shaily Tripathi

Tragedy Crime Others

4.6  

shaily Tripathi

Tragedy Crime Others

ये क्या हुआ?

ये क्या हुआ?

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क्या कभी खुली आँखों से कुछ भी न दीखना महसूस किया है? 

साँसे चलते रहने पर भी घुटन? 

कोई बीमारी न होने पर बीमार सा? 

पैर होते हुए, अपाहिजपन? दिमाग़ होते हुए विचार शून्यता… लोगों के साथ रहते हुए घनघोर अकेलापन… 

दो दिन से खाना न खाने पर भी भूख न लगना और चमकती जून की दुपहरी में अँधेरा? 

समय रुका सा, आसपास सब कुछ थमा सा था … 

परिवार के बीच रह रहा हूँ, सुबह उठ कर प्राणायाम और योग करता हूँ। दिन में टी वी देखता हूँ, फेस बुक और व्हाट्सैप पर संदेश आते हैं, उत्तर भी लिखता हूँ। न मैं किशोर हूँ न जवानी रह गयी है, 35 साल की सरकारी नौकरी कर के रिटायर हो चुका हूँ। अपना घर, परिवार, गाड़ी, मकान, बाल-बच्चे सभी हैं। पेंशन है, बैंक में पैसे हैं, बीमा है… यानी सभी कुछ है जो एक शान्त सुखी जीवन जीने के लिए दुनिया की नज़रों में ज़रूरी है। 

बच्चे भी नौकरी में हैं, स्वास्थ्य भी ठीक, लेकिन कुछ तो ऐसा है जो नहीं है… शायद उसे सुख और प्रसन्नता कहते हैं। 

पुरानी यादें भला कहां पीछा छोड़ती हैं। आर्किटेक्ट के इम्तहान का नतीजा निकला था। पहली पोज़ीशन... ख़ुशी तो होनी ही थी। पहली बार मन में द्वन्द्व था कि दोस्तों के साथ बीयर पी कर ख़ुशी मनाई जाए या फिर माँ-बाप के पाँव छूकर आशीर्वाद लिया जाए। वैसे हनुमान मंदिर जा कर प्रसाद भी चढ़ाने का मन था... मगर दोस्त जीत गये। उस नशे की याद आज भी कभी कभार हवा में उड़ने का सा आभास दिला देती है।

जब भाग्य साथ दे तो सब ठीक ही होता है। रिज़ल्ट आने के दो महीने के भीतर ही सरकारी नौकरी भी मिल गयी। पिता जी के मन की इच्छा जैसे भगवान ने सुन ली थी। पहली पोस्टिंग ही इलाहाबाद में मिली। हमीरपुर में रहने वालों के सपने भी छोटे ही होते हैं। इलाहाबाद और बनारस तक ही जाकर रुक जाते हैं। दिल्ली और मुंबई सपनों की चादर में छेद नहीं कर पाते।  

 माँ ने कुछ बर्तन, बिस्तर और कपड़े, स्वेटर वगैरह उत्साह से बाँध कर... दही पेड़ा खिला माथे पर भगवान का रोली-अक्षत लगा कर विदा किया था। थोड़ा डर, ढेर सा उत्साह और माँ बाप के आशीर्वाद से लैस चल पड़ा था। छोटे भाई-बहिन क्योंकि होस्टल में रह कर पढ़ाई कर रहे थे तो बस चिट्ठियों और फोन से ही मेरी इस नयी यात्रा में शामिल होने की कोशिश कर रहे थे। 

इलाहाबाद में स्टाफ़ के लोग बहुत समझदार थे। जाने से पहले ही मेरे लिए दो कमरों का घर और मस्टररोल पर रखे जाने वाले एक बन्दे को, मेरे खानसामे और सहायक की तरह से खोज रखा था। यह महकमा अभी नया बना था, तो कुछ उपरी अधिकारियों के अलावा सारा स्टाफ़ जवान था। इसलिये साथ या कुछ पद नीचे काम करने वाले कर्मचारी, दोस्त बन गये। जिन्दगी मज़े में चलने लगी थी। दिन भर काम के बाद शाम को शहर घूमना, रात में घर आ कर खाना-पीना कर सोना… कुल मिलाकर जिन्दगी से कोई शिकायत नहीं थी। 


 जब बेटे को पक्की नौकरी मिल जाये तो भारतीय माँ-बाप को बच्चे की शादी की चिंता न सताये ऐसा कैसे हो सकता है? हिन्दू, ठाकुर समाज में कोई सरकारी अफ़सर बन जाये तो उसके लिए 'बर-देख्खू' न आयें, यह तो असम्भव सा है। घर पर अपनी सुयोग्य कन्या का रिश्ता लेकर आने वालों का ताँता लग गया। बहुत से रिश्ते तो घर पर ही फिल्टर हो जाते थे। कुछ रिश्ते मय-फोटो मेरे पास भी आते थे। बड़ा अच्छा 'फ़ील' होता था... मन ही मन मुस्कुरा भी लेता कि कितनी इंपॉर्टेंस मिल रही है। 

जवानी में बीवी की कल्पना यानी … सेक्स और मस्ती, घूमना-फिरना, पिक्चर देखना, अच्छा खाना और सुख से सोना। इन बातों के अलावा कोई बात ध्यान में ही नहीं आती थी। आज की पीढ़ी हमारे ज़माने के बारे में सोच भी नहीं सकती। हम ब्याॅज़ स्कूल में पढ़ते थे, लड़कियां गर्ल्स स्कूल में। रास्ते में आते-जाते ही कन्या दर्शन कर के जवानों को मन मार लेना होता था। प्रोफेशनल कॉलेज में कहीं भूली - भटकी कोई एक दो कन्याएं अगर आ भी जाती थीं, तो इतने जूनियर-सीनियर तरसे हुए जवानों के बीच किसी का भाग्य उसकी दोस्ती से नहीं चमकता था। कुल मिलाकर शादी तक वर्जिन रहना मज़बूरी होती थी। ऐसे में शादी का आकर्षण कितना तीव्र होता था, इसकी कल्पना आज के युवक सपने में भी नहीं कर सकते। 

मैं भी किसी कमसिन की, गोरी छरहरी काया, सुन्दर से चेहरे को चूमने और आलिंगन में भरने के सपने, खुली आँखों से देखता था। जो भी फोटो आती उसे अपने बिस्तर में लेटे हुए कल्पना करता था। उसके जिस्म की महक को महसूस करते हुए फोटो की बारीकी से जाँच करता… बहुतों को रिजेक्ट करता गया। लेकिन एक दिन वो फोटो भी आ गयी, जिसे देख कर मन बोला… "हाँ यही है वो"। माँ-बाप को मन माँगी मुराद मिल गयी, कन्या देखने की तारीख़ निश्चित हुई। लड़की तो फोटो से भी सुन्दर और दिलकश निकली और फिर शादी तय हो गयी। मैं फोटो और पता लेकर वापस इलाहाबाद आ गया। शादी के सपनों में खोया, तय तारीख़ के इंतजार में दिन गिनने लगा। 

 मैं क्रांतिकारी विचारों का नहीं था। जानता था कि घर का सामान और दहेज़ भी भरपूर मिलेगा। उसके बिना घर वाले शादी के लिए हाँ कर ही नहीं सकते। आगे की जिन्दगी बिल्कुल हसीन ख्वाब सी दिख रही थी… किसी दुःख, ग़म या परेशानी का गुमान भी नहीं था। 

अभी तक कि जिंदगी खूब मज़े में गुज़री थी। पिता डॉक्टर थे, नौकरी के साथ प्राइवेट प्रैक्टिस भी करते थे। पुश्तैनी ज़मीन-जायदाद थी। बस एक छोटा भाई और बहिन। छोटा सा पढ़ा-लिखा परिवार, सुख सुविधा, नौकर-चाकर। निर्विघ्न पढ़ाई, नौकरी और अब सुन्दर पढ़ी-लिखी लड़की से शादी। न जिन्दगी में कोई दुःख था न अभाव तो सपने भी रंगीन और हसीन थे। 

आज सोचता हूं कितना अलग था वो ज़माना... आज जैसी गति नहीं थी। आँखों में शर्म-लिहाज़ मौजूद था। सरकारी नौकरी सबका सपना होती थी। निजी और मल्टीनैशनल कम्पनियाँ भारत में नहीं आयी थीं। अर्थव्यवस्था की हालत बुरी थी। सरकारी नौकरी के अलावा  डॉक्टर, इंजीनियर और कुछ चार्टड एकाउंटेंट आदि बन जाते थे। इन्हीं के पास अच्छी आमदनी होती थी। इसे अपना भाग्य ही मान सकता हूं कि मेरी गिनती उच्च मध्यम-वर्ग में होती थी। इसीलिए दुःख-परेशानी देखी नहीं थी। विचार भी, "खाओ, पियो मौज करो", से आगे जाते नहीं थे।  

मेरी स्थिति से उलट मेरी भावी पत्नी एक निम्न मध्यमवर्ग से थी। परिवार भी बड़ा था पाँच भाई-बहिनों का। पिता छोटी सी सरकारी नौकरी करते थे। कुछ दिन पूर्व ही क्लर्क से अफ़सर के ग्रेड में पहुँचे थे। तभी तो मेरी नकचढ़ी माँ को कोई आपत्ति नहीं हुई। परिवार पढ़ा-लिखा था। सुन्दर सभी थे, तो बहिनों की शादियाँ अच्छी जगह हुई थी। भाई अच्छी नौकरियों में थे। मेरी होने वाली पत्नी भी बहुत मेधावी थी। लेकिन पिता के परंपरागत विचारों के कारण उसे नौकरी करने की अनुमानित नहीं मिली थी। ऐसे में शादी करने में आगे कोई परेशानी भी आ सकती है, ऐसी कल्पना भी नहीं थी। 

शादी की तारीख़ तय हो गयी थी। कुछ समय बाद धूम-धाम से शादी हो गई और मैं अपने सपनों की रानी को दुल्हन बना कर घर ले आया। दिन कटा, रात के इंतजार में। बस इन्हीं सपनों में खोया रहा कि कब मिलेगी मेरी सुन्दर सेक्सी सी बीवी, कब उसे बांहों में भर कर, अभी तक के देखे रंगीन सपने पूरे करूँगा। 

रात के लिए बहुत सुन्दर कपड़े निकाले, सबसे महँगा परफ्यूम लगाया। चाव से ख़रीदा सोने का सुन्दर नेकलेस निकाल कर रखा, जो मुझे बीवी को सुहागरात में उपहार देना था। इंतज़ार था माँ की पुकार का कि, "बेटे आओ, तुम्हारा खाना तुम्हारे कमरे में लगा दिया गया है।" 

मेरा परिवार छोटा सा था, अपने नाते-रिश्ते में कुछ ही लोग ऐसे थे, जिनकी औक़ात हमारे आसपास आती थी। इसलिये शादी में मेहमान भी बहुत कम थे। भाभी, जीजा या चाची-मामी या उनके बच्चों की हँसी-ठठ्ठा वाला चक्कर नहीं था। पिता का अनुशासन कुछ ऐसा था कि फ़िल्मों में शादी के जो सीन दिखाये जाते हैं वैसा कुछ नहीं था। सभी मेहमान खाना खाकर अपनी जगह सोने चले गये थे। 

माँ के बुलावे पर, मैं खुशी और उत्तेजना से मैं कमरे में पहुँचा…। कल्पना थी कि, पत्नी सजी हुई, घूंघट निकले फ़िल्मी अंदाज़ में सजे हुए पलंग पर बैठी, हर आहट पर पर चौंक कर पिया का इंतज़ार करती मिलेगी। लेकिन मैं चौंक गया। वह रात के लिए बहुत समान्य से कपड़े पहने, बिना किसी खास गहनों के बिना मेकअप बिस्तर की जगह कुर्सी पर, किसी सोच में, सीने पर हाथ बाँधे बैठी थी। उसमें कुछ भी मेरी मधुर कल्पना से मेल खाता हुआ नहीं था। मेज़ पर खाना लगा था। वो न चौंकी न शर्मायी ही, किसी तरह का आमंत्रण उसकी आँखों में नहीं दिखा। पहली बार में ही मेरे आधे सपने चकनाचूर हो गये। मैं दरवाज़े पर ठिठक कर देखता रहा…। यहाँ मुझे पहली बार खुरदरी ज़मीन पर पैर टकराने का एहसास हुआ। 

जब मैंने दरवाज़ा बन्द किया तो उसने चौंक कर देखा। सामने पड़ी कुर्सी की ओर इशारा करके कहा, "बैठिए कुछ बातें करनी हैं"। मैं समझ ही नहीं सका कि ये मेरी पत्नी, मेरी प्रेमिका है या कोई टीचर… दिमाग़ कुछ ऐसे चक्कर ले रहा था कि, मैं वास्तव में शादी के बाद सुहागरात के कमरे में हूँ या ऑफिस में किसी अधिकारी के सामने बैठा किसी गड़बड़ी वाले नक्शे की शिकायत सुन रहा हूँ? 

उसने मेरे सामने एक पासबुक रखी और कहा, "आप देख लीजिए और अपने पिता जी को दिखा दीजिए, मेरे पापा ने दहेज़ के पूरे पैसे दे दिये हैं या नहीं…"? मैं इस बार चार सौ चौवालिस वोल्ट का झटका महसूस कर रहा था। यह मेरी सुहागरात है? एक दूसरे को बाँहों में भर कर चूमने की जगह, ये सब क्या चल रहा था? क्या ये सच था, या दो दिनों से शादी की रस्मों की थकान की वज़ह से मेरी मति फिर गयी थी? 

कुछ देर मैं डांवाडोल रहा… सम्भाला अपने आप को और खाने की थाली खींच कर कहा, "भूख बहुत लगी है, पहले खा लेते हैं।" उसने कुछ कौर खाये और हाथ धो कर उसी मुद्रा में बैठ कर बहुत ठहरी हुई नज़र से मुझे देखने लगी। मेरे गुलाबी सपने स्याह हो रहे थे। दिमाग़ सच्चाई को मनाने के लिए तैयार नहीं था। खाना खाने के बाद मैं उसकी ओर बढ़ा और रूमानियत से उसके कंधों पर हाथ रख कर कहा…" तुम इन सब बातों में क्यों पड़ी हो? मैं तो तुम्हें पहली निगाह में देख कर ही पसन्द कर चुका था अपनी प्रेयसी पत्नी बनाने के लिए… दहेज़ वगैरह मेरे लिए कोई मायने नहीं रखते…",

मुझे लगा था कि मैंने ऐसी बात कह दी है कि वह भी सब कुछ भूल कर, मेरी बाँहों में समा जायेगी। लेकिन मैं ग़लत था। उसने मेरे हाथ कंधों से हटाये और फिर उन्हीं गहरी नज़रों से देखते हुए कहा कि, "मुझे नौ महीने बाद बच्चा नहीं चाहिये, कॉन्ट्रासेप्शन का क्या इंतज़ाम किया है?" मेरा दिमाग़ बिल्कुल रुक गया… कुछ देर हतप्रभ सा मैं उसे देखता रहा। क्या यही है वो, जिसके लिए मैं महीनों से सपने देख रहा था? क्या इसके साथ मैं कभी सेक्स कर सकूँगा? क्या इतनी सुन्दर शक़्ल और इतनी सुघड़ शरीर वाली लड़की में लड़कियों जैसी कोई बात नहीं है? क्या वास्तव में ये लड़की ही है? क्या इसका शादी से पहले कोई चक्कर था? क्या बाप ने इसकी मर्ज़ी के बिना शादी कर दी है? क्या ये पहले से प्रेगनेंट है… क्या.. क्या… क्या के अन्तहीन प्रश्नों ने मुझे ज़मीन नहीं काँटों भरी खाई में फेंक दिया था। मेरे सारे हसीं सपने लहू-लुहान हो गये थे… मन कह रहा था कि दरवाज़ा खोल कर भागूॅं और माँ से कहूँ कि, "ये लड़की वास्तव में लड़की है ही नहीं …", पर मैं ऐसा नहीं कर सका। क्योंकि जिस दिन इस लड़की को देखा था, उसी दिन, तीन अन्य लड़कियों को भी देखने का कार्यक्रम माँ-बाप का था। लेकिन इसे देखने के बाद मैं ही अड़ गया था कि, "और कोई लड़की नहीं देखनी… इससे सुन्दर और इम्प्रेसिव लड़की अब नहीं मिलेगी"। आज मैं अपनी सपनों की रानी के लिए अपने माँ-बाप से कैसे कुछ कह सकता हूँ? मैं हारे हुए खिलाड़ी की तरह आगे क्या करूँ यह सोच रहा था। वो उसी मुद्रा में बैठी मुझे देख रही थी, जिससे मैं असहज होता जा रहा था। 

मेरे पास चुप रह कर सोने के अलावा कोई चारा नहीं था। उसी चुप्पी की बलिवेदी पर चढ़ गयी हमारी सुहागरात। सुबह बहुत भोर में मैं कमरे से निकल कर भागा, ऐसा लगा कि क़ैद से छूटा हूँ। भाई ने देखा तो मुस्कराते हुए बोला, "आँखें लाल हो रही हैं, लगता है सो नहीं पाये।" 

सुन कर मैं बाथरूम में चला गया और कल की बातों से जूझता रहा। बहुत देर तक शावर के नीचे खड़े रहने के बाद, जो विचार आया वो अपमान और क्रोध का था। "उस ग़रीब बाप की, छोटे से शहर की लड़की ने मेरा और मेरे पौरुष का अपमान किया है", मैं क्रोध से फुफकार रहा था। क्या औक़ात है उसकी मेरे सामने?" "आज छोड़ दूँ तो कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रहेगी", क्या मैं नपुंसक हूँ"," अभी जाकर अगर उसकी कोई बात सुने बिना मैं अपनी ताकत उसे दिखा दूँ तो क्या कर सकती है?" 

मन में एक घटिया विचार भी आया... "एक बार शील भंग करके उसे छोड़ दूँगा तो ये और इसका बाप रोते-रोते पैर गिरेंगे, देख लूँगा एक-एक को"। इन विचारों से एक और अहम् को राहत मिली ... मगर अपने आप पर हैरानी भी हुई कि क्या मैं ऐसी घटिया बातें सोच सकता हूँ। 

नहा कर, नाश्ता करके, मैं गाड़ी लेकर बाहर निकल गया। अनावश्यक चक्कर लगाता रहा। कई बार मन में कॉन्डोम खरीदने का विचार आया, फिर रुक गया। इस शहर में सभी मेरे पिता और मुझे पहचानते थे… विशेष कर मेडिकल स्टोर वाले, पिता यहाँ के प्रसिद्ध डॉक्टर जो थे। क्या सोचेंगे कि, बेटा कॉन्डोम लेने आया है। 

बहुत देर के बाद एक रेस्त्रां में खाना खा कर घर गया। शादी के दूसरे ही दिन मेरी हरकत से माँ कुछ नाराज़ सी थी। घर में पहुँचते ही कहा, "कहाँ रह गये थे? चलो खाना खा लो, तुम्हारी बीवी सुबह से भूखी बैठी तुम्हारी राह देख रही है"। मेरे अहंकार को कितना सुख मिला इस बात से बता नहीं सकता… "बाहर खाना खा लिया है", कह कर मैं गेस्ट रुम में जा कर सो गया। रात के खाने के समय भी मैं मेज़ पर नहीं गया। दो बार बहन, और एकाध बार भाई कमरे में झाँक कर गये, मैं बहाना किये सोता रहा। माँ ने सभी को कहा कि थक गया होगा सोने दो। 

सभी के सोने के बाद देर रात, मैं अपनी नकचढ़ी बीवी का हाल देखने गया। मन में कल्पना थी कि भूखी और अपमानित वो कैसे बैठी होगी? पता चल गया होगा कल की नौटंकी का नतीजा? जाने पर रो कर माफ़ी मांगेगी, लेकिन मैं भी उसे बताऊँगा कि मुझसे पंगा करने का क्या नतीजा होता है। मन ही मन अपने बदले की रूप रेखा बनाते मैं कमरे में घुसा… देख कर हैरान रह गया, कमरे का दरवाज़ा खुला था, बिजली जल रही थी, वह नीचे कालीन पर ही पड़ी बेहोश सो रही थी। खाना मेज़ पर बिना छुआ रखा था। मुझे लगा कि, उसने एक बार फिर मेरे मुँह पर करारा झापड़ मारा है… मैं और मेरा चोट खाया पौरुष बिलबिला उठा… बौखलाहट में मन हुआ कि झकझोर कर उठा दूँ और ज़बर्दस्ती पूरी कर लूँ सुहागरात। गुस्से में मैं बढ़ा, लेकिन सोते हुए उस खूबसूरत मासूम चेहरे को देख, कदम रुक गये। अन्दर का हिंसक पशु पालतू सा हो गया। मैं बहुत देर तक उसे देखता रहा और चुपचाप बिस्तर पर सो गया। 

सुबह नींद खुली तो वह कमरे में नहीं थी। गुलाबी सर्दी का मौसम शुरू हो चुका था... सुबह ठंडी सी होने लगी थीं। मैं उठा मन में बहुत से सवाल उठ रहे थे कि, कहीं वह भाग तो नहीं गयी? कौन जाने शादी से पहले का कोई प्रेमी आया हो और उसे उड़ा ले गया हो… ऐसे ही कोई लड़की इतनी ठंडी नहीं होती कि एक कमरे में पुरुष के साथ रह कर उसे कोई उत्तेजना न हो। अगर वो भाग गयी होगी तो सरे-बाज़ार नाक कट जायेगी। बाप-दादों की इज़्ज़त मिट्टी में मिल जायेगी। लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या मुझे ज़नखा समझेंगे और पीठ पीछे हंँसेंगे बीवी दो दिन भी नहीं सम्हली बच्चू से …। दिमाग़ ऐसे ही विचारों से फटा जा रहा था। 

मैं लगभग दौड़ता हुआ चल रहा था कि अगरबत्ती की खुशबू नाक में महसूस हुई। घर में सभी सो रहे थे तो ये खुशबू कहाँ से आ रही है? मैं पूजा के कमरे की ओर बढ़ा। वह नहा-धो कर लाल चुनरी में, भीगे बालों में भगवान के सामने हाथ जोड़े पूजा कर रही थी। उसकी वह शान्त और आकर्षक छवि देख कर मेरे अंदर की आशंकायें और क्रोध बिल्कुल समाप्त हो गया। मंत्रमुग्ध सा उसे देखता रहा। ऊपर वाले ने उसे फुर्सत से गढ़ा था। उसे चुनकर कोई गलती नहीं की थी मैंने। 

पूजा ख़तम कर के जब उसने आँखे खोली और मुझे देखा तो, मुस्कुरा दी, थोड़ा शर्मिंदा होते हुए बोली कि, "शादी के दो दिन पहले से रस्मों के कारण सो नहीं सकी थी ठीक से, कल आपका इंतज़ार करते कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला, सॉरी। आपने भी कल कुछ खाया नहीं, कुछ नाश्ता बनाती हूँ, आप मुँह-हाथ धोकर आजाइए।" मैं उसके सहज से व्यवहार को देख कर हैरान था। किस किस्म की लड़की है ये? मुझ पर कोई गुस्सा नहीं कोई शिकायत नहीं… मैंने इसे सज़ा देने में कोई कमी नहीं छोड़ी थी, और एक ये है इतनी समान्य जैसे कुछ हुआ ही नहीं। 

दिन में मैं उसके साथ बैठा रहा, बातें करता रहा, उसे समझने की कोशिश करता रहा। उसने बताया कि आज उसके भाई आयेंगे, पग फेरे के लिए मायके जाना है… एक बार फिर मेहनत से सम्हाला गुस्सा फट पड़ा था, मेरा वज़ूद जैसे जल उठा था। फिर कितनी आसानी से इसने मुझे अपमानित कर दिया? मैं गुस्से में उठ कर बाहर ही नहीं घर से भी निकल आया। मुझे अपनी शादी एक हादसा लग रही थी। ऐसा लगता था कि मुझे अपमानित करने का गहरा षड्यंत्र रचा गया था। साँप के मुँह में फंसे छछूंदर की हालत थी। अपने ऊपर मैं लानत भेज रहा था, शर्म या अपमान या क्रोध या क्षोभ या.. कौन सा भाव था मन में, सारा संसार जैसे उलट- पलट गया था, एक अजीब भंवर में फंसा था जिससे मुक्ति का रास्ता नहीं सूझ रहा था। 

अचानक पीछे से भाई की आवाज आयी, "भाई घर चलो, बिना कहे क्यों चले आये, माँ परेशान हो रही है। तुम्हारे साले साहब आये हुए हैं। कल भाभी को पग फेरे के लिए मायके जाना है, साथ देने के लिए कुछ फल - मिठाई भी खरीदनी है, चलो गाड़ी में बैठो।" मैं अपने को सम्हाल कर वापस आ गया। सभी के साथ नॉर्मल हो कर बात करने की कोशिश करता रहा। रात में मैं चुपचाप कमरे में जाकर सो गया, वो भी कुछ नहीं बोली, चुप सी जाकर कालीन पर सो गयी। 

बड़े सुबह वह तैयार हो कर चाय ले कर आयी। धीरे से कहा," वापस आने पर 'कुछ' तैयारी रखना, अभी तो शादी का पता ही नहीं चला।" कहते हुए शरारत से मुस्करा दी। लेकिन मेरे सुलगते हुए दर्प पर इसने घी का काम किया। मैं उन लोगों को स्टेशन तक छोड़ने भी नहीं गया न जाती हुई पत्नी को पलट कर देखा। यूँ तो मुझे दो दिन के अंदर उसे मायके से ले आना था, पर मैं ऑफ़िस में काम का बहाना करके वापस इलाहाबाद चला गया। 

माँ ने कई बार बहू को विदा कराने की बात फोन पर कही, लेकिन मैं बहाने बना कर टालता रहा। पच्चीस दिन बीत गये, मैं इंतज़ार करता रहा कि शायद उसका फोन या चिट्ठी आये, मुझसे कहे कि तुम्हारी याद आती है, कब आओगे? लेकिन इंतज़ार बस इंतज़ार रहा। 

एक दिन पिता का निर्णायक फोन आया कि कल जाकर बहू को विदा करा कर लाओ। रिश्तेदार और मोहल्ले वाले कुछ खुसुर-पुसुर कर रहे हैं। हार कर मैं अपनी ससुराल गया और उसे विदा करा कर वापस ट्रेन में बैठा। बहुत उदासीन था मैं, लेकिन पत्नी ने धीरे से पर्स खोल कर मुझे कॉन्ट्रासेप्टिव पिल्स दिखायीं, और धीरे से आँख मारी। मुझे गुस्सा तो बहुत आ रहा था, लेकिन उसकी इस अदा से मन नाच उठा और धीरे से उसने उसे कंधों पर हाथ रख कर अपने से सटा लिया… वो मुस्कुराती हुई मेरे पास आ गयी। 

घर पहुँच कर शादी के सत्ताईस दिन बाद मेरी सुहागरात हुई। यूँ तो मैं खुश था लेकिन अभी तक का चोट खाया अभिमान मुझे बदला लेने को उकसा रहा था। मैंने कुछ अधिक हिंसक हो कर रति क्रिया की। बीवी को चोट पहुँचा कर मेरे अहात पौरुष को पर पीड़ा का सुख मिला। उसने चुपचाप सब सह लिया कुछ प्रतिरोध नहीं किया। दूसरे दिन वह दर्द में दिख रही थी, चलने में उसे तकलीफ़ है, साफ़ दिख रहा था… लेकिन मैं खुश था… मैंने अपने अपमान का कुछ तो बदला लिया, मेरे चोट खाए अहंकार पर मानो मरहम लग रहा था। 

फिर तो यह अन्तहीन सिलसिला बन गया। मैं अपनी बीवी को बात बे बात चोट करने से नहीं चूकता। उसके पहनने-ओढ़ने से ले कर खाना बनाने तक। कहीं बाहर जाने पर बाज़ार में कहीं भी उसे कुछ कह कर अपमानित करता और अपने मन में ख़ुश होता था। जिस बात से भी लगता कि पत्नी दुःखी होगी वही करता। खाना खाने के लिए उसे घंटों इंतज़ार कराता। यूँ वह खाना बहुत स्वादिष्ट बनाती थी, पर मैं कभी तारीफ़ नहीं करता उल्टा किसी भी चीज़ की बुराई कर के थाली छोड़ कर या कई बार थाली फेंक कर उठ जाता। 

कहीं बाहर जाने के लिए जब तैयार होते तो निकलने से पहले उसके कपड़ों के रंग या क्वालिटी या पहनने के ढंग की आलोचना कर के उसे कपड़े बदलने को मजबूर करता। अगर वह दुःखी होती तो उसे मनाने का नाटक कर के शाम को तैयार रहने के लिए कहता कि पिक्चर चलेंगे… फिर देर रात ऑफ़िस से लौटता और एक बार भी माफ़ी नहीं माँगता। अगर वो कुछ शिकायत करती तो सीधे कहता था, "यहाँ नहीं अच्छा लगता तो बाप को बुला देता हूं, चली जाओ मायके, वहीं रहो, यहाँ रहना है तो तमीज़ से मुँह बन्द कर के रहो। तुम्हारे बाप का दिया नहीं खाता" 

धीरे-धीरे हर बात में उसको दुःखी करना चोट पहुँचाना मेरी आदत बन गयी। मुझे इसमें एक क्रूर आनंदआता, मेरा अहम सुखी होता। 

दिन बीते, मेरा पहला बेटा हुआ। अब बच्चे के पालने को लेकर रोज़ मैं उसे किसी न किसी बात पर टोकता और उसके रोने तक नहीं रुकता। जब वह रोती तो मैं घर से निकल जाता और जान बूझ कर देर रात आता। उसे पीड़ित करने में अजीब सा सुख मिलता। बच्चा बड़ा हो रहा था, उसको अगर उसकी माँ किसी बात के लिए टोकती तो मैं बच्चे को वही काम करने को कहता और उसे सुना-सुना कर बच्चे के सामने माँ की बुराई करता। अकेले में उसे माँ का कहना न मानने के लिये सिखाता । अब बच्चा भी अपनी माँ को धमकी देता था कि आप जो मुझे रोकोगी तो मैं पापा को बता दूँगा, फिर वो तुम्हें डॉंटेंगे, मुझे बड़ा मज़ा आयेगा। बच्चे की उद्दंडता पर अक्सर वह मुझे समझाने की कोशिश करती मैं उसे ही डाँट लेता कि, दिनभर तुम उसे उल्टा सीधा समझाती रहती हो, फिर इल्ज़ाम मेरे पर, मैं घर में कितनी देर रहता ही हूँ?"

फिर दूसरा बच्चा हुआ, इस बार बेटी। मुझे बेटी में यूँ ही कोई दिलचस्पी नहीं थी तो उसके बीच मैं कुछ नहीं बोलता था। बेटा बहुत उद्दण्ड हो गया था, कई बार स्कूल से शिकायत आने पर मुझे अपनी पत्नी को झाड़ने का और मौका मिल जाता था। एकाध बार पत्नी ने कुछ गुस्सा दिखाया तो मैंने उसे बाप के घर भेज देने की धमकी दी। फिर उसने वैसी कोई बात नहीं की, मेरी जीत हुई थी, मैंने उसे चुप करा दिया था। 

शादी के समय की सुन्दर खिली-खिली रहने वाली मेरी बीवी अब चुप और बुझी सी रहती, उसके साथ सेक्स करता तो वह बिना प्रतिरोध के पड़ी रहती, मुझे बलात्कार करने जैसा सुख महसूस होता और शादी के बाद अपने अपमान का बदला लेने की संतुष्टि होती। 

समय बीतने के साथ हमारे बीच पति-पत्नी का रिश्ता नहीं, शासक-शासित का रिश्ता बन गया। यह स्थिति मुझे बहुत प्रिय लगती। उसे जिस बात से खुशी मिलती मैं उन्हें ख़तम करता गया। उसे मायके नहीं भेजता, किसी से दोस्ती नहीं करने देता। कोई पड़ोसन भी कभी मिलने आ जाती तो मैं कहता कि, "औरतों के पॅंवारे का बच्चों पर ख़राब असर पड़ेगा, किसी को घर नहीं आने देना।" 

मायका, दोस्त घूमना-फिरना सभी कुछ धीरे-धीरे मैंने बन्द करा दिया। खाने के लिए बैठने पर किसी भी चीज़ को लेकर व्यंग्य करने से नहीं चूकता। उसे सताना मेरा प्रिय शग़ल बन गया था। अब बेटा भी मेरी हाँ में हाँ मिलता जिससे मुझे एक अजीब खुशी मिलती। 

जब वह डिप्रेशन में चिड़चिड़ाती, महीनों बीमार रहती, मैं कभी उसका हाल नहीं पूछता। बस नौकरी के बहाने बाहर रहता। देर रात घर आता। खाना खा कर आराम से टी वी देखता और सो जाता। वह सभी कुछ कैसे सम्भाल रही है, मैंने कभी इसकी परवाह नहीं की। मुझे नतीजों से मतलब रहता। कोई चीज़ ख़राब होती मैं उसे डाँटता। उसके दबने से मेरी हिम्मत बढ़ गयी थी, अब मैं उसे मार भी देता था। मेरे दिल में लगी बदले की आग जैसे बुझने का नाम नहीं लेती, दिन पर दिन और भड़कती जाती। बेटी माँ से बहुत प्यार और सहानुभूति रखती, बेटा उसका हिसाब बराबर कर देता। बात-बात पर पीट देना, रुलाने तक चिढ़ाना वगैरह चलता रहता। कई बार जब माँ-बेटी मिल कर रोतीं तो हम बाप-बेटे घूमने निकल जाते, बाहर खा कर मज़े करके लौटते। वह खाना लिये भूखी बैठी रहती। कई बार बिना खाये सो जाती। मुझे कोई फर्क़ नहीं पड़ता था। 

बेटा इधर कुछ ज़्यादा उच्छृंखल हो रहा था, क्लास में ख़राब नंबर, मार-पीट आदि की शिकायतें स्कूल से आती रहतीं और मैं सबकी जिम्मेदारी माँ पर डाल कर उसे खूब डाँटता। जब वह दसवीं में आ गया तो लड़कियों के लेकर भी कुछ किस्से शुरू हुए। अब मुझे उसकी चिंता होने लगी थी। ट्यूशन लगा कर, सिफारिश कर के किसी तरह उसे पढ़ाया, और राम-राम करके उसे एक इज़्ज़त की नौकरी मिल गयी। 

बेटी पढ़ने में बहुत अच्छी थी। माँ उसके लिये हर संभव कोशिश करती कि भाई की तरह वह भी ग़लत रास्ते न ले। उन दोनों की कोशिश का मैं अक्सर मज़ाक उड़ाता था। लेकिन बेटी वास्तव में बहुत अच्छा कर रही थी। मेडिकल में पहली बार में सेलेक्ट हो कर उसने एम.बी.बी.एस. किया। एक बार में ही पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए भी उसका चुनाव हो गया। गायनॉकलॉजी में एम. डी. भी किया। अब मेदांता अस्पताल में नौकरी कर रही है। भाई से वह दूर ही रहती है, माँ के लिए अब वह अक्सर मेरे से भी झगड़ा कर लेती है।

   मैं रिटायर हो गया। बेटा अब दूसरे शहर में नौकरी कर रहा था, घर पर कम ही आता। आये दिन इस या उस लड़की के साथ कुछ दिन प्यार फिर झगड़े की ख़बरें मिलतीं। मैं सोचता रहा कि बड़े होकर जिम्मेदार जगह नौकरी कर के वह सुधर जायेगा, लेकिन कुछ भी ठीक होता नहीं दिख रहा था। मेरे और बीवी के बीच अब बातचीत भी जरूरत तक सीमित हो गयी थी। वह केवल अपनी बेटी से ही बात करती और बेटी उसे, जीवन में ठीक से कैसे जीना है, ये समझाती। माँ के लिए अब वो मेरे से लड़ाई तक कर लेती, अक्सर कहती कि, "अब आपने माँ के साथ कुछ ज्यादती की तो मैं माँ को ले जाऊँगी।" लेकिन मैं जानता था कि उसकी माँ के मन में मेरे लिये इतना खौफ़ है कि वह हर हाल में मेरे साथ ही रहेगी। मेरे अलावा कहीं जाने की उसकी हिम्मत ही नहीं है। 

अभी चार दिन पहले, रात के तीन बजे अचानक फोन बजा, पता चला कि बेटे ने उस लड़की के साथ मारपीट की है, जिसके साथ वह शादी करने के लिए सोच रहा था। लड़की ने पुलिस में शिकायत कर दी, बेटा हवालात में है। बेटे की बात सुन कर, उसकी माँ बहुत परेशान थी। जगह-जगह फोन कर के उसको छुड़ाने के लिए कोशिश कर रही थी। मैं हमेशा की तरह केवल गुस्से में था। मेरी बीवी ने जब बेटे के बारे में बात करनी चाही, तो अपनी आदत से मजबूर मैं उसे डाँटने लगा। उसने कुछ देर मुझे समझाने की कोशिश की, लेकिन मैं चिल्लाता गया। उसी को क़ुसूरवार ठहराते हुए कहा कि, "ये सब उसने कहाँ से सीखा? तुमने ही तो पाले हैं बच्चे, यही शिक्षा दी है… अब क्या परेशानी का ढोंग कर रही हो? मुझे कुछ नहीं सुनाना… चुप रहो।" 

पर अचानक आज वो बोल पड़ी, "बच्चे घर से सीखते हैं, सही कहा। जब जिन्दगी भर उसने अपने बाप को देखा, अपनी माँ को हर बात पर डाँटते, बिना कारण मारते, तो वह क्या सीखेगा? यही कि, औरत की कोई इज़्ज़त नहीं होती है, उसे जब मर्ज़ी हो मारा जा सकता है, बेइज़्ज़त किया जा सकता है। औरत कभी पलट कर जवाब नहीं देती… यही देख कर बड़ा हुआ है तो वही करेगा न! अब आप भी समझ जाइए, बहुत हुआ डांटना - मारना। अभी बेटे के खिलाफ़ रिपोर्ट हुई है, अब कुछ भी बदतमीजी की तो एक रिपोर्ट बाप के खिलाफ़ भी होगी… फिर बाप - बेटे जेल में बैठ कर वहाँ की रोटियाँ तोड़ना। बहुत सह लिया, बहुत मुँह बन्द रख लिया। अब मेरे भी माँ - बाप मर चुके हैं, उनकी इज़्ज़त उतारने का सुख आपको नहीं मिलेगा। अब एक भी ग़लत शब्द कहा तो मैं भी रिपोर्ट कर दूँगी। स्मार्ट फोन में रिकार्डिंग बहुत आसानी से होती है, बहुत कुछ है सुनाने के लिए मेरे पास है। एक बार घर से बाहर बात गयी तो आपकी खैर नहीं…

गाय की तरह सब सह जाने वाली बीवी को सुन कर मैं स्तब्ध रह गया। बेटा तो हवालात में है ही, अगर इसने जैसा कहा, वैसा कर दिया तो क्या होगा…? एक बार फिर मैं शादी के बाद वाली मनःस्थिति में पहुँच गया था। मेरी खुली आँखों से कुछ नहीं सूझ रहा था, कानों में जैसे सीटी सी बज रही थी, कुछ सुनायी नहीं दे रहा था… 



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