निमित्त मात्र
निमित्त मात्र
प्लेटफार्म पर लगभग दौड़ते हुए वे अपने ट्रेन के कोच नम्बर एस पांच तक पहुंचे, गाड़ी ने रफ्तार ले ली थी। गाड़ी की उसी रफ्तार मे वे दरवाज़े की रॉड पकड़ लटक गये। उनका एक पैर पायदान पर और दूसरा पैर हवा में लहरा रहा था। उनकी पीठ पर पिट्ठू बैग लदा था, उसका वजन और गाड़ी की रफ्तार से हवा के तेज झोंके उन्हे बाहर की ओर ढकेल रहे थे। बाहर लहराता दूसरा पैर उनकी लाख कोशिश के बावजूद पायदान पर जम नहीं पा रहा था।अब दोनो हाथों से उन्होने रॉड थाम ली, और शरीर को तेज हवा के हाथो सौंप, भगवान को याद करने लगे। लगा ये ज़िन्दगी का अन्तिम पल है। हार मान ली हो जैसे उन्होने। आखिर वो सिक्सटी प्लस थे। कहाँ तक लड़ पाते नियति से। पीठ पर टँगे पिट्ठू के बोझ से, उनके कंधे से लेकर बायें हाथ की उंगलियों तक मे झनझनाहट होने लगी, लगा जैसे रॉड मे करंट की लहर दौड़ रही हो, रॉड की पकड़ से उन्होने अपना वो हाथ स्वतंत्र कर लिया, वे अधपर हवा में झूल गये। लगने लगा बस ट्रेन से अब गिरे कि तब गिरे, उन्होंने आँखें बंद कर ली। तभी किसी ने मज़बूती के साथ, उनका हाथ, जो रॉड पकड़े था उसे, और फिर दोनो कंधों को पकड़ जोर से अंदर की ओर खींचा, वे कोच के अंदर औंधे पड़े थे। इस घटना को घटने मे पूरा मिनट भी नहीं लगा था। जब सांसे स्थिर हुई, देखा कोच के यात्री उनके आसपास खड़े थे। उन लोगो ने सहारा दे उन्हे उठाया। बर्थ पर बिठाया, पानी दिया। उनकी बर्थ ट्रेन के दरवाज़े के पास थी। वे अब खिड़की से ट्रेन के साथ भागते नज़ारे देखने लगे। थोड़ी देर पहले वे विश्वनाथ टंडन, रिटायर्ड पुलिस ऑफिसर ,उम्र पैसठ साल, जिसे मौत गले लगा रही थी,अब जिन्दगी उन्हे सांसे दे रही थी।
कोच में अभी भी टंडन जी चर्चा का विषय बने हुए थे, कि कैसे उन्हे जीवन दान मिला। टंडन जी ने अपनी दाँयी हथेली पर निगाह डाली, जीवन रेखा बड़ी लम्बी खिंची थी। अपनी दोनो हथेली चूम ली उन्होने। कोच में रश नहीं था। अधिकतर बर्थ खाली थी। लोग अभी भी उनकी ही बातें कर रहे थे कि किस तरह वे आज जिन्दगी और मौत से लड़े। लोग उन्हे बधाई दे रहे थे, नया जीवन मिलने की। पर टंडन जी के मन मे एक ही बात बार बार आ रही थी कि वो कौन था जिसने आज उन्हे मौत के मुँह से बाहर निकाला। आखिर उन्होने पूछ ही लिया लोगो से। और जब उन्हे बताया गया, तो आश्चर्य की सीमा नहीं रही। वो क्या, कोई भी नहीं विश्वास कर पाता। लेकिन सच तो सच है। खरा सच। सौ फीसदी सच। जिसने उनकी जीवन रक्षा की वो महिला उनके सामने की बर्थ पर ही बैठी थी। लम्बे कद की,बलिष्ठ शरीर, उम्र पचास के आसपास, गन्दुमी रंग, माथे पर बड़ी सी सिन्दूर की बिन्दी, गले में कसा मंगलसूत्र, काष्ठा साड़ी में , वो भारतीय नारी का आलौकिक रुप, श्रद्धा नत होने के लिये बाध्य कर दे। टंडन जी ने उनके समक्ष अपने दोनो हाथ जोड़ दिये। इतने भाव विभोर हुए, मुख से एक शब्द न बोल पाये। वो बोली--"तुम मेरे से बहुत बड़े हो, मेरे सामने हाथ काय को जोड़ते। मेरे को, जो उस बखत समझ में आया मैं करी। ऊपर वाले के सामने हाथ जोड़ो । वोइच तुमको बचाया।" वातावरण सामान्य हुआ। कोच के यात्री यथास्थान हो आपस मे गपशप मे मशगूल हो गये। स्थिति इतनी स्थिर हो गई जैसे थोड़े समय पूर्व कुछ हुआ ही नहीं । जीवन और मरण को लेकर आदमी गंभीर तो होता है, पर उसे बोझ की तरह ढोता नहीं अपने मस्तिष्क में।
टंडन जी ने महिला का परिचय लिया ,उसने बताया की वो बहू को उसके मायके लेकर जा रही है, बहू की पहली डिलीवरी है। बेटे को नौकरी मे छुट्टी न मिलने के कारण उसे जाना पड़ रहा है। महिला की बहू सीट पे खिड़की से लगकर बैठी थी । टंडन जी ने उसकी ओर देखा, बहुत मासूम सी, बीसेक साल की होगी। उन्हे अपनी बिटिया याद आ गई, जो इस उम्र मे अपनी पढ़ाई में व्यस्त है। बहू के चेहरे पर पीड़ा साफ झलक रही थी। इस अवस्था में दर्द स्वाभाविक है। शायद समय भी पूरा है इसका। महिला से इस सम्बध में कुछ पूछना उन्हे पुरुषोचित व्यवहार के अनुकूल नहीं लगा। वह महिला भी अपनी बहू का बड़े जतन के साथ पूरा ध्यान रख रही थी। समय और ट्रेन अपनी रफ्तार पर थे। सास और बहू दोनो वॉश रुम की तरफ जा रही थी। सास बहू को सहारा दे कर ले जा रही थी। टंडन जी ने कोई किताब निकाली और पढ़ने मे व्यस्त हो गये। अचानक कोच की गहमा गहमी से उनका ध्यान भंग हुआ।सामने की बर्थ की महिला और उनकी बहू वॉश रूम से लौटे नहीं थे। महिला घबराई सी आकर वॉशरूम की तरफ इशारा कर बोली--बच्चा फँस गया।" बात समझने में पल भी नहीं लगा , टंडन जी और कोच के दो तीन लोग अपनी पत्नियों के साथ वॉश रूम की तरफ भागे। महिलाओं ने उस बच्ची को (महिला की बहू) सम्भाला। बच्चा पॉट में फँसा हुआ था। ईश्वर की कृपा थी, अड़ा हुआ था। अगर फ्लश किया जाता तो बच्चा बह जाता । सबकी सांसे थमी थी। बच्चे की माँ का रो रोकर बुरा हाल था। महिला बार बार ईश्वर का स्मरण कर रही थी। बच्चे के रोने की घुटी आवाजें सबका दिल दहला रही थी। टंडन जी आगे बढ़े ,नीचे बैठ अपने दोनो हाथ आगे बढ़ाये, जरा भी असावधानी, जरा सी चूक ,और नवजात शिशु,ट्रेन के नीचे पटरियों पर। दूसरे ही पल,----सबकी रुकी हुई सांसे वापिस आई। सबके चेहरे पर लौट आई ख़ुशियाँ,कोई कहने लगा,"ईश्वर की लीला"किसी ने कहा "चमत्कार" बच्चा टंडन जी की बाहों में , और वो महिला टंडन जी के चरणों में । बच्चे को साफ कर ,चादर में लपेट उसकी माँ की गोद में दिया , तो वो रो पड़ी ये आँसू खुशी के थे, उसने सीने से लगा लिया नन्ही सी जान को। कोच की महिलायें नवजात शिशु और उसकी माँ की सेवा में लग गई। कोई नहीं कह सकता कि कोच में अनजाने लोग है, सब एक परिवार की तरह जच्चा बच्चा की तीमारदारी में जी जान से लगे थे। पूरा माहौल नव- -शिशु की खुशबू से भर गया। महिला बार बार कृतज्ञता से टंडन जी के सामने हाथ जोड़ती---"भाऊ,आपने बच्चे को बचा लिया, मेरी पोती को बचा लिया, नई तो मैं क्या मुँह दिखाती अपने बेटे को,और बहू के मायके वालो को। आप तो भगवान हो मेरे लिये " उन्होने महिला के दोनो जुड़े हाथों को अपने हाथों में ले लिया, भावविहल हो गये बोले--बहिन ,भगवान न तुम हो,न मैं। शुक्रिया ईश्वर का करो ,बचाने वाला तो वही है, हम तो उसके भेजे हुए निमित्त मात्र है।"