Kishan Dutt Sharma

Inspirational

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Kishan Dutt Sharma

Inspirational

निजता को पहचानें

निजता को पहचानें

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मनुष्य की जो इंटेंशन होती है उसको नियत कहते हैं। जो क्रिया बार बार रिपीट की जाती है उसे आदत कहते हैं। जो आदत बार बार रिपीट की जाती है उसे संस्कार कहते हैं। लेकिन एक चीज और भी है जो व्यावहारिक जगत में इन दोनों से भी भिन्न होती है। वह होती है विस्डम की निजता अर्थात अंतहप्रज्ञा अर्थात अंडरस्टैंडिंग। एक ऐसी अंडरस्टैंडिंग जिसके द्वारा बुद्धि का चीजों को समझने देखने का और उनसे डील करने का एक स्वाभाविक प्रकट होता है। परन्तु हुआ क्या है कि जिनके पास अनुभव कम है या बुद्धि की समझ कम होती है ऐसे लोगों ने इस अंडरस्टैंडिंग को ही नियत या आदत से जोड़ दिया है। जबकि ऐसा नहीं है। आदत या नियत जो होती हैं, वे (पूर्ण अंडरस्टैंडिंग) की तुलना में बहुत ऊपर ऊपर की बातें होती हैं।


  व्यावहारिक जगत की बात हो या आध्यात्मिक जगत की बात हो, सब कुछ बुद्धि पर ही निर्भर होता है। संसार में कर्म जगत की पूरी की पूरी वर्ण या वर्ग व्यवस्था ही बुद्धि की गुणवत्ता के आधार पर ही बनी हुई है। जो आत्मा जिस वर्ण वर्ग व्यवस्था से जन्मों जन्मों से होकर आयी है उसके अंदर वैसी ही बुद्धि अर्थात समझ अधिकांश रूप से इनबिल्ट है ही है। अब इसमें आप करिएगा क्या? इसमें कोई कुछ नहीं कर सकता। अपने अपने संस्कारों के अनुसार कोई कुछ समझता है, कोई कुछ समझता है। *पुनर्जन्म के सिद्धांत के और चेतना के विकासवाद के अनुसार यह बौद्धिकता की सहज समझ का फर्क तो है ही और रहेगा ही। इसमें आप करिएगा क्या? इसमें कोई कुछ नहीं कर सकता। इसलिए उचित यह होता है हर व्यक्ति अपने ही निज स्वभाव में रहे। अपनी निजता को पहचाने और अपनी निजता में रहे।* सबके अपने अपने दृष्टिकोण की भिन्नता के कारण एक दूसरे के बारे में अलग अलग मंतव्य या मान्यताएं तो रहेंगे ही। आप क्या हैं और कैसे है? आप अपनी चेतना का विकास किस तरह कर रहे हैं या कर सकते हैं इस बात को अपने चिंतन का विषय बनाइए और नित नूतन अनुभवों में आगे बढ़ते रहिए।


ऐसा समझिए की दुनिया में असंख्य लोग हैं उनकी विभिन्नता की विचित्रता के बारे में सोचना व्यर्थ ही है। दूसरों के बारे में आपका विवेक पूर्वक होकर सोचना तभी उचित होता है जब आप योग्य हों और आपके पास उनकी एकाउंटेबिलिटी हो। एकाउंटेबिलिटी भी एकगूढ़ विषय है। पर इस संदर्भ में केवल संक्षेप में इतना ही समझ लें कि दूसरे लोगों की एकाउंटेबिलिटी तभी लेनी चाहिए जब आपके अंदर उसको निभाने की क्षमता/योग्यता हो, आपकी उतनी समझ हो और आपकी उतनी समर्थ्यता हो। अन्यथा तो दूसरों के बारे में सोचना, बातें करते रहना व्यर्थ ही है। अन्यथा तो दूसरों की जिम्मेवारी उठाना व्यर्थ ही है और ऐसी एकाउंटेबिलिटी में अनेक प्रकार की आपाधापी कशमकश बेकरारी बेचैनी से भरी होती है। चूंकि यह मनुष्य की गहरी मनोवैज्ञानिकता है वह मान महिमा और सुख चाहता है। ऐसी आकांक्षा से वह संयोग से एकाउंटेबिलिटी तो ले लेता है लेकिन ऐसी एकाउंटेबिलिटी से बहुत गहरे में आप देखेंगे तो लोग स्वयं भी परेशान होते हैं और दूसरों के जीवन में प्रॉबलम क्रिएट करने का कारक बनते हैं। एकाउंटेबिलिटी अपनी पूर्णता में हो अपनी सकारात्मकता में हो अपनी योग्यता/समार्थ्यता में हो तब ही वह सार्थक होती है। विवेक तो यही कहता है।


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