से कई दिनों तक चलते थे। पैसे वाले परिवारों के बच्चों के पास ऐसे ट्रांजिस्टर होते थे। जिन्हें बस्तों में छिपा कर लड़के-लड़कियाँ स्कूल लाते थे। इनपर क्रिकेट कमेन्ट्री और फ़िल्मी गाने सुने जाते थे। गुड्डी को किशोर कुमार के गाने बेहद पसंद थे। उन्हें ट्रांजिस्टर पर सुनना उसका शौक था। दूसरे शब्दों में कहें तो गुड्डी किशोर कुमार की फैन थी। घर में भी उसके फुफेरे, ममेरे भाई-बहिन सभी को फ़िल्मी गानों का बहुत शौक था। ऐसा नहीं था कि सभी फुफेरे, ममेरे भाई-बहिन एक घर में रहते थे, पर सभी आसपास बेतियाहाता मोहल्ले में ही रहते थे। बात यह थी कि गुड्डी की बुआ की शादी उसके मामा के साथ हुई थी, तो मामा और बुआ, ये दो रिश्ते बनते थे दुबे जी के बच्चों के साथ। मामा, मामा के अलावा फूफा भी थे, और मामी, मामी तो थीं साथ में बुआ भी थीं। यूँ तो मामा- मामी अमेरिका में रहते थे। लेकिन मामा और बुआ के कई भाई - बहिन वहीं बेतियाहाता में रहते थे। सभी उम्र में लगभग बराबर थे बस कुछ वर्षो का अन्तर था, उन भाई-बहिनों में। यह सभी अक्सर किसी एक घर में इकट्ठा होते। ऐसे में सबसे बड़ा मनोरंजन होता, फ़िल्मी गीतों की अंत्याक्षरी या फिर गाने सुनना - सुनाना। गुड्डी भी सबके साथ सुर में सुर मिलती। किशोर कुमार का जादू कुछ ऐसा सिर चढ़ कर बोलता कि गुड्डी किशोर कुमार की नौकरानी भी बनने को तैयार थी। इस बात को लेकर उसका खूब मज़ाक भी बनता था। लेकिन गुड्डी को बिल्कुल बुरा नहीं लगता था। आज भी किशोर कुमार के गाने सुनाना उसे पसन्द है। 

नम्रता को कपड़ों की डिजाइन करना और खूबसूरत कपड़े पहनना अच्छा लगता था। उसके सुरुचिपूर्ण चुनाव का यह असर था कि, घर के सभी सदस्यों के कपड़ों का चुनाव करने की जिम्मेदारी उसी पर रहती थी। खाना क्या और कैसा बनेगा इसका निर्णय भी वही लेती थी। घर भर की दुलारी थी, आँखों का तारा थी। स्कूल में पढ़ाई के अलावा पाठ्येतर गतिविधियों में भी उत्साह से भाग लेती थी। नाटक, गाने और नृत्य के कार्यक्रम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थी। यूँ तो हर विषय अच्छे थे लेकिन फिजिक्स समझने में कुछ दिक्कत होती थी, ऐसे में पिता जी ने एक 27-28 वर्ष के युवक को ट्यूटर की तरह रखा। वह पढ़ाते तो ठीक थे, लेकिन कुछ हरकतें अजीब होती थीं उनकी, वह गुड्डी की कॉपी में कभी कोई रोमान्टिक गाना, कभी शायरी लिख देते तो कभी फूल या दिल का चित्र बना देते थे। यह बातें नम्रता ने जब अपनी माँ को बतायीं तो ट्यूटर साहब की नीयत की खोट सूँघ कर, माँ ने उनकी छुट्टी कर दी। वैसे भी अब सत्र ख़त्म होने वाला था। स्वभाव से कुछ आदर्शवादी सी थी नम्रता अतः उसे स्कूल की कुछ बातें बिल्कुल पसंद नहीं आती थीं। यथा जो लड़कियाँ टीचर की अनावश्यक चमचागिरी करती थीं, उन पर टीचर्स भी ज्यादा ध्यान देती थीं। उन्हें प्रैक्टिकल और होम एग्ज़ाम में नम्बर भी अधिक मिलते थे। यह पक्षपातपूर्ण रवैय्या गुड्डी को बिल्कुल पसंद नहीं आता था। उसे यह भी लगता था कि दूसरे स्कूलों की तुलना में उसके स्कूल की टीचर्स अच्छी और योग्य नहीं थीं, जबकि सत्यता यह थी कि सभी स्कूलों की कमोबेश यही स्थिति थी और आज भी ऐसा ही परिदृश्य है। जैसे - तैसे वह स्कूल में पढ़ती रही और प्रथम श्रेणी में हाई स्कूल पास हो गयी।   


   एक बात यहाँ उल्लेखनीय है : समय के साथ गुड्डी ने यह अनुभव करना शुरू किया कि, उसकी कुछ सहेलियों में उसके रूप और गुणों के लेकर कुछ ईर्ष्या पनपने लगी है। इसका अनुभव उसे तब होता था, जब उसकी अपनी ही पुरानी सहेलियाँ किसी पार्टी या प्रोग्राम में बाहर जातीं तो उसे अक्सर नज़रंदाज कर दिया जाता। सहेलियाँ कहाँ गई थीं, इसका पता उसे बहुत बाद में चलता। यह अनुभव उसे कहीं भीतर तक आहत करता। उसे समझ में ही नहीं आता कि उसके साथ ऐसा क्यों होता है? जब चेचक के कारण कुछ सालों तक वह थोड़ी कुरूप हो गयी थी, तब भी लोग उससे कतराने लगे थे और अब जब वो फिर से ठीक और सुन्दर दिखने लगी थी, तब भी उसे वैसी ही अवहेलना मिल रही थी। दुःखी गुड्डी इस पहेली को सुलझा नहीं पाती थी। 


   ऐसे कटु अनुभवों के कारण, बचपन की दबंग गुड्डी बहुत खामोश और काफ़ी अंतर्मुखी हो गयी थी। घर में वह खुश रहती, क्योंकि वहाँ उसकी सूरत शक़्ल से किसी को कोई फर्क़ नहीं पड़ता था। वह सभी की दुलारी तब भी थी, जब चेचक ने उसे भद्दा बना दिया था और आज जब वो ठीक हो गयी है तब भी। परन्तु जल्द ही यह सुख भी सूख गया, जब घर में मामी और उनकी बेटी आयी। मामी की बेटी गुड्डी से कुछ साल बड़ी थी। दोनों में बचपन से अच्छी बनती थी। छुट्टियों में जब कभी वो आती तो दोनों खूब सारा समय साथ गुजराती थीं, दोनों, एक-दूसरे की हमराज़ और दोस्त थीं। लेकिन अब मामी ने जब उसे देखा तो उनकी बातों से ये स्पष्ट झलक रहा था कि उन्हें अपनी बेटी, गुड्डी से कम लग रही थी। थोड़ा ईर्ष्या का पुट बहिन के व्यवहार में भी दिखता था। अपने ही परिवार में इस भावना को देख कर वह और अधिक परेशान और निराश हो गयी थी। सबसे अधिक दुःख उसे तब हुआ जब, उसकी बहिन की शादी एक जगह तय हुई। वर पक्ष को कन्या देखने केलिए आना था। घर में ही सारा इन्तजाम किया गया था। गुड्डी भी इस बात को लेकर ख़ासी उत्साहित थी। दीदी के साथ, उसे क्या पहनना है, कैसे मेकअप करना है, यह सब तैयारियाँ चल रही थीं। दीदी भी खुश थी कि उनको सलाह और सहायता देने वाली एक क़ाबिल और हमराज़ बहिन है। जिसके साथ तसल्ली से वह सारी बातें कह सकती है, जिन्हें माँ-बाप के सामने कहने की हिम्मत भी नहीं होती। लेकिन ये खुशी और साथ ज़्यादा देर नहीं रहा। निश्चित दिन से एक दिन पहले ही, मामी ने नम्रता को स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दी कि, जब वर-पक्ष घर आयें, तो उसे अपने कमरे में ही रहना होगा, किसी के सामने नहीं पड़ना है। मामी ने अपनी बात को थोड़ा मधुर बनाते हुए कहा कि, "हम नहीं चाहते कि लड़के वाले, हमारी लड़की के साथ उससे छोटी और सुन्दर दूसरी लड़की को देखें और कौन जाने गुड्डी को ही पसन्द कर जायें, आये दिन सुनायी देता है, कि बड़ी लड़की की जगह छोटी को पसन्द कर लिया गया। हमें ऐसा छीछालेदर नहीं पसन्द है।" 

  ऐसे में आप सहज ही अन्दाज लगा सकते हैं कि किशोर-वय नम्रता के मन में कैसे भाव उठ रहे होंगे? कुछ देर के लिए तो उसे परिवार, रिश्ते सभी के वज़ूद पर शक होने लगा था। लेकिन यही तो जिन्दगी है, ऐसी बातें होती रहती हैं और इनके साथ जीना सीखना पड़ता है। ऐसी बातों से ऊपर उठना पड़ता है। 

  

   स्कूल का जीवन भी ठीक-ठाक चल रहा था, कभी कुछ अच्छा तो कुछ बिना मन का, लेकिन सब चल रहा था। दो वर्षों की पढ़ाई के बाद नम्रता उच्च द्वितीय श्रेणी में इन्टर पास हो गयी। लम्बी छुट्टियाँ मिली थीं। अब कि बार पूरे परिवार ने नेपाल घूमने का कार्यक्रम बनाया। अपनी कार तो थी ही, उसी से यात्रा करनी थी, आराम से बिना झंझट के। ड्राइवर भी था तो बस मज़े ही मज़े थे। गोरखपुर से नेपाल का बार्डर कई जगहों से छूता है। नेपाल जाने के लिए पासपोर्ट आदि का भी चक्कर नहीं है। जब भारत की सीमा पार करके नेपाल में प्रवेश करते हैं, तो एक अनुमति-पत्र बनवाना होता है, जिसे नेपाली में 'भंसार' कहते हैं। इसमें आपको अपने नेपाल प्रवास की अवधि बतानी होती है, उतने दिन की अनुमति लेने के बाद कोई भी आराम से नेपाल घूम सकता है।'भंसार' बनवा कर दुबे परिवार नेपाल में आनंद से छुट्टियाँ मनाने लगा। उस समय नेपाल का सबसे बड़ा आकर्षण था, विदेशी सामानों की उपलब्धता। नेपाल की मुद्रा भी रुपये से सस्ती है, कभी 40 पैसे, कभी 50 पैसे और कभी 60 पैसे का एक नेपाली रुपया होता है। मूल्य घटता - बढ़ता रहता है। ऐसे में नेपाल में सामान खरीदना सस्ता पड़ता था। भारतीय रुपये वहाँ बिना किसी परेशानी के चलते हैं, इसलिये नेपाल विदेश जैसा लगता ही नहीं है। बस एक फर्क़ भारत और नेपाल में यह था कि, भारत में विदेशी समान खुले बाज़ारों में नहीं मिलता था, जबकि नेपाल में विदेशी सामानों की भरमार रहती थी। नेपाल का घरेलू उत्पादन बहुत कम था। रोज़मर्रा की चीज़े भी विदेशी ही होती थीं। भारतीयों के लिए विदेशी नेलकटर, ताश के पत्ते, परफ्यूम, केल्कुलेटर, चाकू, घड़ियां और जैकेट आदि मुख्य आकर्षक होते थे। विदेशी शर्ट - पैंट के कपड़े भी लोगों को बहुत लुभाते थे। लड़कियों और महिलाओं में नेपाल में विदेशों से आने वाली "नाइलेक्स" और "वूली" साड़ियों का क्रेज़ हुआ करता था। इस अवसर को किसी ने भी हाथ से नहीं जाने दिया। साड़ियों की खरीदारी बहुत मन से की गयी। माँ की साड़ियों के साथ नम्रता ने अपने लिये भी कुछ साड़ियां ख़रीदीं। ताली की आवाज़ से जलने वाले जापानी टेबिल लैंप, "पीलीधारी" के पैंट के कपड़े ख़रीद कर सभी बहुत खुश थे। 

      

नेपाल के लिये भारत में एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है, "सूर्य अस्त, नेपाल मस्त"। यानी शाम के समय नेपाल में मदिरा-पान बहुत आम चीज़ है। पुरुष ही नहीं, महिलायें भी बेझिझक शराब पीती हैं। भारत की तरह नेपाल में शराब पीना 'टैबू' नहीं है। एक दिन दुबे परिवार, भैरहवा से पोखरा जा रहे थे। सड़क के किनारे की एक ढाबली पर, जाली की टोकरी में बहुत सुन्दर, ताज़े चकोतरे टंगे हुए थे। नम्रता चकोतरे खरीदने के लिए अकेली ही चल दी। अभी वह दुकान के पास पहुँची ही थी कि, पीछे से भाई और ड्राइवर तेज़ी से आते हुए दिखाई दिये। तब तक नम्रता भी समझ चुकी थी कि क्यों उसे वापस बुलाया जा रहा… वहाँ उस दुकान पर दिन के वक़्त ही, कुछ ग्रामीण सी महिलायें और पुरुष दारू पी रहे थे, साथ में चखने के लिए चकोतरे का सलाद खा रहे थे। यह सब देख कर कुछ चौंकी और हँसती हुई नम्रता भाई के साथ, चकोतरे खरीदे बिना ही गाड़ी में लौट गयी। पोखरा के दर्शनीय स्थलों को देखते हुए, रात में परिवार, होटल ड्रैगन में रुका। 

    

नेपाल घूमना बेकार है, यदि बुद्ध भगवान की जन्मभूमि "लुम्बिनी" का दर्शन नहीं किया। जब कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी अपने नैहर देवदह जा रही थीं, तो रास्ते में लुम्बिनी वन में ही बुद्ध यानी सिद्धार्थ का जन्म हुआ। बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए यह परम पावन तीर्थ है। यह स्थान नेपाल के तराई क्षेत्र में कपिलवस्तु और देवदह के बीच में आता है। जहां प्राचीन काल में, लुम्बिनी नाम का वन था, जो अब नहीं है। बुद्ध भगवान की जन्मस्थली होने के कारण यह एक प्रसिद्ध बौद्ध-तीर्थस्थल और पर्यटकों आकर्षण है।


  भैरहवा, बिराटनगर, पोखरा, नगरकोट, भक्तपुर और जनकपुर आदि दर्शनीय स्थानों को देखने के बाद, सभी नेपाल की राजधानी काठमांडू पहुँचे। वहाँ के प्रसिद्ध पाँच सितारा होटल 'सॉल्टी ओबेरॉय' में रुके। 'सॉल्टी ओबेरॉय' में आने का कारण वहां का प्रसिद्ध 'कसीनो' भी था। भारत में कहीं भी उस समय कसीनो नहीं था। जबकि नेपाल में यह काफ़ी समय से है। मज़े की बात ये है कि यहाँ काम तो नेपाल के नागरिक कर सकते हैं, पर कसीनो में जुआ खेलने के लिए नेपाली नागरिकों पर प्रतिबंध है। मात्र विदेशी नागरिक ही यहाँ खेल सकते हैं। चौंकिए नहीं, समझदार हैं नेपाली, जुए में शायद ही कोई जीत पाता है। सामन्यतः सभी अपना पैसा गॅंवा कर ही जाते हैं। नेपाल के नागरिकों को जुए के नुकसान से बचने के लिए ही यह नियम है। यहाँ पर सभी कसीनो की स्लॉट- मशीन पर टोकन लेकर खेलने गये। दोनों भाई हार कर अपने सारे टोकन गॅंवा कर, मुँह लटका कर आये। लेकिन गुड्डी ने अपने टोकन दुगने कर लिये, भाग्य ने उसको विजय दिलायी। नम्रता की जीत की खुशी में भाई प्रसन्न थे। यात्रा के सुखद अनुभव के साथ खुशी-खुशी सभी कुछ और दिन नेपाल में बिता कर, "लौट के बुद्धू घर को आये" (कहीं भी बाहर से घूम कर आने पर इन भाई - बहिन का ये प्रिय वाक्य था), वापस घर आगये। 

    

अब नम्रता को ग्रेजुएशन के लिए दाखिला लेना था। छात्रों की वरीयता में, गोरखपुर यूनिवर्सिटी पहले नंबर पर और सेन्ट एंड्रयूज डिग्री कॉलेज दूसरे नंबर पर आता था। नम्रता ने दोनों ही जगहों पर फॉर्म भरे। नम्रता की पढ़ाई का रेकॉर्ड आरम्भ से ही अच्छा था। उसे यूनिवर्सिटी में बी.एस.सी. प्रथम वर्ष में दाख़िला मिल गया। यूनिवर्सिटी के पंत ब्लॉक में कक्षायें चलती थीं। यहाँ नया अनुभव यह था कि उसे अब को-एजुकेशन में पढ़ना था। इसलिये स्कर्ट छोड़ कर सलवार या चूड़ीदार के साथ कुर्ता और चुन्नी पहन कर सयानी लड़की की तरह यूनिवर्सिटी जाना शुरू किया। आरंभ के दिनों में उसे इस नयी पोषाक में उलझन होती थी, लेकिन धीरे-धीरे इसकी आदत बन गयी। यूँ उसे यह पोशाक अच्छी नहीं लगती थी। लेकिन सत्यता यह थी कि लम्बी, दुबली-पतली नम्रता बहुत आकर्षक लगती थी, इस लिबास में। सुन्दर सी अंग्रेजी ढंग से कटे बालों वाली लड़की, गोरखपुर के लड़कों के लिए देखने की चीज़ थी। 


ग्रेजुएशन तक पहुॅंचते-पहुॅंचते शहर के अलावा आसपास के छोटे शहरों, कस्बों और गाॅंवों के भी छात्र गोरखपुर यूनिवर्सिटी पहुँचने लगते थे। क्योंकि अन्य छोटी जगहों में साइंस के विषय के अच्छे विद्यालय मिलने कठिन होते थे। ऐसी छोटी जगहों के विद्यार्थियों के लिए शहर के साथ-साथ, शहरी लड़कियाँ भी बहुत बड़ा आश्चर्य होती थीं। ऐसे नवागंतुक छात्रों की कृपा से, आये दिन कुछ फ़िकरे, कुछ आवाजकशी का सभी ल़डकियों को झेलनी पड़ती थी। नम्रता भी इससे अछूती नहीं थी, अपने संवेदनशील स्वभाव के कारण इनका असर उस पर ज़्यादा होता था। फोड़े पर फुंसी की तरह, अचानक यहाँ एक और दिवाने से टकरा गयी … वही फिजिक्स के मजनू मिज़ाज ट्यूटर साहब। वह इस समय, यूनिवर्सिटी में रिसर्च स्टुडेंट थे। नम्रता को देख कर बहुत प्रसन्न हो गये। तपाक से मिल कर उसका और परिवार का हाल - चाल पूछा। एक ज़िम्मेदार बुज़ुर्ग की तरह, किसी जरूरत या परेशानी में सहायता का आश्वासन भी दिया। फिर तो वह यदाकदा मिलने लगे। उस दिन तो हद ही हो गयी जब उन्होंने अपनी सीमा रेखा पार करते हुए एक पत्र नम्रता को पकड़ाया। अब तो वह गुस्से से बेकाबू हो गयी थी। पत्र को वहीं फाड़ कर टुकड़े - टुकड़े कर दिया और बहुत कुछ खरी-खोटी सुनायी। यह सब देखने के लिए चारों ओर कुछ उत्सुक लोगों का घेरा बन गया… बेचारे ट्यूटर जी इस अकस्मात आक्रमण से बौखला कर जो भागे तो दुबारा नम्रता के सामने नहीं पड़े। नम्रता के इस रौद्र रूप को देखकर कुछ अन्य मनचलों ने भी सीख ले ली। आगे यूनिवर्सिटी का माहौल कुछ सहज लगने लगा था। 


   वो ज़माना आज के ज़माने से बहुत फर्क़ था। सह-शिक्षा में भी लड़के-लड़कियों के बीच हिन्दुस्तान-पाकिस्तान सा अलगाव रहता था। क्लास में लड़कियां आगे की सीट पर बैठती थीं, यह एक अलिखित नियम था कि, लड़के, जितनी लड़कियाँ कक्षा में होती थीं, उनके लिए उतनी सीट आगे छोड़ने के बाद की ही सीट पर बैठते थे। लड़कियॉं जल्दी आये या देर में, उसके लिये आगे की सीटें खाली रहती थीं। कक्षा में, प्रैक्टिकल में हर जगह यह विभाजन रेखा अटूट - अडिग खड़ी रहती थी। लड़के-लड़कियाँ सामान्य तौर पर एक दूसरे से बातें नहीं करते थे, जब तक कोई किसी के जानपहचान या रिश्तेदारी में नहीं आता था। ऐसे में लड़के, लड़कियों से बात करने के मौके तलाशते रहते थे। वह सिर्फ़ छींटाकशी ही नहीं करते थे, बल्कि कई प्रकार की स्वयंसेवा के लिए भी तत्पर रहते थे, जैसे लाइब्रेरी कार्ड बनवाना, किताबें ईश्यू कराना, कैन्टीन से नाश्ता या चाय लाना आदि-आदि। उनका निरीक्षण बहुत सूक्ष्म रहता था, जैसे ही कोई लड़की लाइब्रेरी के पास दिखती थी, वैसे ही यह स्वयंसेवी उसकी परेशानी पूछने और सहायता प्रस्तुत करने में अपने को झोंक देते थे। लगभग सभी लड़कियाँ, लड़कों को अपनी इतनी सहायता करने का सुअवसर देकर उन्हें कृतार्थ करती थीं। नम्रता ने भी इस महान परम्परा को बनाये रखा। लडकियों के कॉमन रुम में सभी लड़कियाँ यह बातें करके खूब हँसती भी थीं। परन्तु भोले-भोले, बेचारे से लड़के, हर बात से अनभिज्ञ, अपनी सेवायें प्रदान करके, ल़डकियों के सूक्ष्म सान्निध्य को पा, प्रसन्न रहते। लेकिन कुछ लड़के तो अपने को हीरो भी समझ बैठते थे, कि, "देखो लड़कियाँ मुझे कितना पसन्द करती हैं"। इनमें से कुछ कल्पनाशील युवक, इस सीमा तक कल्पना कर लेते थे कि, फलां लड़की, कुछ दबा-छिपा प्यार भी करने लगी है, और बेचारे दिवास्वप्नों में गोते लगाने लगते। 

   नम्रता समान्य छात्र - छात्राओं से कुछ बातों में अलग थी। उसे पहुँचाने गाड़ी जाती थी, जिसमें कई बार उसकी माँ भी जाती थीं कि बेटी को छोड़ने के बाद शहर के कुछ काम निबटा लेंगी। उसकी माँ कुछ इतनी रौब वाली थीं कि जो मनचले लड़के उन्हें देख लेते थे, वो फिर नम्रता की ओर आँख उठा कर नहीं देखते थे। फिर भी कुछ तो ऐसे थे कि अपनी आदत से बाज़ नहीं आते थे। जब नये बैच की इन्ट्रोडक्शन पार्टी थी तो, सीनियर लड़कों ने काफी तंग करने की कोशिश की, किसी तरह से उन्हें पता था कि किशोर कुमार के गाने और किशोर कुमार की फैन है वो, ऐसे में घुमा फिरा कर बात गानों पर आती लेकिन गुड्डी उसे किसी भी बहाने से टाल कर बात दूसरी दिशा में मोड़ देती। अपनी चालाकी से यह मौका निकाल लिया था आराम से।

अपनी आँखें और कान सहित सभी ज्ञानेन्द्रियॉं खुली रखने के बाद भी एक छोटी हास्यास्पद सी घटना हो गयी थी। हुआ कुछ यूँ था - नम्रता का ननिहाल बस्ती जिले में था। बस्ती, गोरखपुर से सटा, एक अविकसित सा जिला था। लेकिन कुछ परिचित पढ़-लिख कर बहुत सी अच्छी जगहों पर पहुँच गये थे। ऐसे ही एक लेक्चरर आये थे नम्रता के बैच को पढ़ाने। चूँकि वह उसके माँ के गाँव के थे, तो बुला लिया उसे हालचाल पूछने को। नम्रता भी आराम से डिपार्टमेंट में लेक्चरर के कमरे में बैठ कर आत्मीयता से बात कर रही थी। बड़ा सहारा मिला था कि कोई बड़ा है यहाँ जो उसका ख्य़ाल रख सकता है। बातों-बातों में जब यह बात आयी कि उसे कोई दिक्कत तो नहीं है, तो नम्रता ने बताया कि एक लड़का है जिसके बाल और मूंछें सभी बहुत भूरी सी हैं। वह अक्सर उसे घूर कर देखता है, कि वह बड़ा डरावना लगता है। उसका नाम नहीं पता। 

इतना कह कर इत्मीनान की साँस ले कर नम्रता बाहर आ गयी। कुछ दिनों बाद पता चला कि, जिस बन्दे से डर की बात उसने, अपने परिचित टीचर को बतायी थी, वो, उस टीचर का भतीजा था… नम्रता को काटो तो खून नहीं। लेकिन तब तक सत्र ख़तम हो रहा था, कोर्स समाप्त हो गया था, और बिना प्रिप्रेशन लीव के भी, विद्यार्थी लीव पर जा रहे थे, तो गुड्डी ने भी, यूनिवर्सिटी आना बन्द कर दिया। परीक्षायें आरंभ हो गयीं, घर से शगुन का दही - पेड़ा खाकर, भगवान को हाथ जोड़ कर, गुड्डी भइया, पापा, मम्मी सभी के साथ गाड़ी में बैठी। यह दुबे परिवार का नियम था कि परीक्षाओं के लिए जो भी सन्तान जाती थी, पूरा परिवार उसे परीक्षा-केंद्र पहुँचाने जाता था। माँ, पिता जी के पाँव छू कर परीक्षा देने पहुँच गयी। उसका हस्तलेख अच्छा था, पर लिखने की गति बहुत धीमी रहती थी, इसलिए परीक्षा केंद्र से निकलने वाली वह आखिरी परीक्षार्थी होती थी। परीक्षा नियंत्रक सभी की उत्तर-पुस्तिका इकट्ठी करके उसकी उत्तर पुस्तिका के इंतजार में थोड़ा थके और चिढ़े हुए खड़े रहते थे। खैर, सभी प्रश्नपत्र सकुशल संपन्न हुए और प्रथम श्रेणी के अंक लेकर वह पास हो गयी। 

  

गर्मियों की छुट्टियाँ घूमते- टहलते, सोते और पिक्चर्स देखते बीती। सत्र शुरू होने पर यूनिवर्सिटी के वनस्पति-विज्ञान विभाग में प्रवेश ले कर एम.एस.सी की पढ़ाई शुरू हुई। विज्ञान विषयों में सामान्यतः लड़कियाँ संख्या कम होती हैं। गणित और भौतिकी में तो लगभग न के बराबर होती हैं। रसायन शास्त्र उसके बाद आता है। जन्तु विज्ञान और वनस्पति विज्ञान में अन्य विषयों की अपेक्षा अधिक लड़कियाँ प्रवेश लेती हैं। गोरखपुर के उस विश्वविद्यालय में उस पुराने समय में, वनस्पति विज्ञान में कोई 12 लड़कियाँ थीं। लड़के कोई 18-20 रहे होंगे। कुछ तो शहर के थे जो उसी शहर या किसी अन्य बड़े शहरों से आये थे। कुछ छात्र ऐसे थे जो कुछ सालों से शहर में रह रहे थे गाँव, कस्बों से आकर। लेकिन सबसे अलग कुछ विद्यार्थी ऐसे भी थे जो सीधे एम.एस.सी में ताजे - ताजे गाँव या तहसीलों से आये थे। लड़कियों की समस्या यही लड़के होते थे। क्योंकि शहर की लडकियाँ उनके लिए आकर्षण से अधिक उत्सुकता का बिन्दु होती थीं। ऐसा ही एक लड़का था 'राजीव' जिसको नम्रता सम्भवतः अच्छी लगती थी या अजीब। वह पढ़ाई के दौरान कक्षा में बैठ कर पूरे समय मुँह पर अजीब सी मुस्कान लिये, नम्रता को देखता रहता था। एक सेमेस्टर खत्म होने के बाद प्रैक्टिकल का इम्तिहान था। संयोग भी अजीब होते हैं, राजीव की सीट, नम्रता की सीट के ठीक पीछे पड़ी थी। परीक्षा में किये जाने वाले प्रैक्टिकल का विषय सभी को मिल चुका था। नम्रता अपने विषय पर ध्यान केंद्रित किए हुए थी, कि अचानक पीछे से राजीव ने एक चिट नम्रता के पास फेंकी। इम्तहान का दबाव या उत्सुकता किसी भी कारण से उसने, वह चिट लेकर खोली। जिसमें लिखा था, "पूरे समय मैंने सिर्फ़ आपको देखा, पढ़ाई की नहीं, अब मैं क्या करूँ?" दुर्भाग्य से एग्ज़ामिनर ने इस आदान-प्रदान का कुछ हिस्सा देख लिया। उसने नम्रता और राजीव दोनों की तलाशी ली। नकल करने की चिट तो नहीं मिली, लेकिन परीक्षक को शक तो हो ही गया था। नतीजतन बिना किसी गुनाह की सज़ा मिली नम्रता को, उसे मात्र पास होने वाले अंक मिले, इस परीक्षा में। सामन्यतः वह अच्छी विद्यार्थी थी। अतः एक प्रैक्टिकल में अंक कम होने से अधिक नुकसान नहीं हुआ। अन्य विषयों के अच्छे अंक मिला कर परीक्षा में प्रथम श्रेणी आयी। उसने चैन की साँस ली। कुछ खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ दूसरा और तीसरा सेमेस्टर निकल गया। अब चौथा और आखिरी सेमेस्टर चल रहा था। प्रैक्टिकल क्लास चल रहा था। किसी सहपाठी की स्लाइड बहुत अच्छी बनी थी। टीचर ने माइक्रोस्कोप में स्लाइड लगा कर, सभी को उसे देखने केलिए कहा। सभी विद्यार्थी देख रहे थे, नम्रता भी खड़ी थी, अपनी पारी के इंतजार में। तभी एक सहपाठी ने कुछ अस्पष्ट सी आवाज में फब्ती कसी। उसे सुन कर नम्रता को गुस्सा आ गया। क्रोध और उत्तेजना में उस छात्र का हाथ पकड़ कर नम्रता उसे खींचती हुई, टीचर के पास लेकर चली। सर्दियों के दिन थे, सभी टीचर लैब के सामने धूप में कुर्सी निकाल कर बैठे थे। वहाँ तक पहुँचते - पहुँचते अपमान, क्रोध और उत्तेजना आदि मनोभावों से पीड़ित नम्रता ख़ुद ही बेहोश होकर गिर गयी। उसे जब होश आया तो वह लैब की मेज़ पर पड़ी थी। चेहरे पर पानी पड़ा हुआ था, जिसके साथ कुछ इंक के छींटे भी चेहरे पर पड़े हुए थे (उस समय बॉल पॉइन्ट पेन नहीं इंक वाले पिचर पेन का ज़माना था)। जब नम्रता ने बाथरुम में ख़ुद को देखा तो चौंक गयी, चेहरा नीला, सारे बाल चेहरे से चिपके, अजीब डरावने लग रहे थे। दुबे जी के घर में फोन था। डिपार्टमेंट से घर फोन करके घर वालों को सूचना भेज दी गई थी। कुछ देर बाद गाड़ी आ गयी और वह वापस घर पहुँच गयी। इस घटना के बाद, सत्र के अन्त तक नम्रता को लड़कों की ओर से कोई परेशानी नहीं हुई, और प्रथम श्रेणी में नम्रता ने एम.एस.सी. पास कर लिया। 

      

गर्मियों की छुट्टियों के बाद नम्रता ने डॉ. कमल के दिग्दर्शन में Ph. D. में प्रवेश लिया। लेकिन छह महीने के शोध कार्य के बाद, नम्रता की शादी तय हो गई। इसलिये शोध कार्य बन्द करा दिया गया और नम्रता शादी की तैयारियों में लग गयी… तभी गाड़ी को जोर का झटका लगा, सड़क ख़राब थी और गाड़ी किसी गड्ढे से झटका खा कर निकली थी। इस झटके से नम्रता की तन्द्रा टूटी और वह वर्तमान समय में पहुँच गयी। जहाँ वो अपने मायके से विदा होकर ससुराल जा रही थी। बगल में पति थे। जिनसे पिछले कुछ महीनों से परिचित हो चुकी थी, पत्रों के माध्यम से। शादी दिसम्बर में तय हुई थी, और 5 जून को शादी हुई थी। इन छः-सात महीनों में दोनों कई पत्र लिख चुके थे एक - दूसरे को। उस समय न तो मिलने का कोई सवाल था न वीडियो कॉल का, सो पत्रों के माध्यम से ही सभी प्रेम - प्यार और दोस्ती चला करते थे। विदाई और घर से दूर जाने के दुःख को इस स्मृति विचरण ने थोड़ा कम कर दिया था। वधू बनी नम्रता अब प्राकृतस्थ हो गयी थी। फिर हँसी खुशी सभी लोग दोपहर होते-होते मिर्जापुर में अपने घर पहुँचे। इस तरह हमारी नायिका, नम्रता दुबे, श्रीमती नम्रता पाण्डेय बन कर ससुराल पहुंचीं और रीति-रिवाज़ों से वधू आगमन पूरा हुआ। यह एक नया जीवन था, विवाहित जीवन। माँ - बाप की छत्रछाया से दूर स्वावलंबन और जिम्मेदारियों का जीवन।

    

घर पहुँच कर सभी रीतियों को पूरा करते हुए, अन्त में नम्रता अपने कमरे में पहुँची। एक रस्म बाकी थी, सास द्वारा बहू की मुँह दिखाई की रस्म। रात होने को थी, सास ने बहू का मुहँ देखने की रस्म पूरी की। फिर बहू को कुछ देर आराम करने की मोहलत मिली। आराम करने के बाद, कंकण खुलने की पूजा के लिए आने का निर्देश देकर सास चली गयीं। गर्मी के मौसम में कुछ हल्के कपड़े पहन कर, दुबारा तैयार हो कर, पूजा में प्रवेश किया। पूजा करीब एक घण्टे चली। पूजा सम्पन्न होने के बाद देव स्थान का दर्शन भी आवश्यक होता है। मिर्जापुर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर, माँ विन्ध्यवासिनी देवी का प्रसिद्ध तीर्थ विन्ध्याचल है। नम्रता और नरेंद्र देवी विन्ध्यवासिनी के दर्शन के लिए गये और शाम ढलते वापस आये। शाम का नाश्ता कमरे में ही हुआ। फिर घर के अन्य सदस्यों ने बहू से परिचय किया और रात के भोजन का समय आया तो, नम्रता की जेठानी और ननद नम्रता के श्रृंगार में सहायता करने के लिए गयीं। सुहागरात के लिए बहू को तैयार होना था। लाल ज़री की साड़ी में सजी नम्रता बहुत सुन्दर लग रही थी। उसे कमरे में भेज दिया गया। थोड़ी देर बाद खाना, दूध और कुछ और ज़रूरी सामान कमरे में पहुँचा दिये गये। कुछ देर बाद नरेंद्र, जिन्हें घर में सभी मुन्ना कहते थे, अपनी नवोढ़ा के पास सफ़ेद कुर्ते - पाजामे में सजे हुए पहुँचे। दोनों ही गोरखपुर यूनिवर्सिटी से पढ़े हुए थे। नरेंद्र ने भी वनस्पति विज्ञान से एम.एस.सी. किया था। अतः बातों का सिलसिला चल निकला। वही सब बातें करते हुए, शादी के रीति - रिवाजों से पिछले दो - तीन दिनों से थकी नम्रता बिना खाना खाये ही सो गयी। सुहागरात के उसी श्रृंगार और कपड़ों में। 

  

ससुराल में तीन दिन रह कर, चौथे दिन पाँव-फेरे के लिए उसे मायके जाना था। रक्कू भइया आये थे विदा कराने। दोपहर के भोजन के बाद वह लोग गोरखपुर चले गये। करीब एक सप्ताह बाद नम्रता दुबारा ससुराल पहुँची और दो दिन बाद नरेंद्र और नम्रता ट्रेन से जलपाईगुड़ी के लिए निकल गये। ए.सी. फर्स्ट क्लास में दोनों बैठे। यानी ख़ुद की पूरी जगह और निजता भी भरपूर। नव विवाहित जोड़े के लिए इससे अधिक सुख क्या हो सकता है? दोनों आनंद में एक-दूसरे से चुहल करते आराम से जा रहे थे। घर से खाने - पीने का समान नहीं लिया था। ट्रेन में ही खाना मँगाया, दोनों ने खाना खाया। नरेंद्र बिस्तर वगैरह ठीक करके जब खाली हुए तो नम्रता की ओर देखा। ज्यादा समय नहीं हुआ था, इसलिये बातचीत के इरादे से नरेंद्र ने कई बार उसे पुकारा। लेकिन नम्रता में कुछ हरक़त नहीं हुई। नरेंद्र ने हिलाया- डुलाया फिर भी कोई हरक़त नहीं… अब तो नरेंद्र को डर लगने लगा कि कहीं खाने में कुछ गड़बड़ तो नहीं थी। ट्रेन में जहरीला खाना खाने से हुई सभी दुर्घटनाओं के समाचार आँखों के सामने घूमने लगे। वह बेहद परेशान हो गए कि पहली बार बीवी के साथ अकेले निकलते ही ये क्या हो गया। साँसे तेज हो गयीं और ए. सी. की ठंडक के बावजूद पसीने - पसीने होने लगे थे नरेंद्र। हड़बड़ाहट में बड़ी ज़ोर से झकझोर कर नम्रता-नम्रता चिल्ला उठे …. 

धीरे से नम्रता ने आँखें खोलीं और पूछा, क्या हुआ आप चिल्ला क्यों रहे हैं??? नरेंद्र अपनी सीट पर ढह गये। थोड़ी देर ख़ुद को नियंत्रित करने के बाद, जब नम्रता को पूरी बात बतायी तो दोनों बहुत देर तक हँसते रहे…। ऐसे ही आनंद करते हुए दोनों सुबह के समय जलपाईगुड़ी पहुँचे। वहां के डी.एफ़.ओ. ने गाड़ी भेजी थी, उन्हें स्टेशन से लाने के लिए। साथ में नौकर बबलू भी था। समान आदि रख कर वो दोनों गैरकाटा के लिए चल दिये,जहाँ नरेंद्र की पोस्टिंग थी। बंगाल नम्रता के लिए नया था। बड़े उत्साह से सभी कुछ देखते हुए जब घर पहुँचे तो ढेर सारे पेड़ पौधों के बीच बने उस लकड़ी के घर को देख कर नम्रता को असम के घरों की याद आ गयी। शहर से दूर, ऐसा नया सा घर, आसपास का बाग - बगीचा देख कर प्रसन्न थी नम्रता। घर के पीछे के किचेन गार्डन में लगे हुए अनन्नास के पौधे देख कर तो हैरान ही रह गयी थी वो। 


एकाध दिन आराम करने के बाद गृहणी के रूप में नम्रता ने घर को अपने ढंग से सुव्यवस्थित और साफ़ करना शुरू किया। बहुत कुछ व्यवस्थित करके जब शयन कक्ष की एक आलमारी खोली तो वहाँ कुछ बोतलें दिखीं। जिसमें कुछ गंदे से रंग के अजीब गंध वाले द्रव रखे थे। यह गन्दा पानी फेंक कर सारी बोतलें कचरे में पहुंचा दी गयीं। शाम को पति ने घर आकर साफ़ सुथरा घर देखा तो प्रसन्न हो गये। लेकिन जब रात में किसी काम से वही अलमारी खोली तो सारी महँगी और अच्छी दारू की बोतलों को न पाकर हैरानी हुई। नम्रता से पूछने पर पता चला कि सभी बोतलों का पानी (!) फेंक कर उन उन बोतलों में से कुछ को इस्तेमाल के लिए और बाकी को कूड़े में पहुॅंचा दिया गया है… बेचारे नरेंद्र को गुस्सा भी आया और हैरानी भी हुई कि बी.एस.सी. तक विज्ञान में रसायन शास्त्र पढ़ी, अंग्रेज़ी माध्यम में पूरी शिक्षा लेने वाली पढ़ी-लिखी बीवी, बोतलों पर छपे नाम पढ़ कर भी कैसे नहीं जान सकी कि वह क़ीमती सिंगल मॉल्ट की बोतलें थीं? उसने अन्जाने में, हजारों रुपये की क़ीमती शराब नाली में बहा दी थी। नम्रता का चेहरा देख कर नरेंद्र को लगा कि भोलेपन में नम्रता ने यह सब कर डाला है, उसके पीछे कोई दुर्भावना नहीं थी। बाद में तो ये बात जोक की तरह मित्रों में याद की जाने लगी। एक मित्र ने चुटकी लेते हुए कहा कि, "मुझे इस बात का पता होता तो, मैं खिड़की के नीचे मुँह खोल कर खड़ा हो जाता…" 

इसी तरह के बहुत से नये अनुभवों में समय गुज़र रहा था। 

बंगाल में सबसे बड़ी समस्या भाषा की थी। वहाँ जंगल विभाग के कर्मचारी और आसपास के लगभग सभी लोग बाँग्ला बोलते थे। घर का नौकर भी हिन्दी न के बराबर जनता था। ऐसे में अकेलापन अधिक रहता था, तो समय काटने के लिए नम्रता लोगों को चिट्ठियां लिखती। उस समय फोन बहुत कम थे और मोबाइल तो था ही नहीं। समाचार का माध्यम चिट्ठियां और टेलीग्राम (तार) ही थे। टेलीग्राम तो मात्र आकस्मिक समाचारों के लिए ही भेजा जाता था। उस ज़माने में पत्र लिखना और आये हुए पत्रों को बार-बार पढ़ना समय बिताने का अच्छा बहाना रहते थे। 

   

 जिस घर में नम्रता-नरेंद्र रहते थे, उसका वर्णन तो पहले भी किया है। घर की छत लकड़ी की थी। इसलिये छत के नीचे, कमरे की ओर कैनवास की फाल्स सीलिंग लगी हुई थी। बरामदे की फाल्स सीलिंग एक जगह से थोड़ी फटी हुई थी। जिससे छत पर लगे पटरों के बीच से आसमान दिखाई देता था। नम्रता बरामदे में बैठी थी कि अचानक उस छेद पर नज़र गई तो किसी बड़े जानवर का भूरा- पीला सा पेट दिखाई दिया। डर के मारे नम्रता चीख पड़ी और जोर से भागी तो साड़ी में फॅंस कर गिर गयी। अब तो और जोर से चिल्लाई। साँस तेज़ी से चलने लगी, डर से चेहरा सफ़ेद पड़ गया। नरेंद्र घबरा कर भागते हुए आये। नम्रता की हालत देखी और पूछा कि क्या हुआ तो नम्रता ने बताया कि, "छत पर मगरमच्छ बैठा है… इस जंगल में इतने खतरनाक जानवर हैं आपने बताया भी नहीं…", इतना सुन कर नरेंद्र ने हँसना शुरू कर दिया। गिरी हुई नम्रता अब तक उठ चुकी थी और झुंझलाहट में पति को देख रही थी। गुस्से में बोली, "अन्दर चलिये जल्दी से, किसी को बुलवाइए और मगर को फेंकवा दीजिए, इस घर में अब नहीं रहेंगे, बहुत ख़तरनाक जगह है, अभी तो ऊपर है, कहीं घर में घुस गया तो किसी की खैर नहीं…", अपनी हँसी पर काबू पाते हुए नरेंद्र ने बताया कि, वो 'मॉनीटर लिज़र्ड' यानी 'गोह' है। बस बड़ी सी छिपकली, उससे डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। बंगाल के उस हिस्से में गोह बहुत संख्या में रहते थे। उन्हीं में से कोई छत पर भी आ गया होगा। यह आते रहते हैं और घूमते रहते हैं ये लिज़र्ड। बस तुमने उसका पेट देखा और मगरमच्छ समझ बैठीं। यहाँ छत पर मगरमच्छ नहीं आते। अब नम्रता की जान में जान आयी, लेकिन इस घटना के बाद, उसने बरामदे में जाना छोड़ ही दिया। 

  

एक दिन अपने दोस्त के साथ नम्रता नरेंद्र यूँ ही शाम को टहल रहे थे, सड़कों पर बातें करते हुए। दोस्त भी हिन्दी भाषी था। कुछ देर बाद नम्रता को लगा कि सड़क पर चलने वाले बहुत से लोग उन्हें जगह-जगह खड़े होकर देख रहे हैं। अजीब सा लगा था उसे। तब नरेंद्र ने बताया कि, यहाँ हिन्दी बहुत कम लोग बोलते हैं। इन सभी को हमारी भाषा और कपड़े अलग से लग रहे हैं। इसलिए सभी देख रहे हैं। ऐसी छोटी और धुर बंगाली जगह देखना और अनुभव करना नम्रता के लिए बहुत नया था। सभी विचित्रताओं के बाद भी, इस तरह की जगह में रहना अच्छा लगा था। 

  

नरेंद्र की ट्रेनिंग अब पूरी हो रही थी। यानी अब गैरकाटा छोड़ने का समय आ रहा था। ट्रेनिंग के अंतिम दिन जलपाईगुड़ी के डी.एफ़.ओ. ने पाण्डेय दंपती को डिनर पर बुलाया था। डी. एफ़. ओ. बंगाली थे। नरेंद्र ने बांग्ला सीख ली थी, अतः समझने या बोलने में दिक्कत नहीं थी। डिनर के समय सारी बातचीत बांग्ला में होती रही। करीब दो घण्टे चले इस भोजन के दौरान नम्रता को मात्र एक शब्द समझ में आया 'छिलो'। इस तरह बेहद बोर होकर डिनर पूरा हुआ। खाने के बाद दोनों फॉरेस्ट रेस्ट हाउस में रुके। कुछ दिन वहीं पर रहे, क्योंकि ट्रेनिंग पूरी हो चुकी थी और नयी पोस्टिंग नहीं आयी थी। वहाँ से भूटान बहुत पास था तो नरेंद्र ने भूटान घूमने का कार्यक्रम बनाया। कार से तीन-चार दिनों के लिए दोनों भूटान गये। वहां विदेशी समान खूब अच्छा मिलता था। खूब सारी शॉपिंग करके घूम-फिर कर, ये लोग वापस आये तो पता चला कि झाड़ग्राम के लिए नरेंद्र की पोस्टिंग आ गयी है। ऐसे में दोनों गैरकाटा लौटे, नम्रता को मायके की याद आ रही थी तो वह कुछ दिनों के लिए गोरखपुर चली गयी। नरेंद्र झाड़ग्राम पहुँच गये कार्यभार संभालने और घर की खोज करने। झाड़ग्राम ज़िला मुख्यालय नहीं है, तहसील है। इसकी विशेषता यह है कि शहर साल के जंगल के अंदर बसा है। समझ लीजिए कि जंगल के कुछ कुछ हिस्सों को काट कर सड़क, घर,और कार्यालय आदि बना दिये गये हैं। अपने तरह का यह बंगाल का अकेला शहर है। बहुत छायादार और हराभरा महौल रहता है झाड़ग्राम का। यहाँ पोस्टिंग थी ए. सी. एफ़. की और डी. एफ़. ओ. से अटैच थे। यह ट्रेनिंग का दूसरा स्तर होता है। इस पद पर सरकारी घर नहीं मिलता। नरेंद्र ने कार्यालय के पास ही घर ढूँढना शुरू किया। घोष बाबू का दो मंजिला घर था। इसमें चार हिस्से थे, ऊपर के बड़े हिस्से में घोष बाबू अपनी पत्नी और चार बच्चों के साथ रहते थे। उनका होटल का धंधा था। दो बेटे थे, बड़ा बेटा रोज़गार में मदद करता था। दो लड़कियाँ और छोटा लड़का पढ़ाई कर रहे थे। ऊपर का दूसरा हिस्सा दो कमरों का था, साथ में रसोई और बरामदा। यही नरेंद्र को 400 रुपये प्रति माह, किराये पर मिला था। नीचे साहू जी अपनी पत्नी और दो पुत्रियों डोला - माला के साथ रहते थे। नीचे के दूसरे हिस्से में बिहार के व्यापारी सज्जन रहते थे। जिनकी एक पुत्री और पत्नी थीं। घर बहुत ही छोटा और असुविधा पूर्ण था। जल-कल का पानी नहीं आता था। दैनिक जरूरतों के लिए कुँए से पानी भरा जाता था। लेकिन नौकरी की शुरुआत थी, सामान ज्यादा था नहीं और कुछ समय ही इस पद पर इस जगह रहना था, तो नरेंद्र जी समान सहित जम गये घर में। एक नौकर भी मिल गया था 'सपन'। घर कार्यालय बहुत नज़दीक था तो पैदल ही आते-जाते थे। जब सब ठीक-ठाक हो गया तो सितंबर के महीने में नम्रता भी झाड़ग्राम आ गईं। सबसे अच्छी बात यहाँ यह रही कि होटल वाले मकान मालिक घोष बाबू दोनों वक़्त गर्मागर्म चाय पहुँचवा देते थे। बाकी का काम सपन करता था। नम्रता को डोला-माला मिल गयीं थी। जिन्होंने अच्छी दोस्ती बना ली थी। साथ - साथ घूमना फिरना और बाँग्ला का ज्ञान वर्धन करना इन दोनों ने बखूबी किया। बंगाल से अंजान नम्रता को बहुत अच्छा लगा। सितम्बर अंत होते ही वहाँ दुर्गा पूजा की गहमागहमी शुरू हो गयी। बंगाल में दुर्गा पूजा सबसे महत्त्वपूर्ण त्यौहार है। बंगाली महीनों पहले से ही इसकी तैयारी शुरू कर देते हैं। यह सब नया था नम्रता के लिए इसलिए नयी बातें देखने की खुशी हो रही थी। डोला - माला के साथ बाज़ारों का चक्कर लग जाता, शाम की हवाखोरी भी हो जाती। ऐसे ही एक दिन जब नम्रता को थोड़ा जुक़ाम था, शाम को तीनों घूमने निकली थीं। कुछ दूर जाने पर देखा कि नरेंद्र ऑफिस से लौट रहे हैं, तो नम्रता दोस्तों को टहलता छोड़ कर घर केलिए वापस मुड़ कर तेज़ी से चलने लगी। जुकाम था तो बीच-बीच में नाक पोंछती वह घर पहुँची थी कि पिछले पीछे नरेंद्र भी पहुँच गये। आते ही पूछा कि, "तुम सड़क पर रोती हुई क्यों आ रही थीं? ऐसा मैंने कौन सा दुःख दे दिया कि तुम सड़क-सड़क घूम कर रो रही हो? अभी तो मायके से आयी हो, क्या दुबारा जाना है? कौन सी बात का दुःख है जो तुम मुझे नहीं बता सकतीं और मोहल्ले भर को पता है… नरेंद्र का गुस्सा भड़क रहा था। नम्रता हक्की-बक्की नरेंद्र को देख रही थी। शादी के बाद ये पहला मौका था जब पति इतनी ज़ोर से नाराज़ हो रहे थे। यूँ ही नरेंद्र की आवाज बहुत तेज़ थी, जिससे शादी के बाद पहले दिन से ही नम्रता चौंकी थी और थोड़ा दुःखी भी रही थी। आज नाराज़गी में तो नरेंद्र की आवाज़ से नम्रता दहल गयी थी। उसे बिल्कुल समझ में नहीं आ रहा था कि उसने ऐसा क्या कर दिया है जो पति का गुस्सा शान्त ही नहीं हो रहा है। तब तक डोला - माला भी लौट आयीं थीं और आवाज़ सुन कर ऊपर सीढ़ी चढ़ रही थीं। किसी के आने की आहट से नरेंद्र चुप हो गये। दोनों अंदर आयीं तो पूछ बैठीं की भाभी क्या हो गया है? दोस्तों के आने के बाद नम्रता ने नरेंद्र को बताया कि, वह इन दोनों के साथ घूमने गयी थी और आपको आता देख कर वापस आ गयी थी, वह कहीं भी किसी सड़क पर रो नहीं रही थी।डोला - माला ने इस बात का समर्थन किया। नरेंद्र शान्त हो गये। कुछ देर बाद बताया कि, जब वह वापस आ रहे थे तो कुँए पर पानी भरने वाली कई महिलाओं को उन्होंने कहते सुना था, "कातो सुन्दर मेये कातो कष्टो आछे? ए रकम कान्द छे"। नरेंद्र को बांग्ला समझ में आती थी इसलिये उसे गुस्सा आना स्वाभाविक था। सोचने पर ध्यान गया कि जुकाम के कारण नाक पोछने को उन महिलाओं ने रुदन मान लिया था और इस सुन्दर लड़की के रोने के कारण पर विचार चल रहा था। यह बात ऐसी थी कि आज 38 वर्ष बीत जाने पर भी दोनों की स्मृति में सजीव है। 

  

अब दुर्गा पूजा की तैयारियाँ जोर-शोर से होने लगी थीं। जगह-जगह दुर्गा पंडालों की रचनायें की जा रही थीं। बंगाल में अलग-अलग थीम के पंडाल बनाये जाने की परम्परा है। हर पूजा समिति चाहती है कि उसका पंडाल अलग और विशेष लगे। पंडालों की प्रतियोगिता सी चलती है और प्रथम, द्वितीय आदि स्थान भी दिए जाते हैं, साथ में पुरस्कार भी मिलता है, अच्छे पंडाल लगाने वाली पूजा समितियों को। बंगाल की यह सभी विशेषताएं जानकर अच्छा लगा नम्रता को। अक्सर वह कभी अपनी प्रिय मित्र डोला-माला के साथ या नरेंद्र के साथ यह सब आयोजन देखने चली जाती थी। पूजा के तीन-चार दिनों में तो पैदल ही सारा झाड़ग्राम देख डाला था इन सभी ने। 

  

नम्रता की एक मामी अमेरिका में ओहायो में रहती हैं। ये वही मामी हैं जिनका उल्लेख आगे भी किया है, यानी एक रिश्ते से बुआ और दूसरे रिश्ते से मामी लगाती है। दो रिश्तों के कारण जन्म से रिश्ता है उनके साथ, फलतः बहुत गहरा और प्यार का सम्बन्ध रहा है नम्रता और मामी के बीच। यही मामी कुछ अपरिहार्य कारणों से नम्रता की शादी में नहीं आ सकी थीं। उसी की भरपाई करने के लिए वह दो महीनों के लिए भारत आ रही थीं, ऐसे में नम्रता कैसे न जाती? दिसंबर के पहले सप्ताह में वह गोरखपुर चली गई। वहाँ मामी और परिवार के सदस्य उसका इंतज़ार कर रहे थे। सभी से मिल कर बहुत खुश थी नम्रता। हैरानी तो तब हुई जब किसी ने उसे "लम्ब्रेटा" कह कर पुकारा। घूम के देखा तो बचपन का दोस्त अजय बथवाल खड़ा हँस रहा था। नम्रता के नाम को 'लम्ब्रेटा' में बदलने का काम इसी बाल-सखा का था। वह कभी भी नम्रता को गुड्डी या नम्रता नहीं कहता, हमेशा लम्ब्रेटा नाम से ही पुकारता था। अजय बथवाल का घर कमला-निकेतन के ठीक सामने सड़क के दूसरी ओर था। गोलघर के 'बथवाल वस्त्रालय' के मालिक हैं अजय के पिता। बथवाल और दुबे परिवार पड़ोसी के साथ-साथ गहरे मित्र भी हैं। नम्रता और अजय बचपन से ही अच्छे दोस्त थे। समय के साथ नम्रता की शादी हुई और अजय की भी। कुछ देर बाद अजय की पत्नी भी मिलने आयी। अजय की शादी में नम्रता नहीं आ पायी थी, क्योंकि उसकी शादी के बाद ही अजय की शादी हुई थी और सिर्फ़ दोस्त की शादी में सम्मिलित होने के लिये, शादी के तुरन्त बाद वह नहीं आ सकी थी। अजय की पत्नी बहुत सुन्दर और मधुर भाषी थी। उसने भी जब नम्रता को 'लम्ब्रेटा दीदी' कर कर छेड़ा तो, गुड्डी अजय को मारने के लिए दौड़ पड़ी। घर के अन्य सदस्य इस पूरे माहौल का खूब आनंद ले रहे थे। मायके आने का यही तो सुख है। सारी जिम्मेदारियों से दूर आप फिर से बच्चे बन जाते हैं, माँ-बाप और मित्रों के साथ। काफ़ी देर भेंट मुलाक़ात के बाद सभी खा-पी कर आराम करने गये। दूसरे दिन से सभी अपनी-अपनी बातें सुनाते और सुनते रहे। दिन कैसे कट जाता, पता ही नहीं चलता था। सभी एक बार फिर से साथ रहने का भरपूर आनंद ले लेना चाहते थे। ऐसे में घर के अलावा घूमने-फिरने के कार्यक्रम भी बनते रहते। कभी शहर घूमने का कार्यक्रम बनता तो सभी गोलघर घूमने जाते। गोलघर, कोई घर नहीं है, यह गोरखपुर का फैशन मार्केट माना जाता है। गोरखपुर वासियों के शॉपिंग करने और घूमने का प्रिय स्थान। गोरखपुर का पुराना और सस्ता बाज़ार उर्दू बाज़ार है। सब्जी, गल्ला मंडी साहबगंज है। किताबों और स्टेशनरी का बाज़ार बक्शीपुर है। यानी परिवार या दोस्तों के साथ तफ़रीह करने कोई भी साहेबगंज या उर्दू बाज़ार नहीं जाता था,। लोग यहाँ काम करने के लिए ही जाते थे। गोलघर ही मस्ती-मज़े करने के लिए पसन्दीदा स्थान हुआ करता है। यहाँ सभी आकर्षण हैं, कपड़े, रेडीमेड कपड़े, साड़ियां, जनरल स्टोर्स, रेस्तरां आदि के अलावा थोड़ी सी दूरी पर सिनेमाहॉल यानी सभी आकर्षण एक जगह। विदेश से आयी मामी का आकर्षण थीं यहाँ की हैंडलूम की दुकानें। पूर्वी उत्तर-प्रदेश में हैंडलूम का अच्छा उत्पादन होता है। गोरखपुर पूर्वी उत्तर प्रदेश का बड़ा ज़िला है। इसलिये यहाँ आस-पास के क्षेत्रों से आये हैंडलूम उत्पाद खूब मिलते हैं और दाम भी बहुत वाज़िब होता है। ऐसे में विदेश में रहने वाली मामी भला इस मोह से कैसे दूर रहतीं। सो कुछ समान ख़रीद ही लिये जाते थे। 'श्रृंगार-भवन' से कुछ बिंदी, चूड़ी कंगन की खरीदारी होती तो अच्छी किस्म के दिख जाने पर सैन्डल या चप्पल भी ले लिये जाते। थक जाने पर बॉबीज़ में पेस्ट्री और चाऊमीन का स्वाद लिया जाता तो कभी गणेश होटल चाय या चाट के चटखारे थकान उतारते। 'अग्रवाल क्रीम' भी अच्छा ठिकाना था। सर्दियों में आइसक्रीम खाने का जो आनंद है वो गर्मियों में कहाँ, ऐसी मान्यता थी नम्रता की। सर्दियों में आप इसका ज़्यादा मज़ा इसलिये ले सकते हैं, क्योंकि आइसक्रीम पिघलती नहीं, गर्मियों में तो जल्दी से नहीं खाया तो आइसक्रीम खाने की जगह पीनी पड़ती है। इतना सब खाने के बाद अगर गुलकन्द वाला मीठा पान नहीं खाया तो गोलघर क्या ख़ाक घूमा? गोरखपुर में पान की दुकान तो "चेतना पान-भंडार", इस ज़िले की प्रसिद्ध पान की दुकान। जब घरों में शादी-ब्याह, पार्टी आदि होती थी तो चेतना के पान के लिए शहर के कोने-कोने से लोग आते थे। हर तरह का पान यहाँ मिलता है, मघई, देसी, बनारसी और बंगला आदि। मीठा पान, गुलकन्द वाला खुशबूदार पान, हीर-मोती वाला, ज़र्दे-किमाम वाला या फिर सदा चूने- कत्थे सुपारी वाला। भीगी सुपारी, सूखी सुपारी, बिना सुपारी, मीठी सुपारी सभी तरह की सुपारियॉं उपलब्ध रहती हैं, जिन्हें ख़रीदार अपनी मर्ज़ी से चुन सकता था। नम्रता को तो मीठी सुपारी और गुलकन्द वाला खुशबूदार पान ही पसंद था, वही खाने के बाद यह मस्ती ट्रिप ख़त्म होती और सभी वापस घर आते। 

   

ऐसे ही कभी फ़िल्म का कार्यक्रम बनता तो कभी पिकनिक का, वहाँ घूमना, दौड़ना और फोटो खींचना, गाने गाना सभी कुछ तो पसंद था उसे। गुड्डी की तरह ही खूब उछलती-कूदती गुड्डी को देख कर अक्सर मामी प्यार से कहतीं, इतना मत कूदा-फॉंदा कर, किसी की नज़र लग जायेगी… और नज़र ही तो लग गयी थी शायद किसी की। 

        

 खूब खुशी से एक महीना बीत गया, अब मामी को कुछ और रिश्तेदारों से मिलते हुए वापस अमेरिका जाना था। जनवरी के दूसरे हफ्ते में मामी इस वायदे के साथ विदा हुईं कि दो साल बाद फिर वह तीन महीने का वीसा लेकर आयेंगी और अबकी बार सभी नेपाल में ट्रेकिंग पर भी चलेंगे। नम्रता से उसके लिए खूब तैयारी करने को कहा। हिदायत दी थी कि खूब पैदल चलने की प्रैक्टिस होनी चाहिये और पैरों की मांसपेशियां मजबूत करने के लिए खूब कसरत होनी चाहिए। सारी बातों को ठीक से करने का वादा लेकर, भारी मन से विदा हुईं मामी। बेहद भावुक नम्रता दो दिनों तक उदास घूमती रही फिर वापस पति के घर जाने की बात आयी। माँ ने कहा कि मकर-संक्रांति पर गोरखनाथ मन्दिर में खिचड़ी का दान करने के बाद वापस जाना। शादी के बाद पहली मकर संक्रांति पड़ रही थी। हर वर्ष श्रद्धा से दुबे परिवार सवा मन खिचड़ी का दान बाबा गोरखनाथ मन्दिर में करता रहा है। गोरखनाथ मन्दिर, गोरखपुर का पुराना और ख्याति प्राप्त मन्दिर है। उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ इसी मन्दिर के महंत थे। इस मन्दिर में मकर संक्रांति का आयोजन दर्शनीय होता है। दूर-दूर से ग़रीब-अमीर सभी तरह के श्रद्धालु, अपनी श्रद्धा से दर्शन और दान करने इस दिन बड़ी भोर से ही आना शुरू कर देते हैं। सैकड़ों क्विंटल खिचड़ी मन्दिर में चढ़ती है। यही अनाज साल भर मन्दिर में प्रतिदिन चलने वाले भंडारे में इस्तेमाल होता है। भगवान के आशीष से, इस भंडारे से कोई भूखा वापस नहीं जाता है। इसीलिए चौदह जनवरी को गोरखनाथ मन्दिर के दर्शन और दान के बाद, दूसरे दिन नम्रता कोलकाता के लिये हवाई जहाज से चली गयी। कलकत्ता में नरेंद्र और नौकर सपन उसे लेने आये थे। आगे की यात्रा कार से हुई, रात होते सभी अपने घर पहुँचे। 

    

एक बार फिर घर की साफ़ सफ़ाई और इंतजाम में दिन बीतने लगे। डोला- माला के साथ सैर-सपाटे और पति जब कभी ऑफिस के काम से बाहर जाते तो पत्नी को भी साथ ले जाते। फॉरेस्ट के रेस्ट हाउस में रहना और जीप से जंगलों का दौरा करना किसी पिकनिक से कम मज़ेदार नहीं होता था। जंगलों में घूमना, जंगली गंध को महसूस करना, भाँति - भाँति की चिड़ियों का चहचहाना सुनना और घण्टों जंगल में घूमते रहना, वाच-टावर पर चढ़ कर जंगली जानवरों को देखना, बहुत अच्छा लगता था नम्रता को। यह अलग जिन्दगी थी, नयी ज़िन्दगी जिसकी गोरखपुर शहर में रहते हुए कभी कल्पना भी नहीं की थी उसने। मौसम भी अच्छा था उमंग थी उत्साह था। 


ऐसे ही घूमते फिरते खुशी-खुशी दिन बीत रहे थे, कि एक दिन उसे लगा कि कि कुछ तबीयत गड़बड़ है। अबकी बार पीरियड भी समय पर नहीं आया था। शादी के बाद पीरियड में अनियमितता आना किसी को भी परेशानी में डाल सकता है। यह बात जब नम्रता ने पति को बतायी तो यह तय हुआ कि यूरीन की जाँच करायी जाय। इन सब बातों से पाण्डेय दंपत्ति थोड़ा परेशान हो गया था। नरेंद्र की शादी से साल भर पहले बड़ी बहिन की शादी हुई थी, छ महीने पहले बड़े भाई की शादी हुई थी। अभी तक किसी के बच्चे नहीं हुए थे न किसी की प्रेग्नेंसी की ख़बर ही आयी थी। इन दोनों की शादी सबसे बाद में हुई थी। शादी के सिर्फ़ सात महीने ही बीते थे, ऐसे में गर्भ होने की कल्पना दोनों को परेशान कर रही थी। एक शर्मिंदगी का एहसास और भावी जिम्मेदारियों की कल्पना से दोनों असहज हो रहे थे। लेकिन सच का सामना तो करना ही पड़ता है। नम्रता की व्याकुलता अपने चरम पर थी। शादी के तुरंत बाद बच्चे के लिए वह मानसिक रूप से बिल्कुल तैयार नहीं थी। कितने कार्यक्रम थे उन दोनों के। कश्मीर घूमना था, स्विट्जरलैंड जाना था, अभी दोनों भाइयों की शादी नहीं हुई थी, उसमें जाना था, खूब नाचना-गाना था। कितनी सारी चीज़े थीं मन में, जिन्हें अभी करना बाकी था। ऐसे में बच्चे के कल्पना से भी रोयें खड़े हो रहे थे। मन ही मन कितने भगवानों की मनौती कर डाली थी कि प्रेग्नेंन्सी रिपोर्ट निगेटिव आये। धड़कते दिल से रिपोर्ट का इंतज़ार कर रही थी वह। शाम को ऑफिस से लौट कर नरेंद्र ने नम्रता को रिपोर्ट पकड़ा दी, कुछ बोले बिना। नम्रता ने घबराते हुए रिपोर्ट देखी… पॉज़िटिव थी। थोड़ी देर के लिए जैसे दिल की धड़कन रुक गयी थी। दुबारा ध्यान से देखी रिपोर्ट, हाँ ग़लत नहीं देखा था, वह प्रेग्नेंट थी, रिपोर्ट यही बता रही थी। आँखों के समाने फ़िल्मों के वो सीन घूम गये जहाँ बच्चे की सूचना पर पति-पत्नी और सारा परिवार खुशी से झूमता दिखता था। यहाँ तो एक अजीब डर और व्याकुलता हो रही थी। भविष्य की कल्पना से सिहर रही थी नम्रता। नरेंद्र भी चुप थे। सपन चाय बना कर दे गया, दोनों ने चुपचाप चाय पी। दोनों ही एक दूसरे से कुछ कह नहीं पा रहे थे, जैसे दोनों ही अपने को इस अप्रत्याशित घटना के लिए जिम्मेदार मान रहे थे। इतनी जल्दी बच्चा नहीं चाहिये था उन दोनों को। रात का खाना भी शान्ति में निबटा। जब दोनों सोने के लिये लेटे तो बात नरेंद्र ने ही शुरू की, पत्नी को समझाते हुए कहा कि, ईश्वर जो करता है अच्छा करता है। शायद हमारे लिए यही ठीक समझा हो। दुःखी होने से कोई फ़ायदा नहीं, देर-सवेर बच्चे तो होने ही थे, तो अभी सही। इस तरह काफ़ी देर तक एक दूसरे को ढाढस बँधाते दोनों शान्त होकर सो गये। फरवरी का महीना था, मौसम खुशगवार था। दूसरे दिन डॉक्टर से मिलने जाना था, क्योंकि अब गर्भावस्था के बारे में डॉक्टर की सलाह लेते रहना उचित लगा था। डॉक्टर ने जाँच करके सब ठीक होने की बात कही, और बच्चे की सम्भावित तिथि बीस अक्टूबर बतायी। कुछ आइरन और विटामिन की गोलियां दीं, अच्छे खानपान की हिदायत लेकर पति-पत्नी घर आ गये। घर पर नम्रता को पहुँचा कर नरेंद्र कार्यालय चले गये। दिमाग़ में हलचल मची हुई थी नम्रता के, अभी तो शादी के बाद विवाहित जीवन को ही समझ रही थी कि बच्चे की परीक्षा भी आ गयी। कैसे कटेगा समय क्या होगा आगे? कैसे उठाएगी इतनी जिम्मेदारियां? कौन रखेगा ख्याल? कौन बतायेगा क्या करना क्या नहीं? घर की सबसे छोटी सन्तान होने के कारण कुछ भी तो नहीं जानती थी। किसी भाई - बहिन या भाभी की प्रेग्नेंन्सी का कोई अनुभव नहीं था, मन बेतरह घबरा रहा था। घर में अकेली बैठी व्याकुल हो रही थी वह। अभी किसी को बताने में भी शर्म आ रही थी। क्या माँ को बता दे? या सास को? यूँ सास के साथ ज़्यादा बातचीत या आपसी समझ नहीं हुई थी। यूँ भी भारतीय समाज में सास एक डरावना नाम होता है, जिससे सारी बहुयें डरी रहती हैं और सास से दूरी बना कर रखती हैं। सास के साथ या ससुराल में बहुत दिन रही भी तो नहीं थी। सास-ससुर और एक छोटी ननद यही रहते थे मिर्जापुर में जो ससुराल थी। बाकी की तीन ननदों की शादी हो चुकी थी। सभी अपनी ससुराल में थीं। जेठ - जेठानी भी लखनऊ में रहते थे। सभी ससुराल के सदस्यों से बस औपचारिक मुलाक़ात ही थी, किसी के साथ कोई अधिक बातचीत नहीं थी। कैसे ससुराल में यह सूचना दी जा सकती थी? माँ से बात करने में भी लज्जा आ रही थी। इसी सोच विचार में बैठी रही, दोपहर का खाना भी नहीं खाया। सपन बंगाली था, वैसे हिन्दी जानता था क्योंकि यहाँ नौकरी करने से पहले वह एक छोटे से होटल में काम करता था। बंगाल में उत्तर-प्रदेश की हिन्दी भाषी जनसंख्या काफ़ी है। ग्राहकों से बात करने के लिए उसे हिन्दी भी सीखनी पड़ी थी। ज्यादा अच्छी हिन्दी तो नहीं जानता था फिर भी काम चलाने लायक हिन्दी आती थी। नम्रता के लिए वह दुभाषिये की तरह था। बांग्ला इतने दिनों में भी समझ से परे ही रही थी। इसलिए बांग्ला की जो बात वह समझ नहीं पाती, सपन समझ कर बताता था। लेकिन कुछ शब्द सपन के शब्दकोश में बांग्ला के ही थे। दोपहर को खाना खाने के बाद वह मेमसाहब से कहता 'अमी घुमाबो'। 'घुमाबो' का अर्थ घूमना - टहलना ही समझ में आता था। इसलिये नम्रता ठीक है कहकर दरवाज़ा खोल दिया करती थी कि, काम करने के बाद वह घूम-फिर आये। उसके बाहर जाने के बाद दरवाज़ा बंद कर के नरेंद्र के वापस आने तक वह अकेली ही रहती थी। आज ये अकेलापन बहुत खल रहा था उसे। घर की, दोस्तों की और भाइयों की बेहद याद आ रही थी। जब कुछ समझ में नहीं आया तो एल्बम खोल कर पुरानी फोटो देखने लगी। देखते-देखते कब आँख लग गयी पता नहीं चला। कॉल-बेल की आवाज़ से नींद टूटी तो नरेंद्र और सपन दोनों ही खड़े हुए थे कुछ परेशान से। क्योंकि इससे पहले सपन दो बार घंटी बजा कर लौट चुका था। चिंता और खाना न खाने से कुछ थकी सी लग रही थी वह। नरेंद्र परेशान हो गए और पूछा कि यदि कुछ परेशानी हो तो डॉक्टर के पास चलें। पर नम्रता ने आश्वस्त किया कि सब ठीक है। शनैः-शनैः इन दोनों ने परिस्थितियों को स्वीकार कर लिया। बच्चे के आने की ख़बर मायके, ससुराल दोनों में पहुँच गयी। यह नवदंपति आने वाले बच्चे के लिए मानसिक रूप से तैयार हो गये। खानपान और आराम के साथ नियमित टहलना दिनचर्या में शामिल हो गया। पति ध्यान रखते सपन मन से सेवा करता। दीदी (नम्रता) को क्या चाहिये सभी की तैयारी रखता। मकान मालिक घोष बाबू को भी समाचार मिला तो अच्छे पड़ोसी की तरह वह मियाँ-बीवी भी उसका ख़याल रखते। अब सिर्फ चाय ही नहीं, कुछ भी अच्छा खाने को बनता तो एक थाली पाण्डेय परिवार के लिए भेज दी जाती थी। डोला - माला भी खूब खुश थीं, शाम को हवा खोरी करने जाना तीनों का नियम बन गया था। सब कुछ ठीक चल रहा था। समय पर डॉक्टर की जाँच, दवाइयां, नियमित दिनचर्या और व्यायाम सभी कुछ अच्छा चल रहा था। 


शिशु जन्म के समय नम्रता मायके में रहना चाहती थी, तो उसकी भी तैयारी कर ली थी दोनों ने। अगस्त की दस तारीख को नम्रता गोरखपुर चली गई, भाई लेने आये थे। गोरखपुर के डॉक्टर ने पहले से आने की हिदायत दी थी तो तीन महीने पहले वहाँ पहुँचना ज़रूरी था। सब कुछ अच्छी तरह चल रहा था, परिवार नए बच्चे के आने की खुशी में खुश था। भाई और माँ पिता सभी ध्यान रख रहे थे। बचपन की सहेलियाँ संध्या दुबे, अणिमा मिश्रा, सुचिस्मिता सेन गुप्ता सभी उससे मिलने आती रहतीं। अजय बथवाल भी सपत्नीक आता और थोड़ा छेड़ कर हँसी मज़ाक करके जाता। यानी जिन्दगी आनंद से चल रही थी, दिन बीत रहे थे। फिर अक्टूबर का महीना भी आ गया। उस समय एक और हलचल चल रही थी, बुआ की बेटी की शादी तय हुई थी और लड़के वाले दुबे जी के घर पर ही लड़की देखने आने वाले थे। ड्यू डेट बीस अक्टूबर की थी, आख़िरी जांच में डॉक्टर संतुष्ट थी कि सब बढ़िया चल रहा है, तो घर के सभी सदस्य बुआ की बेटी की दिखाई के कामों में व्यस्त थे, स्वयं नम्रता भी बहिन की तैयारी करवाने में व्यस्त थी। 


चार अक्टूबर की रात में आराम से सोई और सुबह उठने पर तबीयत कुछ ठीक सी नहीं लगी। फिर भी आज लड़के वाले आने को थे तो उसने किसी से कुछ कहा नहीं। चाय पीने के बाद सात बजे सुबह उसे दर्द महसूस हुआ, माँ को बताया तो तुरन्त ड्राइवर को बुला भेजा था दुबे जी ने। पंद्रह मिनट में ड्राइवर के आने के साथ पिता-माँ के साथ वह डॉक्टर को दिखाने निकली, रास्ते में दर्द बढ़ गया। अस्पताल पहुंचते-पहुँचते वह दर्द से बेहाल हो रही थी। डॉक्टर अभी आयी नहीं थीं, उन्हें फोन करके सूचना दी गई। अस्पताल के स्टाफ ने नम्रता को लेबर रूम में पहुंचाया और ड्रिप शुरू की, डॉक्टर के पहुंचने से पहले ही आया और नर्स कि देखरेख में ही बच्चे का समान्य ढंग से जन्म हो गया। साढ़े तीन किलो के गोरे-चिट्टे सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। उसी समय डॉक्टर भी पहुंची, सकुशल डिलिवरी देख कर उन्होंने ने भी संतोष की साँस ली। पूरे अस्पताल को दुबे जी ने मिठाई खिलायी और भाइयों की निगरानी में बेटी को छोड़ कर भांजी के भावी ससुराल वालों का स्वागत करने पहुँच गये। 


दिन की शुरुआत खुशखबरी से हुई थी, यहाँ भी सब अच्छा रहा, लड़की पसन्द कर ली गयी थी। ससुराल वाले अँगूठी पहना कर शगुन कर के विदा हुए। परिवार इस दोहरी खुशी पर प्रसन्न था। भगवान को प्रसाद चढ़ाया और पूरे मोहल्ले में मिठाई बाँटी गयी। परिचित, दोस्त रिश्तेदारों का आना और बधाई देना चलता रहा। ख़बर पाकर रात को नरेंद्र भी पहुँच गये। रात अस्पताल में ही रहे अपने पुत्र और पत्नी के साथ। क्योंकि बच्चे की पैदाइश समान्य थी, बच्चा और माँ स्वस्थ थे तो दूसरे दिन अस्पताल से छुट्टी मिल गयी। बेटा भगवान के आशीर्वाद लेकर घर आया। नाना-नानी, मामा और घर के नौकर-चाकर तक खुश थे। गुड्डी का प्यारा, गोरा, स्वस्थ बेटा सभी का मन मोह रहा था। गुड्डी के मन को जैसे पंख लग गये थे, जिस दिन प्रेग्नेंसी रिपोर्ट आई थी उस दिन का आघात, दुःख, भय और असुरक्षा के विचारों पर आज हँसी आ रही थी। बच्चा होना इतना सुखद एहसास है, अगर पहले पता होता तो एक दिन भी दुःखी न होती नम्रता। 

   

उत्साहित नव युगल जो नये-नये माता-पिता बने थे, एक दूसरे के साथ वक़्त गुज़ारना चाह रहे थे। पति जीवन की सबसे बहुमूल्य भेंट देने वाली पत्नी को कुछ विशेष उपहार देना चाह रहे थे, तो अगले दिन दोनों अनुमति लेकर बाहर घूमने और ख़रीद-फरोख्त करने को चल दिये। दोपहर 12 बजे के निकले यह दोनों रात घिरने पर घर आये। नम्रता इतनी ख़ुश थी कि कोई थकान या परेशानी उसको महसूस ही नहीं हो रही थी। सध्य: प्रसूता बेटी को इस तरह दिन भर बिना थके घूमते देख कर माँ चिंतित हो रही थी। पड़ोस की आंटी भी बैठी थीं, कहने लगीं, "किसी की नज़र लग जायेगी"... तो क्या वाक़ई किसी की नज़र ही लग गयी थी हँसती-खेलती गुड्डी को? 

     

बच्चे के सवा महीने का होने पर दुबे परिवार ने दौहित्र का जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया। रिश्ते - नाते के सभी लोग, हित-मित्र, अड़ोसी- पड़ोसी, कारिंदे, स्टाफ और ससुराल सभी जगह न्यौता गया था। बहुत बड़ा उत्सव हुआ। नम्रता बेटे को गोद में लिये, सभी के आशीष और बधाइयाँ ले रही थी। थकना या बैठना तो भाता ही नहीं था, बस कभी यहाँ तो कभी वहाँ। सभी उसकी चुस्ती- फुर्ती देख कर प्रभावित थे और उसकी तारीफ़ कर रहे थे। देर रात गये तक दावत पार्टी होती रही, सब कुछ सकुशल संपन्न हुआ। इसी दिन नामकरण हुआ भी, बच्चे का नाम नीलाभ रखा गया। वैसे बच्चा कतई चिट्टा गोरा था, कहीं से भी श्याम या नीलाभ नहीं था, पर श्री कृष्ण के नाम पर और 'न' से आरम्भ होने के कारण, नीलाभ, नाम रखा गया। अब पूरे परिवार का नाम N से शुरू होता था, नरेंद्र, नम्रता और नीलाभ। ऐसे नाम वाले परिवार बहुत कम दिखते हैं, पर नम्रता का परिवार उन इने-गिने में ही था। 


नरेंद आये थे इस उत्सव में, उस समय तक वह विभागीय परीक्षा उत्तीर्ण कर चुके थे। आइ. एफ. एस. की नौकरी में, प्रतियोगिता परीक्षा में पास होने के बाद दो वर्षों की ट्रेनिंग और पढ़ाई एफ.आर.आई. देहरादून में होती है। इसके बाद जिस अधिकारी को भारत के जिस राज्य में नियुक्त किया जाता है उस राज्य की भाषा, फॉरेस्ट कानून, अकाउन्टेन्सी, भूमि कानून इन सभी विषयों की परीक्षा देकर पास होना आवश्यक होता है। इसके बिना कोई भी व्यक्ति डी. एफ़. ओ. का पद नहीं पा सकता है। इस परीक्षा में पास होने की सूचना और पुत्र जन्म की सूचना नरेंद्र को एक ही दिन मिली थी। इसीलिए वह वापस अकेले ही लौटे, क्योंकि अब पदोन्नति और स्थानांतरण दोनों ही होना था। बच्चे और माँ को भाग - दौड़ की परेशानी से दूर रखना ही उद्देश्य था। नम्रता नीलाभ गोरखपुर में ही रहे। 

   

दिसंबर माह में नरेंद्र को कूचबिहार की पोस्टिंग मिली थी। जॉइन करने के लिए दस दिनों का समय मिलता है। सामान कूचबिहार के लिए भेज कर, नरेंद्र इन दस दिनों में अपने घर मिर्जापुर और पत्नी के पास गोरखपुर घूम कर कूचबिहार पहुँच गये। जनवरी 4 ,1987 को कार्यालय में जॉइनिंग दे दी। लेकिन पदमुक्त होने वाले अधिकारी ने पदभार देने से मना कर दिया, नरेंद्र को शहर के सर्किट हाउस में ठहरने और प्रतीक्षा करने को कहा गया। यह एक नयी परेशानी थी, कई दिनों तक प्रतीक्षा के बाद भी स्थिति यही बनी हुई थी, फिर नरेंद्र को शहर के पास नीलपाड़ा रेस्ट हाउस में रहने और प्रतीक्षा करने को कहा गया। ऐसे में नम्रता को वापस बुलाना ठीक नहीं लगा था। धीरे-धीरे पंद्रह दिन बीत गये और स्थितियाँ यथावत ही रहीं। नरेंद्र को पदभार नहीं मिला। अंत में दुःखी होकर उन्होंने पुत्र और नम्रता को वापस बुला लिया। 17-18 जनवरी 1987 के दिन पुत्र नीलाभ के साथ नम्रता को रक्कू भइया कूचबिहार पहुॅंचाने आये। लेकिन अभी तक नरेंद्र निलपाड़ा रेस्टहाउस में ही रह रहे थे, इसलिये वह भी रेस्ट हाउस में ही पहुँची। सारा समान तो डी. एफ़.ओ के घर के निचली मंजिल पर रखा हुआ था। इसलिए जो भी सामान यात्रा के लिए लेकर आई थीं नम्रता, उसी में काम चलाना पड़ता था। नरेंद्र हर तरह से परेशान थे, चार्ज मिल नहीं रहा था, घर भी नहीं मिला था, उस पर छोटे से बच्चे को, बहुत कम सामानों के साथ, संभालना मुश्किल हो रहा था। लेकिन नम्रता किसी भी स्थिति में बच्चे और पति का ध्यान रख रही थी।


रक्कू भइया कुछ दिन वहाँ रुके और कूचबिहार को विस्तार से देखा। बेहद नियोजित ढंग से बना हुआ है कूचबिहार। राजा कूचबिहार, जितेन्द्र नारायण ने 1922 से इसका निर्माण और सुधार किया। बेहद सुन्दर राजमहल, अधिकारियों के लिए बने बड़े-बड़े हवेलीनुमा घर, सुनियोजित सड़कें और पार्क, हवाई अड्डा आदि सभी कुछ सुरुचिपूर्ण ढंग से बनाया गया था। जब भारत में कूचबिहार का विलय हुआ तब राज-परिवार द्वारा बनायी गयी इमारतों में से कुछ को कार्यालय और कुछ को अधिकारियों का निवास-स्थान बना दिया गया। जिलाधिकारी का घर भी दर्शनीय था। इतने सुन्दर स्थान को देख कर रक्कू भइया को सुख मिला। कूचबिहार अच्छी तरह से घूम कर, कुछ दिन बहिन के साथ रह कर रक्कू भइया लौट गये। 


बिना चार्ज के वहाँ बहुत दिन बीत गये तो नरेंद्र का धैर्य जवाब दे गया। अन्त में 27 जनवरी के दिन फॉरेस्ट मुख्यालय को अपनी स्थिति सूचित की और डी. एफ़. ओ ऑफिस में जाकर पदभार न दिये जाने की स्थिति में धरना देने की बात कही। यह भी चेतावनी दी कि यदि इस कार्यालय में काम करने की जगह नहीं मिलेगी तो वह किसी अन्य स्थान पर, समान्तर कार्यालय चलाना आरम्भ करेंगे। उसी समय मुख्यालय से फोन आया, मंत्री महोदय इस पोस्टिंग को रुकवाने के लिए निजी तौर पर रुचि ले रहे थे। अतः मुख्यालय ने उन्हें भी सूचित किया। इतनी सब परेशानियों के बाद 27 जनवरी 1987 के अपराह्न में नरेंद्र को अधिकाधिक रूप से कूचबिहार के डी. एफ़. ओ. का पद भार मिला। उन्होंने चैन की साँस ली। लेकिन समस्या यहाँ खत्म नहीं हुई। पुराने डी. एफ़. ओ. ने घर खाली करने में पर्याप्त समय लिया। पाण्डेय परिवार रेस्ट हाउस की जिन्दगी से जुझता रहा। फरवरी मध्य में नरेंद्र अपने सरकारी निवास में आ सके। दोनों का बहुत सारा समय बच्चे की देखभाल में निकल जाता बचे समय में वह लोग TV देखते या फिर घूमने निकल जाते। 

 

  सामान आदि खुलने के बाद धीरे-धीरे वह लोग इस नए जिले के बारे में जानने लगे। कूचबिहार एक स्वतंत्र राजा का अधिकार क्षेत्र और जागीर थी। स्वतंत्रता के समय कूचबिहार का भारत में विलय हुआ। राजकुमारी गायत्री देवी के पिता राजकुमार जितेन्द्र नारायण कूचबिहार (बंगाल) के युवराज के छोटे भाई थे, पहले शांतिनिकेतन, फिर लंदन और स्विट्ज़रलैंड में शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात राजकुमारी गायत्री देवी का विवाह जयपुर के महाराजा सवाई मानसिंह (द्वितीय) से हुआ। वॉग पत्रिका द्वारा राजकुमारी गायत्री देवी दुनिया की दस सुंदर महिलाओं में गिनी गईं थीं। इसी कूचबिहार में नरेंद्र की पोस्टिंग हुई थी। जो बंगला उन्हें रहने के लिए सरकारी तौर से मिला था, वह और आसपास के बहुत से घर राजा कूचबिहार ने अपने जागीरदारों के लिए बनवाये थे । इसी लिये वन अधिकारी और पुलिस अधीक्षक (SP) का बंगला बिल्कुल एक जैसा बना था। खुला हुआ लंबा-चौड़ा लॉन, पीछे बहुत सारे बाँस के वृक्ष। बहुत बड़ा ड्राइव वे, फिर दो मंजिला बड़ा सा मकान। इसी के पास हवाई अड्डा भी था। यह भी राजा कूचबिहार का निजी हवाई अड्डा था। जिसे सरकार ने जनता के उपयोग के लिए राजा की अनुमति से ले लिया था। वन अधिकारी के घर पर लगे हुए बांसों के झुरमुट से हवाई उड़ान में बाधा पड़ती थी, इसीलिए हवाई जहाज की सुरक्षित उड़ान के लिए एयर पोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के ओर से नरेंद्र के घर के पीछे लगे बाॅंसों को कटवा दिया गया। हवाई अड्डा घर से खूब साफ़-साफ़ दिखाई देता था। जहाज जब ऊपर से गुजरते थे तो ऐसा लगता था कि छत से टकरा जायेंगे। 


नीलाभ को, जहाजों का रन-वे पर दौड़ना और उड़ना, नीचे उतरना, देखना बहुत अच्छा लगता था। एक दिन माँ और बेटा जहाज को रन-वे पर दौड़ता देख रहे थे, छोटा फ़ोकर जहाज था। यात्री बैठे हुए थे, जहाज रन वे पर दौड़ रहा था। अचानक जहाज हवाई पट्टी से उतर गया, संतुलन बिगड़ने से पलट गया। आँखों के सामने जहाज की यह पहली दुर्घटना थी दोनों के लिए। आपदा प्रबंधन शुरू हुआ, बहुत परिश्रम से सभी विमान के यात्री और कर्मचारी सुरक्षित बाहर निकाल लिए गये, कुछ को मामूली चोटें आयी थीं। इसलिये कुछ भी हृदय विदारक नहीं हुआ। लेकिन छोटा नीलाभ यह सब देख कर डर गया था। 


नीलाभ बेहद चंचल बच्चा था। वह खूब स्वस्थ रहा और आठ महीने पूरे होते-होते चलने भी लगा। ऐसी स्थिति में बच्चे को पालना एक चुनौती भरा काम होता है। वह घर भर में घूमता है और कुछ भी उठा कर मुँह में डालता है। एक बार नज़र चूकी तो नीलाभ ने बर्रय्या को पकड़ कर मुँह में डाल लिया। जिसने मुँह में डंक मार दिया, दर्द होने पर मुँह खुल गया और बर्रय्या उड़ गयी। लेकिन दर्द से पीड़ित नीलाभ जो रोया कि पूरा घर बच्चे के पास सिमट गया। होंठ पर किसी के काटने का निशान दिख रहा था, पर क्या था? ये किसी को पता नहीं था। घबराहट में माँ - बाप बच्चे को लेकर डॉक्टर के पास भागे। जाँच करके जब डॉक्टर ने बताया कि, बर्रय्या ने डंक मारा है, तो सभी ने सुकून की साँस ली। 

      

नीलाभ अपने आप में ही मस्त रहता था। खेलने के लिए कोई साथी मित्र नहीं था, क्योंकि इस घर का अहाता इतना बड़ा था, फिर साथ लगे घर का अहाता भी उतना ही बड़ा था। सामने हवाई अड्डा था। कुछ दूर पर जिलाधिकारी का बहुत बड़ा अहाता और बंगला था। यानी कुछ किलोमीटर के दायरे में मात्र तीन बड़े घर जिसमें रहने वाले सात - आठ लोग। ऐसे में बच्चे को साथ खेलने वाले साथी मिलें तो कैसे? बच्चा तो बच्चा है, अपने को व्यस्त रखने के लिए बच्चे कुछ न कुछ खोज ही लेते हैं। नीलाभ जैसे - जैसे बड़ा हो रहा था, उसकी चंचलता और शैतानियॉं भी बढ़ रही थीं। एक बार वह पता नहीं कैसे छत पर चढ़ गया। यहाँ कुछ नारियल तोड़ कर सूखने के लिए रखे गए थे। नीलाभ ने तोड़े हुए नारियल उठा- उठा कर ज़मीन पर फेंकना शुरू किया। नारियल गिरने की आवाज़ से चौंकने पर सभी की नज़र नीलाभ पर गयी थी। मान - मनव्वल के बाद नीलाभ नीचे उतरे और नारियल ऊपर पहुंचाये गये। ऐसी ही शैतानियों से जुझते दिन बीत रहे थे कि एक बार इससे भी बड़ी घटना हो गयी। 

     

एक दिन बच्चे के साथ नम्रता दो बंगले छोड़ कर तीसरे बंगले में अपनी दोस्तों पास मिलने गयीं। मौसम अच्छा था, बच्चे को एक नयी ड्रेस पहनायी थी, जो लाल, हरी और सफ़ेद रंग की थी। मुंडन अभी हुआ नहीं था तो उसके लंबे घुंघराले बाल गोरे चेहरे पर ख़ूब खिल रहे थे। बच्चा इतना प्यारा था कि किसी की भी नज़र को बरबस खींच लेता था। उस दिन पैदल ही माँ - बेटा निकले थे। दोस्त के घर पर भी गेट पर सेक्योरिटी थी। वहाँ कुछ और अधिकारियों की पत्नियां भी आयी हुई थीं तो सब मिल कर बात-चीत में व्यस्त हो गयीं। बच्चा बाहर खेल रहा था। गार्ड होने की वज़ह से किसी तरह का डर नहीं था। लेकिन शैतान नीलाभ पता नहीं कैसे गार्ड की नज़र बचा कर गेट के बाहर निकल गया। एक सुन्दर से अकेले बच्चे को देख कर किसी अजनबी ने उसे साइकिल पर बैठा लिया और चल दिया। यहाँ जब बच्चा घर में नहीं मिला तो सभी घबराहट में पूरे कैम्पस में खोजने लगे। सभी महिलाओं ने अपने पतियों के ऑफिस में फोन कर के इस के बारे में बताया। भागदौड़ होने लगी। लेकिन भाग्य था कि, आज नीलाभ क्योंकि बहुत रंगीन ड्रेस पहने हुए था, तो जिस रास्ते से यह लोग आये थे, वहाँ के कुछ लोगों को माँ के साथ जाते इस प्यारे से बच्चे की याद थी। बिना माँ के उसी बच्चे को जब किसी दूसरे अंजना व्यक्ति के साथ सायकिल पर दिखा तो उसने सायकिल सवार को रोका और बच्चे को ले लिया। वह उसी दिशा में चलने लगा जिस तरफ़ उसे माँ के साथ बच्चे को जाते देखा था। यहाँ सभी लोग बच्चे की खोज में हर सड़क पर निकले हुए थे। एक गार्ड ने नीलाभ को देखा। जब उस व्यक्ति तक पहुँचे तो उन्हें यही लगा कि इसी ने बच्चे उठा लिया था, पर तब तक बहुत से लोगों के साथ नरेंद्र भी वहाँ पहुँच गये थे। उन्होंने सारी बातों की जानकारी ली। जब उस व्यक्ति की सज्जनता और सजगता का पता चला तो उसे धन्यवाद के साथ इनाम भी दिया और बच्चे के सकुशल वापस आने पर ईश्वर को धन्यवाद दिया। सभी घर वापस लौटे। एक बड़ी दुर्घटना होते - होते टल गयी थी। 


इस घटना को हुए अभी अधिक दिन नहीं बीते थे कि अचानक फॉरेस्ट विभाग की एक गाड़ी, जो जंगलों के निरीक्षण के लिए गयी थी। लौटाते हुए एक तालाब में गिर गयी। यह कोई छोटी घटना नहीं थी, एक हादसा था। इस दुर्घटना में रेंज फॉरेस्ट अधिकारी, ड्राइवर और कुछ फॉरेस्ट गार्ड की मृत्यु हो गयी, जो एकाध लोग बचे वह भी घायल थे। वन अधिकारी होने के कारण इसकी जिम्मेदारी नरेंद्र पर आयी। दुःख के साथ सरकारी जाँच आदि का मानसिक तनाव भी आ गया था। डी. एफ़. ओ होने के कारण नरेंद्र को भी रात-बिरात ऐसे दौरों पर जाना पड़ता। फॉरेस्ट माफिया भी सक्रिय रहते थे, कभी अनधिकृत लकड़ी चोरी होती, कभी कत्थे के चोरी कभी गैरकानूनी तरीके से जंगली जानवरों का शिकार। ऐसे किसी गैरकानूनी घटना की कोई भी सूचना मिलते ही, नरेंद्र को छापामारी करने या गिरफ्तारी करने के लिए जाना पड़ता था। कई बार जंगली जानवर आसपास के रिहायशी इलाक़ों में आ जाते थे, ऐसे में उन जानवरों को वापस जंगल में भेजने का काम भी कई दिन का समय ले लेता था। यानी नरेंद्र को अक्सर घर से बाहर रहना जरूरी होता था। पति की ऐसी ड्यूटी और कुछ दिन पहले की दुर्घटना ने नम्रता को गहरे मानसिक आघात और अवसाद में पहुँचा दिया। स्वभाव से भी वह बेहद भावुक रही है। छोटी - छोटी बातों से प्रभावित होने वाली नम्रता के लिए यह बड़ी मानसिक चोट थी। इधर कुछ दिनों से कुछ अवसाद जैसी अवस्था में थी वह। तबीयत भी ठीक नहीं लगती थी, बच्चे के साथ व्यस्तता बहुत अधिक थी और पति के पास इन दोनों को देखने का अवकाश नहीं था। वह समझ नहीं पा रही थी कि शरीर में होने वाली परेशानियाँ मानसिक हैं या शारीरिक। उसके दाहिने पैर में कुछ खिंचाव जैसा लगता था। पैर पर पानी डालने पर ठंडे - गर्म का एहसास नहीं होता था। ज़मीन पर पाँव रखने पर भी पैर कुछ अलग सा लगता था। त्वचा का स्पर्श ऐसा लगता था मानों खाल मोटी हो गयी हो। अपनी कुछ दोस्तों को जब यह बात बतायी तो, उन्हें लगा कि बीते हुए एक्सीडेंट से आघात के कारण यह मानसिक डिप्रेशन शरीर में अनुभव हो रहा है इसलिए बात को गम्भीरता से नहीं लिया गया। 

जंगल के दौरे से वापस आने पर नम्रता ने अपनी दिक्कत, पति को बतायी। दूसरे दिन वह दोनों वहाँ के डॉक्टर के पास गये, जो अच्छे फिजिशियन थे, विटमिन-बी की कमी बतायी और दवा दी। कुछ दिनों तक खाने के बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ। अब डॉक्टर ने इंजेक्शन लिखे। कई इंजेक्शन लगवाने के बाद भी नम्रता की अवस्था में कोई सुधार होता नहीं दिख रहा था। बीस - पच्चीस दिन बीतते - बीतते नम्रता को लगने लगा कि पैर, फीलपाँव के रोगी की तरह मोटा हो गया है। जबकि देखने पर पैर समान्य लगता था। अब चलते समय पैरों में लड़खड़ाहट भी होने लगी थी। ऐसी अवस्था में न्यूरोलॉजिस्ट को दिखाया। उन्होंने बारह इंजेक्शन लगवाने के लिए कहा साथ ये भी कहा कि सात - आठ इंजेक्शन लगने के बाद कुछ असर दिखाई देगा। लेकिन इस इलाज से भी पैर की दशा में कोई सुधार नहीं हुआ। यह समय बंगाल में दुर्गा पूजा का समय था। ज्यादातर अच्छे डॉक्टर छुट्टी पर थे। एक दूसरे न्यूरोलॉजिस्ट को दिखाया। तबतक परेशानी पैर से ऊपर बढ़ते हुए कमर तक पहुँच गयी थी। डॉक्टर ने आशंका जतायी कि हो सकता है कि यह दिक्कत आगे और बढ़े। सम्भव है कि पेट से होते हुए सीने तक भी चली जाये। डॉक्टर ने 'गुलिन बायर सिंड्रोम' नामक एक रेयर बीमारी की आशंका जतायी। इसलिए किसी बड़ी जगह दिखाने की सलाह दी। बंगाल में दुर्गा पूजा के समय आवश्यक सेवायें भी लगभग ठप्प सी हो जाती हैं। इसलिए कोलकाता जाने का कोई प्रश्न नहीं उठता था। क्योंकि वहाँ के अधिकांश अस्पताल और क्लिनिक पूजा के दौरान बन्द रहते हैं। 


नरेंद्र के बड़े भाई डॉ. विनोद लखनऊ में रहते थे। उन्होंने यहीं के मेडिकल कालेज से पढ़ाई भी की हुई थी। अत: लखनऊ के मेडिकल क्षेत्र में उनकी अच्छी जानपहचान थी। नरेंद्र ने लखनऊ चलने का प्रस्ताव रखा। नम्रता का कहना था कि लखनऊ जाते हुए गोरखपुर से होते हुए चलें, गोरखपुर में भी मेडिकल कॉलेज है और मायका भी। यात्रा निश्चित हो गयी, बीमारी की स्थिति में हवाई जहाज से न जाकर टैक्सी से जाने का कार्यक्रम बना। दो ड्राइवर के साथ पति - पत्नी, बच्चा और एक फॉरेस्ट गार्ड, गोरखपुर के लिए चल दिये। इतनी लंबी यात्रा और कार का सफ़र, नीलाभ बहुत ऊबने और रोने लगा। जब उसे दूध पिलाने की कोशिश की तो गुस्से में दूध की बोतल भी चलती कार से बाहर फेंक दी। परेशानियों में एक परेशानी यह भी बढ़ी। कई घंटों का सफ़र करने के बाद बिहार के बार्डर के पास बरौनी में 'ज़ीरो पॉइंट होटल' में सभी ने रात्रि विश्राम किया, सवेरे दुबारा आगे चले। शाम होते यह लोग गोरखपुर पहुँचे। क्योंकि रास्ते से फोन कर दिया था तो घर पर दुबे जी के फैमिली डॉक्टर शुक्ला जी (रिटायर्ड सी. एम. ओ.) पहले से ही प्रतीक्षा में थे। जाँच करने के बाद 'प्रेड्नीसोलोन', हाई डोज़ में शुरू किया, दवा की खुराकें शुरू के पंद्रह दिन तक बढ़नी थीं, फिर उसी क्रम में पंद्रह दिन घटाई जानी थी। यह नवरात्रि का समय था, घर में पूजा आदि चल रही थी। जाते समय डॉक्टर, पिता से कह कर गये कि "भाग्यशाली है बिटिया, शेर ने मुँह खोला था, लेकिन खाया नहीं… दुबे जी ज़रा पूजा - पाठ तेज़ कर दीजिये"।

   

दवा ने चमत्कार की तरह असर किया और धीरे-धीरे नम्रता ठीक होने लगी। गोरखपुर में ही एक और डॉक्टर थे, डॉ. चक्रपाणि। उन्होंने बताया कि यह रोग पॉलीन्यूराइटिस है। यह तंत्रिकातंत्र (न्यूरल) की बीमारी है। जिसमें पैर की ओर से लकवा शुरू होता है और शरीर के उपरी हिस्से की ओर बढ़ता है। यदि यह लकवा शरीर के किसी आवश्यक हिस्से जैसे किडनी, फेफड़े या हृदय पर असर करे तो मरीज़ की आकस्मिक मृत्यु हो सकती है। यदि कोई ऐसा हिस्सा प्रभावित नहीं हुआ तो कुछ दिनों बाद यह अपने आप ठीक हो जाता है। एक बार होने के बाद इसकी शरीर में इम्यूनिटी पैदा हो जाती है और फिर यह दुबारा नहीं होता है। इसलिए ठीक होने पर सभी खुश और निश्चिंत हो गये कि एक बड़ा ख़तरा टल गया। एक खतरा तो टाला था पर डॉक्टर ने दूसरे खतरे के लिए चेतावनी दे दी थी, 'भविष्य में किसी भी बच्चे की योजना नहीं बनाने की', कारण दवायें स्टेरॉयड्स थीं। इनका गर्भावस्था में अगर उपयोग किया गया तो होने वाले शिशु को हानि हो सकती है। यह बात भी इस नए दंपत्ति के लिए दुःखद थी, पर एक घातक बीमारी से ठीक होने की खुशी ने इस दुःख को पीछे ढकेल दिया था। महीने के अंत तक लगभग सामन्य हो गयी थी नम्रता। एक महीने आराम करके वापस पति के पास कूचबिहार चली गयी। 

    

अब जिन्दगी में बच्चे के साथ व्यस्ततायें और बढ़ गयी थीं। चुस्त, फुर्तीला बच्चा माँ को ही नहीं घर और कैम्पस के सारे कर्मचारियों को भी दौड़ता रहता था। क्योंकि खेलते समय, वह कहाँ चला जाए या चढ़ जाये किसी को पता नहीं रहता था। नरेंद्र अक्सर दौरे पर रहते। कई बार नीलाभ और नम्रता को भी साथ ले जाते। जंगल के बीच बने फॉरेस्ट रेस्ट हाउस में रहना, जंगल के जीवन को देखना सब बहुत मनोरंजक होता था। 

   

मई 89 में रक्कू भइया की शादी थी, गोरखपुर में। नम्रता बहुत खुश थी और जल्दी से जल्दी गोरखपुर पहुंचना चाहती थी। पत्नी की इच्छा देख कर नरेंद्र ने बच्चे और बीवी को गोरखपुर की फ्लाइट पर बैठा दिया। बीच की और आइल सीट मिली थी। आइल सीट पर नीलाभ बैठे थे और जब मन कर रहा था तो बीच की जगह में घूम - टहल रहे थे। जब फ्लाइट के दौरान खाने की ट्रॉली आयीं तो, नम्रता ने नीलाभ को सीट पर बैठा कर बेल्ट लगा दी। एयर होस्टेस विंडों सीट पर गर्म कॉफ़ी दे रही थी कि गल्ती से कॉफ़ी नीलाभ के ऊपर गिर गयी। बच्चा जल गया और जोर - ज़ोर से रोने लगा। नम्रता को गुस्सा आया और दुःख भी हुआ। जहाज के अन्य कर्मचारी भी आये, बच्चे के कपड़े बदले, धोये और जले हिस्से पर दवा लगायी। बहुत सारी टाॅफ़ी भी दीं। फिर भी बच्चा रोता ही रहा, अन्त में रोते - रोते सो गया। एक अच्छी यात्रा कैसे बुरी हो जाती है कभी- कभी। ऐसे ही अच्छा सा जीवन कैसे कभी किसी अँधेरी गुफा सी घुटन देने लगता है। किसी को भविष्य कहाँ मालूम होता है? 


रक्कू भइया की शादी धूमधाम से हुई। नरेंद्र भी साले की शादी में पहुँचे थे, खूब गाना - नाचना और मस्ती हुई। छोटा नीलाभ भी खूब खुश था। इधर बोलना सीख लिया था तो गाना गाने का भी शौक हो गया था। आमिर खान की हिट फ़िल्म 'क़यामत से क़यामत तक' के गाने उस समय खूब लोकप्रिय हो रहे थे। नीलाभ भी 'पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा' गाना गा गाकर नाच रहे थे। म्यूजिक बन्द करके सभी इस प्यारे बच्चे का गाना और नाचना देख कर निहाल हो रहे थे। कुछ दिन वहाँ बिता कर सभी वापस कूचबिहार वापस पहुँचे। जीवन दुबारा अपने ढर्रे पर आ गया। 


सितम्बर से ही बंगाल में फिर एक बार दुर्गा पूजा की गहमागहमी शुरू हो गयी थी। बच्चा अब थोड़ा समझदार हो गया था तो अबकी बार पाण्डेय परिवार ने दुर्गा पूजा को अलग ढंग से मनाने का कार्यक्रम बनाया। पाण्डेय परिवार शहर से दूर मदारीहाट के फॉरेस्ट रेस्ट हाउस में चला गया। छोटी जगहों और गाँवों में दुर्गा पूजा का अनुभव लेने के लिए। यह रेस्ट हाउस बहुत ही सुन्दर था। जंगलों के बीच बड़े से मैदान में लकड़ी के पाँव पर उठे प्लेटफॉर्म पर बना, लकड़ी का बड़ा सा डाक - बंगला था। यहाँ पर फॉरेस्ट विभाग के बहुत से कर्मचारी थे। डी. एफ़. ओ के आने की सूचना से वहाँ के रेंज अधिकारियों ने पूजा का बहुत अच्छा बंदोबस्त कर रखा था। पूजा पंडाल तो नवरात्रि के पहले दिन से ही लग जाता है। माता की मूर्ति प्रतिष्ठा पाँचवें दिन की रात्रि में होती है, परन्तु उसका मुँह ढका होता है। षष्ठी की सुबह पंडित जी मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं। इस पूजा में केले के पेड़ को स्त्री की तरह सजा कर उसकी भी पूजा की जाती है। तब मूर्ति का अनावरण होता है। फिर तो पूजा पंडाल दशमी के दिन तक गुंजान रहता है। षष्ठी के दिन से आसपास के सभी लोगों का, दोनों वक़्त का भोजन पूजा पंडाल में ही होता है। पंडाल में पूजा के अतिरिक्त सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं। हँसी खुशी और उत्सव में सभी सराबोर रहते हैं। 


लेकिन इधर कुछ दिनों से नम्रता की तबीयत कुछ ठीक नहीं थी। फिर से पैर में कुछ अजीब सा लग रहा था। फिर से उसमें गर्म-ठण्डा कम लग रहा था। पैर में दिक्कत होने के कारण वह पंडाल में नहीं गयी, नीलाभ भी साथ में ही था। इसलिये खाना रेस्ट हाउस पर ही मंगवाना था। बाहर एक कर्मचारी को देख कर नम्रता ने पंडाल से खाना लाने को कहा, तो वह थोड़ा हिचकिचाते हुए बोला, "आप हमारा लाया खाना खा लेंगी?" नम्रता को हैरानी हुई कि यह ऐसा क्यों पूछ रहा है। नम्रता को कुछ उलझा हुआ देख कर उसने बताया कि वह सफाईकर्मी है, यानी उसकी जाति नीची है, जब कि यह लोग ब्राह्मण हैं। इस पर हँस दी थी नम्रता उसने कहा कि, "तुम इन्सान हो और पंडाल का खाना देवी का प्रसाद, तुम्हारे लाने से प्रसाद खराब नहीं हो जाएगा"। नम्रता की इस बात से वह बन्दा बहुत खुश हुआ और जल्दी से खाना लाकर दिया। जाते-जाते हाथ जोड़ कर बोला आज आपने हमें जो इज़्ज़त दी वैसी इज़्ज़त कोई बड़ी जात का नहीं देता, लोग हमारा छुआ पानी भी नहीं पीते, आपने हमारा लाया खाना खाया, ये बता हमें हमेशा याद रहेगी। समाज की इन रीतियों पर सोचते हुए नम्रता सो गयी। तबीयत ठीक नहीं थी, देर तक सोने के बाद शाम को जब नींद खुली तो नरेंद्र भी घर आ गए थे। नम्रता ने उठते ही कहा कि, "लगता है कि बिस्तर पर नीलाभ ने सू-सू कर दी है, बहुत ठण्डा लग रहा है, मेरे कपड़े भी शायद गीले हैं, दायीं ओर बदन का हिस्सा ठण्डा लग रहा है…", नरेंद्र ने उठ कर देखा तो बिस्तर सूखा था और नम्रता का बदन भी कहीं से गीला नहीं था। हाथ से छू कर भी कहीं कुछ भी गीला या ठण्डा नहीं लग रहा था। फिर नम्रता ऐसा क्यों कह रही थी? कुछ परेशान होकर नरेंद्र ने हाथ पकड़ कर नम्रता को उठाया। उसे ज़मीन पर पैर रखने में थोड़ी दिक्कत हो रही थी। अब नम्रता भी घबरा गयी… कहीं फिर से दो साल पहले वाली बीमारी तो नहीं हो रही? क्या फिर से उसके पैर पर लकवे का असर हो रहा है? नरेंद्र भी चिंतित से उसे बार-बार ठीक से खड़े होने के लिए कह रहे थे पर वह खड़ी नहीं हो सकी। बिस्तर का सहारा ले कर किसी तरह खड़ी तो हो गयी, पर एक अशंका से उसकी आँखें डबडबा गयीं। उसे फिर उसी पुरानी बीमारी का संदेह हो रहा था। नरेंद्र भी परेशान हो गये, डर तो उसे भी लग रहा था। पत्नी को दुःखी देख कर अपने को संयत रखते हुए उन्होंने नम्रता को सम्हाला और उसके आँसू पोंछते हुए, सब ठीक हो जाएगा, ऐसे कहा मानों ख़ुद को ही समझा रहे हों। उत्सव का माहौल जैसे दुःख में बदल गया। कुछ देर वह दोनों निःशब्द बैठे रहे। फिर अगले दिन वापस चलने और डॉक्टर से संपर्क करने का कार्यक्रम बना लिया। रात का खाना भी कमरे में ही माँगा कर खाया और दूसरे दिन कूचबिहार लौट गये। 


लखनऊ में भाई को फोन कर के स्थिति की सूचना दी। डॉक्टर की दृष्टि से भाई ने उन्हें यथाशीघ्र लखनऊ आने की सलाह दी। अगले दिन ट्रेन में रिजर्वेशन करा कर वह तीनों लखनऊ चल दिये। दूसरे दिन शाम को स्टेशन पर भाई - भाभी उन्हें लेने आये। नम्रता के पैरों की लड़खड़ाहट स्पष्ट दिखायी दे रही थी, जो डॉ. विनोद को चिंतित कर रही थी। एक ही बात पर ध्यान जा रहा था कि यदि दो साल पहले नम्रता को 'पॉलीन्यूराइटिस' हुआ था तो दुबारा होना नहीं चाहिये था। क्योंकि एक बार होने के बाद यह दुबारा नहीं होता। ऐसे में दुबारा वैसे ही लक्षण क्यों हैं? हो सकता है कि रीढ़ की हड्डी में टी.बी. हो गयी हो। जब इस संभावना को भाई ने बताया तो नरेंद्र ने चैन की साँस ली, और कहा कि, "अगर टी बी है तो अच्छा है, उसका तो इलाज है। न्यूरोलॉजिकल बीमारी न हो, क्योंकि वह ला इलाज होती है"। सोचिये इन्सान जब बहुत बड़े दुःख देख लेता है तो छोड़े दुःख, सुख जैसे लगते हैं। सामन्य लोगों को टी. बी. के नाम से डर लगता है। यहाँ टी. बी. की सम्भावना सुखद लग रही थी। 


अगले दिन डॉक्टर से मिले तो यह क्षणिक राहत भी ख़त्म हो गयी, डॉक्टर ने इसे न्यूरल बीमारी ही बताया और पी. जी. आई. (संजय गाँधी पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट, लखनऊ) में जाँच करवाने के लिए निर्देश दिये। पी. जी. आई. में लंबी जाँच होनी थी। इसलिये एक सप्ताह का गेट पास बना। डॉक्टर अनूप कोहली ने "इवोक पोटेंशियल टेस्ट" और 'नर्व कन्डक्शन वेलॉसिटी टेस्ट' करने का निर्णय लिया। इसमें दृष्टि, ध्वनि और स्पर्श के उत्तेजक देने पर मस्तिष्क की विद्युत तरंगो की जाँच की जाती है। यह जाँच तंत्रिकातंत्र की बीमारी जानने के लिए की जाती है। इस टेस्ट में ऑप्टिक नर्व कन्डक्टशन कम निकले। अभी तक भारत में MRI की सुविधा नहीं थी, अतः और दूर तक जाँच की गुंजाइश भी नहीं थी। इस बात का निश्चय तो हो गया था कि यह न्यूरोलॉजिकल बीमारी है, सन्देह था कि यह 'मल्टीपल स्क्लेरोसिस' है। लेकिन इसे निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता था। क्योंकि इसका कोई कन्फर्मेटरी टेस्ट उस समय भारत में नहीं था। उस समय डॉक्टरों का यह मानना था कि 'मल्टीपल स्क्लेरोसिस' भारत जैसे ट्रॉपिकल देश में नहीं होती है। इसे यूरोपीय देशों की बीमारी माना जाता था। ऐसा नहीं था कि यह रोग भारत में नहीं होता था। लेकिन इसकी जाँच के साधन न होने से इसे भारत में होने वाले रोगों में नहीं गिना जाता था। इस समय अजीब दुविधा में सभी लोग थे। नम्रता के मानसिक आघात की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। 'मल्टीपल स्क्लेरोसिस' एक साइलेंट किलर बीमारी है। इसमें क्रमशः नर्व कंडक्शन कम होते जाते हैं, परिणामस्वरूप शरीर के किसी भी हिस्से का नियंत्रण पहले घटता है, फिर वह अंग लकवाग्रस्त अंग की तरह निर्जीव हो जाता है। धीरे-धीरे यह सारे शरीर में फैलता जाता है और रोगी के शरीर में निष्क्रियता बढ़ती जाती है। जिस दिन शरीर का कोई आवश्यक अंग जैसे किडनी, फेफड़े या हृदय इस लकवे के शिकार हो जाते हैं, रोगी के जीवन पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है। 

   

यह एक लाइलाज मर्ज़ है। विश्व में अभी तक इसके लिए कोई भी उपचार नहीं है। मरीज़ जनता है कि वह धीरे-धीरे मौत की ओर बढ़ रहा है, लेकिन उसके हाथ में सिर्फ़ इंतज़ार करने के अलावा कोई चारा नहीं। यहाँ विडम्बना यह थी कि मरीज़ को निश्चित रूप से यह भी नहीं पता था कि उसे क्या हुआ है। 1989 का भारत आज के भारत से बहुत अलग और अविकसित था, अमरीका यूरोप के देशों में इसके कन्फर्मेटरी टेस्ट उपलब्ध थे जो भारत में नहीं थे। इसीलिए इस जानलेवा बीमारी की अधिक जानकारी डॉक्टरों के पास भी नहीं थी। नरेंद्र के मन में यह बात थी कि विदेश जाकर इसका निदान करायें। इस पर डॉक्टर ने कहा कि, इसका इलाज तो वहाँ भी नहीं है, ऐसे में अगर यह पता चल भी जाये कि नम्रता को 'मल्टीपल स्क्लेरोसिस' है तो भी कोई फ़ायदा नहीं होगा। विदेश जाने में मरीज़ को कष्ट होगा और अनावश्यक खर्च भी। अतः पाण्डेय परिवार वापस कूचबिहार लौट गया। 

    

 बदली हुई परिस्थितियों में भी सभी संयत और नियंत्रित थे। नम्रता का विचार था कि एक अनजानी बीमारी के लिए परेशान होने का कोई कारण नहीं है। पति इतना अधिक ध्यान रखते थे और इतना प्यार करते थे कि वैवाहिक जीवन पर इसका कोई बुरा असर होगा ऐसी कोई चिंता नहीं थी। उसने अपना सारा ध्यान बच्चे और परिवार पर केंद्रित किया। बच्चा तीन साल से ज्यादा का हो चुका था। अभी तक उसकी पढ़ाई भी शुरू नहीं हुई थी। नम्रता बच्चे की देख-रेख और पढ़ाई में अपने को व्यस्त रखती, इस तरह समय निकलता रहा। 


इसी बीच नम्रता के रक्कू भइया के पुत्र जन्म की खुशखबरी मिली। एक बार जिन्दगी में नयी स्फूर्ति आयी।उत्तर प्रदेश में प्रथा है कि बुआ, छठी के दिन भतीजे को काजल लगाती है, इसे शुभ माना जाता है। नम्रता बच्चे की इकलौती बुआ है, सो भतीजे के लिए कपड़े सोना आदि खरीदे और गोरखपुर पहुँच गयी। हँसी-खुशी में बीमारी का दुःख भी खत्म सा हो गया था। इसी बीच नरेंद्र का स्थानांतरण बाॅंकुड़ा हो गया था। सामान बाॅंकुड़ा रवाना करके नरेंद्र भी गोरखपुर पहुँच गये, कुछ दिन साथ रह कर माँ - बाप के पास मिर्जापुर गये। वहाँ से ट्रेन से बाॅंकुड़ा जाने के लिए रलवे स्टेशन पहुँचे। सामान चढ़ाया, बच्चे को ट्रेन में बैठाया और नम्रता को चढ़ाने के लिए दरवाज़े तक गये थे कि ट्रेन सरकने लग गयी। नम्रता अपने पैर की दिक्कत के कारण ट्रेन में चढ़ नहीं पा रही थी। घबराहट में नरेंद्र ने ट्रेन की चेन खींची और नम्रता को चढ़ने में मदद की। ट्रेन के सहयात्री नाराज़गी जाता रहे थे चेन खींचने पर। लेकिन नरेंद्र को नम्रता की परेशानी पता थी। जाँच कर्ताओं को बताने पर मामला सुलझा और चौबीस घंटों की यात्रा के बाद वह लोग बाॅंकुड़ा पहुँचे। 

     

कूचबिहार की तुलना में बाॅंकुड़ा बहुत छोटा ज़िला था। कूचबिहार में सिर्फ़ बांग्ला भाषी जनता नहीं थी। विभिन्न राज्यों के लोग वहाँ रहते थे। कूचबिहार काफ़ी आधुनिक और प्रगतिशील जिला था, उसकी तुलना में बाॅंकुड़ा खॉंटी बंगाली जगह थी। कुछ मारवाड़ी व्यापरियों या बाहर के सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के अलावा किसी अन्य राज्य के लोग नहीं दिखते थे। 


   बाॅंकुड़ा का वन क्षेत्र बहुत बड़ा है। लेकिन यहाँ लाल मिट्टी में उगने वाले छोटे वृक्ष बहुतायत में हैं, जो कूचबिहार के हरे-भरे लंबे चौड़े वृक्षों के जंगलों की तुलना में बौने से लगते हैं। बंगाल का यह एक महत्वपूर्ण ज़िला है। मल्लमूम राज्य के काल में यह क्षेत्र, लंबे समय तक हिन्दू संस्कृति का केंद्र रहा, जिसकी राजधानी बिष्णुपुर में थी। आज भी विष्णुपुर एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। यहाँ टेराकोटा के मन्दिर धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व रखते हैं। यहाँ का वन क्षेत्र दो भागों में बँटा हुआ है उत्तरी (नॉर्थ) वनक्षेत्र और दक्षिणी(साउथ) वनक्षेत्र। उत्तरी वनक्षेत्र पुराना और बहुत बड़ा था। दक्षिणी वनक्षेत्र बाद में बना। नरेंद्र की पोस्टिंग उत्तरी वन क्षेत्र में हुई थी। इसका सरकारी बंगला बहुत बड़ा था। दो मंज़िल का बड़ा सा घर चारों तरफ़ बहुत बड़ा सा कैंपस था। जिसमें लगभग हर किस्म के पेड़ लगे थे। इलायची, काजू, पीपल, अमरूद, बारहमासी आम, नींबू, केवडा, जंगल जलेबी, चिलबिल, संतरा और भी बहुत से। अशोक के पेड़ भी थे। आपको लगेगा कि सड़क के किनारे लगे पतले लंबे बिना शाखा वाले पेड़ अशोक के हैं,नहीं यह असली अशोक नहीं होते हैं। असली अशोक के पेड़ आम के पेड़ की तरह के होते हैं, मझोले आकार के और गुल्म आकृति के। इसमें गुच्छों में फूल खिलते हैं और इन फूलों की सुगंध भी बहुत अच्छी होती है। ऐसे ही अशोक की वाटिका रही होगी जिसमें सीता जी को रावण ने रखा था। 

   

कैंपस के छोर पर दो सर्वेंट क्वाटर बने थे। इनमें गार्ड और सफाईकर्मी सपरिवार रहते थे। गार्ड थे मदन दा, कोई पचास साल की उम्र रही होगी। दूसरे थे उदय दा। इनकी उम्र कुछ पैंतीस साल की रही होगी। इनके अपने बच्चे भी थे, एक छोटा बच्चा तो नीलाभ की उम्र का रहा होगा। इसीलिए मदन दा नीलाभ के साथ विशेष लगाव रखते थे। बच्चा दोनों के साथ खूब हिलमिल गया था। मदन और उदय दा भी उसको खूब प्यार करते और ध्यान रखते थे। यहाँ आने पर नीलाभ का 'मॉडर्न स्कूल' में दाख़िला हो गया। उदय दा अपनी सायकिल से नीलाभ को स्कूल छोड़ने और लेने जाते थे। कभी-कभी नम्रता भी बच्चे को लेने चली जाती थी। एक दिन स्कूल के फ़ादर की मुलाकात नम्रता से हुई, कुछ देर बात करने पर, नम्रता की शिक्षा जानकर फ़ादर ने नम्रता के सामने स्कूल में बच्चों को पढ़ाने का प्रस्ताव रखा। छोटी जगह में कोई और गतिविधि तो थी नहीं, बच्चा भी वहीं पढ़ रहा था तो यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। घर आने पर जब पति को बताया तो नरेंद्र हँसने लगे बोले कि, "तुम पढ़ाओगी या बच्चों की संख्या देख कर बेहोश हो जाओगी!!!" लेकिन उसने निश्चित कर लिया था कि पढ़ाना है। दो दिन बाद ही स्कूल जॉइन कर लिया और पढ़ाना भी शुरू कर दिया। नीलाभ के साथ सुबह 7.30 पर स्कूल जाती और 10 बजे बच्चे के साथ वापस आ जाती। नरेंद्र उसके आने के बाद कार्यालय जाते। इतनी व्यस्तता में बीमारी का ध्यान कम ही आता था। 

    

जैसा कि पहले बताया है कि दक्षिणी वन क्षेत्र बाद में बना तो वहाँ डी. एफ़. ओ के रहने का बंगला नहीं था। वहाँ के डी. एफ़. ओ., ए. डी. एफ़. ओ. के घर में रहते थे। शासन के आदेश पर नॉर्थ डी. एफ़. ओ. के कैंपस के कुछ हिस्सों में ही, साउथ के डी. एफ़. ओ. का बंगला बनाना शुरू हुआ। यहाँ पानी की व्यवस्था कैंपस में बने कुएँ में पम्प लगा कर की गयी थी। यह कुंआ भी नाॅर्थ डी. एफ़. ओ. के हिस्से में आ गया था, इसलिये नया कुँआ खुदवाने की ज़रूरत थी। जगह देखने के लिए जब नरेंद्र पहुँचे तो वहाँ एक बेल के पेड़ के नीचे कुछ पूजा सी हुई दिखी। एक दिया अभी तक जल रहा था। उत्सुकता में जब पूछा कि यह क्या है, तो मदन दा ने गम्भीरता से बताया कि, "यहाँ सन्यासी बाबा रहते हैं"। नरेंद्र को हैरानी हुई कि फॉरेस्ट विभाग के बंगले में कोई सन्यासी बाबा बिना जानकारी के कैसे रह सकते हैं? तब उदय दा और मदन दा ने बताया कि सन्यासी बाबा कोई व्यक्ति नहीं एक आत्मा हैं जो वर्षों से यहाँ इस बेल पर रहते हैं, किसी को नुकसान नहीं पहुँचाते। बहुत दिनों तक लोगों को इसके बारे में जानकारी ही नहीं थी। एक बार बंगले में कुछ काम हो रहा था, तो एक मजदूर ने यहाँ पेशाब कर दिया, रात में उसके सपने में सन्यासी बाबा आये और उनके स्थान को गंदा करने की शिकायत की और उसे बेल के नीचे तुरन्त सफ़ाई करने का आदेश दिया और न करने की दशा में कठोर दण्ड देने की बात भी कही। रात में ही उस मजदूर ने यहाँ साफ़ - सफ़ाई की और अगरबत्ती जला कर माफ़ी माँगी। तभी से इस जगह की पवित्रता का ध्यान रखा जाता है। सुबह शाम सफ़ाई करके दिया- अगरबत्ती जलायी जाती है। हर शनिवार की शाम को गॉंजा भर कर चिलम चढ़ाई जाती है, जो सुबह इस्तेमाल की हुई मिलती है। इस अच्छे भूत की बात सुन कर नरेंद्र ने बेल के चारों ओर चबूतरा बनाने का निर्देश दिया और पूजा को यथाविधि जारी रखने की अनुशंसा भी की। 


   नम्रता को भी सन्यासी बाबा के भूत के बारे में जानकारी हुई। थोड़ा डर और उत्सुकता दोनों ही हुई। वह अक्सर बेल के नीचे जाकर सन्यासी बाबा

के अस्तित्व को अनुभव करना और उनसे बात करना चाहती थी। वह अक्सर सन्यासी बाबा से प्रश्न करती थी कि उसने ऐसा क्या पाप किया था कि उसे यह असाध्य रोग हो गया है? सन्यासी बाबा कभी उसको उत्तर देने तो नहीं आये लेकिन आत्मा या भूत जो भी कहें, उसके साथ रह सकने और उससे बात करने का आत्मविश्वास ज़रूर पैदा हुआ। इधर केवल चलते समय शरीर के संतुलन के अलावा कोई ख़ास दिक्कत नहीं थी, जीवन सुचारु रूप से से चल रहा था। 

    

1992 में रज्जू भइया की शादी तय हुई। इस खुशखबरी से एक बार फिर गोरखपुर जाने का अवसर मिला। उपहार वगैरह की खरीदारी करके कोलकाता से फ्लाइट ले कर नम्रता गोरखपुर चली गई। भाई ने अपने कुछ सामानों को बहिन के चुनाव के लिए छोड़ रखा था, वही सब खरीदने के लिए नम्रता और रक्कू भइया गोलघर गये, साथ में नीलाभ भी था। समान वगैरह खरीद कर सभी पास में बने पार्क, 'इन्दिरा बालविहार' में गये। यहाँ हरियाली, फूल पौधे, बच्चों के लिए झूले, बैठने के लिए बेंच आदि लगी हैं, खाने-पीने की भी दुकानें हैं। यहाँ बच्चे को खेलने के लिए छोड़ कर रक्कू भइया और नम्रता कुछ खाने के लिए ऑर्डर देकर खड़े थे, कुछ देर में अचानक नम्रता धड़ाम से पीठ के बल अकारण गिर गयी। किसी के समझ में कुछ नहीं आ रहा था, स्वयं नम्रता भी हैरान थी कि अचानक बिना धक्का लगे, बिना पैर लड़खड़ाये, बिना चक्कर आये आखिर वह ऐसे क्यों और कैसे गिर गयी? भाई ने उठाया, अधिक चोट नहीं आयी थी। बच्चा भी घबरा कर पहुँच गया। उनके अगर-बगल छोटी सी भीड़ लग गयी थी। इस अप्रत्याशित घटना पर सोचने के बाद याद आया कि कहीं यह 'मल्टीपल स्क्लेरोसिस' का प्रभाव तो नहीं? इस समय हमेशा दृढ़ता से रोग का सामना करने वाली नम्रता भी बुरी तरह डर गयी। इधर जब से पैर बहुत संतुलित नहीं रह रहे थे, नम्रता बच्चे का हाथ थाम कर चलती थी, ताकि बच्चा सुरक्षित रहे और थोड़ा सहारा भी मिलता रहे। अगर आज बच्चे का हाथ पकड़ा हुआ होता तो बच्चा भी साथ गिरता, कहीं उसके ऊपर गिर जाती? क्या मैं ऐसे ही अचानक कहीं भी गिर सकती हूँ? क्या मेरी बीमारी मुझे अभी से अपंग बना देगी? अब कितने दिन ऐसे जी सकेगी? क्या किसी सड़क पर चलते समय गिर गयी और किसी गाड़ी के नीचे आ गयी? क्या अब जिन्दगी समान्य नहीं रहेगी? मेरे बच्चे का क्या होगा? ऐसे ही अनेकों विचार मन को मथते रहे। दुकान वाले को पैसा देकर बिना खाये ही, जल्दी में सभी घर चल दिये। 

   

गोलघर की घटना जानकर बाकी परिवार वाले भी चिंतित हो गये। डॉक्टर शुक्ला को फोन करके बुलाया गया। उन्होंने जाँच आदि करके बताया कि जो हुआ सो हुआ। लेकिन विशेष चिंता की बात नहीं है। ज़रूरी नहीं कि यह बीमारी के कारण ही हुआ हो, शादी की व्यस्तता में अधिक थकने, नींद कम होने आदि कारणों से भी चक्कर आ सकता है। लेकिन नम्रता को चक्कर नहीं आया था, ऐसा उसे विश्वास था। फिर भी मन को राहत मिली, कुछ दवायें और ठीक से खाने - सोने की हिदायत देकर डॉक्टर चले गये। शादी के घर में अधिक देर तक मायूसी नहीं रही। परिवार और मेहमानों के गहमागहमी में कुछ समय के लिए सभी इस बात को भूल गये। 

   

शादी सम्पन्न हुई, नरेंद्र भी आये थे विवाह में। अब यह सभी वापस बाॅंकुड़ा चले गये। बीमारी को पाँच वर्ष हो गये थे। गोरखपुर की दुघर्टना के बाद अब सभी चिंतित थे। क्योंकि शरीर कमजोर हो रहा था तो डॉक्टर की सलाह पर नियमित फिजियोथेरेपी शुरू हुई। कहीं आने - जाने पर यह ध्यान रखा जाने लगा कि कोई नम्रता के साथ रहे। परिचित मित्र जो भी मिलता कोई दवा या सलाह देता, किसी ने बताया कि रोज़ खाली पेट लहसुन खाओ, किसी ने मछली खाने की सलाह दी तो किसी ने बंसलोचन, माजूफल या रतनजोत आदि की सलाह दी। नरेंद्र इस विषय को किताबों, अखबारों और पत्रिकाओं में खोजते और पढ़ते रहे। एक लेख के अनुसार जापान में यह बीमारी नहीं होती, क्योंकि वह लोग भोजन में मछली खूब खाते हैं, विशेष रूप से 'रोहू' । फलतः नम्रता के दोनों वक़्त के भोजन में 'रोहू मछली' किसी न किसी तरह से शामिल रहती। 

         

    यह एक समान्य जानकारी थी कि, इस मर्ज़ का कोई इलाज नहीं है, तो परेशानी में इन्सान उन बातों को भी मान जाता है जिसको उसका तर्क कभी स्वीकार नहीं करता, सिर्फ़ इस आशा में कि, 'शायद कोई चमत्कार हो जाये'। इसी आशा में पाण्डेय परिवार भी कोई भी संभावना तलाशने और उसे पूरा करने में लगे हुए थे। 


      चुंबकीय चिकित्सा या मेग्नेट थैरेपी भी एक प्रचलित चिकित्सा पद्धति है। जिसके अच्छे परिणाम मिलते हैं। MRI शरीर में मौजूद चुंबकीय तत्त्वों के कारण ही सम्भव होता है, अतः यह पद्धति कपोल कल्पना नहीं है। लखनऊ में इसके एक विशेषज्ञ की जानकारी मिली थी। नरेंद्र-नम्रता हर सम्भव उपचार कर रहे थे तो इसे भी आज़माना चाह रहे थे। भाग्य से उसी समय एफ़.आर.आई. देहरादून में नरेंद्र को एक ट्रेनिंग का अवसर मिला। सपत्नीक नरेंद्र देहरादून की ट्रेनिंग करने गये, वापसी यात्रा में लखनऊ अपनी बड़ी बहिन नीलम मिश्रा के घर एयर फ़ोर्स कॉलोनी, मेमोरा, लखनऊ पहुँचे। उस समय मैं भी अपने दूसरे बच्चे के जन्म के लिए अपनी बड़ी बहिन के घर आयी हुई थी। भाभी - भइया से मिल कर सभी को अच्छा लगा। एक बात पर सभी बहुत हँसे थे कि उस समय हम तीनों यानी मैं, मेरी बहिन और नम्रता भाभी सभी भचक - भचक कर चल रहे थे। भाभी तो अपनी बीमारी के कारण ठीक से चल नहीं पाती थीं, मुझे कूल्हे की हड्डी में चोट लगी थी इस लिये पैर में दर्द था, बड़ी बहिन के एड़ी की हड्डी बढ़ गयी थी, इसलिये उनको भी चलने में दिक्कत हो रही थी। यानी एक घर में लंगड़ों की जमात इकठ्ठा हो गयी थी… दुःख में भी हँसी का यही कारण था, लेकिन यह खुशी ज़्यादा देर नहीं रही। 


चुंबक वाली दवा लेने दूसरे दिन जाना था, आज शाम के समय दीदी-जीजा, भाई-भाभी को एयर फोर्स स्टेशन दिखाने ले गये। सभी पैदल ही गये थे, घूम कर लौटते समय अचानक नम्रता फिर गिर गयी, वह घास का मैदान था इसलिये कोई ख़ास चोट नहीं लगी। एक बार सभी उनकी बिगड़ती हुई बीमारी से दुःखी हो गये। दूसरे दिन चिकित्सक से मिले तो उन्होंने एक सप्ताह तक रोज़ शाम के समय आकार चिकित्सा लेने का परामर्श दिया। पाँच दिनों तक सब ठीक से चलता रहा, लेकिन छठे दिन उन लोगों को लौटने में देर हो गयी। उस समय मोबाइल तो थे नहीं की कारण पूछा जाय। प्रतीक्षा के अलावा कोई चारा नहीं था। देर होती जा रही थी, सभी परेशान थे। मेमोरा से शहर पैंतालीस किलोमीटर दूर था, इसलिए शहर जा कर पता लगाना भी कठिन था। सब समान्य होता तो अधिक चिंता का विषय नहीं था, लेकिन भाभी की बीमारी के कारण सभी की परेशानी बढ़ रही थी। क़रीब रात के आठ बजे नरेंद्र का फोन आया कि नम्रता वापस लौटते हुए सड़क पर गिर गयीं, चोट काफ़ी लगी है, डॉक्टर को दिखा कर वहीं शहर में नम्रता के फुफेरे भाई के घर रुक गये हैं। दूसरे दिन चुंबकीय चिकित्सक ने, मैग्नेटिक वाटर जैसी कोई दवा दी, जो आगे छह महीने तक पीनी थी। अब इन लोगों के वापस जाने का समय भी आ गया था। एक बार फिर उपचार की तलाश एक नये दर्द के साथ समाप्त हुई। पूरी अवधि के उपचार से कोई सुधार नहीं हुआ। नम्रता का जीवन दुबारा निराश के धुँधलके में डूब गया। 

   

   दवा, दुआ या जादू - चमत्कार सभी की खोज थी,। ऐसे में एक मन्दिर के बारे में जानकारी मिली। मिदनापुर के पास 'रस कुंडू' नामक मन्दिर है। इस मन्दिर की यह ख्याति है कि वहाँ के जल से स्नान कर के पुजारी जी द्वारा दी गयी औषधि का नियम से जो भी सेवन करता है उसके सभी असाध्य रोग ठीक हो जाते हैं। यह ऐसा सिद्ध मन्दिर था कि यहाँ कैंसर, उन्माद और लकवा आदि के बहुत से रोगी पूर्ण स्वस्थ हो चुके थे। भारत के कोने-कोने से बीमार दुःखी लोग उस मन्दिर में आते थे। नम्रता और नरेंद्र भी वहाँ गये। स्नान आदि करके पूरे विधि-विधान से, श्रद्धापूर्वक औषधि लेकर आये। औषधि को सुबह और शाम खाना होता था। नियम यह था कि पत्थर की सिल को साफ़ करके दवा को पीसना था। पीसने वाले और मरीज़ दोनों को स्नान करने के बाद दवा पीस कर खाने तक मौन रहना होता था। यह नियम एक माह तक प्रतिदिन पालन करना था। उपचार कर लेने के बाद कुछ चमत्कार की प्रतीक्षा रही। परन्तु परेशानी यथावत बनी रही। 

         

हताशा में ये दोनों नये-नये उपचार खोज रहे थे। डॉक्टरों से भी परामर्श चल रहा था। रोहू मछली का भोजन, व्यायाम, फिजियोथेरेपी सभी कुछ चल रही थी। नम्रता की हालत में यदि सुधार नहीं हुआ था तो स्थिति बिगड़ भी नहीं रही थी। एक हितचिंतक मित्र ने एक पण्डित जी की बात बतायी जो बहुत सिद्ध थे, बहुत से असाध्य रोगियों को ठीक कर चुके थे। नरेंद्र भी पण्डित जी की शरण में गये, शनिवार को पूजा शुरू हुई, शुद्धि मंत्रों के बाद, स्नाता नम्रता के हाथ और पाँवों के सभी नाखून मन्त्रों के साथ काट कर पिसी उरद की पिट्ठी में रख कर एक गोला बनाया गया। उसे तेल में तल कर सिंदूर आदि से पूजा गया। इसका कुछ भाग काले कुत्ते को खिलाना था, बाकी का हिस्सा एक चौराहे पर कुछ जप-मंत्रों के साथ रखना था। यद्यपि नरेंद्र को ऐसे पूजा - टोटकों पर कभी विश्वास नहीं था, लेकिन एक असाध्य बीमारी से अपनी पत्नी को मुक्त कराने के लिए यह सभी काम पूरी श्रद्धा से करने का प्रयास कर रहे थे। 


 समय किसी के लिए नहीं रुकता। यह अपनी गति से चलता जाता है। एक वर्ष बीत रहा था, बच्चे और नम्रता के स्कूल में गर्मियों की छुट्टी हो गयी थी, 1993 का साल था। नम्रता के फुफेरे भइया ने एक्यूपंक्चर कराने के लिए कहा, नम्रता और नीलाभ गोरखपुर चले गये। दूसरे दिन से डॉ. पाण्डेय के क्लीनिक पर उपचार शुरू हुआ। आरंभ के कुछ दिनों तक तो कुछ अंतर नहीं दिखा, लेकिन पंद्रह दिन बाद एक्यूपंक्चर के तुरन्त बाद ऐसा अनुभव हुआ कि पैर बिल्कुल ठीक हो गया है, बहुत खुश थी नम्रता। असर रात भर रहता सुबह तक फिर से पैर का संतुलन ख़राब हो जाता था। लेकिन कई दिनों तक ऐसा होता रहा कि चिकित्सा के सत्र के बाद चाल बिल्कुल ठीक लगती थी। यह सत्र डेढ़ माह तक चला, जब कुछ स्थिति ठीक हुई तो एक बार फिर लखनऊ के मेडिकल कॉलेज, के.जी.एम.सी. में पुनः जाँच करवाने का निर्णय लिया गया, क्योंकि इस समय भारत में MRI की तकनीक आ गयी थीं। 


पंद्रह अगस्त को लखनऊ जाना था, सिर्फ़ नम्रता और रक्कू भइया ही लखनऊ जाने वाले थे। लेकिन चौदह अगस्त के दिन में नीलाभ के गले में एक गिल्टी निकल आयी, अगले दिन जब सभी यात्रा की तैयारी कर रहे थे, उस समय बच्चा उठा तो देखा कि उसकी गिल्टी बहुत अधिक सूज गयी है, दर्द के कारण उसका गला टेढ़ा हो गया था, ऐसे में नीलाभ को भी साथ ले लिया गया कि उसका भी इलाज लखनऊ में हो जायेगा। लखनऊ पहुँच कर उसी दिन डॉ. देविका नाग के देखरेख में चिकित्सा के लिए रजिस्ट्रेशन करा लिया। दूसरे दिन से रोग के निदान के लिए टेस्ट होने शुरू हुए। MRI सहित नर्वस सिस्टम से लेकर खून आदि की जाँच के बाद डॉ. देविका ने भी 'मल्टीपल स्क्लेरोसिस' की ही पुष्टि की। इसका इलाज एक हॉर्मोन के इंजेक्शन से होना था। यूँ यह इलाज भी कोई गारंटी नहीं देता था, लेकिन यही इलाज विश्व के सभी देशों दिया जा रहा था, अतः उसी को यहाँ भी दिया जाना था। संक्षेप में इसे ACHT (एड्रेनोकॉर्टिकोट्रॉपिक हॉर्मोन) कहते हैं, यह एक बहुत तीव्र दवा है। जिसके बहुत से साइड इफेक्ट भी होते हैं। लेकिन मरीज़ की दशा देखते हुए डॉ. नाग ने इसे ही देना ठीक समझा। 


एक समस्या यह थी कि भारत में इसका उत्पादन नहीं होता था। स्विट्जरलैंड से दवा आयातित होती थी। डॉक्टर की सलाह थी कि यदि कोई रिश्तेदार या दोस्त विदेश में रहता हो तो दवा वहीं से मॅंगाई जाये। लेकिन लखनऊ के एक मेडिकल स्टोर ने दवा देने का आश्वासन दिया, दवा बहुत महँगी थी, इसलिए पहले बीस वॉयल दवा आयी, इसकी खुराकें धीरे-धीरे बढ़ाई और धीरे-धीरे घटाई जाती है। इसे रेफ्रिजरेशन में रखा जाता है। इस उपचार के लिए मरीज़ को अस्पताल में भर्ती होना चाहिए, लेकिन वहाँ कोई जगह खाली नहीं थी, तो नम्रता अपने मुँह बोले भाई नरेंद्र पाल सक्सेना के घर ठहरी। वहीं से प्रतिदिन के.जी.एम.सी. आकार इंजेक्शन लगवाती रही। 7 सितंबर को एक प्राइवेट वार्ड खाली हुआ तो नम्रता नीलाभ उसमें आ गये। यहाँ खाना ख़ुद बनाना होता था या घर से मॅंगाना पड़ता था। खाना बनाने का सामान इकठ्ठा किया गया और अस्पताल में रह कर इलाज का सिलसिला चलता रहा। इस हॉर्मोन के इंजेक्शन से नम्रता का वज़न बेतहाशा बढ़ता गया, लेकिन डॉक्टर के स्पष्ट निर्देश थे कि खाने में प्रोटीन की मात्रा अधिक होनी चाहिए और प्रतिदिन फलों का रस पीना भी आवश्यक है, नहीं तो इस दवा के असर से हड्डियाँ गलने लगती हैं और ऑस्टियोपोरोसिस होने के अत्यधिक संभावना रहती है। अतः मोटापे की चिंता नहीं करनी है, प्रतिदिन ढाई सौ ग्राम पनीर और एक लीटर फलों के रस का सेवन करना जरूरी था। नम्रता के मोटापे की स्थिति यह थी कि शुरू के दिनों में एक नर्स ड्यूटी पर थी। किसी काम से वह चार - पाँच दिनों की छुट्टी पर गयी थी। लौट कर वापस ड्यूटी जॉइन करने पर वह नम्रता को देख कर लगभग चिल्ला पड़ी थी। लेकिन इसी मोटापे के साथ नम्रता का इलाज चलता रहा। दवा के कारण शरीर में पोटेशियम और सोडियम की मात्रा भी प्रभावित होती है, इसलिये खून की नियमित जाँच होती थी। समय-समय पर इनके लिए भी कुछ दवायें भी खानी पड़ती थीं। इलाज के दौरान भीषण एसिडिटी भी होती थी, दवा से नियंत्रण में न आने पर डॉक्टर की सलाह पर आइस क्रीम खिलायी जाती थी। यानी इलाज के दौरान कभी खुशी कभी ग़म चल रहा था। अस्पताल में रहते हुए नम्रता को बेटे की पढ़ाई का ध्यान रहता था, क्योंकि वह स्कूल नहीं जा सकता था। इसलिये जब भी नम्रता की तबीयत थोड़ी भी ठीक लगती तो बच्चे को पढ़ाने बैठ जाती थी। बच्चा उसके जीवन का केंद्र बिन्दु था। 

  

इस बीच नरेंद्र, उसे देखने आ रहे थे, बीमारी और इलाज को लेकर बहुत तनाव था। उस पर वह रॉबिन कुक की उपन्यास ब्रेन पढ़ रहे थे, जो बीमारी और चिकित्सा जगत की गड़बड़ी पर ही लिखी गयी है। ए. सी. डिब्बे में सफ़र कर रहे थे। उपन्यास पढ़ते-पढ़ते नींद आ गयी। तनाव के कारण कोई दुःस्वप्न देखते हुए वह नींद में घबरा कर चिल्लाने लगे। सहयात्री ने उन्हें जगाया और संयत किया। ट्रेन से उतर कर, वह सीधे मेडिकल कॉलेज पत्नी को देखने पहुँचे। पहले से परेशान नरेंद्र ने जब नम्रता का मोटा शरीर और बदली हुई सूरत देखी तो गहरा आघात लगा। दवा के साइड इफेक्ट से पूरे चहरे पर बहुत सारे बाल उग आये थे… ऐसी स्थिति में बीमारी की भयावहता का भीषण अनुभव हुआ। किसी तरह स्वयं को सम्हाला और पत्नी को सब कुछ ठीक हो जाने की दिलासा दी। 

   

अब तक खरीदे गए उन्नीस वॉयल ख़त्म हो गये थे। लेकिन डॉक्टर मरीज़ के सुधार को देखते हुए उपचार आगे बढ़ाना चाह रही थीं, आगे ना भी बढ़ता तो भी खुराकें धीरे-धीरे घटा कर उपचार समाप्त किया जाता है, तो दवा की ज़रूरत थी ही। लखनऊ, कानपुर, दिल्ली सभी जगह खोज की गयी, लेकिन दवा नहीं मिल रही थी। डॉक्टर सहित सभी का तनाव बढ़ रहा था। नरेंद्र हर सम्भव प्रयत्न कर रहे थे लेकिन आशा की सूक्ष्म रेखा भी नहीं दिख रही थी…। अजीब उदासी और डर का माहौल था, सभी को उदास और तनाव में देख नन्हा नीलाभ भी दुःखी था। इस कच्ची सी उम्र में बच्चा जैसे बड़ों सा समझदार हो गया था। माँ-बाप को बच्चे के भाग्य पर तरस आ रहा था, पर सभी ईश्वर के न्याय के सामने मजबूर थे। दुःख गहरा हो रहा था कि एक आशा की किरण जागी। 


कोलकाता के सी. सी. एफ़., श्री पालित का फोन आया कि वहाँ दवा उपलब्ध है। डूबते को तिनके का सहारा मिला। पालित साहब ने दूसरे दिन कार्यालय के एक कर्मचारी को लखनऊ जाने को कहा। एक बड़ा थर्मस खरीद कर उसमें बर्फ डाल कर दवा रखी गयी, उसे निर्देश दिया गया कि अगर रास्ते में बर्फ़ ख़तम होती है तो कहीं से बर्फ़ ख़रीद कर थर्मस में डालनी है। बेचारा यह व्यक्ति समान्य तरीके से कार्यालय आया था उसके पास बदलने के कपड़े तक नहीं थे। खैर वह समय पर लखनऊ पहुँचा। रक्कू भइया और नरेंद्र स्टेशन पहुँचे। दवा, ड्राइवर के हाथों अस्पताल भेजी और फिर उस कर्मचारी को खाना खिलाया, कपड़े ख़रीद के दिये, धन्यवाद के साथ कुछ रुपये और वापसी का टिकट कटा कर ट्रेन पर बैठा कर यह लोग वापस आये। एक बड़ी समस्या सुलझ जाने के सुकून के साथ। 

    

अगस्त में जब लखनऊ आये थे तो इसका आभास नहीं था कि उपचार कितने दिन चलेगा। लेकिन घर गाँव तक बीमारी की ख़बर पंहुच गयी थी, जिसको भी पता चलता नम्रता को देखने और हालचाल लेने आते थे। इलाज की बात सुन कर सभी की आँखों में यह उम्मीद दिखती थी कि बिटिया ठीक हो जायेगी। ऐसे लोगों को देख कर नम्रता का दिल दुखता था, वह सच्चाई बता कर किसी की उम्मीदों का चिराग़ नहीं बुझाना चाहती थी, क्योंकि अभी तक के किसी भी उपचार से स्वयं उसे अपनी स्थिति में किसी प्रकार का सुधार होता अनुभव नहीं हो रहा था। पिता से फोन पर बातें होती तो वह अक्सर कहते कि बेटा किसी जन्म के कर्मों की भरपाई कर रहे हैं हम सभी,। इस पर नम्रता कहती कि भगवान ने कर्मों का हिसाब क्यों बाकी रखा? जिस जन्म में ग़लती हुई थी तभी सज़ा दे देते… ये कैसी साहूकारी है कि कभी का बाकी हिसाब सूद सहित चुका रहे हैं? ऐसी बातों के बाद घण्टों तक मन और उदास हो जाता था। धीरे-धीरे सर्दियों का मौसम आ गया, किसी के पास ऊनी कपड़े नहीं थे तो इनका भी इंतजाम करना था, सच ही कहा है कि जब परेशानी आती है तो चारों ओर से आती है… 

       

अपनी परेशानियां तो थीं ही, इधर पास के वार्ड में एक नया मरीज़ आया था, वह अपाहिज सा दिखता था, व्हीलचेयर पर अक्सर कॉरिडोर में दिखता था। उसके होने से नहीं उसके रोने से दिक्कत होती थी नम्रता सहित अन्य वार्ड के लोगों को। मरीज़ की देख-रेख करने वाला व्यक्ति उसे धूप में ले जाकर कुछ व्यायाम कराने का यत्न करता था, लेकिन मरीज़ सहयोग नहीं करता था, तो साथी उसे अक्सर मारता था, फलतः वह जोर जोर से रोने लगता था। यही बात अस्पताल के दुःखद माहौल को और भी ग़मगीन बना देती थी। रक्कू भइया ने एक दिन उस मरीज़ और उसके सहायक को रोक कर इन सब बातों का कारण पूछा। यह मरीज़ उत्तराखंड से आया था, अट्ठारह - बीस साल के उस युवक का एक्सीडेंट हो गया था, जिससे वह कोमा में में चला गया था। अस्पताल में इलाज के दौरान उसे मैनिंजाइटिस हो गया तो स्थिति शोचनीय हो गयी थी। उसका सहायक मरीज़ का बड़ा भाई था। धार्मिक प्रकृतिक का भाई से बेहद प्यार करने वाला व्यक्ति था। उसने शंकर भगवान के सामने अपने भाई के प्राण रक्षा की शपथ ली और अपने बीवी-बच्चों को घर पर छोड़ भाई को लखनऊ ले आया। मरीज़ की दशा से डॉक्टर भी निराश से थे, लेकिन इलाज के लिए भर्ती कर लिया गया। एक महीने तक स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ तो डॉक्टरों ने भाई को समझाया कि वक़्त बहुत हो गया है, सामन्यतः कोमा के रोगी ठीक नहीं हो पाते हैं। उसके इलाज के लिये दुबारा सोचना चाहिए। लेकिन बड़ा भाई दृढ़ था कि इलाज जारी रखा जाये और उसका भाई ठीक हो जाएगा। 


इलाज चलता रहा और डेढ़ महीने बाद डॉक्टर को चकित करता मरीज़ कोमा से बाहर आ गया। अभी भी उसके शरीर में बहुत सी दिक्कतें थीं, जिसका इलाज चल रहा था। नियमित व्यायाम उस इलाज के लिए नितांत आवश्यक था। बड़ा भाई इसीलिए उसे मारता था कि व्यायाम नहीं किया तो सुधार नहीं होगा। बड़े भाई की ऐसी निष्ठा देख कर और सारा वृत्तान्त जानकर नम्रता और वार्ड के सभी सदस्यों की आँखें भर आयीं। बड़ा भाई जो अभी तक किसी खलनायक जैसा लगता था, देवता समान लगा। यहाँ ये बताना भी ज़रूरी लगता है कि नम्रता के वहाँ रहते हुए ही वह मरीज़ थोड़ा बहुत बोलने और सहारे से चलने लगा था।

     दूसरों की इतनी तकलीफ देख कर नम्रता को अपना दुःख कम सा लगा था। अब रज्जू भइया सहित सभी वार्ड के सदस्य उन दोनों भाइयों की यथा शक्ति मदद करते थे, एक मित्रता सी बन गयी थी। शायद दुःख भी दिलों को जोड़ने का एक महत्वपूर्ण तन्तु है। अब लगभग साढ़े तीन महीने हो चुके थे, नम्रता की दवा भी घटाई जा रही थी। एक दिन वही दोनों भाई दिखाई दिये, छोटा भाई वाकर से चल रहा था और वह आपस में कुछ बातें भी कर रहे थे। उन्हें देख कर जब रक्कू भइया ने हालचाल पूछा तो पता चला कि दो तीन दिन बाद वह वापस जा रहे हैं, आगे का इलाज घर पर ही चलेगा। ऐसा चमत्कार देख कर बरबस मुँह से निकला कि यह बड़े भाई का सत्य संकल्प था, जिसके कारण छोटा भाई मौत के मुँह से बाहर आ गया। हृदय उसके विश्वास और शंकर जी की भक्ति के आगे नत हो गया। 


तीस दिसंबर को नम्रता भी अस्पताल से मुक्त हुईं। चलते समय डॉक्टर ने कभी भी गर्भ धारण न करने की सलाह दी थी, क्योंकि इस तरह के उपचार के बाद गर्भस्थ शिशु का स्वास्थ्य कैसा होगा इसे कोई बता नहीं सकता है। इलाज के दौरान डॉ. देविका नाग ने एक लिटरेचर दिया था नरेंद्र को, 'लिविंग विद मल्टीपल स्क्लेरोसिस'। उसमें विदेश के एक फिल्म प्रोड्यूसर की कहानी थी, जिसे यही बीमारी हो गयी थी और वह सत्ताईस साल तक व्हीलचेयर पर ही रहा, जाहिर है कि इसका इलाज नहीं था। वह व्यक्ति भी बीमारी के साथ प्रयोग करता रहा। उसने ग्लूटिन फ्री भोजन खाना शुरू किया और सत्ताइस साल बाद वह ठीक हो गया। ऐसे ही कई और उदाहरण दिये गये थे। डॉक्टर ने अपनी ओर से कहा कि हम अस्पताल में वही इलाज करते हैं जो चिकित्सा जगत में मान्य हैं। 'मल्टीपल स्क्लेरोसिस' अभी तक ला-इलाज मर्ज़ है, हमने अपनी कोशिश की लेकिन आप भी कोशिश जारी रखिये, कोई नहीं जानता कि भगवान कब कोई चमत्कार कर दे। 

   

तीस दिसंबर तक उपचार पूरा हुआ, सब लोग कार से गोरखपुर आये। परिवार के सदस्यों को बहुत आशा थी कि उसकी बीमारी में सुधार होगा, लेकिन स्वयं नम्रता को सुधार तो नहीं बल्कि ऐसा लग रहा था कि वह और अधिक बीमार हो गयी है। ऐसे में डॉ. देविका नाग की दी हुई किताब के अनुसार, यदि एक व्यक्ति की बीमारी सिर्फ़ 'ग्लूटिन फ्री' भोजन करने से ठीक हो सकती है, तो उसकी भी ठीक होने या स्थिति नियन्त्रण में रहने की सम्भावना है। यह सोच कर नम्रता को 'ग्लूटिन फ्री' भोजन दिया जाने लगा। 


इधर कुछ समय से उसे चलने में बहुत दिक्कत होती थी। हाथों में भी अब वह ताक़त महसूस नहीं होती थी, जैसे पहले थी। खाना खाने में या कप उठा कर चाय पीने में हाथ थक से जाते थे। गोरखपुर में अभी और दिन रहना था, क्योंकि डॉक्टर ने एक महीने बाद जाँच के लिए दुबारा लखनऊ आकार मिलने के लिए कहा था। दुबारा जाँच हुई, डॉक्टर को भी निराशा हुई कि दिये गये उपचार से अपेक्षित सुधार नहीं हुआ। 


वापस गोरखपुर आने पर पिता जी ने एक 12-14 साल के बच्चे को बुलाया हुआ था, नाम था 'जतन'। इसे परिवार के चौथे सदस्य की तरह परिचित कराया था पिता जी ने। यह दुबे जी के गाँव 'बरईपट्टी' से आया था। उद्देश्य था छोटे से नीलाभ को साथी देना। क्योंकि माँ के लगतार बीमार रहने से बच्चे को अपेक्षित देख-रेख और साथ नहीं मिल रहा था। बच्चे की देखभाल के साथ वह घर के छोटे-मोटे काम कर देगा, साथ ही नम्रता दीदी की मदद भी हो जायेगी। इसीलिए यह परिवार का चौथा सदस्य बन गया था। फरवरी मध्य में नम्रता, नीलाभ और जतन ट्रेन से बाॅंकुड़ा पहुँचे। अपने ख़राब स्वास्थ्य के कारण नम्रता ने अपनी स्कूल वाली नौकरी से त्याग पत्र दे दिया था। सुकून यही था कि बच्चे को देखने के लिए अब जतन था। क्योंकि अब नम्रता को घर में भी चलने में दिक्कत होने लगी थी। बच्चे साथ वह खेल-दौड़ नहीं सकती थी। अधिकतर बैठ कर या लेट कर दिन बीतता था। केवल ज़रूरी कामों के लिए वह चलती थी। दवा और उपचार का कोई फ़ायदा नहीं था। 

     

नरेंद्र लगातार नयी सम्भावनाओं की खोज करते रहते थे। कुछ समय बाद कोलकाता के SSKM अस्पताल में 'मल्टीपल स्क्लेरोसिस' के नये इलाज की जानकारी मिली थी। वहाँ के डॉक्टर जो विदेश से ट्रेनिंग करके आये थे। वह एक नयी दवा 'इन्टरफ़ेरॉन' का प्रयोग मरीजों पर करना चाह रहे थे। विदेशों में यह चिकित्सा चल रही थी, इसलिये। नरेंद्र को छुट्टियां नहीं मिल सकती थीं तो रक्कू भइया और नम्रता कोलकाता गये, घर में जतन, नीलाभ और नरेंद्र रह गये।

     

SSKM अस्पताल में मरीज़ को भर्ती कर लिया गया। रक्कू भइया सर्किट हाउस में ठहरे। वहां का एक रेंज फॉरेस्ट अफ़सर नम्रता के लिए खाना लेकर आता था। भर्ती हुए जब कुछ दिन बीत गये तो इनलोगों ने उपचार शुरू करने की जानकारी चाही। झटका इस बात से लगा कि, अस्पताल में 'इन्टरफ़ेरॉन' उपलब्ध ही नहीं थी। यह समस्या नरेंद्र को पता चली, पूछने पर अस्पताल का उत्तर था कि दवा मिल नहीं रही है, अगर आपका विदेश में कोई परिचय हो तो वहाँ से मंगवाया लें। इस बात पर नरेंद्र को गुस्सा तो बहुत आया कि, यदि दवा नहीं थी तो अपॉइंटमेंट क्यों दिया गया? क्यों मरीज़ को भर्ती किया गया ? लेकिन वही… मजबूरी थी, रोग असाध्य था, इलाज डॉक्टर के ही पास था। नरेंद्र ने जब दवा के बारे में पूरी जानकारी ली तो, ज्ञात हुआ कि 'इन्टरफ़ेरॉन' अभी-अभी खोजी गयी है और विश्व के मात्र एक देश में इसका उत्पादन हो रहा है। वहाँ भी दवा के लिए इतनी बुकिंग है कि आज डिमांड डाली जाये तो साल भर बाद दवा मिलने की क्षीण सी सम्भावना थी। इस बात पर बुरी तरह बौखला गये थे नम्रता, नरेंद्र और रक्कू भइया। 

     

अब तक वहाँ भर्ती हुए पंद्रह दिन बीत गये थे, अस्पताल के पास मरीज़ को वापस भेजने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। लेकिन नम्रता अड़ गयी थी कि इतने दिन भर्ती होने के बाद बिना किसी भी चिकित्सा के वह वापस नहीं जायेगी। ऐसे में डॉक्टरों ने दूसरे इलाजों की खोज की और बीस दिन बाद 'इम्युनोग्लोबुलिन' की चिकित्सा का सत्र शुरू किया। यह इलाज भी बहुत कठिन था, इसमें पाँच दिनों में चालीस यूनिट दवा लगतार इंट्रावेनस चलनी थी। हिम्मत थी नम्रता की जो इस प्रकार के उपचार के लिए तैयार हुई। खैर दवा शुरू हुई, दो दिनों में ही हाथ में सूजन आने लगी, चौथे दिन तक जहाँ भी ड्रिप लगायी जाती वहाँ सूजन आ जाती और नील पड़ जाती थी,। इसलिए शरीर के अलग-अलग हिस्से में नस खोज कर दवा चढ़ाई जाती रही। इलाज के अन्त तक सूजन इतनी बढ़ गई थी की नसें खोज कर नहीं मिल रही थीं, वह अंतहीन पीड़ा से गुज़र रही थी। लेकिन स्वस्थ होने की इतनी अदम्य इच्छा थी कि वह सारी परेशानियों को बहादुरी से झेल रही थी। किसी तरह पाँच दिनों दिनों का सत्र पूरा हुआ। इसके हर चौथे महीने चार बूस्टर डोज़ चलनी थीं, जिसमें चौबीस घंटे में चार यूनिट दवा चढ़ाई जानी थी। 

     

ऐसे श्रमसाध्य इलाज के बाद, बहुत बुरी स्थिति में वह लोग वापस आये। हाथ की सूजन आदि घटने में लगभग महीना बीत गया। लेकिन विडम्बना यह थी कि इससे भी स्वास्थ्य में कोई महत्वपूर्ण सुधार नहीं हुआ। चार-चार माह बाद तीन बूस्टर डोज़ के लिए उनलोगों को कोलकाता जाना पड़ा। 

   

बांकुड़ा से कोलकाता जाकर इम्युनोग्लोबुलिन की दूसरी बूस्टर डोज़ लेने के बाद कोलकाता वापस आते समय अधिक गर्मी से नम्रता को बहुत दिक्कत हुई। डॉ. नाग ने यह बताया था कि ठंड में परेशानी कम रहेगी, इसलिए गर्मी से बच कर रहना होगा। लेकिन मौसम को कौन बदल पाया है, अप्रैल की गर्मी में बिना ए.सी. की गाड़ी से यात्रा से वह बीमार हो गयी।

  

 बीमारी से अभी पूरी तरह ठीक भी नहीं हुई थी कि जुलाई में नरेंद्र का स्थानांतरण मिदनापुर हो गया। सामान ट्रक से भेज कर पूरा परिवार कार से मिदनापुर पहुँचा। मिदनापुर का वास्तविक नाम मेदिनीपुर है, लेकिन ब्रिटिश काल से यह मिदनापुर नाम से ही जाना जाता है। यह बंगाल के अन्तिम दक्षिणी हिस्से में है, इसके बाद उड़ीसा का क्षेत्र आरम्भ हो जाता है। यह बहुत बड़ा ज़िला था अतः 1 जनवरी 2002 में इसे पूर्वी और पश्चिमी मिदनापुर इन दो अलग ज़िलों में विभाजित कर दिया गया। इतना बड़ा ज़िला नरेंद्र के कार्यकाल में एक था। वहाँ का फॉरेस्ट डिवीज़न भी बहुत बड़ा था। कुल 700 से अधिक स्टाफ़ था जो अधिकारियों के साथ दुर्व्यवहार करने के लिए बहुत कुख्यात भी था। यहाँ के जंगलों में हाथियों की संख्या बहुत अधिक थी, जो कई बार जंगलों की सीमा से बाहर आ जाते थे। उनको नियंत्रित करना भी एक बड़ी समस्या थी। राजनीतिक हस्तक्षेप भी बहुत था। उस समय कॉंग्रेस और मार्क्सवादी दोनों ही दल बहुत सशक्त थे। उनकी अलग-अलग यूनियन थीं, जो बेहद विद्रोही (मिलिटेन्ट) किस्म के थे। अगर किसी फॉरेस्ट गार्ड का भी तबादला कर दिया जाता था तो दोनों ही यूनियन बारी-बारी से अधिकारी के घर पर धरना, घेराव आदि करते रहते थे। संक्षेप में काम करने का माहौल बहुत ही चुनौती भरा था। 

    

 नरेंद्र अपने निजी जीवन में पत्नी की बीमारी से पीड़ित थे। यहाँ बच्चे के लिए अच्छे स्कूल भी नहीं थे। अतः उसको खड़गपुर के 'सेक्रेड हार्ट' स्कूल में भर्ती कराया था जो पंद्रह किलोमीटर दूर था, बस से आना-जाना होता था। यानी परेशानी का कोई अन्त नहीं था, फिर भी जीवन जीना था। काम भी करना था। सभी इस जगह के साथ समझौते करके जीना सीख रहे थे। नम्रता की बीमारी बिगड़ रही थी। ऐसे में देहरादून के एक वैद्य, पद्मश्री बालेन्दु प्रकाश के बारे में जानकारी हुई कि वह 'मल्टीपल स्क्लेरोसिस' की चिकित्सा का कैम्प कर रहे हैं, जहाँ देश-विदेश से मरीज़ आ रहे हैं। नरेंद्र ने भी बुकिंग करायी और नम्रता को लेकर कर वैद्य बालेन्दु प्रकाश के कैंप में पहुँच गये। कैंप एक बहुत अच्छे होटल में चल रहा था। जहाँ एक सेंट्रल हॉल था, किनारे - किनारे कमरे थे, मरीजों को कमरों में रहना था। सेंट्रल हॉल में व्यायाम और कुछ सकारात्मकता जागृत करने के लिए कक्षायें चलती थीं। चिकित्सा शुद्ध आयुर्वेदिक थी, दूध, बादाम, शहद और जड़ी- बूटियों को दवा के तौर पर खिलाया जाता था। यहाँ भारत के नामचीन लोग आते थे। श्रीमती वसुन्धरा राजे सिंधिया नम्रता के वहाँ रहते हुए अपने इलाज के लिए आयी थीं। 

   

 यह चिकित्सा दुःखद नहीं थी, शरीर को कष्ट नहीं हो रहा था यह बात उन दोनों के लिए बहुत सुखद थी। उपचार का सत्र चालीस दिनों का था। लेकिन यहाँ भी एक दुर्घटना हो ही गयी। एक दिन व्यायाम करते हुए, पैर की कोई मांसपेशी कुछ खिंच सी गयी और नम्रता गिर गयी। यह छोटी-मोटी चोट नहीं थी। इस चोट को ठीक होने में साल भर का समय लग गया था। यह चिकित्सा भी बिना किसी अच्छे परिणाम के समाप्त हो गयी, दुःखी उदास नम्रता वापस आ गयी। अभी तक बीमारी शरीर तक ही थी, मासिक रूप से टूटी नहीं थी वह। लेकिन अब वह हताश-निराश हो गयी थी। भविष्य अँधेरा लगता, बच्चे को लेकर कर बेहद चिंता रहती, बात-बात पर रोना आता था। डिप्रेशन के लक्षण दिखायी देने लगे थे। यह नरेंद्र के लिए नयी कठिनाई थी। दिन जैसे बीत नहीं रहे थे… घिसट रहे थे। शरीर भी अधिक निष्क्रिय होने लगा था, चलना लगभग बन्द हो रहा था। घर पर नियमित आने वाले फिजियोथेरेपिस्‍ट ने व्हीलचेयर के इस्तेमाल की सलाह दी, जो उचित लगी। हँसती-चहकती, उछलती - कूदती, जिन्दगी से लबरेज़ रहने वाली नम्रता व्हीलचेयर पर आ गयी। सच! उसे नज़र लग गयी थी… 


     व्हीलचेयर से भी ज्यादा सुविधा नहीं हुई थी। क्योंकि हाथ या पैर इतने मजबूत नहीं रह गये थे कि ख़ुद अपनी चेयर चला सके। यह सब मन पर एक नये आघात की तरह था। इधर दिन में कई-कई बार रोती रहती थी वह। बच्चा भी अजीब सहमा सा रहता था। नरेंद्र के लिए घर और ऑफिस दोनों जगह अन्तहीन समस्यायें थीं, जिंदगी बेहद मायूसियों से गुज़र रही थी। 


 इसी दौर में नरेंद्र के मुस्लिम ड्राइवर ने कहा कि, सर हमारे एक मौलवी जी हैं, बहुत पहुॅंचे हुए दरवेश हैं। वह कुछ पूजा कराते हैं, जिससे बहुतेरे ला-इलाज मरीज़ों के रोग जादू की तरह ठीक हुए हैं। घनघोर अवसाद ग्रस्त, हिन्दू, ब्राह्मण होते हुए भी पति - पत्नी दोनों ने मौलवी जी के उपचार को सहमति दे दी। शुक्रवार के दिन से उपचार शुरू हुआ, चीनी मिट्टी की प्लेट पर घुले हुए केसर से, मौलवी जी अपनी एक चमत्कारी कलम से कुछ आयतें लिखते थे, जिसे पानी के साथ घोल कर पीना होता था, सात शुक्रवार तक यह टोटका भी किया गया। लेकिन फिर कोई चमत्कार नहीं हुआ। 


नीलाभ बेहद अकेला पड़ गया था इस नयी परिस्थितियों में। इसका एक कारण बंगले के कैम्पस के अन्दर रहने कर्मचारियों का व्यवहार भी था। क्योंकि बंगला बहुत बड़ा था तो इसके रखरखाव के लिए कर्मचारियों की ज़रूरत भी थी। इसके लिए कैम्पस में कई सर्वेंट क्वाटर थे और बहुत से कर्मचारी भी। लेकिन यहाँ के सभी लोग उद्दण्ड थे। नेतागिरी अधिक करते और काम बेहद कम। इसलिये घर के अधिकांश काम अब जतन को करने पड़ते थे। उसे नीलाभ के साथ रहने का अवसर नहीं मिलता था। 

    

 कैम्पस के बाहर ग़रीब बंगालियों के कुछ परिवार रहते थे। अकेलेपन से परेशान नीलाभ ने उन्हीं के बच्चों से दोस्ती कर ली। बचपना ऊँच-नीच नहीं जानता, वह तो संगी - साथी पाकर मस्त था। बच्चों के साथ अब वह धूल-मिट्टी में भी खेलने लगा था। कई बार इस बात पर नम्रता को दुःख भी होता था। लेकिन बच्चे को खुश देख कर माँ-बाप ने उसे टोका-रोका नहीं, क्योंकि इसी बहाने वह कुछ देर घर के अवसाद ग्रस्त माहौल से दूर रहता था। कितनी बार ऐसा होता था कि नीलाभ किसी बच्चे के साथ उसके घर खाना भी खा आते। बंगाल में अधिकांश जनसंख्या सेल्हा चावल खाती है, ग़रीब- गुरबा तो वही खाते थे। अब नीलाभ को भी सेल्हा चावल पसन्द आने लगा था, नम्रता - नरेंद्र इस बात पर कभी हँसते थे तो कभी दुःखी भी होते थे, पर बच्चा तो स्टेटस और अमीरी-ग़रीबी नहीं जानता, वह अपने आप में खूब खुश रहता था। बच्चा ख़ुश तो माँ - बाप भी खुश रहते। 


 विदेशों में जब कभी जंगलों के सम्बंध में कोई नयी खोज या सफल योजनायें बनती हैं तो भारत सरकार फॉरेस्ट अधिकारियों को नयी खोजों की जानकारी लेने के लिए विदेश भेजती है। ऐसी ही इंग्लैंड में चार महीने की ट्रेनिंग के लिए नरेंद्र का चुनाव किया गया था। उन्हें फरवरी में इंग्लैंड जाना था। सरकारी कामों को करना मजबूरी है तो नरेंद्र चले गये इंग्लैंड। नीलाभ के इम्तिहान मार्च में शुरू होने थे। ऐसे में नम्रता के पिता जी, बेटी और दौहित्र की सहायता के लिए आये। एक महीना साथ रहे, फिर बेटी, नाती और जतन को लेकर गोरखपुर जाना तय हुआ था। गोरखपुर से रज्जू भइया आये, जिससे नम्रता को यात्रा के दौरान सम्भाला जा सके। 


सारी तैयारी हो गयी थी, मिदनापुर से पहले कोलकाता जाना था, वहाँ से गोरखपुर की ट्रेन पकड़नी थी। गर्मी खूब थी, बारिश नहीं हुई थी। अतः नम्रता को चिन्ता थी कि गर्मी में यात्रा करने से तबीयत बिगड़ जायेगी। वह बेहद घबराई हुई थी, यात्रा का दिन आ गया, गाड़ी में समान रख दिया गया था कि चामत्कारिक रूप से आसमान में बादल छा गये, मौसम ठण्डा हो गया। नम्रता ने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि उन्होंने नम्रता के सच्चे हृदय से की गई प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। ईश्वर पर आस्था और अपने भाग्य पर विश्वास और दृढ़ हो गया। अभी आधा रास्ता भी तय नहीं हुआ था कि ज़ोरों की वर्षा होने लगी, अब गर्मी का प्रकोप बिल्कुल घट गया था। सभी सकुशल कोलकाता पहुँचे,। भाग्य ने साथ दिया, ट्रेन भी समय पर मिल गयी। नम्रता बहुत खुश थी, क्योंकि गोरखपुर पहुँचने तक बारिश होती रही। यह मौसम की पहली बरसात थी। 


बेटी की बिगड़ती बीमारी और गिरती अवस्था से माँ तो बिल्कुल टूट गयीं, बेटी को गले लगा कर देर तक रोती रहीं। जब प्राकृतस्थ हुईं तो उन्होंने बताया कि गोरखपुर से कुछ दूरी पर एक प्रसिद्ध वैद्य हैं, जो असाध्य रोगों को ठीक करते हैं। उनके कई परिचितों की ख़तरनाक से ख़तरनाक बीमारी उनके इलाज से कुछ महीनों में ठीक हो गयी । एक - दो दिन के आराम के बाद परिवार सहित नम्रता वहाँ पहुंची। शहर से 20-25 किलोमीटर दूर, एक खुले हुए प्रांगण में दवाखाना बना था। सामने बहुत सुन्दर तालाब और उसकी दूसरी ओर शिव जी का मन्दिर था। वैद्य जी ने मरीज़ की बीमारी के बारे में में पूरी जानकारी ली और स्वयं नाड़ी परीक्षा करके बताया कि एक सप्ताह की चिकित्सा में निश्चित रूप से बीमारी ठीक हो जायेगी। 


यूँ तो वैद्य जी आयुर्वेदिक दवा करते थे, लेकिन उन्होंने दो गाढ़ी और रंगीन दवाओं को मिला कर, एलोपैथिक तरीके से इंजेक्शन लगाया। इंजेक्शन लगाते समय और बाद में भी बेहद दर्द हो रहा था। अगले दिन शाम को फिर आने का निर्देश दिया था, डॉक्टर (वैद्य जी) ने। तीन दिन तक नम्रता को इंजेक्शन लगते रहे और वह भीषण दर्द से गुज़रती रही। चौथे दिन से तेज़ बुखार भी हो गया। इंजेक्शन वाली जगह की खाल काली पड़ गयी थी, हाथ में सूजन आ गयी थी। ऐसी स्थिति में यह अचूक इलाज बन्द कर दिया गया। 


नम्रता की तबीयत ठीक होने में दस दिन से अधिक का समय लगा। परिवार ने ऐसे इलाज से तौबा कर ली। लेकिन माँ-पिताजी को ईश्वर पर बहुत विश्वास था। विन्ध्याचल के सिद्ध मन्दिर में दुबे जी के एक मित्र नेपाली बाबा, पुजारी थे। उन्होंने बेटी के लिए महामृत्युंजय जाप कराने का सुझाव दिया। पिताजी सहर्ष तैयार हो गये। पंडित जी स्वयं आकर नम्रता से संकल्प कराया और पूजा आरम्भ हुई। घर पर भी आरती और पाठ चलता रहा, क्योंकि नम्रता को जाने में असुविधा हुई तो रक्कू भइया पूर्णाहुति आदि के लिये गये। यह प्रसाद नरेंद्र के लिए नम्रता के साथ भेजा गया। आगे का समय ठीक रहा। जून के आरम्भ में नरेंद्र इंग्लैंड से और नम्रता गोरखपुर से वापस आ गये। 

    

 मिदनापुर के विपरीत परिस्थितियों में पाण्डेय परिवार की जिन्दगी भी जैसे व्हीलचेयर पर आ गई थी। नरेंद्र के दफ़्तर में आये दिन बावल होते थे। कई बार यूनियन के लोगों ने घर का घेराव भी किया। यह घेराव अक्सर कुछ घंटों का या दिन भर का होता। लेकिन एकाध बार ऐसा भी हुआ कि घर के दरवाज़े बहार से बन्द कर दिये गये घर के चारों सदस्यों को दो दिन से चार दिन तक तक बन्दी बना के रखा गया। यूनियन के नेता अधिकारियों के साथ मारपीट भी करते थे, लेकिन नरेंद्र भाग्यशाली रहे उनके साथ यह नौबत नहीं आयी। 


नम्रता की स्थिति अब ऐसे थी कि बिना सहारे के वह नहा नहीं पाती। इसके लिए बाथरूम में नल के दोनों तरफ़ दो पाइप लगाये गये, जिन्हें पकड़ कर वह नहाती और कुर्सी पर बैठ कर कपड़े बदलती। नहाने के बाद में व्हीलचेयर पर बैठ जाती और कोई उसे बाहर लाता। लेकिन यह सुकून था कि, अपने निजी कामों के लिए वह किसी पर आश्रित नहीं थी। अख़बार और किताबें हाथ में लेकर पढ़ सकती थी। हाथ की गति बनी रहे इसके लिए चावल बिनना, सब्जी काटना आदि काम बहुत परिश्रम से एक्सरसाइज़ की तरह करती रहती थी। हाथों की स्थिति इतनी नाज़ुक हो चुकी थी कि पेन पकड़ने में भी परेशानी होती थी, पेन पर उंगलियों की पकड़ नहीं बन पाती थी। फिर भी इस दुखदायी बीमारी से लड़ाई का ज़ज्बा लिये वह नियमित रूप से कुछ देर लिखती ज़रूर थी। खड़े होने में, चलने में चाहे जितना कष्ट हो वह कोशिश करके चलती भी रहती। मन अवसादग्रस्त रहता, आँसू भी बहते लेकिन बच्चे का भविष्य, उसे जिन्दगी जीने की जद्दोजहद जारी रखने के लिए मजबूर कराता था। वह एक योद्धा की तरह इस रोग से जूझ रही थी। 

   

    अब इम्युनोग्लोबुलिन की बूस्टर डोज़ का समय आ गया था। दिन पर दिन गिरते हुए स्वास्थ्य में कोलकाता जाना रहना और वापस आना बहुत कठिन लग रहा था। नरेंद्र ने यहीं मिदनापुर में इसकी व्यवस्था करने का प्रयास शुरू किया। भाग्य से दवा मॅंगवा लेने पर एक अस्पताल इस उपचार के लिए तैयार हो गया। नम्रता भर्ती हुई, डॉक्टर और नर्स ड्रिप लगाने के लिए नस ढूँढ रहे थे। लेकिन इतने दिनों की लगातार दवाओं और बीमारी के कारण नसें मिल नहीं रही थीं। काफ़ी देर की मेहनत से जब नस मिली और दवा दी जाने लगी तो डॉक्टर ने बताया कि उसकी नसें बहुत पतली हैं, ऐसी नसों को 'बेबी वेन' कहते हैं। प्रकृति ने नम्रता को बहुत नाज़ुक बनाया था, उस पर से ऐसी असाध्य बीमारी!!! कभी-कभी ईश्वर का न्याय समझ के परे ही रहता है। लेकिन विधि के विधान के समाने तुच्छ मनुष्य की कोई औक़ात नहीं, यही सत्य है और शायद इसे ही भाग्य या डेस्टिनी कहते हैं। 


 आई.एफ़.एस. की नौकरी में नियमित पदोन्नति होती रहती है। यह नियम मात्र आई.एफ़.एस. के लिए नहीं होता बल्कि सभी केन्द्रीय प्रशासनिक सेवाओं में ऐसा होता है। नरेंद्र का डी. एफ़. ओ. से 'फॉरेस्ट कन्ज़र्वेटर' के पद पर प्रमोशन होना था। कन्ज़र्वेटर को राजधानी में पोस्टिंग मिलती है। इसलिये पदोन्नति के साथ कोलकाता जाना निश्चित था। 


शिक्षा सत्र मार्च में शुरू हो जाता है और पदोन्नति जुलाई - अगस्त तक अपेक्षित थी। नीलाभ की पढ़ाई में कोई बाधा न आये, इसलिये नरेंद्र ने उसका एडमिशन कोलकाता के 'बिड़ला हाई स्कूल' में करा दिया था। उनके एक कॅलीग और मित्र शुक्ला जी कोलकाता में ही पोस्टेड थे। उन्हीं के घर कुछ महीनों के लिए नीलाभ के रहने की व्यवस्था कर दी। नरेंद्र, स्वयं प्रमोशन और ट्रांसफर की प्रतीक्षा कर रहे थे। 


इसी समय अटल बिहारी वाजपेयी जी के कार्यकाल में सरकार ने रिटायर्मेंट की उम्र अट्ठावन साल से बढ़ा कर साठ साल कर दी। ऐसे तो यह प्रसन्नता की बात थी। लेकिन नरेंद्र को इस सूचना ने दुःखी कर दिया। अब जिन सीनियर अधिकारी को रिटायर होना था, उनकी दो वर्ष की नौकरी बढ़ गयी। फलतः नरेंद्र का प्रमोशन भी टल गया। बच्चा कोलकाता में था, उसे अब वापस मिदनापुर बुलाना ठीक नहीं लगा। उसका कोलकाता में रहना भी परेशान कर रहा था। 


इसी बीच बच्चे की हाथ की हड्डी टूटने की सूचना मिली। नम्रता तड़प कर रह गयी, लेकिन अपनी अवस्था से मजबूर वहाँ जा नहीं सकी। नरेंद्र अकेले ही गये थे। स्कूल प्रशासन और शुक्ला जी ने बच्चे का उपचार करा दिया था। नीलाभ के हाथ में महीने भर का प्लास्टर लगा था। दुःख तो बहुत हुआ था बच्चे की चोट देख कर, लेकिन नीलाभ दुःखी नहीं था। बचपन से घर में दुःख और परेशानियां देख-देख कर उसने परेशानियों में भी खुश रहना सीख लिया था। पूछने से पता चला कि खेल के पीरियड में टीचर बच्चों की दौड़ करा रहे थे, जिसमें दौड़ कर कुछ दूर स्थित दीवार को छू कर वापस आना था। नीलाभ इतनी ज़्यादा तेजी से दौड़ कर गये की दीवार पर हाथ टिकाने से शरीर का जो धक्का लगा उससे हाथ की रेडियस बोन दो टुकड़ों में टूट गयी थी, दोनों टुकड़े एक दूसरे पर चढ़ गये थे। लेकिन डॉक्टर ने कुशलतापूर्वक हड्डियों को ठीक स्थान पर पहुंचा कर, प्लास्टर कर दिया था। कुछ दिनों की छुट्टी दिला कर नरेंद्र उसे मिदनापुर ले आये थे। 


   ऐसी स्थिति में बच्चे का कोलकाता में रहना और भी परेशान कर रहा था। इसलिए नरेंद्र ने अपने बड़े अधिकारियों से मिल कर कोलकाता में इसी पद पर पोस्टिंग कराने का प्रयत्न शुरू किया। बीमार पत्नी को जतन और कुछ मित्रों के सहारे छोड़ कर हर सप्ताह कोलकाता आकार प्रयत्न करना नियम बन गया था। ग्यारह महीने के प्रयत्न के बाद कोलकाता में डी .सी.एफ़. (डिप्टी कन्ज़र्वेटर ऑफ़ फॉरेस्ट), प्लानिंग के पद पर स्थानांतरित हो गये। सामान आदि ट्रक से भेज कर पति-पत्नी गाड़ी से कोलकाता पहुँचे। यहाँ सरकारी आवास नहीं मिल रहा था। यह लोग सर्किट हाउस में ठहरे। बहुत सी सीमायें होती है ऐसे रहने में जब आपके साथ कोई 'मल्टीपल स्क्लेरोसिस' जैसे रोग से पीड़ित व्यक्ति हो। लेकिन बेटे की अनुपस्थिति से नम्रता मानसिक रूप से बहुत अव्यवस्थित हो रही थी। कोलकाता आना आवश्यक था, इसलिए सभी असुविधाओं को झेल कर भी यह तीनों प्रसन्न थे। 


 नरेंद्र के बड़े भाई डॉ. विनोद अब भारत छोड़ कर विदेश में रहने लगे थे। लेकिन वहाँ से भी वह इन दोनों की हर संभव सहायता करने की कोशिश करते रहते थे। उन्होंने नरेंद्र को बंगलौर के NIMHANS, निमहैंस (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज) के अस्पताल में जाकर नम्रता का उपचार कराने की सलाह दी। भाग्य से नरेंद्र की बड़ी बहिन अब बंगलौर में ही थीं। कुछ दिनों पहले ही उनका स्थानांतरण यहाँ हुआ था। जीजा ने निमहैंस में, डॉक्टर ई. रत्नावली के तहत, रजिस्ट्रेशन करा दिया। 


अक्टूबर के आरंभ में वह दोनों, बंगलौर अपनी बहिन के घर पहुँच गये। दूसरे दिन अस्पताल में जाँच आदि होने के बाद डॉक्टर ने नम्रता को भर्ती कराने के निर्देश दिए। एक सेमी प्राइवेट कमरा मिल गया तो यह दोनों अस्पताल में आ गये। डॉक्टर ने पुरानी जाँचों की रिपोर्ट देख कर, कुछ नयी जाँचें भी करने की आवश्यकता अनुभव की । तीन-चार दिनों तक जाँच का सिलसिला चलता रहा। इस दौरान प्राइवेट वार्ड खाली हुआ और इन्हें वहाँ जगह मिल गयी। यह वार्ड बहुत बड़ा और सुन्दर था। कमरे के साथ रसोई और ड्राइंगरूम भी था। पहले कोलकाता के सर्किट हाउस और फिर सेमी प्राइवेट रूम में रहने के बाद यहाँ रहना बहुत सुखद था। 


यूँ तो जिन्दगी दुखों से घिरी थी, लेकिन उस के बीच यह छोटे-छोटे सुख, रेगिस्तान के नखलिस्तान जैसे लगते थे। बीमारी, इलाज के दुःख में भी नम्रता का गाने का शौक बरक़रार था। इस वार्ड में आकार वह गुनगुनाने लगी। संगीत आत्मा को शक्ति और शरीर को पोषित करता है। उसे गुनगुनाता सुन कर नरेंद्र ने उसे किशोर कुमार का, "जिन्दगी इक सफ़र है सुहाना यहाँ कल क्या होगा, किसने जाना" गीत गाने को कहा और अस्पताल का वार्ड गाने की स्वरलहरियों से गूँजता रहा। 


जाँच के नतीजे आने के बाद 'मिथाइल प्रेडनिसोलोन' का उपचार शुरू हुआ। यह भी एक स्टेरॉयड है। इसे भी इंट्रावेनस दिया जाता है। नसों से दवा दिये जाने का क्रम 1993 से शुरू हुआ तो 1998 तक लगभग लगातार चल रहा था। स्वभाविक रूप से भी नम्रता की नसें पतली और कमज़ोर थीं, जिसे मिदनापुर के डॉक्टर ने बेबी वेन बताया था। अभी तक कितनी ही देवायें इंट्रावेनस दी जा चुकी थी, तो नसों में सूजन, दर्द होता रहता था। नसें कुछ ऐसी हो गयीं थीं कि जल्दी मिलती नहीं थीं। अब फिर उसी तरह के इलाज की यंत्रणा से गुज़रना था उसे। परेशान थी, दुःखी थी, लेकिन कहीं क्षीण सी आशा भी थी कि भारत का इतना प्रसिद्ध इंस्टीट्यूट का इलाज शायद कुछ अच्छा कर जाये, शायद उसके हाथ - पाँव में कुछ शक्ति आ जाये, शायद वह अपने इकलौते बेटे की ठीक से देखरेख कर पाये, शायद ईश्वर को थोड़ी दया आ जाये, शायद … शायद… शायद इसी पर चल रही थी बेचारी नम्रता की जिन्दगी। 


एक बार फिर वह तैयार थी उस दर्दनाक उपचार को झेलने के लिए। दवा 6-7 दिन तक लगातार दी जाती रही। अतः लखनऊ के इलाज के दौरान जैसे वज़न बढ़ा था, वैसे ही बढ़ने लगा। अचानक कई किलो वज़न बढ़ने से कई तरह की परेशानियां होती थीं। यहाँ की फि़जि़योथेरेपी अलग तरह की थी, इसे 'ऑक्यूपेशनल फि़ज़ियोथेरेपी' कहते हैं। हाथ - पाँव के व्यायाम के अलावा शरीर को एक प्लेटफार्म पर बाँध कर खड़ा करना, झुकाना आदि भी इसमें शामिल था। खान-पान का विशेष ध्यान रखना होता था। चालीस दिनों तक यह लोग यहीं रहे। 


यहाँ कुछ नयी जानकारी मिलीं। 'मल्टीपल स्क्लेरोसिस' दो प्रकार की होती है, ' प्राईमरी रिलैप्सिंग रेमिटिंग मल्टीपल स्केलेरोसिस' और 'सेकेंडरी प्रोग्रेसिव मल्टीपल स्केलेरोसिस'। पहले प्रकार में इस बीमारी के बार - बार दौरे आते हैं, जो दो दिन से शुरू होकर कुछ दिनों तक रहते हैं, फिर रोगी ठीक हो जाता है। जो भी दवायें अभी तक उपचार में चल रही थीं, वह ' प्राईमरी रिलैप्सिंग रेमिटिंग मल्टीपल स्केलेरोसिस' के लिए बनी हैं। यह रोग की प्रारंभिक स्थिति होती है। जब रोग पुराना हो जाता है, तब 'सेकेंडरी प्रोग्रेसिव मल्टीपल स्केलेरोसिस' में बदल जाता है। इस अवस्था में बीमारी के दौरे नहीं आते बल्कि शरीर का नर्वस सिस्टम क्रमशः कमजोर होता जाता है, जिससे शारीर के हिस्से कमज़ोर और निष्क्रिय होते जाते हैं। इस स्तर की 'मल्टीपल स्क्लेरोसिस' के लिए उस समय तक कोई दवा नहीं बनी थी। बेहद अफसोस से डॉक्टर ने बताया कि नम्रता को 'सेकेंडरी प्रोग्रेसिव मल्टीपल स्केलेरोसिस' ही है। इसीलिए किसी भी दवा के अच्छे परिणाम नहीं मिल रहे हैं। यह जानकारी इन दोनों के लिए हृदय विदारक थी। यह सब सुनकर कुछ देर के लिए मस्तिष्क एकदम सुन्न हो गया था। बहुत गहरा धक्का था यह दोनों के लिए… 


बंगलौर से कोलकाता फ्लाइट से आना था, टिकट के साथ व्हीलचेयर का आवेदन किया गया था। किसी जनसंकुल जगह पर, पहली बार व्हीलचेयर पर बैठना बहुत संकुचित कर रहा था। नियम है कि पहले व्हीलचेयर वाले यात्रियों को जहाज में बैठाया जाता है। जब नम्रता अन्दर पहुँची तो जहाज़ के स्टाफ ने मदद की और उसे सुविधा से बैठाया। उड़ान के दौरान स्टाफ़ उसका पूरा ख्याल रखा रहा था, यद्यपि इन लोगों ने खाने की बुकिंग नहीं करायी थी, लेकिन वायु सेवा ने अच्छी मेजबानी दिखते हुए इनलोगों को पैकेज फ़ूड दिया, साथ ही कोलकाता एयरपोर्ट पर एम्बुलेंस की भी व्यवस्था करवा दी थी। ऐसी मेज़बानी और मदद से नम्रता अभिभूत हो गयी थी। 


यात्रा के अच्छे अनुभव से जो दुःख कुछ देर भूल गया था, दुबारा सालने लगा था। लेकिन इन्सान के हाथ में ईश्वर की मर्ज़ी को सिर झुका कर स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं होता। जैसे - तैसे इस झटके को झेल कर यह दोनों भारी मन से वापस सर्किट हाउस आये। यहाँ एक अच्छी सूचना उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। नरेंद्र को 32 बाली गंज, सर्कुलर रोड पर बना सरकारी आवास मिल गया था। कार्यालय के लोगों ने सामान भी उस घर में लगवा दिया था। यात्रा की थकान और मानसिक बोझ से टूटे पति - पत्नी के लिए यह एक अच्छा एहसास था। नीलाभ और जतन ने ड्राइवर के साथ मिल कर पहले से ही घर व्यवस्थित कर रखा था। नम्रता की बीमारी के मद्देनज़र घर ग्राउंड फ्लोर पर था। आसपास खुली जगह, पेड़ पौधे और अन्य अधिकारियों के फ्लैट, कुल मिलाकर बहुत अच्छा था सब कुछ। यहां बड़े बंगलों जैसा अकेलापन नहीं था, बेटे और नम्रता सभी को साथी मिल गये थे। भगवान कुछ दुःख देता है तो कुछ सुख भी झोली में डाल ही देता है। 


 निमहैंस में जो दवायें दी गयी थी नियमित चल रही थीं, फि़जि़योथेरेपी भी चल रही थी। लेकिन अब नम्रता का चलना बिल्कुल असम्भव हो गया था। ग्रिल या कोई रॉड पकड़ कर बस कुछ देर खड़ी रह पाती थी, क्योंकि पैरों के साथ हाथों में भी अब निष्क्रियता आने लगी थी। इस घर में नम्रता की जरूरतों के अनुसार सुधार कराये गये। बाथरूम के कमोड के बगल में छोटी सी दीवार बनायी गयी, दूसरी ओर मजबूत हैंडिल लगाया गया, कमोड में जेट और एक हैंड जेट भी लगाया गया। यहाँ तक व्हीलचेयर से आकर, वह दीवार के सहारे कमोड पर बैठ कर, नित्य क्रिया के अतिरिक्त हैंड जेट से नहा भी लेती थी, वहीं पर ऊपर के कपड़े पहन कर फिर व्हीलचेयर पर बैठ जाती। इधर नम्रता के कपड़ों में पेटीकोट और गाउन यही दो कपड़े रह गये थे, बाकी कोई भी पोषाक पहनने में अब दिक्कत होती थी। गाउन भी ढीले-ढाले होते थे, पेटीकोट में इलास्टिक, जिससे नाड़ा बाँधने का झंझट ना रहे। अपने बालों पर कंघी आदि कर लेती थी। एक्सरसाइज़ के तौर पर किसी मजबूत सहारे से कुछ देर खड़े रहने का भी प्रयत्न करती थी। पर ज्यादा देर खड़ी नहीं हो सकती वह। हाथ से पेन पकड़ना भी मुश्किल हो गया था, तो बैंक का अकाउंट भी बंद कर दिया गया। सोचिये कैसे-कैसे बदलाव होते हैं जिन्दगी में!, सब ठीक रहने पर हम अपने शरीर की कीमत जान नहीं पाते, जब कोई अंग काम करना बंद करता है तभी उसकी क़ीमत समझ में आती है। 


   कोलकाता में नरेंद्र डी .सी.एफ़. ( डिप्टी कन्ज़र्वेटर ऑफ़ फॉरेस्ट) के पद पर आये थे। नियमतः उन्हें दो वर्ष बाद कन्ज़र्वेटर के पद पर प्रोन्नति मिलनी थी। लेकिन उनसे सीनियर एक अधिकारी कुछ अर्थिक गड़बड़ी के मामले में चार्जशीट हो गये। दूसरे सीनियर लंबे अर्से के लिए विदेश चले गये, तो नरेंद्र की कन्ज़र्वेटर पद पर नियमित प्रोन्नति और पोस्टिंग हो गयी। अब स्थानांतरण की चिन्ता नहीं थी। कोलकाता में रहना निश्चित हो गया था। अच्छा सा घर था, बेटे की पढ़ाई ठीक से चल रही थी। जिन्दगी ने थोड़ी नर्मी दिखाई थी। जतन भी ठीक से काम कर रहा था, घर के बाकी कामों के लिए नौकरानियों की भी व्यवस्था हो गयी थी। नम्रता के लिए फि़जि़योथेरेपी की भी व्यवस्था हो गयी थी। इस कॉलोनी में नरेंद्र के बहुत से बैच मेट्स भी सपरिवार रह रहे थे। इसलिये दोस्तों की कोई कमी नहीं थी। कुल मिलाकर मिदनापुर की तुलना में जिन्दगी बहुत आसान हो गयी थी। 

  

 कन्ज़र्वेटर होने से नरेंद्र का कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण कोलकाता ज़िला था। चौबीस परगना के सुन्दरबन क्षेत्र में एक समर्पित मधुमक्खी पालक और शोधकर्ता से परिचय हुआ। इन्होंने अपना सारा जीवन मधुमक्खियों के पालन और उनकी विशेषताओं के शोध में लगा दिया था। यह अधिक पढ़े लिखे नहीं थे, लेकिन मधुमक्खियों के बारे में इनकी बहुत गहरी जानकारी थी। उन्होंने नरेंद्र को मधुमक्खी उपचार (bee therapy) के बारे में बताया। इस सम्बन्ध में एक पुस्तक भी थी। जिसमें इस चिकित्सा के बारे में सविस्तार बताया गया था। चित्रों के माध्यम से मधुमक्खी चिकित्सा में उनका दंश कहाँ देना है, समझाया गया था। न्यूरोलाजिकल चिकित्सा में इसका उपयोग भारत में ही नहीं विश्व भर में होता है। एम.एस. में इस चिकित्सा के उपयोग और लाभ के आंकड़े भी इस किताब में दिये गये थे। 

  

    किताब की ज़िरोक्स और एक बी - बॉक्स ले कर नरेंद्र आये। आशा थी कि यह चिकित्सा काम करेगी। विश्व के कई देशों में एम.एस. के कई मरीज़ इस उपचार से स्वस्थ हुए थे, जिनका परिचय इस पुस्तक में था। अब तक इन्टरनेट भी आ गया था, अतः सच का पता लगाना आसान हो गया था। यह उपचार कष्टकारी था, तब भी दृढ़ता से नम्रता इसके लिए तैयार हो गयी। बी - बॉक्स में रानी मक्खी के साथ सैकड़ों मक्खियाँ होती हैं, जो बॉक्स में छत्ता लगाती हैं, मक्खियों के निकलने के लिए दो छोटे छेद होते हैं। यह ऊपर से खोला जा सकता है, ऊपर एक छोटी रॉड होती है, जिससे छत्ता बाहर निकाला जा सकता है। यह या तो पेड़ और फूलों के उद्यान में रखा जाता है, जहाँ मक्खियाँ निकल कर फूलों से रस और भोजन लें, अन्यथा इन्हें अँधेरे कमरे में रखते हैं, और इनके भोजन के लिए दूध या पानी में शहद या चीनी का घोल एक पतले सूती कपड़े से ढंक कर रखते हैं, जिससे मधुमक्खियॉं भोजन कर सकें। अगर उजाला होता है, जैसे बिजली का बल्ब या ट्यूब लाइट तो, मधु मक्खियाँ उधर ही खिंच जाती हैं, इसी लिये इन्हें अँधेरे में रखा जाता है। 


उपचार का आरम्भ दो मक्खियों के दंश से करना था, दिए गए चित्र के अनुसार, शरीर के जिस भाग पर दंश देना होता था, उसपर पेन से निशान लगाना था, फिर दो मक्खियों को बारी - बारी से पकड़ कर उस जगह डंक दिलाना। शायद ही कुछ लोग जानते हों कि एक बार डंक मारने के बाद मधुमक्खी मर जाती है। त्वचा से मक्खी का डंक निकाल कर उस जगह बर्फ़ लगायी जाती है, जिससे दंश की जलन शान्त हो सके। हर दूसरे दिन यह प्रक्रिया दोहरानी होती थी, शरीर के अलग अलग हिस्सों पर, रीढ़ की हड्डी हड्डी के दोनों ओर। हर दिन मक्खियों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ानी होती है। इसे 28-30 संख्या तक बढ़ाया जाता है। 

 

   चिकित्सा चलती रही, मक्खियाँ निकालने में अक्सर नरेंद्र को भी मक्खियाँ डंक मार देती थीं। नम्रता को तो यह डंक सहना ही था। डंक की जलन को बहादुरी और धैर्य से सहती थी वह। डंक की जलन को कम करने के लिए चिमटी से त्वचा में चुभे डंक को निकाल कर वहाँ बर्फ़ लगायी जाती थी। लेकिन उस दंश के कारण होने वाला दर्द, सूजन इस उपचार से ख़तम नहीं होता था। शरीर में कष्ट बना रहता था। क्रमशः जब मक्खियों की संख्या अधिक बढ़ी, तो कई बार उसे बुखार आ जाता। खाल पर डंक के कारण बड़े - बड़े चकत्ते बन गये थे। बहुत दर्द में रहती नम्रता, लेकिन चिकित्सा को रोक नहीं रही थी। जब दंश की संख्या 25 से ऊपर पहुँची तो वह बहुत बीमार हो गयी। सारे बदन में भिन्न-भिन्न किस्म की परेशानी हो रही थी। अन्त में नरेंद्र ने इलाज बंद कर दिया। पत्नी का कष्ट बर्दाश्त से बाहर था। इस चिकित्सा से भी रत्ती भर सुधार नहीं हुआ। हर उपचार की विफलता से वह दोनों और अधिक निराश हो जाते थे। 


दवा, उपचार, मंत्र-तंत्र, पूजा- पाठ सभी निष्फल हो रहे थे। लेकिन मनुष्य की आशा उसे हर बार प्रेरित करती रहती कि शायद इस बार कुछ नया हो जाये, शायद अभी तक की निन्यानबे चोटें कारगर नहीं हुईं, यह सौवीं चोट कुछ कमाल, कुछ चमत्कार कर जाये। ऐसे में किसी शुभचिंतक ने रजत (चाँदी) चिकित्सा की सलाह दी। यह बेहद समान्य सी चिकित्सा थी। एक ताँबे के पात्र में चाँदी के तीस -चालीस सिक्कों को पानी के साथ तब तक उबालाना था, जबतक पानी आधा न हो जाये। फिर इसी पानी को ठण्डा कर के पीना होता था। चाँदी इन्सान के इम्यून सिस्टम को सुधरती और सुदृढ़ करती है यह सर्वमान्य तथ्य है। अतः इस को भी आज़माने में कोई परेशानी नहीं थी। यह इलाज भी कई महीनों तक चला। यह प्राकृतिक उपचार भी अन्य उपचारों की तरह, कोई सार्थक परिणाम न दे सका। 


बार-बार दिये जाने वाले उपचार, नित्यप्रति की खाने या पीने वाली दवायें, फि़जि़योथेरेपी, भोजन के 'ग्लूटिन फ्री' वाले परहेज़ जैसी सारी बातों से अब नम्रता बुरी तरह परेशान हो गयी थी। उसकी सहनशक्ति जवाब देने लगी थी। मन में घमासान मचा रहता था। विचार आते थे कि पता नहीं कितने दिन की जिन्दगी है। ऐसे ही रोज़-रोज़ परेशान हो कर जीना भी क्या जीना है? हर इलाज से पहले की आशा फिर निराशा… कब तक आख़िर कब तक झूलती रहेगी इस आशा - निराशा के बीच? कब तक अपने इस असाध्य रोग के ठीक होने की दुराशा पाले रहेगी? कब तक जिन्दगी को डर कर, अफ़सोस करके जीयेगी? कब तक यह बेस्वाद भोजन खाएगी? कब तक अपने पुराने जन्मों के कर्मों के लिये अपने को पापी या अपराधी मानेगी? कब तक… आख़िर कब तक? कब इसका अन्त होगा? 


शायद अपने आप इसका अन्त नहीं होगा। इसका अन्त स्वयं उसे ही करना होगा। कहीं बाहर से इस समस्या का समाधान नहीं मिलेगा। अपनी आंतरिक शक्ति को जगाना होगा। जितना कष्ट इन विभिन्न उपचारों में होता है, उससे ज़्यादा कष्ट मृत्यु में नहीं होगा। ईश्वर जो कुछ मेरे लिए उचित समझता है, वही मुझे मिलेगा। मैं ईश्वर की इच्छा से जीत नहीं सकती। शायद भगवान ने मेरे लिए यही उचित समझा है। क्योंकि मेरे में अन्तहीन कष्ट झेलने की क्षमता है। ईश्वर ने मुझे चुना है क्योंकि मुझमें असीम सहनशक्ति है। भगवान मेरे जैसे आस्थावान और दृढ़ इन्सान की ही ऐसी कठिन परीक्षा ले सकता है। यह परमपिता की कृपा और आशीर्वाद ही है, जो सभी परेशानियाँ झेल कर वह अभी तक ज़िन्दा है। इसी बीमारी से पीड़ित हज़ारों रोगियों से बहुत बेहतर है। बहुत हो गया रोना-धोना, बहुत हुआ परिताप… अब और नहीं। अब कोई उपचार कोई चिकित्सा कोई दवा नहीं। अब उसे अपनी आत्मा की शक्ति और ईश्वर की आस्था पर जिन्दगी जीनी है। जितना बुरा हो चुका है उससे और बुरा क्या होगा? डर कर, घबरा कर रोते हुए रोज-रोज मरने से अच्छा है, खुल कर, खुश होकर जिन्दगी बिताना। मरना तो सभी को है एक दिन। वह दिन जब आयेगा तभी देखेंगे। जितने दिन जीवन है, उतने दिन तो निर्भय होकर ठीक से जीयेंगे। 

     

 लगातार कई महीनों तक इस मानसिक द्वंद्व को झेलने के बाद, पुरानी दुःखी, उदास, निराश और छुई-मुई सी नम्रता में से, एक नयी नम्रता का जन्म हुआ। यह दृढ़, साहसी और आत्मविश्वास से भरी हुई थी। ईश्वर पर यह अटूट श्रद्धा थी कि उसके साथ कुछ बुरा नहीं होगा। यह नयी नम्रता खुशी से जियेगी। स्वाद, रंग, गंध आदि जितनी भी चीज़े वह महसूस कर सकती है, उसकी खुशी से चलने के दुःख को दूर कर लेगी। अभी जीवन में बहुत कुछ रूचिकर और सुन्दर है, जिसे इस अपंगता के साथ भी इन्जॉय किया जा सकता है। 


 अपने इन विचारों को उसने पति और बेटे को बताया। वह दोनों आवाक् से उसे देखते रहे। नरेंद्र को लगा कि शायद डिप्रेशन से उसकी विचार-शक्ति प्रभावित हो गयी है। उन्होंने उसे पानी पिलाया और शान्त करने का प्रयास किया। उन्हें अपने कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था। नीलाभ भी हतप्रभ सा माँ को देख रहा था। कुछ समय बीतने पर जब दुबारा नम्रता ने अपने विचारों को तार्किक ढंग से फिर समझाया तो उसकी आवाज़ की दृढ़ता और चेहरे संकल्प देख कर दोनों चुप हो गये। रात बहुत हो चुकी थी। सभी सोने चले गये। नरेंद्र और नीलाभ यही सोच रहे थे कि सुबह सब कुछ पहले की तरह हो जाएगा। 


   सुबह से नम्रता ने सभी दवायें लेने से इन्कार कर दिया। जतन को बुला कर इडली सांबर बनाने को कहा। पिता-पुत्र शान्त भाव से सब देख रहे थे। खाने के वक़्त भी नम्रता ने साफ़ कह दिया कि, वह वैसा ही खाना खाएगी जैसा सभी के लिए बनता है, कोई अलग या परहेज़ी खाना अब से नहीं बनेगा। जतन हैरानी से दीदी और नरेंद्र को देख रहा था। नरेंद्र ने उसे, दीदी की बात मानने को कहा और ख़ुद ऑफिस जाने को तैयार हो गये। दोपहर में बेटे को फोन कर के माँ का हालचाल लिया। सब ठीक था, सिर्फ़ नम्रता की नयी जीवन पद्धति के अलावा। 

   

    दवा बन्द होने और समान्य भोजन करने का कोई दुष्परिणाम नहीं दिखायी दे रहा था। सब कुछ ठीक देख कर कुछ दिनों बाद पिता-पुत्र ने नम्रता का हर स्थिति में साथ देने का फैसला किया। पाण्डेय परिवार के जीवन में नये युग का आरम्भ हुआ । 


 चिकित्सा जगत में बहुत सी रिसर्च होती रहती हैं और नयी दवायें भी आती रहती हैं। वर्ष 2001/2002 में ऐसी ही एक नयी दवा आयी 'नोवंट्रॉन' । यह वाइड स्पेक्ट्रम दवा है, जो कैंसर से लेकर सेकेंडरी प्रोग्रेसिव मल्टीपल स्केलेरोसिस तक बहुत सी बीमारियों में कारगर रही है। यह पहली दवा थी जो सेकेंडरी प्रोग्रेसिव मल्टीपल स्केलेरोसिस के लिए बनी थी। विश्व के विभिन्न देशों में इसका उपयोग 'मल्टीपल स्क्लेरोसिस' की चिकित्सा के लिए किया जा रहा था और अनुकूल नतीज़े भी मिल रहे थे। भारत में भी यह दवा उपलब्ध थी। इसका प्रयोग कीमोथेरेपी की तरह किया जाता है। दवा की ख़ुराक़ मरीज़ के वजन के अनुसार तय की जाती है। एक बार बेसिक डोज़ दी जाती है, फिर चार महीनों के अन्तराल पर चार बूस्टर डोज़। इसे भी इंट्रावेनस दिया जाता है। 


नरेंद्र की हार्दिक इच्छा थी कि इस दवा को आज़मा के देखा जाय। लेकिन नम्रता किसी भी तरह का इलाज कराने के खिलाफ़ हो गयी थी। इसलिये कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी। अब नम्रता की स्थिति ऐसी नहीं रह गयी थी कि अस्पताल में भर्ती किया जाये। इसलिए समस्या और गम्भीर थी। नरेंद्र ने बेटे को सभी बातें बता कर, माँ को तैयार करने के लिए कहा। बेटे ने किसी तरह से एक अन्तिम बार इस दवा को ट्राई करने के लिए माँ को मना लिया। नम्रता इस बार इलाज के लिए तैयार तो हो गयी, लेकिन आगे से ऐसी कोई दवा - दारू को नहीं कराएगी, इसकी घोषणा भी कर दी। नरेंद्र ख़ुश थे कि पहली बार 'सेकेंडरी प्रोग्रेसिव मल्टीपल स्केलेरोसिस' के लिये बनी दवा शायद कुछ कमाल कर ही जाये। 


काफ़ी दौड़ - धूप के बाद सारा इंतज़ाम घर पर हो गया। इस तरह नम्रता भारत की कुछ प्रथम भाग्यशाली मरीजों में थी जिन तक यह उपचार पहुँचा। इस बार भी ड्रिप लगाने के लिए नस ढूँढने में बहुत अधिक परेशानी हुई। घंटों के प्रयत्न से ड्रिप लगी और दवा शुरू की गई। सकुशल पहली डोज़ पूरी हुई। नम्रता बेहद तटस्थ थी और नरेंद्र बेहद पुरउम्मीद । बेसिक डोज़ के बाद चार-चार महीने पर दो बूस्टर डोज़ भी किसी तरह से दी गईं। क्योंकि हर बार नस खोजना उसमें ड्रिप लगाना कठिन से कठिनतर होता जा रहा था। पूरी प्रक्रिया में लगभग एक साल लग गया। साल भर का समय काफ़ी होता है इलाज का असर दिखने के लिए। लेकिन नतीज़ा वही, ढाक के तीन पात… 


    इस दवा से बीमारी के कारण, शरीर को होने वाले नुकसान की गति मन्द हो जाती है। लेकिन नम्रता की हालत में रत्ती भर का भी अन्तर नहीं आया। अब आगे की बूस्टर डोज़ लेने से नम्रता ने स्पष्टतः इन्कार कर दिया। मजबूरन नरेंद्र को इलाज बन्द कर देना पड़ा। दवा तो सभी बे-असर रहीं, लेकिन नम्रता की इच्छा शक्ति और आस्था से भी कोई बात नहीं बनी। दिन पर दिन नम्रता के लिए अपने रोज़मर्रा के कामों को करने में और अधिक दिक्कत होने लगी थी। चाय पीना, खाना खाना, अखबार पढ़ना, नहाना, टॉयलेट जाना तक मुश्किल हो गया था। क्रमशः इन सभी कामों के लिए नम्रता दूसरों पर निर्भर होती गयी। लेकिन वह ख़ुश थी। जिन्दगी कठिन ज़रूर थी लेकिन उसकी इच्छा से चल रही थी। 


लक्खी नाम की एक कामवाली मौके से मिल गयी थी, जो नरेंद्र के ऑफिस चले जाने के बाद उसका काम कर देती थी। घर का माहौल भी सुधर गया था, नम्रता प्रसन्न रहती तो बाकी परिवार भी ख़ुश रहता। पति के ऑफिस जाने के बाद नम्रता की दोस्तें आ जातीं और शाम तक साथ रहतीं। बीच में चाय - नाश्ता भी होता। बातचीत और हँसी-मज़ाक में दिन पलक झपकते ही बीत जाता। 


    सोसाइटी में ही श्रीमती नांबियार थीं, जो 'रेकी' चिकित्सा पद्धति की अच्छी जानकर थीं। उन्हें भी नम्रता के नये निर्णय के बारे में जानकारी हुई। एक दिन घर आकर नम्रता को 'रेकी' करवाने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि, "यह उपचार शरीर को तनिक भी कष्ट नहीं पहुँचाता। इससे यदि बीमारी में कोई लाभ नहीं होता है तो भी यह तुम्हारे मन और विचारों का शोधन और पोषण करेगा। 'रेकी' क्रिया के दौरान शरीर और मन शान्त हो जायेगें, जीवन में सकारात्मक ऊर्जा आयेगी। श्रीमती नांबियार के तर्कपूर्वक समझाने से नम्रता रेकी के लिए सहर्ष तैयार हो गयी। प्रतिदिन शाम को क़रीब चालीस मिनट रेकी की जाती थी। दो महीने तक निरंतर रेकी चलती रही। इससे रोग में तो कोई सुधार नहीं हुआ परन्तु मानसिक स्थिति पर इसका अच्छा प्रभाव हुआ। अब वह जीवन को अधिक रुचि से जीने लगी। 


    यहाँ पूरे परिवार का समय अच्छा गुज़र रहा था। नीलाभ को साथी मिल गये थे, खेलने का मैदान भी सोसाइटी में ही था। कोलकाता में सभी को फुटबॉल का जुनून रहता है, तो शाम के वक़्त दोस्तों के साथ फुटबॉल खेल कर खुशी - खुशी घर आये पुत्र को देख कर माँ प्रसन्न हो जाती। नम्रता की सहेलियाँ भी दोपहर या शाम को नियमित आती रहीं। वह केवल गप्पें ही नहीं मारतीं बल्कि साथ-साथ घर के कई काम भी निबटा देतीं। कोई कपड़ों में मरम्मत कर देता या बटन टॉंक देता। कोई घर से नये व्यंजन बना कर लाता। कभी नौकर के न रहने पर कोई खाना बना देता। श्रीमती दीपा शुक्ला, अनिता कुमार और सबा ज़ैदी तो इतनी अंतरंग थीं कि, नम्रता उनसे अपनी डायरी भी लिखवाती। अंग्रेजी के नए शब्द, माँ की कही लोकोक्तियाँ और मुहावरे। फ़िल्म के गीत, भजन और भविष्य में किये जाने वाले काम यह सब डायरी में लिखे जाते, जिसे वह खाली वक़्त में पढ़ती।


   यहाँ सभी आयुवर्ग के लोग थे। भारत के अलग-अलग हिस्सों से आये हुए। लेकिन किसी ने कभी भी नम्रता से उसकी बीमारी के बारे में असहज करने वाले न तो प्रश्न किये और न उसे अजीब मान कर उसकी उपेक्षा की। दोस्तों के साथ बैठ कर उसे कभी नहीं लगता कि उसकी व्हीलचेयर अलग है, या वह कुछ असमान्य है। 

     

अब तक नीलाभ भी समझदार किशोर हो चुका था। बेटे को लेकर जो चिन्ता नम्रता को थी, दूर हो गयी थी। अब वह अपना ध्यान ख़ुद रख सकता था। इधर कुछ दिनों से लक्खी नहीं आ रही थी। उसकी तबीयत खराब थी। गरीबों की बीमारी भगवान भरोसे ठीक होती है। खून की जाँच या अच्छा डॉक्टर उनके भाग्य में नहीं होता। कुछ दिनों बाद उसकी स्थिति शोचनीय हो गयी। उसे डेंगू हुआ था। समय पर निदान नहीं होने से लक्खी की असमय मृत्यु हो गयी। परिणामतः नम्रता को दिन के समय शौच आदि के लिए किसी नये सहायक की ज़रूरत हुई। 


कोलकाता में ऐसे बहुत से सेंटर हैं जहाँ ट्रेंड आया घर पर मरीज़ों का ध्यान रखने के लिए मिलती थीं। ऐसे ही एक सेंटर से नरेंद्र ने एक चौबीस घंटे की आया तय की। वह नम्रता को टॉयलेट ले जाने से लेकर खिलाने -पिलाने, घुमाने आदि के सभी काम करती थी। सब ठीक ढंग से चल रहा था कि एक दिन जतन ने बताया कि, यह आया उसके पास आकार लेट जाती है। कुछ अजीब सी हरक़तें करती है। कई बार गालियाँ देती है। घर से कुछ समान भी ग़ायब हो रहे थे। कई बार आया घर की अन्य कर्मचारियों से झगड़ा भी कर लेती। कुल मिलाकर स्थिति बहुत तनावपूर्ण होती जा रही थी। अतः नम्रता ने यह निर्णय किया कि आया को हटा दिया जाय। बेटे और जतन की सहायता से वह दिन काट लेगी। नम्रता के दृढ़ निश्चय के आगे नरेंद्र हार गये। आया, हटा दी गयी। 

     

    अक्टूबर 14, 2002 की बात है, दुर्गा पूजा चल रही थी कि रात 12 बजे के आसपास नरेंद्र की माँ का फोन आया कि उसके पिता को हार्ट अटैक हो गया है। नरेंद्र के बड़े भाई विदेश में रहते थे। बहनें भी दूर- दूर रहती थीं, माँ अकेली थीं और पिता अस्पताल में थे। नरेंद्र के सामने धर्म संकट था कि पिता के पास जाये तो पत्नी का क्या होगा क्योंकि अब वह हर काम के लिए दूसरों पर निर्भर थी। यह तो अच्छा हुआ कि उस समय नरेंद्र की बहिन, भाई के पास सपरिवार आयी हुई थी। बहिन को नम्रता की जिम्मेदारी देकर वह पिता के पास गोरखपुर चले गए। ईश्वर की कृपा से हफ्ते भर में वह अस्पताल से घर आ गये। अब तक बड़ी बहिनें, चचेरा भाई और चाचा पिता का ध्यान रखने के लिए वहां पहुंच गये और नरेंद्र वापस अपने घर लौट कर आ गये। 


कुछ दिनों बाद बड़ा भाई भी विदेश से आ गया। उसने दिल्ली ले जाकर पिता की एंजियोग्राफी और एंजियोप्लास्टी करवाने का निर्णय लिया। दिल्ली में बड़ी बहिन रह रही थी। एस्कार्ट्स हॉस्पिटल में पिता की एंजियोप्लास्टी हुई, लेकिन तीसरे ही दिन पिता को दुबारा हार्ट अटैक हो गया, एंजियोप्लास्टी फ़ेल हो गयी थी। इस बार पिता के दिल को बहुत नुक़सान हुआ था, फलतः किडनी ख़राब होने लगी थी। बड़ा भाई वापस विदेश चला गया था। पिता पुराने ख़्यालों के थे, बेटी के घर रहने को तैयार नहीं थे। पिता की इतनी नाज़ुक हालत में माँ - बाप अकेले गोरखपुर रहें यह उचित नहीं लग रहा था। नरेंद्र माँ - पिता को अपने साथ कोलकाता ले आये। 


बीमार पत्नी के साथ अब बीमार पिता की जिम्मेदारी भी उठानी थी। किडनी क्योंकि ख़राब हो रही थी। अतः आये दिन कुछ न कुछ दिक्कत बनी रहती थी। तीसरे - चौथे दिन या हफ्ते भर में अस्पताल के चक्कर चलते रहते थे। एक बार फिर ज़िन्दगी में बहुत सी परेशानियाँ आ गयी थीं l इस दौरान नम्रता ने अपना ध्यान इतनी अच्छी तरह से रखा कि उसकी चिन्ता से मुक्त हो कर, वह पिता की सेवा कर सके। कोलकाता आने के नौ महीने बाद ही पिता का देहांत हो गया। 


यह एक बड़ा झटका था। पिता की मृत्यु के बाद माँ अब नरेंद्र की जिम्मेदारी हो गयी थीं। विधवा दुःखी माँ और बीमार पत्नी, इनके बीच सिर्फ एक नरेंद्र। शरीर के साथ मन भी दुःखी था। पत्नी का पूरा ध्यान रखना कठिन हो रहा था। ऐसे में नम्रता ने स्वयं धैर्य रखा और पति को भी सम्भाला। सास के साथ रहने से सभी को एक सहारा हो गया था। दिन के समय अब नम्रता को अकेलेपन की परेशानी नहीं रही थी। इस पूरी उथल-पुथल के बाद जीवन पुनः सुचारु गति पर आ गया था। 


   वर्ष 2004 में नीलाभ ने बारहवीं कक्षा की परीक्षा पास कर ली थी साथ ही 'सिम्बायोसिस, पूना' में उसका दाख़िला पाँच-वर्षीय लॉ कोर्स में हो गया था। पढ़ाई के तुरन्त बाद प्रोफेशनल कोर्स में दाख़िला खुशख़बरी थी। जुलाई में वह पढ़ाई के लिए पूना चला गया। बेटे के चले जाने से घर में खालीपन तो आया था लेकिन सास के साथ रहने से बहुत अधिक सूनापन महसूस नहीं हुआ। दो महीने ठीक से बीते थे कि नीलाभ ने बताया कि उसकी तबीयत कुछ ख़राब सी है। घर से पहली बार दूर जाना, नयी जगह पर रहना जैसे कई कारण हो सकते थे, जिससे बेटा परेशान हो कर बीमार महसूस कर रहा हो। यह सोच कर उसे वहीं कॉलेज के डॉक्टर को दिखाने के लिए माँ ने कहा। दो-तीन हफ्ते बीत गये, नम्रता जब भी फोन करती तो बेटा बीमार सा ही लगता था। ज़्यादा दिन बीमारी की बात से थोड़ा चिंतित हो कर नरेंद्र ने उसे कोलकाता बुला लिया। 


नीलाभ बहुत कमज़ोर दिख रहा था। कोई ख़ास बीमारी के लक्षण नहीं होते हुए भी वह बीमार सा दिखता था। कभी पेट में दर्द तो कभी बदन में। जो बच्चा शाम होते ही फुटबॉल खेलने भागता था, दोस्तों के बुलाने पर भी बिस्तर से नहीं उठता। नरेंद्र बेटे की अबूझ सी बीमारी देख कर दूसरी ही चिन्ता में थे। समझ नहीं पा रहे थे स्वस्थ, जवान बेटे को ऐसा क्या हो गया जो महीने भर से ठीक ही नहीं हो रहा है। तीन दिन बाद एक मीटिंग के सिलसिले में कुछ दिनों के लिए कोलकाता से बाहर जाना निश्चित था। अतः उसकी पूरी जाँच जल्दी से जल्दी करा कर किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए, अपने परिवार के चिकित्सक, डॉ. सरकार को दिखाया। उन्होंने मलेरिया का टेस्ट कराने के लिए कहा। कोलकाता के इस क्षेत्र में मलेरिया बहुत आम बीमारी थी। 


नरेंद्र की सोसाइटी में डॉ. अरुणा थपलियाल थीं, जो पैथोलॉजिस्ट थीं। डायग्नॉस्टिक्स की जिम्मेदारी उन्होंने ली। खून की जाँच के लिये नमूना दे दिया गया। चूँकि नरेंद्र को बाहर जाना था, इसलिए रिपोर्ट का इंतज़ार न करके दूसरे प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. केडिया से परामर्श करने उनके क्लिनिक पर गये। अभी डॉक्टर का इंतजार ही कर रहे थे कि डॉ. अरुणा ने ब्लड टेस्ट की रिपोर्ट आने की फोन से सूचना दी। नरेंद्र को रिपोर्ट लेने के लिए बुलाया। नरेंद्र कुछ समझ नहीं सके कि डॉ. अरुणा घर पर रिपोर्ट भेज सकती थीं, फिर उन्होंने मुझे क्यों बुलाया? 


नरेंद्र, नीलाभ को डॉक्टर से मिलने को छोड़ कर, रिपोर्ट लेने चले गये। डॉ. अरुणा ने कुछ भूमिका सी बनायी कि, "अभी आप परेशान मत होइए। हमने ख़ुद दुबारा जाँच शुरू की है,साथ ही दो अन्य लैब में भी खून का नमूना भेज दिया है। जब सारी रिपोर्ट आ जायें तभी कुछ निश्चित हो सकेगा"....। डॉक्टर की कही कोई भी बात नरेंद्र को समझ में नहीं आ रही थीं। उन्होने रिपोर्ट खोल कर पढ़ना शुरू किया तो धम से कुर्सी पर बैठ गये, माथे पर पसीना आ गया… हकलाते हुए पूछा कि, डॉक्टर आपने ये क्या लिखा है? क्या ये रिपोर्ट सही है? ऐसा कैसे हो सकता है कि नीलाभ को 'ल्यूकेमिया' है? कहीं कुछ तो ग़लती है, मेरे बेटे को ऐसा कुछ कैसे हो सकता है। डॉक्टर ने नरेंद्र को पानी पिलाया और तसल्ली देते हुए कहा कि, अभी दो-तीन लैब में हमने दुबारा जाँच के लिए सैम्पल भेज दिया है। कई बार जाँच में कुछ गड़बड़ी भी हो जाती है। अभी से परेशान न हों। डॉक्टर की राय भी जान लें। कल तक दूसरी रिपोर्ट भी आ जायेंगी। रिपोर्ट लेकर भारी मन से वापस डॉ. केडिया के यहाँ पहुँचे। जाँच और रिपोर्ट दोनों देख कर डॉक्टर ने ल्यूकेमिया की ही पुष्टि की। इस बात से नरेंद्र बहुत विचलित हो गये, बहुत देर तक वहीं क्लिनिक पर बैठे रहे। ज़्यादा देर होने पर अपने को सम्भाल कर घर के लिए निकले। 

 

    परेशान नम्रता अंदर बैठ कर इंतजार नहीं कर पायी जतन व्हीलचेयर लेकर उसे बाहर ले आया। नरेंद्र ने आकार बताया कि, "बहुत बुरी ख़बर है, नीलाभ को ल्यूकेमिया है, डॉक्टर केडिया ने यही बताया है"। यह सुनकर नम्रता ने बहुत संयत आवाज़ में कहा, "इसमें परेशान होनी की क्या बात है?" पत्नी का उत्तर सुन कर नरेंद्र हैरान हो गये। दुबारा समझा कर कहा, कि नीलाभ को ल्यूकेमिया यानी ब्लड कैंसर है! समझ रही हो? 

नम्रता ने उसी संयम से कहा," मैं समझ रही हूँ कि नीलाभ को क्या हुआ है, लेकिन इसमें परेशान होने की कोई बात नहीं है। अगर बच्चे को एड्स हो जाता तो क्या होता? उसे ल्यूकेमिया है, हमारे पास समय है। परेशान मत होइए, भगवान हमारे साथ कुछ बुरा नहीं करेगा। माँ होकर नम्रता की ऐसी प्रतिक्रिया देख कर नरेंद्र को लगा कि दुःख से उसका दिमाग़ ठीक से काम नहीं कर रहा। 


   लेकिन आपको हैरानी होगी जान कर कि नम्रता किसी शॉक में नहीं थी और ना ही वह ल्यूकेमिया की भयावहता से अपरिचित थी। वह अन्दर से इतनी मजबूत हो चुकी थी कि न अब दुःख उसे परेशान करते थे और ना ही खुशी उसे पागल करती थी। वह योगी की तरह तटस्थ हो गयी थी, दुःख-सुख में समान। ईश्वर पर उसे अटूट आस्था थी। इसीलिये बेटे की इतनी ख़तरनाक बीमारी सुन कर भी वह शान्त और संयत रही।


 नरेंद्र हद से ज़्यादा दुःखी थे। एक ओर पत्नी की असाध्य बीमारी दूसरी तरफ़ बेटे की यह स्थिति। नीलाभ का कोई भाई-बहिन भी नहीं था। नीलाभ के पैदा होने के नौ-दस महिने बाद पत्नी को बीमारी हो गयी थी। डॉक्टर ने दुबारा गर्भ धारण न करने की हिदायत देदी थी। ल्यूकेमिया का सबसे अच्छा इलाज बोन मैरो ट्रांसप्लांट होता है। बोन मैरो डोनेट करने के लिए सहोदर भाई-बहिन सबसे उपयुक्त होते हैं। यहाँ तो नीलाभ का कोई भाई बहिन था ही नहीं, माँ भी बीमार, बचे ख़ुद नरेंद्र। क्या होगा? कैसे होगा कुछ नहीं सूझ रहा था। चारों तरफ़ सिर्फ़ अँधेरा था, आशा की सूक्ष्मतम किरण भी नहीं थी। 


बेटे को लेकर वह दिल्ली के ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज़ गये। दिल्ली में नरेंद्र की सबसे बड़ी बहिन और मंझली बहिन भी रहती थीं। नरेंद्र उन्हीं के घर ठहरा। अब तक सभी को नीलाभ की बीमारी की सूचना मिल चुकी थी। जीजा और दीदी नरेंद्र और नीलाभ को लेकर इंस्टीट्यूट गये। डॉक्टर से मिल कर जब वह लोग वापस आये तो दीदी - जीजा वहां नहीं मिले। वह उन्हें खोज रहा था। जब काफ़ी देर तक वह नहीं मिले तो नरेंद्र को परेशानी हुई। दीदी के घर फोन किया, वहां भी वह लोग नहीं थे। नरेंद्र-नीलाभ कुछ भी समझ नहीं पा रहे थे, बस आसपास चक्कर लगा कर उन्हें ढूंढने का प्रयत्न कर रहे थे। 


अचानक एक दूसरे डॉक्टर के कमरे से उन्हें निकलते हुए देखा। जीजा के हाथ में कुछ पर्चियां भी थीं। तेजी से चल कर जब नरेंद्र वहाँ पहुँचे, तो दीदी- जीजा ऐसे घबरा गये, मानों चोरी पकड़ी गई। नरेंद्र को समझते देर नहीं लगी कि, वह लोग कोई बात छिपाना चाह रहे थे। लेकिन अब स्थिति ऐसी थी कि बताने के अलावा कोई चारा नहीं था। नरेंद्र को सुन कर हैरानी हुई कि दीदी का इलाज भी यहीं चल रहा था। यानी दीदी को भी…? हाँ ब्रेस्ट कैंसर है, जीजा ने शान्ति से बताया। एक और आघात!!! 


आख़िर ईश्वर और कितने दुःख देगा? वह कहाँ तक सह पायेगा? दीदी की बीमारी न बताने का कारण था, दीदी की बेटी की प्रेग्नेंसी। यानी नीलाभ की फुफेरी बड़ी बहिन सोमा प्रेगनेंट थी। अभी शुरू के महीने थे, ऐसे में किसी दुःखद सूचना से गर्भपात होने की आशंका रहती है। इसीलिए दीदी-जीजा ने ये बात किसी को नहीं बतायी थी। एक ही घर के दो सदस्य कैंसर से पीड़ित थे। जीवन की यह कैसी विडम्बना थी??? 


नीलाभ के कई दिनों तक टेस्ट होते रहे, कुछ ऐसे भी टेस्ट बताये गये, जो दिल्ली में नहीं होते। उसके लिये मुम्बई जाना था। नरेंद्र, नम्रता को जतन और पड़ोसियों के सहारे छोड़ कर आये थे। मन वहाँ भी लगा रहता था कि नम्रता का काम कैसे हो रहा होगा? बेटे की जाँच और इलाज भी ज़रूरी था। मुम्बई जाकर बाकी के टेस्ट कराये और टाटा कैंसर इंस्टीट्यूट में परामर्श किया। यहाँ एक अत्यन्त सुखद सूचना डॉक्टर दी। जिसे सुनकर नरेंद्र को जितनी खुशी हुई उतनी तो शायद अपने समाने साक्षात ईश्वर को देख कर भी नहीं होती। बात यह थी कि ब्लड-कैंसर की एक कैप्सूल 'ग्लाइवेक' (Gleevec) आयी है, स्विस फार्मा कंपनी, 'नोवार्टिस' की। 400 मिली ग्राम की एक कैप्सूल प्रतिदिन खाने पर ल्यूकेमिया ठीक हो जाता है। यह दवा बहुत महँगी थी एक महीने की दवा की क़ीमत 1.2 लाख रुपये थी। यह दवा वर्ष 2000 में बाज़ार में आयी थी। पैसे की परवाह नहीं थी नरेंद्र को, इकलौते बेटे के लिए ख़ुद को भी नीलाम करना पड़ता तो वह भी क़ुबूल था। 


यह सूचना जब नम्रता को दी तो उसका सधा हुआ उत्तर था, "यह तो होना ही था। मुझे विश्वास था ईश्वर पर। कुछ बुरा नहीं होगा हमारा। मैंने आजीवन किसी का बुरा न किया और न चाहा। भगवान हमारे ऊपर दयालु है। नीलाभ ठीक हो जायेगा। मैं भी बिल्कुल ठीक हूँ। आप चिंता मत कीजिये। काम पूरा करके आराम से आइये"। पत्नी की इतनी निष्ठा और इतना संयम देख कर नरेंद्र की आंखें खुशी से छलक गईं। एक बेहद दुःखद बीमारी का सुखद इलाज मिलने से पिता-पुत्र बेहद खुश थे। 


सिद्धि विनायक का प्रसाद लेकर नरेंद्र कोलकाता पहुँचे। पत्नी को देख उन्हें खुशी हुई कि पंद्रह दिनों तक जतन और मित्रों ने उसकी देखभाल में साथ दिया। स्वयं नम्रता की जीवन के प्रति सकारात्मकता, प्रेरणा लेने लायक थी। अपनी और बेटे की गम्भीरतम बीमारीयों ने उसकी ईश्वर में आस्था और विश्वास को तिल भर भी नहीं डिगाया था। नीलाभ भी अपनी बहादुर माँ का हिम्मती बेटा था, अपनी अस्वस्थता से वह दुःखी अथवा अवसादग्रस्त नहीं था। स्वयं नीलाभ के आशावादी दृष्टिकोण, दवा और देख-रेख से उसका स्वास्थ्य सुधर रहा था। ठीक तो पूरा नहीं हुआ था, क्योंकि ये दवा तो सालों चलनी थी। लेकिन सेहत में थोड़ा सा सुधार होते ही वह कॉलेज चला गया। पढ़ाई का हर्ज़ उसे क़ुबूल नहीं था। ख़ुद का ध्यान रखने और नियमित दवा खाने का वादा लेकर माँ - बाप ने बेटे को खुशी-खुशी पूना भेज दिया। 


एक भारतीय दवा कंपनी 'नैटको फ़ार्मा लिमिटेड' (Natco Pharma Ltd.) ने 'वीनेट-400mg' की जेनेरिक दवा निकाली जो 'ग्लाइवेक' की जगह चिकित्सा के उपयोग में लायी जा सकती थी। इसका दाम बहुत कम था। उस समय एक महीने की दवा की कीमत मात्र ₹6000, जबकि ग्लाइवेक की क़ीमत ₹1.2 लाख थी। यह समाचार पाण्डेय परिवार के लिए सुखद था। 


लेकिन ' स्विस फार्मा कंपनी' ने इसका निर्माण बन्द करने के लिए उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की।* भारत सरकार और ईश्वर की कृपा से इसका निर्माण रोका नहीं गया और यह दवा बाज़ार में इसी दाम पर मिलती रही। 2005 में 'नोवार्टिस बनाम यूनियन ऑफ़ इन्डिया एण्ड अदर्स' केस उच्चतम न्यायालय में आरम्भ हुआ, जिससे भारतीय दवा के उत्पादन रोक लगायी जा सके। सात वर्षों तक यह कानूनी लड़ाई चली और 'नोवार्टिस' मुकदमा हार गया। भारत के ब्लड कैंसर के मरीज़ों के लिए यह निर्णय प्रसन्नता का विषय था। नरेंद्र भी खुश थे। क्योंकि भारतीय दवा के आने से अर्थिक बोझ कम हो गया था। आज 2022 में भी नीलाभ को नियमित रूप यह दवा खानी पड़ती है। चिकित्सा जगत में यह उपचार अभी भी प्रयोगात्मक स्थित में है। दवा का प्रयोग बन्द करने से रोगियों की स्थिति क्या होगी अभी रिसर्च के स्तर पर है। 


नम्रता का मानसिक बल देख कर नरेंद्र अब निश्चिंत थे। माँ भी पिता की मृत्यु के दुःख से उबर रही थीं। कोलकाता के रहन-सहन की भी अभ्यस्त हो गयी थीं। बड़े दिनों बाद सब कुछ सुचारु रूप से चल रहा था। 


जतन, नम्रता को दीदी ही मानता था और मन से सेवा करता था। अकेला जतन, तीन आदमियों का काम सम्हाल सकता था। ईमानदार, निष्ठावान ऐसा की एक छोटी सी खोट भी ढूँढे न मिले। ऐसा हीरे सा जतन कुछ परेशान सा दिखता था। कभी -कभी अचानक चिल्ला पड़ता कि, "बचाओ हम मर जायेंगे"। बैठ-बैठे पसीने से भीग जाता। उसके दिल की धड़कन बढ़ जाती। रातों - रात जागता रहता। उसे नींद नहीं आती। कोई काम नहीं कर पाता। अजीब हैरान करने वाली दशा थी उसकी। 


नरेंद्र ने अपने फैमिली डॉक्टर, डॉ. सरकार को दिखाया। उन्होंने मानसिक चिकित्सक को दिखाने के लिए कहा। नम्रता, जतन को अपने परिवार की तरह ही मानती थी। इसलिये उसका दुःख नम्रता का दुःख था। नरेंद्र साइकिएट्रिस्ट के पास लेकर गये। डॉ. ने 'पैनिक अटैक' की बीमारी बतायी, साथ में यह भी कहा कि दवा शायद जीवन भर खानी पड़ेगी। दवा खाने से बहुत सुधार हुआ और परेशान सा जतन पुराने समय का हँसमुख जतन हो गया। 


10-12 साल की उम्र का आया हुआ छोटा बच्चा जतन अब जवान हो गया था। घर वालों ने उसकी शादी तय कर दी थी 2009 की गर्मियों में जतन की शादी हुई। जब अपनी नयी नवेली दुल्हन के साथ नरेंद्र की माँ का पैर छुने नव दम्पती आए तो, माँ ने मुँह दिखाई के साथ बहू को देख कर एक नया नाम दे दिया, 'रत्ना'। आज भी कोई जतन की पत्नी का असली नाम नहीं जानते, सभी उसे रत्ना नाम से जानते - पहचानते हैं। 2010 और 2012 में जतन एक पुत्री और पुत्र के पिता बन गये। नम्रता-नरेंद्र इन बच्चों को अपने पौत्र - पौत्री की तरह मानते हैं। बेटे के जाने के बाद इन दो बच्चों से घर आबाद हो गया। नम्रता - नरेंद्र इन्हीं बच्चों को देख और पाल कर दादा - दादी बनाने का सुख अनुभव करने लगे। 


   कई वर्ष बीत गये। बेटे की बीमारी के लक्षण ठीक हो गये। एक बार पुनः मुम्बई जाकर मोलीक्यूलर स्तर तक बीमारी के अवशेष की जाँच करायी। प्रसन्नता की बात थी, रोग के चिह्न ख़तम हो गये थे। पाण्डेय परिवार बहुत प्रसन्न था। एक बहुत गम्भीर बीमारी से पुत्र को मुक्ति मिल गयी थी। लेकिन इधर कुछ दिनों से नम्रता कुछ अस्वस्थ सी थी। अचानक उसकी भूख बहुत बढ़ गई थी। यह भूख विचित्र सी थी। यदि भूख लगने पर कुछ खाने को न मिले तो पेट में बहुत अधिक दर्द होता था। यह एक परेशान करने वाली स्थिति थी। नरेंद्र ने चिकित्सकों से परामर्श किया। डॉक्टरों ने पेट का अल्ट्रासाउण्ड कराने को कहा। नम्रता को अस्पताल में ले जाकर कोई भी टेस्ट कराना बहुत कठिन काम था। लेकिन अब अल्ट्रासाउंड कराना आवश्यक था। इसलिए एम्बुलेंस से अस्पताल में ले जाकर अल्ट्रासाउंड कराया गया। पता चला कि पित्ताशय यानी गॉलब्लैडर में पथरी थी, जो कि काफ़ी बड़ी थी। स्वास्थ्य समस्याओं का यही कारण था। 


पथरी, सिर्फ़ ऑपरेशन से ही निकाली जा सकती थी। अतः ऑपरेशन के लिए नरेंद्र ने अस्पतालों से संपर्क किया जो एक 'मल्टीपल स्क्लेरोसिस' के मरीज़ की पथरी का ऑपरेशन करने को तैयार हो जाये। फोर्टिस हॉस्पिटल नम्रता के ऑपरेशन के लिए तैयार हो गया। डॉ. अग्रवाल ने ऑपरेशन की जिम्मेदारी ली। एक न्यूमरोलॉजिकल रोग के मरीज़ को एनेस्थीसिया देना एक चुनौती थी। डॉक्टर ने नम्रता से उसके व्यसनों की जानकारी शुरू की, क्योंकि एनेस्थीसिया की मात्रा इस बात पर आधारित होती कि मरीज़ का शरीर किस तरह के नशे का अभ्यस्त है। नम्रता ने जब यह बताया कि चाय के अलावा उसका कोई भी व्यसन नहीं है तो डॉक्टर हँस दिये, मज़ाक में पूछा कि, 

"अगर जिन्दगी में कोई नशा नहीं किया, 

तो फिर जिन्दगी जी कर क्या किया?" 

नम्रता ने भी हँस कर जवाब दिया, "ज़िन्दगी जीना सबसे बड़ा नशा है। कभी मेरी तरह की जिन्दगी जीने की कल्पना कर के देखिये।" इस हल्की-फुल्की बात के बाद डॉक्टर ने एनेस्थीसिया की सबसे कम मात्रा में, लेप्रोस्कोपी से पूरा गॉलब्लैडर निकाल लिया। मात्र एक पथरी थी जो काफ़ी बड़ी थी। यह बहुत चिकनी और हल्के पीले रंग की थी, जो हल्की चमक लिये किसी सेमी प्रेशस स्टोन जैसी लग रही थी। डॉक्टर इतनी सुन्दर पथरी को देख कर चमत्कृत थे। नम्रता को ऑपरेशन में निकाली पथरी दिखाते हुए कहा कि, "इसे किसी गहने में जड़वा लो, नग जैसी लगेगी।" सामन्यतः पथरियाॅं काली और अनगढ़ होती हैं। नम्रता के गॉलब्लैडर से निकली पथरी एक अपवाद थी। ऑपरेशन सफल रहा और 5-6 दिन बाद उसे अस्पताल से छुट्टी मिल गयी। जीवन की एक और बीमारी की मुहिम सकुशल पूरी हुई। नम्रता का आत्मविश्वास और दृढ़ हो गया। जीवन सुख से चलता रहा। वर्ष पर वर्ष बीतते रहे… 


दिसंबर 2018 में नीलाभ की शादी धूमधाम से हुई। जुलाई 2019 में नरेंद्र प्रिंसिपल चीफ़ कन्ज़र्वेटर ऑफ फॉरेस्ट के पद से रिटायर हो गये। अब कोलकाता के सरकारी घर को छोड़ कर लखनऊ के अपने घर में आना था। सन 1999 के बाद पहली बार नम्रता को कोलकाता से लखनऊ तक 1020 किलोमीटर की यात्रा करके आना था। सामान अग्रवाल मूवर्स एण्ड पैकर्स से भेज दिया गया था। 


समस्या थी नम्रता को लाने की। एम्बुलेंस से लगातार 18-20 घण्टे की यात्रा कर के नरेंद्र - नम्रता सकुशल अपने गोमती नगर विस्तार के घर में 22 फरवरी 2020 को पहुँचे। माँ पहले ही नरेंद्र की बहिन के घर लखनऊ आ गई थीं। मार्च 24 2022 से कोरोना के कारण लॉक डाउन लग गया। यह लोग कोरोना की सभी लहरों से बचे रहे। नवम्बर 2020 में नरेंद्र की माँ का स्वर्गवास हो गया। आज जुलाई 2022 में उनसठ साल की उम्र में नम्रता व्हीलचेयर पर ही सही, एक लगभग समान्य जीवन जी रही है। 


जतन का परिवार साथ रहता है। सभी के साथ सुख से जीवन कट रहा है। यह कहानी ख़ुद नम्रता ने सुनायी है। अपनी कहानी सुनाते हुए नम्रता ने मैथिली शरण गुप्त की कुछ लाइनें सुनायीं, 


"कुछ काम करो, कुछ काम करो

जग में रह कर कुछ नाम करो

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो

समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो

कुछ तो उपयुक्त करो तन को

नर हो, न निराश करो मन को "


साथ ही कहा कि यह पंक्तियाँ उसे जीवन जीने की प्रेरणा देती रहीं। यह सुन कर मैं हैरान रह गयी कि अन्तहीन विपरीत परिस्थितियों में कैसे कोई इतना आशावादी हो सकता है? नम्रता के जीवन कथा मैं आप सभी को इस उद्देश्य से सुना रही हूँ कि, यदि नम्रता 'मल्टीपल स्क्लेरोसिस' के साथ इतनी सकारात्मकता और प्रसन्नता के साथ जीवन जी सकती है तो किसी भी असाध्य रोग से पीड़ित व्यक्ति भी अपनी आंतरिक शक्तियों को जगा कर प्रसन्न्ता पूर्वक जीवन जी सकता है। यदि एक भी असाध्य रोगी इस कहानी से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को सुखमय बना सके तो मैं अपने परिश्रम और नम्रता की दृढ़ता को सार्थक मानूँगी। युद्ध भूमि के अलावा भी योद्धा होते हैं, नम्रता जैसे। आप सभी की शुभकामनाओं की अपेक्षा रहेगी इस योद्धा के लिए। धन्यवाद। 



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