कब तक?
कब तक?
"फर्क़ क्या रहा, तुम में और सड़क पर जुमले उछालने वालों में? उन्हें भी शक़्ल, सेक्स और गोरी चमड़ी दिखती है और तुम्हें भी? कोई अनपढ़, गँवार, कम बुद्धि की मादा जाति तुम्हें उत्तेजित करने के लिए पर्याप्त है? तुम्हारे लिए भी स्त्री केवल योनि है?"
मैंने क्या सोचा था कि, एक देश - विदेश में प्रसिद्ध वक्ता, बहुतेरे सम्मानों से सम्मानित। जिसकी प्रज्ञा ने मुझे प्रभावित और आकर्षित किया था, उसके लिए भी मैं मात्र एक सुन्दर शरीर। एक मादा प्रजाति हूँ, जिसके साथ सिर्फ़ यौन सुख लिया जा सकता है? यह बात लेखिनी ने कही नहीं थी, सिर्फ़ मन में सोची थी, आज भास्कर से बात होने के बाद, बहुत दुःखी थी और क्रोधित भी। वर्ष भर हजारों मील दूर बैठ कर भी कितनी अन्तरंगता और प्यार था, एक दूसरे से मिलने की व्याकुल प्रतीक्षा थी। अब जबकि मात्र पाँच दिन में भारत आकर उससे मिलने वाला था, उसी के ठीक पहले इस तरह की अपमानजनक बातें, सोच भी नहीं सकती थी।
वह लगातार ख़ुद से बात कर रही थी… क्या मैंने यही सोचा था? मैं, जिसने अपने रूप पर नहीं, बल्कि अपनी शारीरिक क्षमता और फिटनेस पर, बुद्धि पर, योग्यता पर और व्यक्तित्व पर काम किया था ? प्रभावी बोल-चाल, अच्छा ह्यूमर, सुरुचि पूर्ण पहनावे को जीवन का ढंग बना लिया था । समान्य महिलाओं की छवि से अलग एक प्रभाव पूर्ण और तेजस्वी छवि बनाई, उसका कोई भी अर्थ इस पढ़े-लिखे, जनता में ओजस्वी माने जाने वक्ता, विचारक, मोटिवेशनल स्पीकर लिए नहीं है?
दिनभर दिहाड़ी करके शाम को शरीर की भूख के लिए किसी भी स्त्री के साथ मैथुन करने वाले मजदूर और भास्कर में क्या फर्क़ रह गया? लेखनी हतप्रभ थी। क़रीब एक वर्ष पहले वो भास्कर से एक अंतर्राष्ट्रीय वेबिनार में मिली थी। वह भास्कर के प्रभावी वक्तव्य, चिंतन और व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुई थी। लेखनी भी भीड़ में अलग दिखती थी तो भास्कर भी उसकी ओर खिंचा था।
भास्कर की आवाज़ बहुत अच्छी थी, विचारक, वक्ता तो था ही। बोलने का अंदाज़ ऐसा था कि हर देश में जहाँ भी उसके कार्यक्रम होते, हजारों लोग उसे सुनने आते थे। स्पीकिंग ट्री, फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर आदि सभी सोशल प्लेटफार्म पर कई हज़ार फ़ालोवर थे। चामत्कारिक रूप से प्रभावशाली और हैंडसम था। इतनी प्रसिद्ध और लोकप्रियता के बाद भी वह बेहद हँसमुख और मिलनसार था। छोटे से छोटे प्रशंसक की चैट का जवाब देना, आटोग्राफ देना, किसी जिज्ञासा के लिए यदि कोई बात करने का अनुरोध करता तो फोन कर लेना, उसे भीड़ से अलग और विशेष बनाता था। यानी जनता को आकर्षित करने का जादू सा था उसमें। महिलाएं तो उसपर हद से ज़्यादा फ़िदा रहती थीं।
लेखनी भी प्रभावित थी या यूँ कहें आकर्षित थी। उसके भी मन में भास्कर से मित्रता करने की इच्छा नहीं लालसा थी। भास्कर का एक अंतर्राष्ट्रीय ह्वाट्सएप समूह था l लेखनी को भास्कर ने उसमें शामिल कर लिया था, फ़ेसबुक पर भी। उसकी व्हाट्सैप और फेसबुक की सभी पोस्ट पर वह कमेन्ट और प्रतिक्रिया लिखती, वह भी ऐसी जो भीड़ से अलग और विशेष हों। ऐसी ही किसी टिप्पणी को पढ़ कर, भास्कर ने लिखा था, "फोन पर बात करते हैं"। लेखनी इतनी खुश थी कि दिन भर फोन सीने से चिपका कर घूमती रही थी। फिर भास्कर का फोन आया था, धड़कते दिल से लेखनी ने फोन उठाया था, नमस्ते सर, के साथ जो बातें शुरू हुईं तो बहुत देर तक चलीं, और मित्रवत संवादों के साथ पूरी हुईं। धीरे-धीरे ग्रुप के अलावा निजी नम्बर पर मैसेज और बातें होने लगी थीं। बातों का सिलसिला परिचय से आत्मीयता तक कब पहुंच गया इसका लेखनी को पता ही नहीं चला।
ये नहीं कि वह दोनों युवा थे, भास्कर अपने छटे दशक में था, दो विवाह से पैदा हुए तीन जवान बच्चों का पिता, एक पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी, दूसरा विवाह निभा नहीं था। उसके बाद से वह अकेला ही रहा। दुःखी था पर उसने अपनी खुशमिजाज़ी, अपनी फिटनेस और अपने सुरुचि पूर्ण व्यक्तित्व को सम्हाल कर रखा था। पहले वह विदेश में भारतीय हाई कमीशन में काम करता था। लेकिन दूसरे विवाह की असफलता के बाद दुनिया से दुःखी होकर नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। डिप्रेशन में कुछ दिनों तो वह वाशिंग्टन में ही घर में पड़ा रहा। लेकिन कुछ दिनों बाद सरकारी घर छोड़ना था। सामान अपने दोस्त के वेयरहाउस में रख कर, वह देश-विदेश में घूमता रहा। इस बीच कभी-कभी दोस्तों के साथ बातें करते हुए, व्हिस्की के एक दो पेग पीने के बाद, किसी बात पर बहस हो जाने पर जब वह बोलता तो धाराप्रवाह बोलता ही जाता। ये बातें इतनी गहरी और सारगर्भित होती थीं कि भौचक्के से मित्र उसे चुपचाप सुनते रह जाते थे। ऐसी ही किसी बैठक के बाद, उसके एक लंगोटिया यार रोहित ने, उसे मोटिवेशनल स्पीकर बनने की सलाह दी। इस बात पर बहुत समय बाद भास्कर खुल कर हँस दिया था और बहुत देर तक हँसता रहा था। उसने बात को मज़ाक में उड़ा दिया।
लेकिन कुछ ही दिन बाद जब वह लन्दन में था, टावर ब्रिज के पास एक हादसा हो गया। अजीब अफरातफरी मची थी, भास्कर भी वहीं पास में था। शोरगुल सुन कर वह उस जगह पहुँचा। लोगों की भयभीत स्थिति देख कर, सभी को शान्त करने के उद्देश्य से भास्कर ने बोलना शुरू किया। कुछ देर बाद ही स्थिति काफ़ी नियंत्रित हो गयी थी। लोग भगदड़ छोड़ कर भास्कर को सुन रहे थे। किसी ने 999 पर फोन कर दिया था। पुलिस के पहुँचने तक भीड़ नियंत्रित थी, सभी भास्कर की बातें सुनते हुए शान्त खड़े थे।
इस घटना के बाद भास्कर को यह एहसास हुआ कि उसके अन्दर कोई तो बात है…
उसने अपने मित्र रोहित को फोन किया और दोनों वीरस्वामी रेस्तरां में मिले। जहाँ दोनों ने इस विषय पर बात की। रोहित बहुत खुश था, उसका प्यारा दोस्त डिप्रेशन से उबर रहा था। पिछले पच्चीस वर्षों से वह लंदन में रहा था, भारतीय कला के व्यापारी के रूप में। उसके परिचय का क्षेत्र बहुत बड़ा था। रोहित ने गौर किया अपने जानेमाने संपर्कों को खंगाला। एक भारतीय मूल का इवेंट मैनेजर, असगर, अभी पिछ्ली आर्ट प्रदर्शनी में अपना विजिटिंग कार्ड छोड़कर कर गया था। रोहित ने उसे फोन किया और भास्कर का परिचय देते हुए, उसे मोटिवेशनल स्पीकर के रूप में प्रस्तुत करने का सुझाव दिया। सोचने का समय माँग कर असगर ने फोन काट दिया। लेकिन दूसरे ही दिन चहकते हुए असगर का फोन आया। उसने बताया कि ब्रिटेन में नहीं, शिकागो के परमानेन्ट मेमोरियल आर्ट पैलेस में भास्कर के भाषण का आयोजन करने का विचार है। यहीं पर विवेकानंद ने अपना पहला भाषण, विश्व धर्म संसद में दिया था। कुछ देर के लिए भावी खर्च और दिक्कतों के बारे में सोच कर रोहित चुप रह गया। उसे दुविधा में देख कर असगर ने ही बताया कि इसमे ज़्यादा खर्च नहीं होगा, क्योंकि भारतीय वक्ताओं को, मैत्री पखवाड़े के तहत बड़ी छूट मिल रही थी। फिर क्या था, भास्कर का नाम दे दिया गया। भाग्य साथ था, स्वीकृति भी मिल गयी। "वसुधैव कुटुम्बकम्" की संकल्पना पर भास्कर के व्याख्यान को श्रोता मंत्रमुग्ध सुनते रहे। यहीं से आरम्भ हुई थी भास्कर की यह नयी यात्रा। जिसमें वह बहुत दूर तक चलते हुए, एक विश्व प्रसिद्ध व्यक्तित्व बन गया था।
इसी भास्कर से लेखनी प्रभावित थी। लेखनी अपने पांचवें दशक में थी, उसका भी परिवार था, पति और एक शादीशुदा बेटी थी। दोनों का इतिवृत एक दूसरे को पता था। किसी ने कोई बात एक दूसरे से छिपाई नहीं थी। दोनों एक दूसरे के सच से वाकिफ़ थे।
ऐसा नहीं था कि दोनों के चरित्र में कोई दोष था, बस एक बहुत मेच्योर सी दोस्ती या यूँ कहें प्यार था, आपसी समझ के साथ। लेखनी को खुले आकाश की तलाश थी, एक ऐसा दोस्त चाहिए था जो उसे समझ सके। उसको एक व्यक्ति की तरह महत्व दे सके। जिससे वह उन बातों को भी कर सके जो समान्य बुद्धि की जनता के साथ नहीं कर पाती। अपने मानसिक स्तर के बहुत कम लोग टकराते थे। इसलिए उसे ऐसे हमजुबाँ लोगों की खोज रहती थी। इस जरूरत को भास्कर पूरा करता था। वह स्वयं सुन्दर थी, बात करने में पटु और बहुत मेंटेन थी। उसका व्यक्तित्व पुरुषों को शुरू से ही आकर्षित करता रहा था, यह बात उसे भी पता थी। लेकिन वह अपने में मस्त रहती थी और ऐसे दिलफेंक आशिकों को अपनी औकात में रखना जानती थी।
उसने एक सपाट जिन्दगी जी थी। पढ़ाई लिखाई के अलावा,नृत्य, नाटक, खेल, डिबेट, पेंटिंग और संगीत में रुचि थी। इसलिए जिस भी स्कूल, कॉलेज या यूनिवर्सिटी में रही, लोगों के बीच पहचानी जाती थी, ऐसे में बहुत से मनचलों से उसका पाला पड़ता रहता था। फिर भी कभी उसने किसी को घास नहीं डाली थी।
उसके विचार समय से आगे चलते थे। वह शादी-ब्याह या बच्चों वाली जिन्दगी नहीं चाहती थी। इसीलिए वह प्यार- मोहब्बत के मामलों से बहुत दूर रहती थी। रिसर्च पूरी करके नौकरी करने का विचार था, जिससे एक आत्म निर्भर ज़िन्दगी जी सके। जिन्दगी को भरपूर जीने और महसूस करने का उसे यही रास्ता सही लगता था। मुक्त, अकेली और आत्मनिर्भर। आज से तीस साल पहले, कोई उसकी यह बात समझने को कहाँ, सुनने को भी तैयार नहीं था। घर में इस बात को लेकर रोज़ बहस होती थीं, सभी उसे शादी करने के लिए समझाते रहते थे ।
उसकी रिसर्च भी, गाइड के अड़ियल और ओछे व्यावहार के कारण, पूरी नहीं हो सकी। नौकरी करने के सभी रास्ते, परिवार के दबाव में, बंद हो गए। अखिरकार उसने हथियार डाल दिये और उसकी शादी एक धनी परिवार में हो गई। वहां भी उसे स्वावलंबी होने की अनुमति नहीं मिली। उसने भी परिस्थितियों से समझौता कर लिया और घर-गृहस्थी को अपना जीवन मान लिया। पति व्यवसायी थे, देश-विदेश में व्यापार फैला था। घर पर कम ही रहते थे। जहाँ लेखनी कला, साहित्य और भावनाओं में बहती रहती वहाँ पति शुद्ध भौतिकता में। हर बात नफ़ा-नुक़सान के आधार पर तय होती थी, यहाँ तक की आपसी बातचीत भी। जहाँ लेखनी एक्सट्रोवर्ट थी, पति बेहद अंतर्मुखी। जहां लेखनी घूमने-फिरने, पिक्चर देखने को उत्सुक रहती, वहीं इतनी यात्राओं से थके पति को घर से निकले की भी इच्छा नहीं होती थी। बाहर निकले पर भुट्टे, चाट और मूँगफली खाने में जो आनंद उसे आता, पति का पाश्चात्य सभ्यता वाला रूप उसे 'अनहाइजिनिक' कह कर ख़ारिज कर देता। हिन्दी फ़िल्में उसे बकवास लगतीं, अंग्रेज़ी लेखनी को समझ में नहीं आतीं। इसी तरह बच्चे को पालने, पहनने-ओढ़ने से लेकर बातचीत, खानपान सभी में इतना अलगाव और टकराहट थी कि दोनों के रिश्तों में भी दरार पड़ने लगी। कई बार बातें तलाक तक पहुँची पर माँ-बाप के कड़े अनुशासन से बात ख़त्म हो गयी। अब दोनों के बीच एक अबोला समझौता हो गया, एक दूसरे को बर्दाश्त करने का। एक घर में ही दोनों का आसमान अलग था। यूँ भी वह अधिकतर बाहर रहता था, अब घर में भी बाहरी की तरह रहने लगा। लेखनी के लिए दिन काटना मुश्किल होता था, पति को उसकी दोस्तों का घर आना या उसका कहीं बाहर जाना, कट्टी या पार्टी करना अच्छा नहीं लगता था। समझौते करते-करते लेखनी कुन्द होती गयी। अवसाद की रोगी हो गयी, यहाँ तक कि अपनी जान लेने की कोशिश की थी उसने। लेकिन दुर्भाग्य से बच गयी। अब वह बस साँस लिये जा रही थी, सब कुछ भूल कर, ज़िन्दा लाश बनकर।
इतनी विषम परिस्थितियों में वो ख़ुद को भूल गयी थी, तो महत्वाकांक्षा मृतप्राय हो गयी थीं। बच्ची के बड़े होने के बाद, समय काटे नहीं काटता था। अब घर में कंप्यूटर आ गया था। उत्सुकता से उसने कम्प्यूटर खोलना सीखा और धीरे-धीरे सीखने लगी। कम्प्यूटर पर काम करते हुए उसे घंटों बीत जाते। क्योंकि कोई सिखाने या बताने वाला नहीं था। लेकिन समय की उसे चिंता ही कब थी, समय काटना ही उसका उद्देश्य था वो कट रहा था। इसी लिये लगभग एक साल में उसने काफ़ी प्रगति कर ली। फेसबुक जॉइन किया तो बहुत अच्छा लगा। घर की दीवारों में ही एक खिड़की खुल गई, जिससे बाहर की दुनिया दिखने लगी। फिर तो कम्प्यूटर उसके लिए नशा हो गया। कभी-कभी तो अठारह, बीस घंटों तक बैठी इस-उस सॉफ्ट वेयर के साथ माथापच्ची करती रहती। अब उसके मन में एक बार फिर अपनी पहचान खोजने की इच्छा ने सिर उठाया था। एक बार उसने फिर जीने की कोशिश शुरू की। घर के अंदर रह कर ऑनलाइन बाहर से जुड़ना आपत्ति का कारण नहीं बना। यद्यपि उसके पति अक्सर कम्प्यूटर और उसके मेल, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि की गहराई से छानबीन कर लेते थे। अब उम्र भी काफी हो गयी थी, ऐसे में अधिक विरोधों का सामना नहीं करना पड़ा था। धीरे-धीरे लेखनी का आत्मविश्वास जागा और उसने अपनी योग्यता को 'पेंट-ब्रश' से शुरू करके 'इलस्ट्रेटर, फोटो-शॉप और काॅरल' तक पहुँचा लिया।
अब उसने अपनी आर्ट को डिजिटल तकनीक से लोगों के बीच भेजना शुरू किया। उसे लोगों के बीच पहचान मिलनी शुरू हुई। आर्ट-वर्क को ऑनलाइन बेंचने से उसे आमदनी होने लगी और उसने पहली बार अपने आप को स्वावलंबी समझा। अपनी इस प्रगति से वह बहुत खुश थी। जब स्वावलंबी हुई तो पति का नियन्त्रण और रोकटोक भी कम हो गयी।
कुछ किताबों के कवर पेज बनाने का प्रोजेक्ट मिला था लेखनी की फ्री लांस बिड को। उसमें कुछ किताबें भास्कर की भी थीं। इसी सिलसिले में उसकी मुलाकात भास्कर से हुई थी और एक नए क्षितिज को जानने की उत्सुकता ने उसे इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया था, जिसकी वज़ह से वह आज क्षुब्ध सी घूम रही थी।
भास्कर के साथ उसका संपर्क केवल ऑन लाइन ही था, क्योंकि वह विदेश में रहता था। दोनों आज तक मिले नहीं थे, एक दूसरे को देखा नहीं था। फोन या सोशल मीडिया पर ही सम्पर्क चलता था। दोनों कितनी ही तरह की बातें करते थे। पुरानी फोटोज़, पहले की पढ़ी किताबें, अपनी बीती जिंदगी, दोस्त, परिवार सभी कुछ शामिल रहता था बातों में। धीरे-धीरे दोनों एक-दूसरे को बहुत अच्छी तरह से समझने लगे थे। दोनों ही मानसिक धरातल इस तरह जुड़ गए थे कि इतने कम समय में भी एक गहरा रिश्ता बन गया था। वह भास्कर के लिए और भास्कर उसके लिए अनिवार्य से बन गये थे। कभी-कभी तो दोनों घंटों बातें करते रहते थे। दोनों की दोस्ती प्यार के हद तक पहुँच गयी थी, कभी-कभी बात के अन्त में भास्कर चुम्बन करने का अभिनय करता फिर हँसने लगता। कई बार भास्कर उससे यह भी कहता कि वह मिस्टर लेखनी बनने को तैयार है। लेखनी इसे बस मज़ाक समझ कर हँस दिया करती थी। भास्कर अक्सर उसे, लव यू, किस यू कहता था। जिसके उत्तर में वह भी उसे लव यू टू कहती, बहुत बार किस करने की भंगिमा भी करती, पर कभी उसके मन में शारीरिक प्यार की बात तक नहीं आयी थी और यहीं चूक गयी थी वह...
आज उसका मोह और मान दोनों ही भंग हुए थे, जब भास्कर ने उसे बताया कि वह केवल उसके रूप से आकर्षित है और वह उससे सेक्स वाले प्यार की अपेक्षा करता है। उसके लिए लेखनी की कला या मानसिक स्तर कोई अहमियत नहीं रखते थे। वह शारीरिक रूप से सुन्दर और आकर्षक थी, यही प्रमुख कारण था, भास्कर की नजदीकियों का। वह भास्कर के लिए एक सुन्दर चेहरा और शरीर थी।
एक बार फिर लेखनी ने ख़ुद से पूछा कि आखिर वह कौन हो सकता है जो उसे सिर्फ़ खूबसूरत औरत न मान कर एक व्यक्तित्व मान पाएगा? जिसके लिए वह सेक्स सिम्बल न होकर एक इन्सान की हैसियत रखती हो …. क्या आजीवन यह यक्ष प्रश्न यूँ ही शून्य में लटकता रहेगा? आखिर कब तक महिला को एक व्यक्ति या व्यक्तित्व नहीं सिर्फ़ एक शरीर माना जाता रहेगा?
क्या ये नज़रिया कभी बदलेगा?