Abhishek shukla

Drama

5.0  

Abhishek shukla

Drama

नारंगी रंग वाली चप्पल

नारंगी रंग वाली चप्पल

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आजकल ठंडक काफ़ी पड़ रही है।

एक दो दिन तापमान तो शिमला से भी कल रहा। इस ठंड में एक सुनी सड़क पर दूर तक पैदल चले जाने का मन होता है। एक अंधकारमय प्रकाश हो और उस प्रकाश में कोहरा साफ़ दिखाई दे। बस पैदल चलते जाने की इच्छा होती है। एक दिन पहले मेरी सबसे प्यारी चप्पल भी साथ छोड़ गई। व्यस्तता या आलस्य कहें नई चप्पल नहीं ले पाया। एक दो बार डॉ चाचा ने कहा भी पर हम आनाकानी कर गए। रामायण पूजन के उपलक्ष्य में दो दिन बाद घर जाना है, प्रयोजन का अवसर है तो चप्पलों की मार रहेगी इसलिए अपनी अपनी चप्पल साथ ले जाना तय हुआ।

इस बार चाचा हमें उठाकर ले ही गए। हम बाज़ार की तरफ़ पैदल चल पड़े। पैदल सड़क पर चलने की इच्छा तो पूरी हो गयी। मेरे पैरों की उंगलियां सर्द में सूज कर एकदम लाल हो जाती हैं जो कि हर सर्द में उसकी तरफ से मुझे मिलने वाली सौग़ात होती है और मैं भी पूरी सर्द उन्हें वैसे ही रखता हूं पर किसी के पैरों तले न आ जाएं इसलिए देखभाल भी करनी पड़ती है।

मैं रास्ते पर डॉ चाचा, कविता दीदी और रिशू से अपनी लाल छोटी उंगलियां बचाता चला जा रहा था। अब ख़रीददारी हो ही रही थी तो अम्मा के लिए भी चप्पलें ख़रीदना तय हुआ जो हमें कपूरथला वाले ख़ादिम्स के शोरूम से लेनी थी। पहली ख़रीद तो पूरी हो गयी। अपनी चप्पलों के हम साईं मंदिर के सामने वाली दुकानों में आ गए। मेरी सबसे प्यारी चप्पल भी यहीं से चाची ने चाचा के लिए ख़रीदा था वो मैं उनके कमरे से उठा लाया था।

मुझे एकदम वैसी ही चप्पल चाहिए थी। ख़रीददारी के मामले में अक्सर घर वाले मुझे साथ ले जाना पसंद नहीं करते क्योंकि फ़िर वो भी कुछ नहीं ख़रीद पाते। अभी दस दिन पहले जूते लिए थे जो मैं 2 महीने से लेना चाह रहा था और 3 4 बार ऑनलाइन ख़रीद कर वापस भी कर चुका था। फ़िलहाल चप्पलों पर आते हैं। अब तक दुकानदार हमें 20 से 25 चप्पलें दिखा चुका था। दो चप्पलें पसंद आई। सभी को । पर मुझे , मैं सही से नहीं कह सकता। कुछ 15 मिनट्स में हम 4 दुकानें बदल चुके थे और शायद डॉ चाचा अब तक नाराज भी हो चुके थे।

वो हमारे इस तरीके से अब तक परेशान भी हो चुके थे। जब तक ये तय हुआ कि पिछली दूकान से वही चप्पलें ले ली जाये जो सभी को पसंद आई थी, डॉ चाचा लंबे लंबे क़दम बढ़ा कर घर की ओर चल पड़े। हमारे 5-6 बार आवाज़ लगाने पर भी नहीं रुके और जल्दी ही घर पहुँच गए। कविता दीदी और रिशू का नहीं कह सकता पर मुझे बहुत बुरा लग रहा था। बुरा नहीं कहूंगा मुझे पछतावा हो रहा था। डॉ चाचा और मास्टर चाचा से मेरा लगाव कुछ अलग है जब मुझे लगता है ये लोग मेरी वज़ह से नाराज़ हैं तो एक अलग बेचैनी होती है। बाबूजी और छोटू चाचा बड़े जल्दी सामान्य हो जाते हैं या कह सकते हैं उनकी नाराजगी का असर किसी पर काम पड़ता है और राजू चाचा से तो सब बच के रहते हैं उन्हें नाराज़ होने का कम ही मौक़ा दिया जाता है। आज डॉ चाचा को देखकर मैं कुछ परेशान सा था। हालांकि उन्होंने छोटू चाचा को भेज कर दो चप्पलें मंगवा दी। इस बार मैं नहीं गया। रिशू चप्पलें लेके आया पर मैं लिखने में व्यस्त था, मैंने ध्यान नहीं दिया। मैं चाचा के उस चेहरे को बार बार याद किये जा रहा था। शायद वो सब कुछ सामान्य रहा हो पर मेरे लिए नहीं था। काश ! मैं समय को एक घंटे पीछे ले जा पाता तो मैं वही चप्पल ख़रीदता। बस वही नारंगी रंग वही। बस वही...........


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