नक्शे कदम

नक्शे कदम

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लोग कहते, देखना, अब ये दोनों भी मां के नक्शे क़दम पर चलेंगी।वे दो बहनें थीं। दोनों बहनों में वह छोटी थी ।उसे समझ नहीं आता था कि ऐसा कहते हुए लोग क्यों घृणा से उनकी ओर देखते थे।

 मां के नक्शे क़दम पर चलना क्यों इतना कटाक्ष का,तिरस्कार का विषय था ? मां, एक कामकाजी महिला थीं, वे पढ़ी- लिखी,सुंदर, सभ्य महिला थीं।समाज में उनकी बहुत इज्ज़त थी,गला तो इतना मधुर कि कीर्तन और सत्संग में उन्हें विशेष तौर से बुलाया जाता और उनके गाए भजन के बगैर पूर्णाहुति नहीं होती थी,फिर मां के जैसा बनने में क्या बुराई थी ?

 मां सुबह घर से निकल जाती थीं ।कन्या स्कूल की अध्यापिका थीं।स्कूल घर से काफी दूर था, वहां पहुंचने के लिए उन्हें दो तीन बस बदलनी पड़ती और लौटना भी उसी तरह होता। घर की देखभाल वे दोनों बहने ही किया करती थीं। शाम को मां थकी - हारी लौटती थीं। वे मां के पांव दबातीं,बालों में तेल लगातीं, दोनों को मां से कोई शिकायत नहीं थी। 

मां का मायके में एक छोटी बहन के सिवा कोई और नहीं था।वे दो बहनें ही थीं,हमारी तरह,फर्क इतना कि उनमें फर्क था 4 साल का और मां और मौसी में

  करीब 10 या 12 साल का। मां अपनी छोटी बहन को बेटी के समान मानती थीं।

एक दिन पता लगा कि मौसी को टी.बी. हो गई है तो मानो उन पर पहाड़ ही टूट पड़ा, वे दूसरे ही दिन उनके घर के लिए रवाना हो गईं, मौसी दूसरे शहर में रहती थीं ।तुरंत डॉक्टर से जांच पड़ताल करवाई, और उनकी तिमारदारी में दिन रात एक कर दिए । उन्हें मौसी के घर कई -कई दिन बिताने पड़े। मगर मौसी की हालत नहीं सुधरनी थी, और नहीं सुधरी किन्तु, उन दोनों बहनों और उनके पिता कि किस्मत जरूर बर्बाद हो गई।

मौसी तीन बेटियां छोड़ कर इस दुनिया को भरी जवानी में अलविदा कह गईं।

मां अपनी दो भांजियों को लेकर लौटीं।अब वे पांच हो गई थीं। मां के पास पहले अपने परिवार के लिए समय नहीं था, किंतु प्यार था।अब उनका रवैया बदलने लगा।धीरे-धीरे बहनोई भी आ गए। बहनोई से उन्होंने शुरू में मां - बेटे का नाता रखा। मगर कब यह नाता मां - बेटे के नाते से एक घिनौने नाते में बदल गया यह उन बच्चों को तो नहीं पता, हां, आसपास और समाज को जरूर पता चल गया। तरह-तरह की बातें होने लगी। 

पिता का मौन, परिस्थितियों के आगे समर्पण या कायरता या सब कुछ वह आज तक नहीं समझ पाई है, और इसी वजह से पिता के लिए सम्मान में कमी आती गई।धीरे -धीरे धीरे मां ने भी, शर्म हया की हद्दें लांघ दी।  

पिता ने दौड़ -धूप करके एक दुहाजू को बड़ी बेटी का हाथ थमा दिया।बहन के उस अंजाम पर उसे बहुत दुःख हुआ,मगर बहन ने कहा, "हमारी मां ऐसी न होतीं और उन मांओं जैसी होतीं जिनके स्नेह,त्याग की कहानियां हमने किताबों में पढ़ी थीं, तो यह नहीं होता !कुछ भी हो हम अपनी राह खुद बनायेंगी, उनके नक्शे क़दम पर चल कर अपने कर्तव्य से भटकेंगी नहीं।हम चलेंगी उस राह कि ज़माना कहेगा, नीम कड़वी होती है,निमोडियां नहीं "।

बहन एक अच्छी पत्नी बनी, नेक मां बनी,अच्छी बहन और अच्छी बेटी तो वह थी ही।


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