Alisha Haidri

Drama Romance Inspirational Tragedy Abstract Others

4.6  

Alisha Haidri

Drama Romance Inspirational Tragedy Abstract Others

नई शुरुआत

नई शुरुआत

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आज फिर से एक नए दिन की शुरूआत हुई। जिस तरह तेज़ बारिश के बाद सब कुछ साफ़ हो जाता है उसी तरह बहुत सारी बातें साफ़ हो गयीं, दिल के मैल भी साफ़ हो गए और रिश्तों का एक नया ही प्रारूप सामने आया।

हम कब मिले कहाँ मिले अब इससे क्या सरोकार, किन हालात में मिले ये बात ज़्यादा मायने रखती है।

कहने को तो इंसान कुछ भी कह ले पर ये तो सहने वाला इंसान ही बता सकता है कि वो किस दर्द से गुज़रा है।

कुछ इसी दर्द से वो भी गुज़र रहा था उस रोज़। जाने क्या बात थी लाख पूछने पर भी किसी को बताने से गुरेज़ कर रहा था। मेरे वहां पहुँचते ही एकदम से खड़ा होकर वो मेरी ओर आया...

"प्रिया प्लीज़! इस नासूर को जल्दी से मेरे जिस्म से अलग कर दो, मुझसे अब और नहीं सहा जाता।"

"लेकिन इसमें अभी बहुत समय है रोहन! समय से पहले इसे निकालने से तुम्हारी जान को ख़तरा हो सकता है!" मैंने उसे समझाते हुए कहा।

"इस तरह दर्द में जान जाने से तो अच्छा है कि वैसे ही जान चली जाए। तुम कुछ करो ना प्लीज़!" वो दर्द से कराहते हुए बोला।

"अच्छा तुमने पेन किलर ली थी?" मैंने उसका ध्यान बँटाने की कोशिश की।

"तुम्हें लगता है कि अब पेन किलर से कुछ होगा?"

"होता नहीं तो मैं देती ही क्यूँ ?"

"मैं कुछ नहीं जानता बस अब तुम इसे किसी तरह निकाल दो...आज ही"

"रोहन मैं ऐसा नही कर सकती तुम समझते क्यों नहीं? अच्छा ठीक है...तुम आज और मेडिसिन्स ले लो फिर मैं कल देखती हूँ "

मैंने उसे फिर से समझाया और प्रिस्किप्शन लिस्ट में थोड़ा चेंज करके दवा लिख दी लेकिन मुझे पता था अब इससे कोई फ़ायदा नहीं होना। वो चला गया था और मैं बीते हुए दिनों में खो गई।

कभी किसी से मतलब ना रखने वाली, अपनी ही दुनिया में खोई रहने वाली मैं पता नही क्यों उस रोज़ बेवजह ही उससे झगड़ गयी।

"तुम हटो और अपना सामान भी हटाओ! मैं क्यूँ हटाऊँ अपना बैग? वैसे भी ये मेरी बर्थ है!"

" यार! मेरी बर्थ वेटिंग में है अभी बस थोड़े टाइम की तो बात है एडजस्ट कर लो ना थोड़ी देर! पड़ोसी होने के नाते इतना तो कर ही सकती हो,टी.टी.आता है तो मैं कर लूँगा कोई जुगाड़!"

"पड़ोसी माय फ़ुट! उस दिन जब मेरी स्कूटी खराब हुई थी तो तुमने हेल्प की थी मेरी? हाय! कैसे घसीटते हुए ले गयी थी मैं घर तक उसे...हटो!हटो! अभी के अभी हटो यहाँ से"

"प्रिया समझा करो वो तुम्हारे घर के सामने ही तो खराब हुई थी, फ़ौरन ही तो ले गयी थीं तुम उसे...।और मैं इंटरव्यू के लिए भी तो लेट हो रहा था उस वक़्त कैसे हेल्प करता...और फिर ये मत भूलो तुमने सिर्फ़ मुझे जाते हुए देखा था हेल्प नही मांगी थी मुझसे!"

"हे ! हे भगवन! कितना बड़ा झूठा है ये! तो क्या करती? तुम्हारे सामने हाथ जोड़ती पैर पड़ती??"

"देखो प्रिया! अब उन बातों से कोई फायदा नहीं। और फिर वो अपनी कॉलोनी थी, ये ट्रेन है..वहां तुम अपने घर जा सकती थीं यहाँ मैं कहाँ जाऊंगा?"

"कहीं भी जाओ पर मेरी बर्थ से अपने शरीर का बोझ हटाओ!"

"ओके!" 

वो उठा और और अपना सामान समेट कर वहां से जाने लगा तो अचानक ही उसका मायूस चेहरा देखकर मेरी मरी हुई इंसानियत फिर से ज़िंदा हो उठी। 

"अच्छा रुको!"

"नहीं अब कोई ज़रुरत नही मुझ पे एहसान करने की"

"अरे...अच्छा बाबा सॉरी!"

"सॉरी किसलिए ये तुम्हारी बर्थ है"

"ओफ़्फ़ो! तुम तो सचमुच बुरा मान गए! अब कहाँ इस अकेली ट्रेन में सारा टाइम भटकते फिरोगे बैठ जाओ ना!"

"ये अच्छा है! पहले बेइज़्ज़ती करो फिर सॉरी बोलो और फिर ये भी उम्मीद करती हो कि कोई बुरा भी ना माने वाह जी वाह!"

"अब तुम आ रहे हो मेरे साथ या मैं वापस चली जाऊं?"

"आ रहा हूँ ना! मैं जा ही कब रहा था, मुझे पता था तुम कुछ निभाओ ना निभाओ पर अपना मानवता धर्म ज़रूर निभाओगी डॉक्टर जो ठहरी!"

"बाइ गॉड रोहन! बड़े कमीने देखे पर तुम्हारे जैसा कमीना आज तक नहीं देखा!"

"देखोगी भी नहीं, मैं एक ही पीस हूँ ना इसीलिए!"

"हाँ! वो तो नज़र ही आ रहा है!"

"चलो अच्छी बात है इतनी पढ़ाई के बाद भी तुम्हारे चश्मा नही लगा! अच्छा तुम खाने के लिए कुछ लायी हो? मैं जल्दी-जल्दी में रखना भूल गया! "

"अब बर्थ के साथ-साथ खाना भी शेयर करना पड़ेगा क्या ?"

"ऑफकोर्स करना पड़ेगा मेरी सच्ची दोस्त जो ठहरीं!"

"एक्सक्यूज़ मी! तुम शायद भूल कुछ रहे हो,हमारी दोस्ती उसी वक़्त ख़त्म हो गयी थी जिस दिन तुमने अपने उस सो कॉल्ड अफ़ेयर के बारे में छुपाया था! सो अब हम सिर्फ़ पड़ोसी हैं बाक़ी संबंध भूल जाओ "

"ओहो प्रिया! छोड़ो भी गढ़े मुर्दे उखाड़ना, अब पूरा सफर लड़ाई में ही गुज़ार दोगी क्या?"

"मुझे तुम्हारे साथ लड़ने में कोई इंट्रेस्ट नहीं है!"

"तो मत लड़ो ना!"

थोड़ी देर की ख़ामोशी के बाद जब वो सीट से उठा तो मुझे जानने की खुजली हुई।

"अब कहाँ जा रहे हो?"

"अपने लिए चाय लेने, तुम्हें पीनी है? तुम्हारे लिए भी लेके आऊँ?"

"नहीं!"

"ओके!"

थोड़ी देर में जब वो वापस आया तो उसके हाथ में चाय के दो डिस्पोज़ल थे।

"ये लो!"

रोहन मुझे चाय देकर बैठते हुए बोला।

"थैंक्स! तो तुम मुंबई क्यूं जा रहे हो?

यहां जॉब रास नहीं आ रही क्या?"

"नहीं! मुझे अभी बहुत कुछ करना है, इतनी सैलरी में मेरा गुज़ारा नहीं हो पाएगा।"

"हुंह! सीधे क्यूं नहीं बोलते कि अपनी सो कॉल्ड महबूबा से शादी करनी है, फ़ालतू में इतना ड्रामा क्यूं?"

"ओहो प्रिया! तुम फिर शुरू हो गईं। घूम फिर कर तुम्हारी सुई मेरे ही पर्सनल मामलों पर आकर क्यूं अटक जाती है?"

"क्यूंकि तुम्हारे इसी पर्सनल मामले ने हमारा सब कुछ तबाह किया है, पूरा प्लान चौपट हो गया, सब खत्म हो गया, कितनों की एजुकेशन, कितनों का फ्यूचर अंधेरे में चला गया।

"ओफोह प्रिया! तुम तो ऐसे बोल रही हो जैसे मेरे एक प्रॉमिस पे ही उन सबका फ्यूचर डिपेंड था।

मैं नहीं तोड़ता तो ग्रुप में कोई और तोड़ देता उस प्रॉमिस को। आख़िर तुम कैसे रोक सकती है किसी को उसके दिल की करने से?"

वो गुस्से से खीजते हुए बोला।

उसका ये गुस्सा उस संस्था पे था जिसको हमने 20 21साल की उम्र में बनाया था। उसमे 8-10 साल के वो 7 बच्चे थे जिन्हें हमने अपने शहर में चल रहे चाइल्ड लेबरिंग गैंग से छुटकारा दिलाया था और उनकी एजुकेशन की ज़िम्मेदारी ली थी।

हम 5 दोस्तों ने उस फाउंडेशन को शुरू किया इस वादे के साथ कि अपनी उम्र के 30 वर्ष तक हम विवाह नहीं करेंगे और अगर इस बीच अगर कोई करता भी है तो 35 वर्ष पूरे होने तक हम इस संस्था से जुड़े रहेंगे ताकि तब तक वो बच्चे अपने पैरों पर खड़े होने लायक हो जाएं।

4 साल तक तो सब ठीक रहा लेकिन उसके बाद रोहन इस वादे पे ना टिक सका।

एक दिन मैंने उसके फ़ोन पे आने वाली कॉल, मैसेज और फ़ोटो के ज़रिए उसके इस छुपे हुए अफेयर को पकड़ लिया।

"ये सब क्या है रोहन? कौन है ये सृष्टि?"

"ये ग़लत बात है प्रिया!

तुम ऐसे मेरी पर्सनल चीज़ों को हाथ नहीं लगा सकतीं।"

"बात बदलने की कोशिश मत करो रोहन! ये सब क्या हो रहा है? मैं काफ़ी समय से नोटिस भी कर रही हूं, तुम्हारा इंट्रेस्ट भी काम से ख़त्म होता जा रहा है, क्या इसकी वजह यही है?"

मैंने उसे टटोलने की कोशिश की।

उसने बहुत बातें बनाईं लेकिन मैं नहीं मानी, और वो संस्था छोड़ने की ज़िद करने लगा।

बातें बढ़ती गईं, बातों ने झगड़े का रूप ले लिया और उसके पीछे हट जाने के कारण अंत में हमें संस्था बंद करनी पड़ी और उन बच्चों को अनाथालय भेजना पड़ा।

उस घटना के बाद दो वर्षों तक हमारी बात-चीत बंद रही।

एक शहर,एक कॉलोनी में रहते हुए भी मैं उसकी शक्ल भी देखना गवारा नहीं करती थी।

चूंकि मैं एक डॉक्टर थी और बचपन से कुछ ज़्यादा ही सोशल थी इसलिए शायद मुझे इस घटना का कुछ ज़्यादा ही दुख हुआ।

अब इतने अर्से बाद हमारी बात हुई थी वो भी इस सिचुएशन में।

तभी मेरा ध्यान टूटा, मैंने देखा वो अपने गुस्से की चरम सीमा पर था।

"तुमने कभी सोचा है तुम्हारी इस सोशल सर्विस से हम लोगों का फ्यूचर क्या होता? ये मानव सेवा के चक्कर में हम सबका कैरियर अंधेरे में आ जाता।

आख़िर ये कैसी कसम थी कि अपनी आयु के 30 वर्ष पूरे होने के बाद ही हम शादी करेंगे उससे पहले इसका ख्याल भी नहीं लाएंगे अपने दिमाग़ में ?"

"मैंने कुछ सोच समझकर ही ये कंडीशन रखी थी रोहन, 30 साल में तुम कोई बुड्ढे तो नहीं हो जाते, तुम किस समाज में जी रहे हो?"

"उसी समाज में जिस समाज में तुम्हारी उम्र की लड़कियाँ 2 बच्चों की मॉम बन जाती हैं।

हर कोई लड़की तुम्हारी तरह अमीर घराने से नहीं होती,अधिकतर की शादियाँ कर ही दी जाती है 25 वर्ष पूरे होने तक। जबतक तुम्हारी वो समाज सेवा कर रहा होता तब तक उसकी शादी कहीं और कर दी जाती। उसे खोने के डर के कारण मैं ऊब चुका था उस सोशल सर्विस से।"

"हुंह! ये कोई लॉजिक नहीं हुआ।"

मैंने मुंह बनाते हुए बोला।

"तुम क्या जानो किसी को खोने का दर्द क्या होता है, जब कोई दूर हो जाता है ना तो उसे खोने का दर्द इंसान को जीवन भर सताता है।"

"ओहो! अब तुम इन इमोशनल बातों में मुझे मत उलझाओ रोहन! बप्पा जी की सौ! मुझे ज़रा भी इंट्रेस्ट नहीं तुम्हारी इन बातों में।"

कहते हुए मैंने बात को रफ़ा दफा करने की कोशिश की। मुझे भी अब दिलचस्पी नहीं रही इस बारे में बात करने की।

इतने में टी.टी आ गया और रोहन को उसकी सीट की कन्फर्मेशन देकर चला गया।

"ओके प्रिया! मैं चलता हूं ,ज़िंदगी रही तो फिर मिलेंगे।"

इससे पहले मैं कुछ बोलती वो अपना सामान समेटते हुए तेज़ी से चला गया।

मैंने कुछ देर उसकी इस बात के बारे में सोचा लेकिन किसी नतीजे पर ना पहुँचकर आखिरकार मैगज़ीन पढ़ने लगी।

मुंबई पहुँचकर मेरी ड्यूटी वहां एक अच्छे हॉस्पिटल में हो गई, मैं उसी में इतनी बिज़ी हो गई कि मुंबई में होते हुए भी हमारा कभी मिलना नहीं हो पाया।

काफ़ी अरसा बीत गया

सबकुछ सामान्य चल रहा था कि एक दिन अचानक एक मॉल में मुझे पीछे से किसी ने आवाज़ दी।

"हे प्रिया!"

मैंने मुड़कर पीछे देखा, आवाज़ देने वाली कोई और नहीं वो सृष्टि थी।

   

"अरे सृष्टि!

तुम?

कैसी हो?"

"गुड! तुम बताओ।"

"फ़ाइन"

मैंने जवाब दिया और आगे पूछने ही वाली थी कि वो बोली

"कॉफ़ी?"

"ओके!"

"चलो वहां चलते हैं!"

वो कैफेटेरिया की ओर इशारा करते हुए बोली और हम वहां चल दिए।

"मैं तो काफ़ी सरप्राईज हुई तुम्हें यहां देखकर।"

मैंने कॉफ़ी पीते हुए बोला

"हां, मुझे भी ख़ुशी हुई तुमसे मिल कर।"

थोड़ी देर की ख़ामोशी के बाद हम अचानक ही एक साथ बोले

"रोहन कैसा है?"

हम दोनों ने चौंककर एक दूसरे को सवालिया नज़रों से देखा।

"??????"

"ओके! रोहन कैसा है?"

मैंने फिर पूछा।

"तुम उसके बारे में मुझसे पूछ रही हो?"

वो सवालिया नज़रों से देखते हुए बोली।

"हां! तो फिर और किससे पूछना चाहिए?

"तुम उसकी बेस्ट फ्रेंड हो तो तुम्हें पता होगा कि वो कैसा है?"

वो बोली

"सृष्टि! तुम उसकी बीवी हो तो ये सवाल मैं तुम्हीं से तो पूछूंगी?"

"क्या? ये क्या बोल रही हो यार? किसने बोला तुम्हें? क्या उसने ये बोला कि हमारी शादी हो गई?"

"नहीं! ये तो नहीं बोला पर तुम दोनों प्यार में थे ना, और वो तुम्हारे लिए यहां आया था तो मैं समझी अब तक तो शादी भी हो गई होगी।"

"नहीं प्रिया! ऐसा कैसे हो सकता है? हां हम प्यार में थे शादी भी प्लान कर ली थी लेकिन अचानक उसने इनकार कर दिया और बोला कि सच्चा प्यार वो तुमसे ही करता है।"

"ये क्या बकवास है? ऐसा कुछ भी नहीं है सृष्टि! अगर कुछ होता तो वो मुझसे ज़रूर कहता वो बहुत ही फास्ट फारवर्ड और स्ट्रेट बंदा है,मैं बचपन से जानती हूं उसे।"

"तो फिर उसने झूठ क्यूं बोला?"

"पता नहीं।"

"ख़ैर वो कहां है अब?"

मैंने चिंता में उससे पूछा।

"वो तो तब ही चला गया था वापस अपने शहर।"

"क्या?"

मैंने फिर हैरानी से उसे देखा।

उसकी बातों से मेरे ज़हन में एक के बाद एक बम फटते जा रहे थे।

"हां! बोला था वहीं रहेगा तुम्हारे साथ हमेशा के लिए।"

उसके लहजे में उदासी थी।

"ये कैसे हो सकता है सृष्टि! वो वहां है ही नहीं। मेरी रोज़ बात होती है इंदु से।

मेरा मतलब उसकी दीदी से, उसने तो घर में भी दो तीन महीनों से बात नहीं की।"

"प्रिया! अगर रोहन वहां नहीं है तो वो है कहां?"

"पता नहीं यार! मेरे दिमाग़ में बिजलियां कौंधने लगीं हैं अब, समझ नहीं आ रहा क्या करूँ।

एक काम करो, तुम यहां अपना नंबर मेंशन कर दो और ये मेरा कार्ड भी रखो,मैं देखती हूं। जैसे ही मुझे कुछ इंफॉर्मेशन मिलती है मैं बताती हूं तुम्हें।"

"ठीक है!"

उसने नंबर दिया और हमने विदा ली।

अब मुझे ज़रा भी चैन नहीं पड़ रहा था। जैसे तैसे घर पहुंची और दोस्तों को फ़ोन मिलाना शुरू कर दिया, सब का बस एक ही जवाब कि वो वहां नहीं है।

अब मेरी नींद उड़ चुकी थी।

"रोहन ने मुझसे झूठ क्यों कहा?

आख़िर बग़ैर बताए कैसे गायब हो सकता है?

और फिर इतने दिन तक फ़ैमिली से भी कोई कॉन्टैक्ट नहीं, वो कैसे इतना ग़ैर ज़िम्मेदार हो सकता है?"

ऐसे कितने ही सवालों का बवंडर मेरे दिमाग़ में चल रहा था।

ढाई महीने इसी खोज में गुज़र गए।

एक दिन अचानक मुझे उसकी ट्रेन में कही हुई वो बात याद आ गई। "चलता हूं प्रिया ज़िन्दगी रही तो दोबारा मिलेंगे"

"उसने ऐसा क्यों कहा? कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया।"

मैं चिंता में डूब गई। इसी कारण रोज़ किसी ना किसी हॉस्पिटल से कॉन्टेक्ट करके पता करती उसके बारे में।

अब तो ये मेरा रोज़ का काम हो गया था।

करीब पांच महीने बाद एक दिन सिटी हॉस्पिटल से मेरे पास कॉल आई । इमर्जेंसी केस था ऑपरेशन का। मैं वहां पहुंची और ऑपरेशन करके जैसे ही लॉन से गुजरते हुए बाहर निकली कि मेरी नज़र जनरल वार्ड में तेज़ आवाज़ से कराहते हुए एक शख़्स पे पड़ी।

आवाज़ पहचानते ही मैं उसकी तरफ़ बढ़ी।

"रोहन!"

मैंने हैरानी उसका कंधा अपनी तरफ़ मोड़ते हुए कहा।

"कौन है भाई?"

वो मुड़ते हुए बोला।

"अरे प्रिया! तुम यहां?

वो बेसाख्ता मुझसे लिपट गया और आसूंओं का सैलाब उसकी आंखों से निकल पड़ा।

एक बच्चे की तरह उसने मेरे गले में बाहें डाल रखी थीं, वो रोता रहा और मैं प्यार से उसकी पीठ थपथपाती रही।

"बस कर रोहन! सब हमें ही देख रहे हैं। कितना रोएगा?"

"मुझे रो लेने दो प्रिया! आज महीनों बाद किसी अपने के कंधों का सहारा मिला है।"

"ओके! पर अभी बस कर बाक़ी घर चल के रो लेना?"

मैंने उसकी आंखों से आँसू पोछते हुए दिलासा दिया।

"अब ये बताओ तुम यहां क्यों और कैसे?

क्या हुआ तुम्हें? क्यों इतने समय से सबसे दूर हो?

तुम्हें अंदाज़ा भी है कि हम सब कितना परेशान थे तुम्हारे लिए?"

"प्रिया! पहले मुझे इस नरक से छुटकारा दिलवाओ फिर बताता हूं सब, इन लोगों ने कब से रखा हुआ है मुझे।"

"हां ज़रूर!अभी बात करके आती हूं मैं डॉक्टर से।"

"मैं भी चलता हूं साथ में।"

वो जल्दी से खड़ा हुआ लेकिन लड़खड़ा गया तो मैंने सहारा देकर उसे संभाला।

"ओके रोहन! तुम यहीं रुको,मैं अंदर डॉक्टर से बात करके आती हूं।"

मैंने उसे केबिन के बाहर बेंच पर बिठाया।

डॉक्टर के केबिन में पहुँचकर, उनसे बात करके उसकी केस फ़ाइल देखी तो मेरे होश उड़ गए, उसे बोन कैंसर था।

जिसे उसने सिगरेट की लत के कारण काफ़ी बिगाड़ लिया था।

मैं जैसे तैसे उसे डिस्चार्ज करवा कर अपने साथ ले आई।

रास्ते में मैंने कई बार उसकी मायूसी को महसूस किया।

"रोहन ! वैसे तुम्हें पता है कि तुम्हें क्या हुआ है?"

"हां, कैंसर है मुझे और ये भी पता है कि बहुत कम समय है मेरे पास इस जीवन का।

लेकिन मुझे ये नहीं पता कि हॉस्पिटल वाले मुझे इतने दिनों तक क्यों रखे थे?"

मैंने कोई जवाब ना दिया। घर पहुँचकर उसे गाड़ी से उतारा और उसे एक रूम में शिफ़्ट कर दिया।

"ओके रोहन! तुम अब थोड़ा आराम करो, मैं फ़्रेश होकर आती हूं तब तक, फिर हम आराम से बात करते हैं।"

मैं रूम से बाहर आ गई।    

मैंने उसे बताया नही। 

पर मैंने उसे एक स्लीपिंग पिल दी थी जिससे वो आराम से सो सकता था,अब वो सुबह ही उठने वाला था।


"गुड मॉर्निंग!"

अगली सुबह मैं रूम में घुसते हुए बोली।


"वेरी गुड मॉर्निंग! 

यार!तुम ने मुझे कौन सी मेडिसिन दी थी?

आज मैं काफ़ी दिनों बाद फ्रेश फील कर रहा हूं।"


वो बाथरूम से निकलते हुए बोला।


"चलो अच्छी बात है तुम थोड़ा ठीक नज़र आ रहे हो। बाहर गार्डन में बैठकर बात करें?"


कहते हुए मैं उसके साथ गार्डन में आकर चेयर पर बैठ गई और चाय पीने लगी।


"तो ये सब कब और कैसे हुआ?

तुम्हारी ये हालत कैसे हुई?

तुम तो यहां जॉब और सृष्टि के लिए आए थे।"


"हां... प्रिया ये सच है कि मैं सृष्टि के लिए आया था 

लेकिन भगवान को कुछ और ही मंज़ूर था।

जॉब के कुछ समय बाद एक छोटा सा एक्सीडेंट हो गया था,जो बाद में मेरे जीवन का सबसे बड़ा एक्सीडेंट साबित हुआ।"

वो उदास होते हुए आगे बोला


"उस एक्सीडेंट में मेरे बाएं पैर की एड़ी में चोट आई ,मैंने लापरवाही में ध्यान नहीं दिया ये सोचकर कि छोटी सी चोट है सही हो जाएगी।

लेकिन वही चोट बाद में मेरे लिए बोन कैंसर का कारण बन गई।

मेरे तो होश उड़ गए,मुझे कुछ समझ नही आ रहा था...

मैं सबसे दूर रहने लगा।

चिड़चिड़ेपन के कारण सृष्टि से भी झगड़े शुरू हो गए।"


वो कुछ समय चुप रहा फिर नज़रें झुकाते हुए बोला


"फिर एक दिन मैंने ये कह कर उससे दूरी बना ली कि सच्चा प्यार मैं तुमसे करता हूं और तुम्हारे पास वापस जा रहा हूं।"


"ये झूठ तुमने क्यों बोला रोहन?

तुम्हें उसे सच बता देना चाहिए था.."


"प्रिया!

मैंने कई बार प्रयास किया उसे बताने का पर सच बताने की उससे हिम्मत ही नही पड़ी।"


"हम्म... यानि जब ट्रेन में हमारी मुलाक़ात हुई थी तब तुम वहां से झूठ बोलकर दुबारा वापस यहां आए थे?"

मैंने सोचते हुए कहा।


"हां... डॉक्टर ने बोला जल्द इलाज शुरू करना होगा इसीलिए एक बार घर वालों से मिलने गया था।"


"तो ट्रेन पे ही तुमने मुझे ये सब क्यों नहीं बताया...?

मैं कुछ न कुछ हल ज़रूर निकलती रोहन।"


"बताना तो चाहता था लेकिन तुम्हारा इतने साल का गुस्सा देखकर मैं चुप रहा।"


"हम्म! सॉरी!

तो...उसके बाद तुम्हारा इलाज शुरू हुआ राइट?

तो इतने दिन तुम वहां सरकारी हॉस्पिटल में एडमिट क्यों रहे?"


"बीमारी की वजह से सारे पैसे ख़त्म होते गए,जहां रहता था वहां का किराया चढ़ने लगा था इसीलिए मैंने उसने कहा किसी सरकारी हॉस्पिटल में मुझे रेफर कर दें।"


"ओके तो तुम वापस घर चले जाते...या एक बार तो आकर मुझसे मिलते,तुम्हें तो पता था न मेरा ऐड्रेस?"


"कैसे जाता प्रिया? मां की इतनी सारी आशाएं मुझसे जुड़ी थीं,अगर उन्हें पता चल जाता तो तुम समझ सकती हो उनका क्या हाल होता...और तुम्हारे पास आने की मैं हिम्मत नहीं जुटा पाया।"


वो चुप हो गया, मैंने भी अपनी चाय ख़त्म की और फिर एकदम से वो बोला


"पिछले कुछ दिनों में मैंने बहुत सोचा...

तब मुझे एहसास हुआ कि मुझे उन बच्चों की बद्दुआएं लगी हैं प्रिया!

मैंने बहुत बड़ा पाप किया है संस्था से संबंध तोड़कर...

मेरे कारण उनका भविष्य खतरे में पड़ गया...

इसी कारण मेरे साथ ऐसा हुआ।"


उसकी आंखों से आंसू बह निकले

मुझसे रहा ना गया मैं उठी और उसके क़रीब जाकर ढांढस बंधाई


"बस कर रोहन!ये क्या फालतू की बातें सोच-सोचकर अपने आपको और दुख दोगे तुम?"


वो चुप हुआ और थोड़ी देर बाद पूछा


"वैसे...तुम्हें मेरा पता कैसे मिला?"


"संयोग से!

...सृष्टि मिली थी मुझे उसी ने बताया....।"

मैंने सारी घटना उसे बताई और उससे कहा


"रोहन! मैंने तुम्हारी केस फ़ाइल पढ़ी, गुंजाईश है...

मैं अपनी पूरी कोशिश करूंगी!"


"मुझे झूठी आशा मत दिलाओ प्रिया!

मुझे पता है कि मैं अब कुछ ही समय का मेहमान हूं..."


"कैसी बातें करता है रोहन??

ऐसा कुछ नही है...

जीवन और मृत्यु तो ऊपर वाले के हाथ में है..।

मगर कोशिश तो हमे करनी चाहिए न....

तू चिंता मत कर...बस अब जबतक तू ठीक नहीं हो जाता,यहां से जायेगा नही...।"


मैंने उसे ढांढस बंधाई और हॉस्पिटल के लिए तैयार होने चली गई।


सब कुछ पता करने के बाद मैंने अपने ही हॉस्पिटल में उसका इलाज शुरू करवा दिया।


कुछ समय बाद उस सिस्ट में पस पड़ गया।

दवाओं ने काम करना बंद कर दिया था, सो अब उसे ऑपरेट करना ही एक मात्र इलाज था।

आज इसी के कारण दर्द उठने पे वो यहां आया था।

तभी डोर नॉक होने पर मेरा ध्यान टूटा और मैं अपने बीते दिनों से बाहर आई,और घड़ी में टाइम देखा,

रात हो गई थी।


"क्या बात है मिष्टी! तुम अभी तक यहीं हो गईं नही घर?"

मैंने आँखें मलते हुए उससे पूछा।


"मैडम! आप ने ही कहा था अपने पेशेंट का ख्याल रखने को तो मैं उसी में व्यस्त थी अभी कुछ देर पहले ही गया वो,यही बताने मैं यहां आई थी।"


"ओह हां! ओके! 

चलो मैं चलती हूं,साथ में तुम्हें भी छोड़ दूंगी...।"


मैंने सामान समेटा और कार में बैठ गई।


"एक बात पूछूं मैडम?"


"हां हां! क्यों नहीं..."


"हालाकि हॉस्पिटल में हर पेशेंट के साथ आपके अच्छे संबंध हैं,लेकिन इसके साथ इतना अटैचमेंट क्यों?"


"हाहहा...अरे मिष्टी!

क्योंकि वो मेरा बचपन का दोस्त है।"


"क्या?? 

सच्ची?"

उसने हैरानी से मुझे देखा।


"हां"


"कहीं वही दोस्त तो नहीं जिसके कारण आप इतने दिनों तक परेशान थीं?"


"हां मिष्टी! ये वही है,अभी कुछ समय पहले ही मुझे बांद्रा के सिटी हॉस्पिटल में मिला।"


"हे भगवान! फर्स्ट स्टेज में ही इसकी इतनी गंभीर हालत कैसे हो गई?"


"मिष्टी!

इसी बात का तो पता मुझे लगाना है,

और साथ-साथ उसे भी बचाना है।"


"हॉस्पिटल में तो और भी नर्सेज है आपने उनसे क्यूं नहीं कहा?"


"यार!जब से मैं यहां हूं तुमसे ही सबसे ज़्यादा इंटरैक्ट हूं,बस इसी कारण..."


"वैसे मैडम! आपका दोस्त हैं बड़ा नटखट...

पता है आपको? 

जब भी मैं उसे दवा देने जाती हूं,मुझे छेड़ते हुए कहता है


"मिष्टी! तुम्हारा नाम तो मिष्टी है तो तुम मुझे दवाएं इतनी कड़वी क्यों देती हो?"


उसने बताया तो मैं ज़ोर से हँसी


"अरे मिष्टी!

कुछ समय और रुकोगी तो तुम भी उससे अटैच हो जाओगी,

मेरा दोस्त है ही ऐसा कि जो भी उससे एक बार मिलता है उसका फ़ैन हो जाता है।

...और मेरा दोस्त मजाकिया ज़रूर है,पर दिल का बहुत अच्छा है।"


मैं मुस्कुराई और गाड़ी रोक दी।


उसका घर आ गया और उसे छोड़कर मैं वापस अपने घर आ गई।


नौकर से उसका हालचाल पूछा और खाना खाकर अपने रूम वापस आ गई।


हमेशा की तरह लैपटॉप खोलकर वो मेल चेक करने लगी जो मैंने रोहन के केस के लिए भेजी थीं।


दिन बीतते जा रहे थे और उसका इलाज उसी तरह चलता रहा।


कुछ समय बाद एक दिन नर्स मेरे पास आई


"मैम! ये रोहन द्रिवेदी की प्रोग्रेस फ़ाइल,आप ने मंगाई थी।"

नर्स बोली और रखकर चली गई।


उसे पढ़ते ही मेरी आंखों की चमक बढ़ गई,उसमे काफ़ी इंप्रूवमेंट था।

जैसा मैंने सोचा था,उसने अपनी सिगरेट की लत पे काबू पा लिया था।

ये उसी का रिज़ल्ट था,बस सिस्ट ही रह गई थी जिसे निकालना बहुत ज़रूरी था।


मैं जब घर वापस आई तो देखा वो गार्डेन में बैठा किताब मुंह पे रखे सो रहा था।


"रोहन! देखो मेरे साथ कौन आया है...."

मैंने धीरे से उसके कंधे पे हाथ रखा और उसने चौंककर देखा।

"सृष्टि???

तुम यहां...??"


"हां...तुमसे मिलने आई है...तुम लोग बात करो मैं अभी आती हूं...।" 


"अरे नहीं प्रिया तुम्हें जाने की कोई ज़रूरत नहीं... तुम हमारे साथ बैठो प्लीज़।"


"ओके! मैं सामान रखकर आती हूं।"


मैं सामान रखकर वापस आई। वो रोहन से बात कर रही थी।


"अब कैसे हो रोहन?"


"पहले से बेटर हूं...तुम कैसी हो?"


"अच्छी हूं...!"


"और??...

पति और बच्चे वगैरह?"


"हम्म...वो भी ठीक हैं,बच्चे अभी नहीं हैं..."

फिर वो थोड़ा रुककर बोली


"ये तुमने क्या किया रोहन?

तुमने ये सब मुझे पहले ही क्यों नहीं बताया?

क्या तुम्हें मुझपर विश्वास नहीं था?

हम मिलकर कोई न कोई हल निकाल लेते कम से कम तुम्हारी ये हालत तो न होती..???"


"अब इन सब बातों का कोई मतलब नही सृष्टि!

भूल जाओ.. उस समय जो मुझे सही लगा मैंने किया।"


"कुछ ठीक नहीं किया तुमने...

तुमने इंट्रोवर्ट होने के चक्कर में सब गड़बड़ कर दिया....

वो तो शुक्र है भगवान का कि प्रिया ने सही समय पर आकर तुम्हें गर्त में जाने से बचा लिया।"


"हां सृष्टि! इसने सही मायने में अपनी दोस्ती निभाई है...मैं हमेशा प्रिया का कर्जदार रहूंगा...।"


"कैसी बात करते हो रोहन? ऐसा कुछ नहीं है... मैं सिर्फ़ अपनी ड्यूटी कर रही हूं।"

मैंने उसे टोका।


"हम्म..प्रिया ने मुझे बताया...

तुम जल्द ही ठीक हो जाओगे।"


सृष्टि थोड़ा रुककर बोली


मैं तुम्हें किसी से...मेरा मतलब अपने पति से मिलवाना चाहती हूं।"


"क्या?

उसे मेरे बारे में पता है?

वो हैरान हुआ


"हां...मैंने पहली ही मीटिंग में उसे हमारे बारे में बता दिया था।"


कहकर सृष्टि ने मोबाइल पर नंबर मिलाया।

थोड़ी देर में वो अंदर आया।


"ये यश हैं रोहन!

मेरे पति और बहुत ही अच्छे इंसान।"


"क्या बात करती हो यार!अब मैं इतना भी अच्छा नहीं..."


यश ने ठहाका लगाया और जोशीले अंदाज़ में उससे हाथ मिलाया


"हे चैंप! कैसे हो?"


"बेटर हूं!"

वो मुस्कुराया।


"तुम्हें अब टेंशन लेने की कोई ज़रूरत नहीं,अब इस जंग में हम सब तुम्हारे साथ हैं।"


"थैंक्स!"

वो बोला



"यश एक बिजनेसमैन हैं और साथ-साथ एक एनजीओ भी चलाते हैं।"

सृष्टि ने बताया।


"नाइस मीटिंग यू यश!"


"चलो फिर मुलाक़ात होती है... बाय!"

वो लोग चले गए।


उनके जाने के बाद मैंने रोहन को उसके इंप्रूवमेंट के बारे में बताया जिसे जानने के बाद उसके चेहरे पे थोड़ी खुशी नज़र आ रही थी।


एक दिन जब वो नॉर्मल दिखा तो मैंने उससे बात की


"रोहन!

मैंने तुम्हें बताया नहीं...

लेकिन मैने तुम्हारी रिपोर्ट्स यूएसए के कैंसर हॉस्पिटल को मेल की थीं...

दो दिन पहले उनका रिवर्ट मेल आया है...

उनसे बात हुई मेरी....

उन्होंने बताया कि अब ऑपरेशन हो सकता है

60%चांसेज हैं तुम ठीक हो जाओगे।

मैंने उनसे नेक्स्ट मंथ की डेट ले ली है...

सारे अरेंजमेंट भी कर लिए...

बस तुम रेडी रहो...हम अगले हफ़्ते निकलेंगे।"


"ऑपरेशन तो यहां भी हो सकता है,वहां जाने की क्या ज़रूरत?"


"हां...पर मैं अब और रिस्क नही ले सकती।"


"क्यों?"


"इसका कारण मैं तुम्हे बाद में बताती हूं।"


"तुम मेरे लिए इतना क्यों कर रही हो प्रिया?

वो उदास हुआ


"ऑलरेडी तुम मुझ पर इतने एहसान कर चुकी हो...मैं...मैं कैसे तुम्हारे एहसान उतार पाऊंगा??"


वो मायूस हो गया। 


"हम्म्म....! मैं ये सब क्यों कर रही हूं...??


मैंने एक बार उसे देखा और वहीं घूमकर कार्पेट पे सोफे से टेक लगाकर बैठ गई


"...क्योंकि मॉम-डैड के अलावा एक तू ही मेरे लिए सबसे ज़्यादा मायने है।

मैं सिर्फ़ तुझे ही जानती हूं।

केवल तुझे...

मेरा वो बचपन का दोस्त जिसके साथ मैने पूरा बचपन गुज़ारा,

वो दोस्त जिसने मुझे मानवता, त्याग और बलिदान का पाठ पढ़ाया और मेरा लक्ष्य प्राप्त करने में मुझे आगे बढ़ने का प्रोत्साहन दिया."


मेरा हलक सूखा तो मैंने थोड़ा रुककर बात आगे बढ़ाई


....और वो दोस्त जिसने जवानी में क़दम रखते ही मुझे....मुझे वासना के भंवर में बहकने से बचाया।

मैंने शर्मिंदगी से सिर झुकाया


"प्रिया उसे भूल जाओ!

वो सब तुमने नादानी में किया था, उम्र ही ऐसी थी तुम्हारी...।"


"उम्र तो तुम्हारी भी वही थी मगर तुमने रोक लिया अपने आपको।


...रोहन!सच तो ये है कि नादानी में नही बल्कि रईसी के नशे में किया था,उस समय वासना इतनी ज़्यादा हावी हो गई थी कि मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था।

मैं अभी तक उस घटना पे शर्मिंदा हूं जब मेडिकल कॉलेज में ग़लत संगत के कारण अपनी उन सो कॉल्ड फ्रेंड्स के उकसाने पर मुझ पर वासना का भूत हावी हुआ तो मैंने धोखे से पार्टी में बुलाने के बाद मौक़ा पाकर नशे में धुत होकर तुम्हें मोलेस्ट करने की कोशिश की।


...कोई और होता तो वो तो टूट ही जाता लेकिन तुमने जिस तरह से अपने आप को संभालते हुए मेरी पवित्रता को तार-तार होने से बचाया,मुझे मॉम डैड और समाज के सामने शर्मिंदा होने से बचाया,

उसने तो मेरा जीवन ही बदल दिया।"


"देखो प्रिया!

पवित्रता में ही प्रेम वास करता है, ना कि वासना में!

और मेरा मानना है हमें अपना शरीर उसी को सौंपना चाहिए जिसके साथ हमारा जीवन जुड़ा हो न कि वासना।"


"हम्म! तुम्हारे इन्ही विचारों ने तो मेरे जीवन को नई दिशा दी।

तो बस...ये सब तो तेरे उन एहसानों के बदले कुछ भी नहीं।"


मैंने उसका हाथ थपथपाया और उठी


"चलो गुड नाईट! सुबह मिलते हैं।"


मैं उसे छोड़कर अपने रूम आ गई।



अगले दिन सुबह-सुबह मिष्टी आ गई।


उसे देखकर तो मैं हैरान रह गई,वो पहली बार इस तरह मेरे घर आई थी।


"मिष्टी! तुमने तो मुझे सरप्राइज़ ही दे दिया

....इतनी सुबह-सुबह यहां कैसे?"


मैंने उसे गले से लगाया।


"मैडम!मुझे पता चला कि आप अपने पेशेंट के साथ अमेरिका जाने वाली हैं तो आ गई आप से मिलने।"


"हाहाहा...इसका मतलब तुम मुझसे नहीं, रोहन से मिलने आई हो।"

 

मैंने उसकी चोरी पकड़ ली,वो थोड़ा लज्जाई।


"हाय मिस्टर द्रिवेदी!"


"अरे मिष्टी?

यहां कैसे?"


"पता चला अमेरिका जा रहे तो बस...आ गई आपको शुभकामनाएं देने। 


वो मुस्कुराई।


"तुम लोग बैठो,मैं ज़रा फ्रेश होकर आती हूं।"


मैं उन्हें छोड़कर चली गई।

जब फ्रेश होकर,नाश्ता लेकर आई तो देखा दोनों बातों में मगन थे और रोहन की किसी बात पर वो ठहाका मारकर हँस रही थी।


मुझे समझते देर न लगी।

रोहन के व्यक्तित्व का जादू उस पर चल चुका था।


मैंने नाश्ता सामने रखा और मुस्कुराई


"मैडम! प्लीज़ आप रोहन को बोलें न कि आज शाम दुर्गा पूजा में मेरे साथ चले।"


"मिष्टी!तुम्हारी ज़िद के आगे तो भगवान भी झुक जाए तो रोहन क्या चीज़ है...तो तुम कोशिश जारी रखो,

वो ज़रूर मानेगा!"


मैंने ज़ोरदार ठहाका लगाया तो रोहन शर्मा गया।

मिष्टी की हठ के आगे फाइनली वो मान गया और शाम को तैयार होकर उसके साथ चला गया।


देर रात जब वो वापस आया तो उसे देखते ही मेरे मुंह से हँसी छूट गई।


"रोहन!तेरे कपड़ों का ये हाल कैसे हो गया?"


"पूछो मत प्रिया! इन औरतों के सिंदूर खेला ने मुझे पहचानने लायक़ नहीं छोड़ा।"


वो कुर्ता पूछते हुए मुस्कुराया


"चलो इस बहाने तुम्हारा मन तो बहला।"


"हां...मिष्टी ने अपनी फैमिली से भी मिलाया मुझे,

उसकी मॉम और छोटा भाई।

उन्हें देखकर मुझे मेरी मां और इंदु दी की याद आ गई।"


कहते ही वो उदास हो गया।

मैंने दिलासा देकर उसे संभालने की कोशिश की और उसे गुड नाईट कहकर अपने रूम में वापस आ गई।


दूसरे दिन रात को जब मैं घर वापस आई तो वो वहां नही था। मैं ये सोचकर अपने रूम में फ्रेश होने चली गई कि वो अपने रूम में होगा लेकिन जब खाने के लिए नीचे आई तो देखा वो ख़ुद ही डायनिंग टेबल पे खाना लगा रहा था।


"आइए मैडम! 

खाना तैयार है।"


उसने कहा तो मेरी हँसी छूट गई


"यार खाने के लिए सरिता है तो आज तुम शेफ कैसे बन गए?"


"बस बैठे बैठे बोर हो रहा था तो मैंने सोचा आज अपनी परम पूज्य घनिष्ट मित्र के लिए स्वयं रात्रि भोज प्रबंध कर दूं...।"


वो मुस्कुराया तो मेरी हँसी छूट गई


"हाहाहाहाहा....! 

रोहन! आई लव योर हिंदी।

इतनी शुद्ध हिंदी तो मुझे भी नहीं आती।"


"हां मुझे पता है..ये कला केवल मुझमें है!"


उसने मुस्कान बिखेरी और बैठ गया।

खाने के बाद वो उठकर वहीं चेयर पे बैठ गया और मैंने सामान समेटा और उसे गुड नाईट कहकर वापस अपने रूम में जाने लगी तभी उसने आवाज़ दी


"प्रिया! इधर आओ!

ज़रा बैठो मेरे पास।"


उसने मेरा हाथ पकड़कर पीछे से घुमाते हुए मुझे आगे किया।


"जब से मैं तुम्हें मिला हूं तुम केवल मुझमें ही लगी हुई हो,मेरे बारे में ही सब जाना हैं।

अपने बारे में तुमने बात ही नहीं की,अपने बारे में तो मुझे अभी तक कुछ बताया ही नहीं....???"


"तुम्हें क्या जानना है मेरे बारे में सब तो तुम जानते हो।"


मैं वहीं बैठ गई और उसके घुटने पे हाथ रखकर भौं चढ़ाते हुए कहा।



"सब जानता हूं लेकिन मुझे ये जानना है कि इतने समय क्या किया तुमने?

क्या इंसिडेंस हुए वगैराह-वगैराह??"


मैं समझ गई वो क्या जानना चाहता था फिर भी मैंने टालने की कोशिश की


"हम्म्म...बस वही रूटीन!

जब से मुंबई आई बस घर से हॉस्पिटल और हॉस्पिटल से घर।

छुट्टियों में मॉम डैड के पास चली जाती थी।"



"प्रिया! तुम्हें अच्छे से पता है मैं किस बारे में बात कर रहा हूं...बात को टालो मत,

बताओ मुझे! 

शादी क्यों नहीं की?

क्या कोई अब तक नहीं मिला???"


कोई फ़ायदा नहीं हुआ टालने का,आख़िर उसने जानने का ठान ही लिया।

मैं वापस सोफे पर बैठ गई।


"हम्म्म...हां मिला तो मगर बात नहीं बनी,मैंने ऐन सगाई के समय इनकार कर दिया।"


"क्या??

लेकिन क्यों? क्या वो....??"


"अरे! नहीं नहीं!ऐसा कुछ नही था...बल्कि वो तो काफ़ी डिसेंट बंदा था।"

मैंने बीच में ही बात काटी।


"मैं सिटी हॉस्पिटल में मिली थी उसे।

सीनियर था, अमेरिका से एक केस के सिलसिले में यहां आया था।

बस...वहीं हमारी मुलाकात हुई और तीन चार मीटिंग के बाद बस शादी का फ़ैसला कर लिया।



लेकिन सगाई के एक दिन पहले मैंने इनकार कर दिया और वो वापस चला गया।"


"लेकिन क्यों??"


"वजह मत पूछो रोहन...बस मैंने इनकार कर दिया।

मुझे पता है मैंने उसे बिना कारण बताए इनकार कर के दुख पहुंचाया है,पर क्या करूं?

मेरा दिल नही माना।"


"क्या तुम उसे प्यार नहीं करती थीं?"


"नहीं! ऐसी बात भी नहीं रोहन!उसके साथ गुज़ारे गए पल मेरे जीवन के सबसे अच्छे पलों में से एक हैं।"


"तो फिर रिजेक्शन का क्या कारण था बताओ मुझे?"


उसने गंभीर लहजे में पूछा तो मैंने निगाहें नीची कर लीं



क्योंकि... क्योंकि मैं अब तुमसे शादी करना चाहती हूं....।"


मैंने गर्दन झुकाकर तिरछी नज़रों से उसे देखते हुए अपनी बात कही।


"क्या???

प्रिया तुम पागल हो??"


वो गुस्से से तिलमिलाया।


"तुम्हारा दिमाग तो ठिकाने पर है प्रिया?

तुम्हें अच्छी तरह पता है कि हमारे रिश्ते में ऐसी कोई भावना नहीं है।"


"हां...!पता है,

....लेकिन जिस दिन तुम मुझे वापस मिले तो मैं प्यार व्यार सब भूल गई,

... सगाई के लिए जब बार बार फ़ोन आ रहा था तो उस समय मैं तुम्हारे साथ थी,

तुम जिस दशा में थे,मुझे बस एक ही बात समझ आ रही थी कि मुझे मेरे दोस्त को बचाना है।

बस...मैंने इरिटेशन में आकर इनकार कर दिया।"


मैंने अपनी बात ख़त्म की।


"ये तुमने क्या किया प्रिया?

एक डॉक्टर होकर इतनी बड़ी मूर्खता...?"


"कोई मूर्खता नहीं,जो हो गया सो हो गया।

बीता समय लौटकर वापस आ नहीं सकता इसीलिए अब जो है हमें उसे ही देखना है।


मेरे लिए मेरा दोस्त ही काफ़ी है,अब जब तक वो है,मुझे तो बस उसी के साथ अपनी पूरी लाइफ़ गुज़ारनी है।"


मैं उसके पास आकर वापस बैठ गई।


"ये तुमने सही नही किया प्रिया!

तुम्हें दोस्ती और प्यार में अंतर पता होना चाहिए।"


"कोई अंतर नहीं मेरा दोस्त ही अब मेरा प्यार है।"


मैंने उसे हर तरह से मानने की कोशिश की पर वो नहीं माना।


"हरगिज़ नहीं! 

सच तो ये है कि तुम डॉक्टर ज़रूर बन गईं पर अंदर से अभी भी बहुत डरती हो,इसीलिए सोचती हो कि किसी दूसरे से संबंध जोड़ने से अच्छा है अपने दोस्त से ही विवाह कर लूं,जिसे मैं बचपन से जानती हूं।

मैं सच कह रहा हूं न?"


मैंने गर्दन झुकाए और हां में सिर हिलाया।


"...तुम अपने कंफ़र्ट जो़न से बाहर निकलो प्रिया!

अगर हमारे बीच प्रेम जैसी कोई भावना होती तो उस घटना के बाद हमें फील होता।


बताओ मुझे क्या तुम्हें वैसा अनुभव हुआ?"


मैंने ना में सिर हिलाया क्योंकि मुझे पता था अगर झूठ बोलती तो भी उसे पकड़ ही लेना था।


"बिल्कुल.. हम नॉर्मल ही रहे,वैसे ही जैसे पहले थे।

वैसी फीलिंग मुझे सृष्टि से मिलने पर हुई...


और तुम्हें शायद उससे मिलने पर...???

तुम तो डॉक्टर हो तो इस बात को भली भांति समझ सकती हो...।"


मैं कुछ सोचकर वहां से उठी।


"हां...शायद तुम ठीक कह रहे हो

लेकिन हमारे बीच वैसा कुछ हुआ नहीं जो तुम समझ रहे हो।"


"मैंने प्रेम भावना की बात की है प्रिया!"


"और... मैंने अनुभूति की।"

मैंने अपने निचले होंठ काटते हुए उसकी चुटकी ली


"तो तुम्हें क्या लगता है मेरे और सृष्टि के बीच ऐसा कुछ हुआ होगा...?"


"नहीं...क्योंकि अगर ऐसा कुछ हुआ होता तो वो अपने पति को दुबारा तुमसे कभी नहीं मिलवाती।"


मैं एक आंख मारकर मुस्कुराई



"आप धन्य हैं देवी! आपके चरण कहां हैं...मुझे स्पर्श लेना है...!"


वो जैसे ही मेरे पैर छूने के लिए झुका मैं पीछे हुई। मैने हँसकर उसे गुड नाईट कहा और वापस अपने रूम में आ गई।

हम अमेरिका जाने की तैयारी कर रहे थे मगर वो उदास था।

यूएसए जाने से दो दिन पहले मैंने उसे एक और सरप्राइज़ दिया।


"रोहन!"


"इंदु दी?....कुमार जीजू?"


"कैसे हो साले साहब?

तुमने तो हम सबको भुला ही दिया..."


वो उसे गले लगाते हुए बोले


"ठीक हूं अब,आप लोग यहां कैसे?

और मां कैसी है?"


"मां भी अच्छी है...ये रहीं।"

मैंने मां को लेकर उसके सामने खड़ा कर दिया।

वो बदहवासी से उनके गले लगकर रोने लगा।


"मुझे क्षमा कर देना मां...इस आयु में जब मुझे तुम्हारा सहारा बनना चाहिए था तब मैं तुमसे दूर रहा।"

वो उनके घुटनों पर सर रखकर बैठ गया।


"इसमें तो तेरा कोई दोष ही नहीं मेरे बच्चे!

बस तू ऐसी हालत में घर वापस ना आया इसका मुझे अफ़सोस है ...आख़िर! अपना घर अपना परिवार तो अपना ही होता है ना।" 

वो उसके सर पे हाथ फेरते हुए बोलीं।


"देखा रोहन! बीमारी के कारण जिस परिवार,जिन रिश्तों से तुम भाग रहे थे वो सब आख़िर में तुम्हारे पास आ ही गए...साथ साथ वो भी जिनके बारे में तुमने कल्पना भी नहीं की थी।

देखो कितने लोग आज तुम्हारे साथ खड़े हैं..।"


मैंने उसको समझाया।


"सही कहा तुमने प्रिया!

थैंक्स! तुमने मुझे मेरे परिवार से मिलाया...

मैं बहुत लकी हूं जो मुझे तुम जैसी दोस्त मिली।"


"वेलकम! अब तो खुश हो?"


वो हां में सर हिलाकर मुस्कुराया।

दो दिन बाद हम अमेरिका के लिए निकल गए।

फ़्लाइट पे मौका पा कर मैंने उसे बताया

....तुम्हें पता है वहां सिटी हॉस्पिटल में तुम्हें बिना किसी कारण इतने दिनो तक क्यों रखा?

फर्स्ट स्टेज में ही तुम्हारी इतनी गंभीर हालत कैसे हो गई?"


"हां पता है?"

उसने बड़े संतोष के साथ कहा


"क्या??

कैसे?" मैंने हैरानी से उसे देखा


"मिष्टी ने मुझे बताया और मुझे इसका कोई दुख नहीं...

बल्कि खुशी थी कि मेरे शरीर का कोई अंग किसी को जीवन दे सकता था।"


"लेकिन उन्होंने जुर्म किया है,ये कानूनन अपराध है,उनको उनके किए की सज़ा मिलनी चाहिए।

... मैंने सारी कार्यवाही कर दी है।"


"मत करो प्लीज़.... मैं कोई केस फ़ाइल नहीं करना चाहता,मुझे जीवन के इन अंतिम क्षणों में शांति चाहिए...प्रतिशोध नहीं।"


वो अपने मुंह को रुमाल से ढांककर,लेट गया


"लेकिन रोहन!......"


"प्रिया प्लीज़! श.... शश!"


"ओके!"

मैं चुप हो गई और वो सो गया।


वहां पहुंचने के बाद फिक्स्ड डेट में उसका ऑपरेशन हो गया।


ऑपरेशन के बाद वो सही तो हो गया लेकिन उसके हाथ मे स्टिक आ गई हमेशा के लिए।


हमें 1 महीना हो गया था यहां रहते। एक दिन नाश्ते के टाइम वो बोला


"कितना अजीब है ना प्रिया?

मैं अमेरिका आना चाहता था अपने करियर के लिए मगर समय ने मुझे किस हालात में यहां लाकर खड़ा कर दिया,

मैंने सोचा भी नहीं था कि इस परिस्थिति में कभी मेरा यहां आना होगा।"


"हम्म्म...तो? तुम तो अभी भी यहां रह सकते हो...

जितने दिन चाहो।"


"मतलब?"


"मतलब ये कि... मुझे शादी कर लो...

भगवान की कृपा से अब तो तुम ठीक भी हो गए।"


मैंने मुस्कुराकर कहा या फिर समझो एक लास्ट ट्राई किया


"देखो प्रिया! मुझे मेरे जीवन का उद्देश्य मिल गया है,मैंने फ़ैसला कर लिया है।

मैं वापस घर जाकर किसी अनाथाश्रम से जुड़कर, जब तक जीवन है उन बच्चों की सेवा करूंगा और अपने उस पाप का प्रायश्चित करूंगा....

अब यही मेरे इस नए जीवन का एकमात्र उद्देश्य है...!"


"तो क्या तुम अब कभी शादी नही करोगे?"


उसने सोचा और बोला


"हम्म्म....मिष्टी जैसी अगर कोई मिली तो ज़रूर करूंगा।"


वो हँसा।


"मिष्टी जैसी या फिर..मिष्टी??


मैंने उसे छेड़ा तो वो मुस्कुराया।


थोड़ी देर शांति छाई रही फिर मै उठी और उसके कंधे पे हाथ रखा


"ठीक है फिर,कब तक जाना है तुम्हें?"


"नेक्स्ट वीक ही निकल जाऊंगा...।


...बाक़ी रही तुम्हारी बात तो वेट करो कोई है जो तुम्हारे साथ अपनी लाइफ़ शेयर करना चाहता है..।"


उसने घड़ी देखते हुए कहा।

इससे पहले कि मैं उससे पूछती तभी बाहर डोर बेल बजी और उसने इशारा किया,

मैंने डोर खोला तो हैरान रह गई...


"आदित्य???

तुम???"


"सरप्राइज़! सरप्राइज़!"

रोहन मुस्कुराया


"अब अंदर आऊं या वापस चला जाऊं?"

आदित्य हँसा।


"ओह! सॉरी... प्लीज़ कम!"

मुझे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था।


रोहन! अपनी जगह से उठा


"तुम्हें क्या लगा? सिर्फ़ तुम ही दूसरों के सीक्रेट्स जान सकती हो?

अंकल से बात की थी मैंने।"


मुझे समझते देर न लगी...वो सब जान चुका था।


"ये...ये ग़लत बात है रोहन!...तुम डैड के पास क्यों गए?"


"अच्छा??

वो ग़लत बात नही थी जो तुमने बरसों पहले मेरे मोबाइल के साथ की थी,और अभी कुछ देर पहले मुझसे की थी?"


वो आंख मारते हुए आदित्य के साथ हँसा मैंने शर्म से नज़रें झुका लीं।


"तुम...कुछ लोगे?"


"भई लेने तो मैं यहां तुम्हें आया हूं पर इतनी दूर से आया हूं तो बस एक कॉफ़ी पिला दो..।"


मैं वहां से उठी और थोड़ी देर में कॉफ़ी लेकर वापस आई।


"प्रिया!तुम डॉक्टर होकर इतनी बड़ी दुविधा में कैसे फंस गई?

दोस्त-दोस्त होता है और प्यार तो केवल प्यार,

तुम मेरी दोस्ती के कारण अपने प्रेम को ठुकराने चली थीं पागल?"



उसने कहा तो मैं चुप हो गई।


"तुम्हारे सगाई से इनकार के बाद मैं यहां उसी समय वापस आ गया,अभी कुछ दिन पहले रोहन ने मुझे फ़ोन पर बताया कि तुम यहां हो तो मुझसे रहा नहीं गया...और मैं आ गया तुम से मिलने।"


आदित्य ने मेरे क़रीब आकर कहा और मेरा हाथ पकड़कर मेरे पास बैठ गया।


"देखो प्रिया! मैं कल भी राज़ी था और अब भी... प्लीज़ मान जाओ न।"


मैंने रोहन को देखा और हां में सर हिला दिया।


रोहन के चेहरे पे एक संतुष्टि थी।


दूसरे दिन मैंने उसका टिकट करा दिया और नेक्स्ट वीक उसे एअरपोर्ट छोड़ने आई,आदित्य भी हमारे साथ था।


आज पहली बार मैंने उसके चेहरे पे इतनी खुशी देखी,वो बहुत खुश था।


"ये पेपर्स हैं रोहन!

मुंबई वाले बंगले के जो अब तुम्हारा है।

तुम मां के साथ वहां शांति से जीवन बिता सकते हो।"


मैंने बैग से पेपर्स निकालकर उसे दिए


"नहीं प्रिया! मैं इन्हें नही ले सकता..."


"शशश...!"

मैंने उसे चुप रहने का इशारा किया और ज़बरदस्ती उसे पेपर्स पकड़ाए


"रखो इसे...

और वहां मिष्टी होगी,जब कभी भी ज़रूरत पड़े तो वो तुम्हारी हेल्प करेगी।"


"हाहा...मिष्टी जो मुझे कड़वी दवाऐं देती थी...

यार उसका नाम मिष्टी किसने रख दिया और अगर रखा भी तो नर्स क्यों बना दिया?"


उसने कहा तो मुझे हँसी आ गई


"हाहहा..ये बात तुम उसी से जाकर पता कर लेना।

और हां....अपनी इच्छा से तुम चाहो तो यश के एनजीओ में काम कर सकते हो जहां तुम्हें उन अनाथ बच्चों का साथ मिलेगा जिनका भविष्य संवारने की तुम्हें इच्छा है।"


"शुक्रिया प्रिया!"

उसने कहा तो मैंने उसे गले से लगाकर प्यार से उसकी पीठ थपथपाई।


"हमेशा खुश रहो।"


इतने में फ्लाइट का अनाउंसमेंट हुआ और वो चला गया।

मैंने हाथ हिलाती रही जब तक वो मेरी नज़रों से ओझल ना हो गया।


"अब चलें मैडम?

या फिर शादी यहीं एअरपोर्ट पर ही कर लें?"


"हां...ये इरादा भी बुरा नहीं है...!"


मैं हँसी और उसके बाहों में बाहें डालकर वहां से चल दी।

जैसे ही मैं एअरपोर्ट से निकली तभी मेरे मोबाइल की रिंग बजी 

मैसेज मिष्टी का था।


"मैडम! रोहन कहां है वो कब तक आयेगा?

उसका फ़ोन क्यों ऑफ़ है?

प्लीज़ उसे जल्दी यहां लेकर आइए,

मुझे उससे अपने दिल की बात कहनी है।"


मेसेज पढ़ते ही मेरे चेहरे पे ख़ुशी की लहर दौड़ गई।

रोहन अब मिष्टी को मना नहीं कर सकता था।


मैंने मिष्टी को फ़्लाइट की डिटेल और टाईम मैसेज किया और चश्मा लगाकर गाड़ी के शीशे से बाहर  नीले आसमान की ओर देखने लगी।



ये सही मायने में एक 'नई शुरुआत' थी,

रोहन के लिए भी और मेरे लिए भी।



'समाप्त'

सर्वाधिकार सुरक्षित


                             'अलीशा हैदरी '




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